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चाहे परंतु मैने अपनी मनकल्पनासे नही लिखा है.
प्र. १ - पूर्वोक्त जातीयोंमेंसें एक जातीवाले दूसरी जाति वालोंसें अपनी जातिकों नत्तम मानते है और जाति गर्व करतेदै तिनकों क्या फल होवेगा.
न. - जो अपनी जातिकों उत्तम मानते है यह केवल अज्ञानसें रूढी चली हूइ मालम होती है क्योंके परस्पर विवाह पुत्र पुत्री का करना और एक नारों में एकडे जोमला और फेर अपने श्रापकों जंचा माननां यह अज्ञानता नहीतो दूसरी क्याहै. और जातिका गर्व करनेवाले जन्मांतर में नीच जाति पावेंगे यह फल होवेगा.
प्र. २० – सर्व जैन धर्म पालनवालीयों वैश्य जातियां एकठी मिल जायें और जात न्यात नाम निकल जावे तो इस काम में जैनशास्त्रकी कुब मना है वा नही.
न. - जैन शास्त्र में तो जिस काम के करने सें धर्म में दूषण लगे सो बातकी मनाइ है. शेषतो लोकोनें अपनी अपनी रूढीयों मान रखो है नपरले
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