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जीव इस लोकार्थके वास्ते सम्यग् दृष्टि देवत्तायोंका आराधन करेतो तिसकानी निषेध नही है, साधुनो सम्यग् दृष्टि देवताका आराधन स्तु ति जैनधर्मकी उन्नति तथा विघ्न दुर करने वास्ते करेतो निषेध नही. यह कथन पंचाशकादि शास्त्रोंमे है.
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प्र. १२६ - सर्व जीव अपने करे हुए कर्मका फल जोगते है, तो फेर देव ते क्या कर सक्ते है ? न —जैसें जैसें अशुभ निमित्तोकें मिले प्रशुन कर्मका फल उदय होता है, तैसे शुभ निमितोके मिलने से अशुभ कर्मोदय नष्ठन्नी हो जाताहै, इस बास्ते अशुभ कर्मा के नदयकों दुर क रनेमें देवतानी निमित्त है.
प्र. १२७ - जैनधर्मी अथवा अन्यमति देवते विना कारण किसीकों दुख दे सक्ते है के नही ?
उ.- जिस जीवके देवताके निमित्त - शुभ कर्मका उदय दोना है, तिसकों तो द्वेषादि
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