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कमाश्रमण नाम प्रसिह हुआ. तिस समयमें
जैन मतकै ५०० पांचसौ प्राचार्य विद्यमान थे, तिन सर्वमें देवगिणि कमाश्रमण युगप्रधान और मुख्याचार्य थे, वे एकदा समय श्री शत्रुजय ती. श्रमें वज स्वामिकी प्रतिष्टा हुइ. श्री शषनंदेवकी पितल मय प्रतिमाकों नमस्कार करके कपर्दि यहकी आराधना करते हुए; तब कपर्दि यह प्र. गट होके कहने लगा, हे नगवान, मेरे स्मरण करनेका क्या प्रयोजन है. तब देवगिणी क्षमाश्रमणजीने कहा, एक जिनशासनका कामहै, सो यहहै कि बार वर्षी उकालके गये, श्री स्कंधिलाचार्यने माथुरो वाचना करीहै; तोन्नो कालके प्र. नावसे साधुयोंकी मंद बुद्धिके होनेसे शास्त्र के. उसे भूलते जातेहै. कालांतरमें सर्व भूल जावेंगे. इस वास्ते तुम साहाय्य करो, जिस्से मै ताम पत्रो ऊपर सर्व पुस्तकोंका लेख करूं; जिससे जैन शास्त्रकी रक्षा होवे. जो मंदबुद्धिवालानी होवेगा सोनी पत्रों नपरि शास्त्राध्ययन कर सकेगा, तब देवतानें कहा मैं सानिध्य करुंगा, परंतु सर्व सा.
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