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१५१ ज्य पशुयोके शरीरकी हड्डीयांकी रचना आंखके पमदे खोपरीके टुको नशा जालादि शरीरोंकी विचित्र रचना देखकें हेरान होतेहै, जब कुछ
आगा पोग नही सूफताहै, तब हार कर यह कह देतेहै, यह रचना ईश्वरके विना कौन कर सक्ता है; इस वास्ते ईश्वर कर्त्ता पुकारते है; परंतु ज गत् कर्त्ता माननेसे ईश्वरका सत्यानाश कर देते है, सो नही देखतेहै. काणी दयनी एक पासेकी ही वेतमायां खातीहै, परंतु हे नोले जीव जेकर तेने अष्ट कर्मके १४० एकसौ अमतालीस नेद जाने होते, तो अपने बिचारे ईश्वरकों काहेको जगत का रूप कलंक देके तिसके ईश्वरत्वकी हानी करता. क्योंकि जो जो कल्पना नोले लो कोने ईश्वरमें करी है, सो सो सर्व कर्मद्वारा सिद्ध होती है, तिन कर्माका स्वरूप संदेप मात्र यहां लिखते है, जेकर विशेष करके कर्म स्वरूप जाननेकी श्छा होवे तदा षट्कर्म ग्रंथ १ कर्म प्रकति प्राभृत २ पंचसंग्रह ३ शतक ४ प्रमुख ग्रंथ देख लेने, प्रथम जैनमतमें कर्म किसकों कहते
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