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१०४ जीवका शरीर अनुष्ण प्रकाशवाला होवे, सो न द्योत नामकर्म, चं मंगलवत् ६ए जिसके नदयसें जीवका शरीर अति नारी अति हलका न होवे, सो अगुरु लघु नामकर्म ७० जिसके नदयसें चतुर्विध संघ तीर्थ श्रापन करके तीर्थकर प. दवी लहे, सो तीर्थकर नामकर्म ७१ जिस कर्मके नदयसें जीवके शरीरमें हाथ, पग, पिंकी, साथ ल, पेट, गती, बाहु, गल, कान, नाक, होठ, दांत, मस्तक, केश, रोम शरीरकी नशांकी विचित्र र चना, आंख, मस्तक प्रमुखके पदें यथार्थ यथा योग्य अपने ५ स्थानमें नुत्पन्न करे होवे, संचयसे जैसें वस्तु बनतीहै तैसेही निर्माण कर्मके नुदयसे सर्व जीवांके शरीरोंमे रचना होती है, सो निर्माणकर्म ७२ जिसके नदयसे जीव अधिक तथा न्यून अपने शरीरके अवयव करके पीमा पामे, सो नपघात नामकर्म ७३ जिसके उदयसे जीव थावरपणा गेमो हलने चलनेकी लब्धि शक्ति पावे, सो त्रस नाम कर्म है ७४ जिस कर्मके नदयसें जीव सूक्ष्म शरीर गेमके बादर चकु ग्राह्य
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