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परं सर्व शास्त्र नूलेतो नही थे; परंतु तिस कासमें इतनाही कंठ था, शेष अल्प बुद्धि के प्रनावसे पहिलाही नूल गया था, तिस स्कंधिलाचार्य के पीछे आम्मे पाट और श्री वीरसें ३२ में पाट देवर्द्धिगणि कमाश्रमण हुए, तिनका वृत्तांत ऐसें जैन ग्रंथोमें लिखा है. सोरठ देशमें वेलाकूलपत्तनमें अरिदमन नामे राजा, तिसका सेवक काश्यप गोत्रीय कामाई नाम क्षत्रिय, तिसको नार्या कलावती, तिनका पुत्र देवईिनामे, तिसने लोहित्य नामा आचार्यके पास दीक्षा ली. नी, ग्यारे अंग और पूर्व गत ज्ञान जितना अपने गुरुक आताथा, तितना पढ लिया, पीछे श्री पार्श्वनाथ अर्हतकी पट्टावलिमे प्रदेशी राजाका प्रतिबोधक श्री केशी गणधरके पट्ट परंपरायमें श्री देवगुप्त सूरिके पासों प्रथम पूर्व पठन करा, अर्थसें, दूसरे पूर्वका मूल पाठ पढते हुए श्री दे. वगुप्त सूरि काल कर गये, पोडे गुरुने अपने पट्ट ऊपर स्थापन करा. एक गुरुने गणि पद दीना, दूसरेने दमाश्रमण पद दोना, तब देवईिगणि
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