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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू(ठाणंगसुत्त,५२९)
'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे'
अनुसन्धान ६५ आद्य सम्पादक : डॉ. हरिवल्लभ भायाणी
अनुसन्धान
सम्पादक : विजयशीलचन्द्रसूरि
प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य-विषयक सम्पादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड-४
सम्पादक: विजयशीलचन्द्रसूरि
सम्पर्क: Co. अतुल एच. कापडिया
A-9, जागृति फ्लेट्स, पालडी महावीर टावर पाछळ, अमदावाद-३८०००७ फोन : ०७९-२६५७४९८१
E-mail:s.samrat2005@gmail.com प्रकाशक : कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम
जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि,
अहमदाबाद प्राप्तिस्थान : (१) आ. श्रीविजयनेमिसूरि जैन स्वाध्याय मन्दिर
१२, भगतबाग, जैननगर, नवा शारदामन्दिर रोड, आणंदजी कल्याणजी पेढीनी बाजुमा, अमदावाद-३८०००७
फोन : ०७९-२६६२२४६५ (२) सरस्वती पुस्तक भण्डार
११२, हाथीखाना, रतनपोल, अमदावाद-३८०००१ फोन : ०७९-२५३५६६९२
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SI
शा
प्रति : ३००
मूल्य : ₹400-00
श्रीहेमचन्द्राचार्य कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी
स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि
अहमदाबाद २०१४
मुद्रक :
क्रिश्ना ग्राफिक्स, किरीट हरजीभाई पटेल ९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद-३८००१३ (फोन: ०७९-२७४९४३९३)
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निवेदन
वधतुं जतुं ज्ञान, वधता जता तपनी जेम, क्यारेक चित्त पर बोजरूप बनी जाय छे. ए बोज, पछी बन्धन बनीने चित्तने बंधियार पण बनावी शके.
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घणी वखत जोवा मळे के घणां शास्त्रो, ग्रन्थो के विद्यानी विधाओनो ज्ञाता 'ज्ञान-गुमाननी गांसडीओ' वेंढारतो फरतो होय छे, अने 'हुं समर्थ ज्ञानी, माराथी चढियातुं के मारा सरीखुं कोई ज्ञानी नथी न होई शके एवा विद्याभिमान के शास्त्रदर्पमां राचतो रहे छे. तेना तेवा ज्ञानने कारणे तेनी वाहवाही तथा प्रशंसा करनारा पण घणाबधा होय छे, जेने लईने ते 'ज्ञानी' आत्मानो दर्प फाटीने धूमाडे जतो रहेतो जोवा पण मळे छे.
आवा लोको एवा तो बंधियार के आत्मरतिग्रस्त बनी बेसे छे के पछी तेमने पूर्वसूरिओनी पण क्षतिओ जोतां/ काढतां आवडी जाय छे, बीजा कोईनी पण वात के विचारणाने मान्य / अमान्य करवानो तेमनी पासे वणलख्यो अधिकार आवी जतो होय छे, अने तेमनी भूल के खामी दर्शाववानी हिम्मत कोई करी ज न शके तेवी तेमनी दृढ समज पण होय छे.
विवेकविहोणुं भणतर, बीजाने बीजामां पण ज्ञान होई शके ते स्वीकारी शकतुं नथी, अने पोतानी पण भूल होई/ थई शके ते स्वीकारी शकतुं नथी. आवा भणतर थकी चित्तनी शुद्धि थती होय तेवी आशा पण केम राखी शकाय ? जैन पद्धति प्रमाणे ज्ञाननां बे फळ गणाय : पुण्यनी वृद्धि अने चित्तनी शुद्धि. निर्विवेक भणतर/ ज्ञान पुण्य बंधावी के वधारी आपे, पण शुद्धिनी वात तो लगभग वेगळी ज रही जाय एवं बने.
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'संशोधन' ए ज्ञाननी एक एवी विधा छे के जेना अभ्यासथी चित्त बोझिल अने बधियार बनवाने बदले खुल्लुं अने विशाळ बनतुं जाय छे. चित्तशुद्धिनो अर्थज छे मननुं खुल्लापणुं अने आशयनी विशाळता.
संशोधन, शोधकने ज्ञानीमांथी विज्ञानी बनावे छे. विज्ञानीनुं मन हमेशां खुल्लुं होय; पोते शोध्युं, जाण्युं, स्वीकायुं ते ज आखरी सत्य एवं बधियार मन विज्ञानीनुं न होय, तेने पालवे पण नहि; ते तो क्यांयथी पण नवो-सारो विचार के संशोधन आवे तेनी प्रतीक्षामां होय, तेनो स्वीकार करवा द्वारा पोतानी खामीने
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जो होय तो सुधारवाने तत्पर होय. 'कोई मारी भूल काढी ज न शके आवुं मिथ्याभिमान तेने कदापि न पालवे.
संशोधकने कदी पण पोतानी मान्यता प्रतिपादित के पुरवार करवानी नथी होती. तेने तो तथ्योनुं संशोधन उद्घाटन करवानुं होय छे, अने पछी जगत् समक्ष तेने प्रस्तुत करवानुं होय छे. पोतानी प्रस्तुति बाद, कोई जो तेमां क्षति जुए अने तेनी सामे रजू करे, तो ते सहुथी वधु राजी थतो होय छे, अने वास्तविक लागती क्षतिनो स्वीकार पण करतो होय छे. केमके तेनो अभिगम तथ्यपरक होय छे, मान्यतापरक नहि. ते मुक्त, तथ्यपरक विचारनो आशक होय छे, बंधियार मत-ममतनो नहि.
आपणे अहीं शास्त्र संशोधननी वात पण करवी जोईए. शास्त्रना अभ्यासी अने संशोधकने शास्त्रां, एटले के पूर्वसूरिओनां वचनो, प्रतिपादनो, मतो, विधानो, शब्दो माटे आग्रह होय - होई शके, परन्तु पोते विचारेली के स्वीकारेली बाबतो माटे तेने आग्रह न होय; तेवो आग्रह राखवो तेने पालवे पण नहि. तेवो आग्रहमताग्रह जो तेने होय तो तेने सत्याग्रही शोधक के अभ्यासी गणी न शकाय.
पोतानां विधान, प्रतिपादन के मत माटेनो तेनो आग्रह तेने कदाग्रही बनावी शके, अभिनिवेश भणी धकेली शके; अभिनिवेशने कारणे ते बीजानेबीजाना मतने वगर विचार्ये ज मिथ्या / अयोग्य गणतो थाय. संशोधन के सत्यशोधनना क्षेत्रमां आ वात एक खतरनाक अने हानिकर दोष बनी रहे.
साचो गवेषक या शोधक मध्यस्थ होय; ज्यांथी पण तत्त्व के तथ्य मळे तेनो अर्थी ग्राहक होय; तेनुं चित्त समतोल होय, पण 'स्व'मां तेमज 'स्व'नी स्वीकृत धारणामां बद्ध न होय.
आवा शोधक अथवा अभ्यासी ज तत्त्वज्ञ अने शास्त्रज्ञ गणाय. बाकी पठित-मूर्खोनो तोटो नथी. आवा शोधक ज चित्तशुद्धि भणी डग भरता होय छे, बाकी पुण्य, प्रशंसा, परिवारना व्यामोहमां फसाईने चित्तने बंधियार बनावीने जीवनारा ज ज्यां ने त्यां भटकाता होय छे.
आपणे साचा संशोधक बनवुं जोईए. ते न बनाय तोय मिथ्याभिमानी, स्वमताग्रही अने बंधियार मनवाळा न बनी जवाय तेनी काळजी तो करीए ज. अस्तु. शी.
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अनुक्रमणिका पत्र क्र. १-३. विजयदेवसूरिजी पर लखायेल पत्रो
१. उपा० विनयविजयजीनो पत्र (सं. १७०५) २. उदयविजयजीनो ३. माणिक्यचन्द्रजीनो (सं. १६७८) विजयानन्दसूरिजी पर दर्शनविजयजीनो विजयप्रभसूरिजी पर प्रेषित बीजापुरसङ्घ वती कनकविजयजीनो गुरुविज्ञप्तिस्वाध्याय (सं.१७३२) विजयदयासूरिजी पर सोझितसङ्ग वती पं. रूपविजयजीनो
(सं. १७९०) ७-१२. विजयधर्मसूरिजी पर लखायेल पत्रो ।
७. सुरतसङ्घ वती सुजाणविजयजीनो (सं. १८२३) ८. मेवाडसङ्घ वती सत्यसागरजीनो (सं. १८३०) ९. सादडीसङ्घ वती पं. मोहनविजयजीनो १०. मोहनविजयजी 'लटकाळा'नो ११. हरिविजयजीनो
१२. सादडीसङ्घ वती पं. जीवणसागरना पत्रनी नोंध १३-१६. विजयजिनेन्द्रसूरिजी पर लखायेल पत्रो
१३. प्रेमविजयजीनो (सं. १८४५) १४. जोधपुरसङ्घ वती पं. मनरूपविजयजीनो (सं. १८७१) १५. सोझतना सङ्घनो (सं. १८७६)
१६. मेडताना सङ्खनो (सं. १८८१) १७-२०. विजयदेवेन्द्रसूरिजी पर लखायेल पत्रो
१७. सुरत सङ्घनो (सं. १८८९) १८. जोधपुरसङ्घ वती पं. सिद्धविजयजीनो (सं. १८९६) १९. नागोरसङ्घ वती पं. रूपेन्द्रसागरजीनो (सं. १९०७) २०. जोधपुरसङ्घ वती रत्नविजयजीनो (सं. १९१६)
२१. विजयमहेन्द्रसूरिजीने सीणोरसङ्घ वती हिम्मतविजयजीनो (सं. १८६३)
२३५ २२-२३. दानरत्नसूरिजी पर लखायेल पत्रो २२. सूरतसङ्घ वती कनकरत्नजीनो (सं. १७९२)
२४८ २३. उपा. उदयरलजीनो (सं. १७९२) मेडतासङ्घनो देवगुप्तसूरिजीने पत्र (सं. १९०७)
२६४ खम्भातसङ्घ वती खुस्यालमुनि अक्षयचन्द्रसूरिजी पर लखेल विनतीभास
२६७ लक्ष्मीचन्द्रसूरिजी पर अजमेर सङ्घनो (सं. १८८७)
२७० कल्याणसागरसूरिजी पर नोरंगाबाद सङ्घनो (सं. १७९०) २७४ लक्ष्मीसागरसूरिजी पर सूरत सङ्घनो (सं. १७९९) धनपुरसङ्घ वती पं. रामविजयजीनो विजयराजेन्द्रसूरिजी पर पत्र (सं. १८६१)
२९६ पं. रत्नविजयजी पर पत्र (सं. १८४९)
३०४ ३१. गणि नयनसुखजी पर पत्र
३०७ साध्वी पूनमश्रीजी पर पत्र
३११ ३३. बालुचरसङ्घनो भगवतीजी सूत्रवांचननी अनुमोदनानो पत्र
(सं. १९१९) ३४-३५. कंकोतरीस्वरूप विज्ञप्तिपत्रो
३४. तारङ्गा-नन्दीश्वरद्वीपनी प्रतिष्ठानी (सं. १८८०) ३५. साध्वी माणेकश्रीजी पर वखतचंद खुसालचंदना शत्रुञ्जययात्रा
सङ्घनी (सं. १८८३)
३१९
३२०
श्रुतभक्ति आ अङ्कना प्रकाशनमा श्रीमाटुंगा जैन श्वे. मू. पू. सङ्घ - वासुपूज्यस्वामी जैन देरासर, किंग्स सर्कल, माटुंगा, मुंबई पोताना ज्ञानखातामांथी सम्पूर्ण आर्थिक सहयोग आपेल छे. श्रीसङ्घनी श्रुतभक्तिनी हार्दिक अनुमोदना.
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विज्ञप्तियत्र विशेषा -
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४ समावायेला पत्रोनी मां
परिचयात्मक भूमिका
आशरे बे वर्ष अगाऊ एक सङ्कल्प थयो के विज्ञप्तिपत्रोनो अङ्क करवो छे. ते वखते एम हतुं के बे-एक भागमां पत्रो समाई जशे. परन्तु जेम जेम काम थतुं गयुं, तेम तेम पत्रो पण वधु ने वधु प्राप्त थता गया. एटले बेने बदले ४ भागमां पत्रोनुं संकलन करी शकायुं. प्रथम बे भाग (अङ्क ६०-६१ ) मां संस्कृत पत्रो प्रगट थया छे. त्रीजा भागमां (अङ्क ६४ ) संस्कृत गुर्जर पत्रोनो समावेश थयो छे. अने हवे प्रगट थता आ चोथा भागमां मात्र गुर्जर भाषाना पत्रोनुं संकलन थयुं छे. 'गुर्जर' नो अर्थ 'मारु-गुर्जर' करवानो छे. आ अङ्कमा समावायेला ३५ जेटला पत्रोनो अछडतो परिचय आ प्रमाणे छे :
+
(१)
प्रथम पत्र प्रख्यात महोपाध्याय श्रीविनयविजयजीए गच्छनायक श्रीविजयदेवसूरिने लखेलो, नानोशो पत्र छे. सं.प्रा. भाषाओमां विद्वत्तासभर ग्रन्थोनी रचना करनार तेमज इन्दुदूत जेवा खण्डकाव्यात्मक पत्रो लखनार कवि, आम एकदम लोकभोग्य भाषामां काव्यमय पत्र लखे ते पण एक नावीन्य छे. वळी, सम्भवतः आ पत्रनी बे पानांनी प्रति पण तेमना स्वहस्ताक्षरमां लखायेल जणाय छे.
खम्भातमां अनेक चैत्यो परापूर्वथी हतां, छे. ते पैकी सुखसागर पार्श्वनाथ, कंसारी पार्श्वनाथ, जीराउला पार्श्वनाथ अने चिन्तामणि पार्श्वनाथ एम चार तीर्थचैत्योनो नामोल्लेख कविए कर्यो छे, परन्तु हालमां त्यांना तीर्थपति मनाता स्तम्भन पार्श्वनाथनुं नाम सुद्धां नथी, ते ध्यानार्ह छे.
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गुरुनुं गुण-वर्णन करतां कविए करेला कल्पना-विहारनी एक झलक जुओ : कवि गुरुना प्रतापने आम वर्णवे छे
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"मीणनी जेम कारमा - कृत्रिम फटाटोप - देखाव धरीने जे अवतर्या छे ते, तमारा प्रतापरूपी सूर्यना तापे गळी जई नष्ट थवाना छे" (१९).
कडी २४मां 'अम्ह चरण तुम्हारा त्राण रे' एम पद छे तेनो अन्वय 'तुम्हारा चरण अम्ह त्राण' ए प्रमाणे करवानो छे. 'संवत सत्तर पंचोत्तरे' (क.
8
२७) नो अर्थ १७७५ नहि, पण १७०५ करवो उचित छे.
(R)
आ पत्र पण घणो नानो पत्र छे. पण तेनी प्रासादिक काव्य रचनाने कारणे ते एक मधुर रचनारूप पत्र बन्यो छे. पण्डित कमलविजयजीना शिष्य पं. उदयविजय नामना कविए महाराष्ट्रना अहमदनगरथी श्रीपुर (शिरपुर) बिराजता गच्छपतिने आ पत्र लख्यो छे. १७मी कडीमां 'उदयविजय आसीस' एवो शब्द जोवाथी 'उदयविजयनी आशीषथी लखायेल होई आ पत्र तेमना शिष्ये लख्यो छे' एम मानवा मन ललचाय. तो १४मी कडीमांना 'अहमदानगर मोझार' एवा प्रयोगथी 'अहमदावाद'नी कल्पना पण थई शके. परन्तु वास्तवमां तेम नथी. आ पत्र उदयविजये ज लख्यो छे, अने 'अहमदावाद' नहि, पण 'अहमदनगर' थी लखेल छे, ते झीणवटथी तपासतां स्पष्ट थाय छे.
कविनी काव्य- चमत्कृति पण हृदयङ्गम छे. कडी ७-११ मां गुरु-गुणनुं जीभ वडे वर्णन के कागळमां लेखन करवानुं अशक्य होवानुं वर्णन कविए केली मीठी शैलीथी आप्युं छे! "तमारा गुण बहु मोटा होय छे; तेनी सामे दि' (दिवसो) साव नाना; एमांय रात तो अंधाराने कारणे गणाय ज नहि; वळी एवडा मोटा गुण लखवा माटे मोटा कागळ जोईए, पण अहीं तो ते पण साव सांकडा पडे छे ! गुण लखवा तो लखवा शी रीते ?" (७). "कागळ धरती जेवडो मोटो होय, स्याहीनो दरियो भर्यो होय, रात-दिवस सतत तमारा गुण लख्ये ज जडं (८); तेमां वळी इन्द्र जेटलुं मोटुं मारुं आयुष्य होय, कलमरूपे स्वर्गनो दिव्य दण्ड होय, अने सूर्य आठे प्रहर आथम्या वगर अजवाळां रेलावतो रहे, तो कांईक पत्तो लागे ! (१०). "
कविनो आ कल्पनाविस्तार केवो सोहामणो छे !
(३)
मात्र 'दूहा' छन्दमां लखवामां आवेलो आ पत्र माणिक्यचन्द्र नामना कवि-साधुए गच्छपति विजयदेवसूरि उपर लखेल छे. सं. १६७८मां लखायेल आ पत्र क्यांथी लखायो तथा क्यां मोकलायो, ते विषे आखा पत्रमां कोई उल्लेख नथी मळतो. वाचनदोषने कारणे 'माणिकसीस' एम पण वंचायुं छे, अने तेथी
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आ पत्र 'माणिक्यविजयना शिष्य' द्वारा लखायानुं पण मनायुं छे. परन्तु प्रतिमां 'माणिकससि' एवा अक्षरो सुस्पष्ट जोवा मळे छे, एटले एनो अर्थ 'माणिक्यचन्द्र' ज थई शके.
कविनी गुरु माटेनी भावनानी कक्षा ऊंची छे. केटलाक दूहामां काव्यचमत्कृति सुपेरे जोवा मळे छे. केटलाक समस्या दूहा पण छे, समस्या द्वारा ज गुरुनुं वर्णन छे; दा.त. दूहो १२, २९ इत्यादि. गुरुनां अंगोनुं वर्णन, गुरुना मिलन माटेनो तलसाट, पोताना एकपखा स्नेहना सन्दर्भे गुरुने गर्भित उपालम्भ, पोतानां पापकर्मनी गुह्य वातो गुरुने जणाववा माटेनी उतावळ, भवोभव आ गुरु ज मळो तेवी प्रार्थनापूर्वक गुरुने 'ईश' गणाववा सुधीनी भावुकता आ बधा भावोने आ दूहात्मक पत्रमां खूब मनभावन रीते कविए वर्णवी बताव्या छे, अने ए दृष्टिए पत्र माणवा जेवो छे. छेल्ले पूरवणीरूप वे दूहामां तो कवि, आपणां हैयांने पण भींजवी मूके तेवं कथे छे : "हे सज्जन ! (हे गुरुवर!) तमारामां गमे एटला गुण भले होय, पण आ एक अवगुण बहु खराब छे: तमे माणसना मनमां तमारा माटेनो स्नेह लगाड़ी दईने पछी (तेने आम वेगळो करीने) वगर हथियारे तेने मारी नाखो छो!" अर्थात्, तमे एवी माया लगाडी छे के हवे तमारा वगर रहेवुंजीववु, मारा जेवा माटे बहु कठिन थई पड़े छे !
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(४)
आ पत्रना लेखक कवि दर्शनविजयजी छे. 'आणसूरगच्छ' नामनी, तपगच्छनी शाखाना प्रवर्तक विजयानन्दसूरि उपर तेमणे लखेल आ पत्र छे. तेमां विजयसेनसूरि, तेमना पट्टधर विजयतिलकसूरि अने तेमनी पाटे आणंदसूरि एम क्रम कविए निर्देश्यो छे (ढाळ ३, कडी १-२ ).
नगरनुं, गुरुनुं वर्णन काव्यमय छतां चीलाचालु छे. ऐतिहासिक वातोनो संभार एमां नथी. एक ठेकाणे कर्ताए गच्छपतिने 'हीर'नी वाणीने अजवाळनारा गणाव्या छे (अजूआलि हीरनी वाणि) गच्छपतिना पिता साह श्रीवंत, अने वंश प्रागवंश (पोरवाड) होवानुं पण आमां नोंधायुं छे. मातानुं तथा वतनना गामनुं नाम नथी नोंधायुं. आ पत्र चैत्रमासमां लखायो छे, अने गुरुने 'सूरत' पधारवानी विनंतिना लेखरूप छे; पर्युषण, क्षमापना सम्बन्धित लेख नथी, ते ध्यानपात्र छे. पत्र १८ मा शतकनो गणाय.
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(५)
आ पत्र नानो छतां बहु मजानो छे. 'चन्द्राउला' नामे प्रख्यात छन्दनो विनियोग कविए गेय गीतरूपे ढाळरूपे कर्यो छे, ते एक नावीन्यपूर्ण काव्यप्रकार जणाय छे. प्रत्येक कडीनी चोथी पंक्तिनुं आवर्तन पांचमी पंक्तिरूपे थाय ए चन्द्रावलानी एक लाक्षणिकता होय छे. एक मध्यकालीन उदाहरण अहीं जोईए:
"केनो'क बाप हतो एक काणो, तेनी फूटल आंख तेनो दीकरो थयो देखतो तेने कहे तुं फोडी नाख
तेने कहे फोडी नाख तुं आंख, अने तारा बापानो चीलो राख कहे 'गोविंदराम' हरिनुं नाम वखाणो, केनो क बाप हतो एक काणो".
हवे प्रस्तुत पत्रमां प्रयुक्त 'चन्द्राउलानी देशी'नी एक कडी जुओ :
"पाटभगत छइ इहां तणो रे, सकल संघ निसिदीस रे, दरसण देइ पूरइ रे, प्रेमई तास जगीस,
प्रेमई तास जगीस वधारो, महिर करी मुनिराज पधारो,
सेवक जननई कांइ विसारो, हाथि ग्रहीनई पारि उतारो जी" (२)
जो के 'चन्द्रावला'नी बीजी लाक्षणिकता, प्रथम पंक्तिनुं आवर्तन अन्तिम पंक्तिरूपे थाय ए, आ देशीमां निभाववामां नथी आवी, ए पण लक्ष्यमां लेबुं घटे. कदाच एटले ज, आने शुद्ध पणे 'चन्द्राउला' न कहीने 'चन्द्राउलानी देशी' तरीके ओळखावी हशे.
पत्र फक्त २५ ज कडीनो छे, छतां तेना गानमय छन्दप्रयोगने कारणे बहु रसाळ बन्यो छे. कविनी वर्णनक्षमता पण दाद आपवी पडे तेवी छे.
गच्छपति विजयप्रभसूरि दक्षिणदेशनी विहारयात्राए गया छे. त्यां करहेड़ा(?), कलिकुण्ड, अन्तरीक्ष आ बधां पार्श्वनाथ तीर्थोने तथा माणेकस्वामी (कुलपाक) तीर्थने तेमणे जुहायां छे (२२-२३), ते वर्णवतां कवि एक ज वात कहे छे के हवे जलदी साहपुर-बीजापुर बाजु पधारो ! आमां गुरु-गुणनुं वर्णन तो बाळक जेवा भावथी उभरातुं थयुं ज छे, साथे काकलूदी पण छे, अने तेमां मराठी शब्दप्रयोग पण कवि करे छे: "सी अम्हची तकसीर ?' - अमे शो अपराध कर्यो ? (६)
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'करहेडा' तो राजस्थानमां आवेलुं तीर्थ छे ! कदाच गुरु राजस्थान बाजुथी दक्षिणमां आव्या होय, ए सन्दर्भमां कविए नाम उल्लेख्यु होय ! ए ज रीते 'कलिकुण्ड' ए पार्श्वनाथर्नु तीर्थ हतुं, अने लोकवायका प्रमाणे ते दक्षिण भारतमा केरल प्रदेशमां (घणा भागे कालिकट) होवानुं मनाय छे. त्यां सुधी गच्छपति गया होय तेवू आ उल्लेख परथी मानी शकाय, अन्तरीक्ष तो आकोला पासे शिरपुरमांनुं प्राचीन तीर्थ. तो कुलपाक ते आन्ध्र प्रदेश- पुरातन जैन तीर्थ. गुरुनी विहारयात्रानो व्याप केटलो विस्तरेलो हशे ते आनाथी समजी शकाय छे.
आ पत्रनी हाथपोथीमांत्रण पानां छे. दरेक पत्रनी बन्ने बाजए रिक्त लिपिमा सुन्दर अक्षर-लेखन लेखक द्वारा थयुं छे, ए अक्षरो आम वंचाय छ : "श्राविका लाडकंअरिपठनकृते" दरेक पृष्ठमां बे-बे अने त्रीजा पत्रना प्रथम पृष्ठमां ३ (पठन) अक्षरो छे. पत्र कर्ताना हस्ताक्षरनो ज जणाय छे. बीजापुरना संघ तरफथी विनंतिरूपे आ पत्र लखायेल छे. वीजापुर ते हालना कर्णाटकनुं बीजापुर.
छे. 'अमृतध्वनि' वांचता 'त्रिभङ्गी' याद आवे: एक रीते ओ त्रिभङ्गीना गोत्रनो छन्द छे एम कही शकाय.
पत्रना गद्यांशमां एक ऐतिहासिक हकीकत ए मळे छे के सोझतमां तपगच्छना रूपविजय चोमासु हता त्यारे, त्यां खरतरगच्छना पण कोईक साधु हशे. पर्युषण बाद चैत्यपरिपाटी (बधां जिनमन्दिरोनी परिक्रमा) काढवानी वेळाए, पहेली कोनी नीकळे ते मुद्दे बेउ गच्छोमां मोटो विवाद थयो हशे, तो वात राजदरबारे गई. रूपविजयजी आदिए दीवान पर पत्र पाठव्यो के पहेली तपगच्छनी ज होय, राजा सुधी वात जतां तेणे पहेलां मौखिक अने पछी लेखित आज्ञा करी के तपगच्छनी ज पहेली काढवी. ते प्रमाणे ज थयु.
आ प्रसंगथी सोझतनो संघ पाटनो (गुरुनो-गुरुगादीनो) भक्त छ तेम पुरवार करीने श्रीपूज्यजीने सोझत पधारवानी विनंति करवामां आवी छे.
बन्ने स्थळे विद्यमान मुनिगणनां नामो नोंधपात्र छे. गुरु सूरतमा नाणावटवडाचौटे बिराजमान हशे तेवो संकेत, पत्रलेखक, पत्रना छेडे, जगवल्लभ (पार्श्वनाथ)नां दर्शन करतां याद करवानी विनंति करे छे ते परथी मळी शके छे. 'जगवल्लभ'नुं देरासर प्राचीन छे, अने आजे पण नाणावटमा विद्यमान छे.
आ पत्रना लेखक कवि रूपविजयजी नीवडेल कवि-साधु होवा- प्रमाण आ पत्र थकी सांपडे छे. देशी ढाळो, तेमां पण 'अमृतध्वनि' प्रकारनी छन्दोलालित्य धरावती ढाळ प्रयोजीने तेमणे पोतानुं काव्यचातुर्य पुरवार करी आप्यु छे. प्रारम्भनां सं.प्रा. काव्यो तथा दूहा महदंशे सर्वसाधारण प्रकारनी रचना छे. जोके तेमां पण कविना रचेला नवा दूहा छे खरा. "हे सखी' शब्दने ध्रुवपद बनावीने रचायेली पहेली ढाळ केटली बधी रसाळ छे तेनो अंदाज तो तेने तेना देशी लयमा गावामां आवे त्यारे ज मळे !
गुरु दयासूरि, तेमना गुरु क्षमासूरि; पिता अमरा(शाह), माता अनोपदे, गोत्र सुराणा; आटलो परिचय आमां मळे छे. वतननो निर्देश नथी. गुरुने सूरिपद मंगलपुर (मांगरोळ)मां मळ्युं होवार्नु ढाळ २, क. ६मां नोंधायुं छे.
सोझित-सोझत (राजस्थान)थी, सूरत बिराजता गुरुने लखायेल आ पत्रनो हेत. सोझत पधारवानी विनंतिनो छे. 'स्वाध्याय'रूप बीजी ढाळ पूरी थतां ज 'अमृतध्वनि'नी ढाळ आरंभाय छे. बे दूहा बेवडाता होई एकवार काढी नाखेल
आ नानकडो विज्ञप्तिपत्र काव्यचमत्कृतिनी दृष्टिए सामान्य गणाय तेवो पत्र छे. आमां विशेष कोई नोंधपात्र वातो पण नथी. मारवाडना सेवांणचिसिवांची तरीके जाणीता परगणाना बाल्होतरा गामे विराजता गुरु पर सूरतथी लखायेलो आ पत्र छे.
(८) आपणे जेने 'मेडता' तरीके जाणीए छीए. ते 'मेदिनीपुर'ना नामे ओळखातुं हतं. तेवी माहिती, आ पत्र थकी आपणने सांपडे छे. आ पत्रना केटलाक अंशो अन्य पत्रोमां पण लखायेला जोवा मळे छे, ते परथी, आवा वर्णनात्मक काव्यखण्डो सर्वसाधारण जणस हशे, अने तेनो उपयोग कोई पण करी शकतुं हशे, एम जणाई आवे छे.
शत्रुञ्जय अने गिरनार तीर्थनी स्तवना धरावती ढाळो, आ पत्रनी विशेषता
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वर्णव्यो छे. ते पछीनो 'छप्पय' पुन: चारणी शैलीनो जोवा मळे छे.
छे. तेमां पण 'सारसी' छन्दमा करेलं गिरनारनुं वर्णन, कोई कुशल चारण-कविए रचेला छन्दनुं भान करावे छे. आ प्रकारनी रचना सामान्यत: चारण कविने वधु सुलभ गणाय. वळी, आ छन्दनी छेल्ली कडीमां प्रयुक्त 'भणे भोज' ए प्रयोग बहु सूचक गणवो पडे तेवो छ, पत्रकर्ता तो 'सत्यसागर' छे, छतां 'भणे भोज' केम ? स्पष्टतः स्वीकारवु पडे के आ छन्द कवि भोजनी रचना छ, ने ते पत्रलेखके उपयोगमा लीधी छे. 'भोज' नाम सम्भवतः चारण कविनु होवू जोईए, अलबत्त, आ एक अटकळमात्र छे. बाकी छन्दमां जे रीते नेमिनाथनुं तथा तेमनी समक्ष थतां पूजा-नृत्यादिनुं वर्णन छे, ते जोतां 'भोज' पद 'भोजविजय' के 'भोजसागर' नाम धरावता जैनमुनि-कवितुं सूचक पण होई शके, अने 'भोजसागर' नामे ग्रन्थकार मुनि १८मा शतकमां थया तो छे ज. अस्तु.
राधनपुरना वर्णनमां दूहा ६मा 'राज्य करे राजा तिहां' एम पद छे. अहीं 'नवाब' के 'सूबो' एवो शब्द न प्रयोजतां 'राजा' शब्द प्रयोज्यो छे, अने तेने रामचन्द्रना अवतार जेवो गणाव्यो छे. 'वंशविहारी' ए विशेष नाम होय तो तो राजा हिन्दू होवार्नु स्पष्ट छे. पण जो 'रामचन्द्रना वंशमां विहरनारो' एवो अर्थ तारवीए तो, ते विशेष नाम नथी बनतुं; जोके ते हिन्दू होवानो संकेत तो तेनाथी पण सांपडे छे. आ, छन्नु दूहा परथी उपसती छाप छे. आठमो दूहो वांचतां द्विधा सरजाय छे. तेमां 'गाजीखान' एवा नामना मीरनो स्पष्ट उल्लेख छे, अने तेने सुलतान मान आपे छे तेवो पण निर्देश छे. राधनपुरमा मुस्लिम शासको हता ते इतिहासप्रसिद्ध छे. समाधान एम थाय के कविसमय प्रमाणे जे पण शासक राजा होय ते रामनो ज वंशज गणाय; एटले शासक मुस्लिम होवा छतां ते राजा राम जेवो होवान, हिन्दू रूढि प्रमाणे, कवि वर्णवे तो तेनो इन्कार न थई शके. एटले त्यां गाजीखान नवाब होय तो ते बनवाजोग छे.
गुरुनु वर्णन विस्तारथी थयुं छे. ते ढाळो के तेनी कडीओ अन्यान्य पत्रोमां जरूर मळी आवे. केमके आवां वर्णनो ते सर्वसाधारण सम्पदा होय छे, पण अहीं, ते प्रसंगमां, भुजङ्गी छन्दमां अने चारणी लढणमां जे छन्द रचायो छे, ते एक विलक्षण रचना जणाय छे, रसप्रद छे ए. तो तेनी पछी तरतमां सं. अष्टकनी विविध छन्दोमय रचना पण बहु मजानी छे.
मारवाडना राजा विजयसिंघना वर्णनमां तेने 'हिन्दुपतपादशाह' (दूहा ९)
आ पत्र 'सादडी' - संघना विज्ञप्तिपत्रस्वरूप छे, अने पं. मोहनविजये तेनी काव्यरचना करी छे. आ मोहनविजय, 'लटकाळा' मोहनविजय करतां जुदा - पूर्वकालीन जणाय छे. प्रारम्भनां विशेषणो तथा दहा/पद्यो सर्वसामान्य छे. विशेषणो राख्यां नथी. सादडी-वर्णननी ढाळमां - सादडी ते गोडवाडर्नु प्रख्यात शहेर; अहीं चिन्तामणि, शामळा, अमीझरा एम त्रण पार्श्वनाथनां चैत्यो उपरांत डाबी तरफ गोडी पार्श्वनी देरी, नजीकमां राणकपुर तीर्थ होवानुं वृत्तान्तनिवेदन - ऐतिहासिक विगतो पूरी पाडे छे.
'राणकपुर' ए ऐतिहासिक अने वास्तविक नाम छे. राणाजीए वसावेलु पुर ते राणकपुर, वर्तमानमां तेने भारत सरकारे 'रणकपुर' करी मूक्युं छे. पोस्टखाताए प्रगट करेली आ स्थापत्यनी टपालटिकिट पर पण 'रणकपुर' ज छापवामां आव्यु छे. साइन बोर्डो पर पण घणीवार आq ज जोवा मळे छे. आनुं कारण अंग्रेजी भाषानी अणसमज छे. अंग्रेजी मां RANAKPUR एम लखाय, तेनुं हिन्दीमा रूपान्तर करनारा कारकूनो के अधिकारीओ तेने आम वांचे - रणकपुर. केमके जो RA नुं 'रा' करीए तो NA नुं पण 'णा' केम न करवू? आथी तेमणे 'रा' ने बदले 'र' करी मूक्यु. विश्वभरमां आवा पुरातन, ऐतिहासिक, कलाधामनुं नाम बगाडवानुं श्रेय, आ रीते, भारत सरकारने फाळे जाय छे. अस्तु.
गुरुने सादडी पधारवानी विनंति घणी भावनापूर्वक करवामां आवी छे, तेमां, महावीरजी तीर्थ (मूछाळा महावीर), राणकपुर (आदिनाथ), वरकाणा (पार्श्वनाथ), नडूलाई (नेमनाथ), नाडूल (पद्मप्रभु)-आ पांच क्षेत्ररूप पंचतीर्थीनी यात्रानो लाभ लेवा माटे पण आ तरफ पधारो तेवू निवेदन पण इतिहासनी केटलीक विगतो आपनाएं बन्युं छे. मारवाडने मरुस्थली कहेवाय छे, पण अहीं संघ गुरुने कहे छे के अमारो हरियाळो - सोहामणो देश मूकीने तमे 'मरुस्थली' (मुरस्थली)मां केम मोही पड्या छो? एम जणाय छे के भीनमाल तथा सादडी बन्ने मारवाडनां क्षेत्रो होवा छतां, सादडीनी तुलनामां भीनमाल वधु शुष्क प्रदेश, ते समयमां हशे. अथवा भावनाना पूरमा तणातो माणस आवां निवेदन अवश्य करी शके छे.
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गुरुनो परिचय छेल्ली ढाळमां आम मळे छे: रूपनगर वतन, प्रेमाशाह पिता, पाटमदे माता, ओश (वाल) वंश, गुरु विजयदयासूरि.
(१०-११)
पण्डित मोहनविजयजी जैन जगतमां 'लटकाळा' तरीके जाणीता छे. भगवान प्रत्येनो तेमनो भक्तिभाव, तेमनी काव्य-रचनाओमां, उपालम्भ-ओलंभा रूपे नीतरतो होय छे. ए ओळंभो ए ज तेमनां लटकां, अने एवां लटकां तेओ करे तेथी ते लटकाळा! तेओ हमेशां भगवानने ओळंभो-ठपको आपता रहेता ठपकानो सूर कांईक आवो हतो : "तमे ने हुं, साथे रमता, साधे रहेता, साथे भमता, बधुं साथे ज चालतुं ते पण थोडाक दहाडा पूरतुं नहि, जन्मजन्मान्तरो सुधी. आम आपणे कायमना लंगोटिया गोठिया हता. एमां एकाएक शुं थयुं के तमने तक मळी गई ने तमे मने पाछळ छोडीने आगळ नीकळी गया, ने काळांतरे भगवान थई गया ! ने हुं तो ज्यां नो त्यां ज पडेलो रह्यो ! साहेब, तमारो जूनो भाइबंध तमने याद न आवे ते तो समज्या, पण तेनी तमने दया पण न आवे ? आवी तमारी स्वार्थी प्रभुता ?"
आवा प्रभुप्रेमी कविए 'चंदराजाना रास' जेवी मातबर कृतिओ आपी छे. तेमनो आ पत्र पण, काव्यमय पत्रोमा जराक नवीन भात पाडनारो पत्र छे. उदयपुरना वर्णनमां 'वापी वप्र विहार बहू' एम 'व' थी प्रारम्भाता पदार्थोनी नामावली, कोई रास - कृतिनो टुकडो होवानी छाप ऊपसावी जाय छे. तो आचार्यना - गुरुना वर्णनमां गुरुना १०८ गुणोनुं वर्णन त्रण वार ३६-३६ गुणो गणावीने करवामां आव्युं छे. १०८नुं आवुं संयोजन कविनी प्रतिभानुं सूचक छे. जोके आ १०८ गुण वर्णवती ढाळनी अन्तिम कडीमां आवता नामाचरण मुजब, ए ढाळना रचयिता पं. कनकविजयशिष्य हरिविजय छे तेम समजाय छे. आनो अर्थ ए के कवि पोतानी ( पत्र ) रचनामां पोताना स्नेही मित्र कविनी रचेल ढाळ सामेल करे छे, ते पण एक विस्मयजनक बीना छे.
'सारसी' छन्दनो प्रयोग आ पत्रमां पण छे, जे नोंधपात्र छे. भाषाछन्दशास्त्रोमां आ छन्दनुं बंधारण तपासवुं पडे. आम तो तेनुं स्वरूप 'हरिगीत' ने मळतुं जणाय छे. गुरु-वर्णन माटे अन्यकृत रचना लोधा छतां कविने ते अपूर
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जणायुं होय के गमे तेम, पण १ थी ३६ गुणोनुं परम्परागत रीतनुं वर्णन तेमणे २१ कडीनी ढाळमां कयुं तो खरुं ज.
पत्र सोरठना मंगलपुर-मांगरोळ (मंगलडर- मांगलडर मांगलोर - मांगरोळ) थी लखेलो छे, तेनुं सूचन 'अडयल्ल'नी प्रथम कडीमां थयुं छे. नगरवर्णन सामान्य. चोथी कडीथी समुद्रकांठानुं क्षेत्र होवानो ख्याल मळे. पछीनी ढाळमां 'नवलखो भेटवाजी' अने 'बीजा मुनिसुव्रतनो उच्छरंग' एम नोंध छे ते त्यांना बे जिनालयो परत्वे छे. मांगरोळमां आम तो 'नवपल्लव' पार्श्वनाथ छे, पण कविना चित्तमां 'दीव'ना 'नवलखा 'ना संस्कार जागृत हशे तेथी आम लखी बेठा हशे.
११मो पत्र उपरोक्त मुनि के पं. हरिविजये लखेलो छे. ते पण मांगरोळी जलख्यो छे. पूरो सम्भव छे के १०-११ बन्ने पत्रोना रचयिताओ मांगरोळमां साथै ज होय, बेडए अलग पत्रो लख्या होय. बेमांथी एके कवि वर्ष तो नोंधता ज नथी !
आ पत्रनो प्रारम्भ अशुद्ध सं. काव्योथी थयो छे. १ थी १०८ गुणवर्णननो अंश, उचित रीते ज, अहीं अपायो नथी. सोरठ देशनी हरियाळीनुं वर्णन मनने मी जायते छे..
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आ पत्र, आ अङ्कमा ज प्रगट थता अन्य पत्रने महदंशे मळतो होवानुं जणावीने जे तफावतवाळो अंश छे तेनी वाचना तैयार करी अत्रे आपवानुं काम पत्र - सम्पादकोए ज कयुं छे, एटले ते विषे कांई लखवानुं रहेतुं नथी..
अचलगढनां चार धातुबिम्बोनुं वजन १४४४ मण होवानी दन्तकथा / परम्परा घणी पुराणी छे, तेनो पुरावो आ पत्रनी एक चौपाईमां मळे छे. वळी ते सोनानां होवानी कथा पण प्रचलित छे, परन्तु 'ते मध्य बिंब सकल सप्तधात' एवा आमां थयेला उल्लेखथी, ते सप्त धातुमय छे, सोनानां नथी, ते वात पण प्रमाणित थाय छे.
(१३)
आ पत्र बहु नानो छे, परन्तु लेखकनी हृदयाभिव्यक्ति तेमां जे थई छे
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ते हृदयङ्गम लागवाथी आ सङ्ग्रहमां तेनो समावेश करवामां आव्यो छे. पत्रनी भाषा पद्यांशमां हिन्दीप्रधान अने गद्यांशमां गुजरातीप्रधान छे. मारवाडीनी छांट तो होय ज.
चोथा सवैयामा माणिभद्रवीर, चक्रेश्वरी, पद्मावती, अम्बिका तथा अन्य विविध देव-देवीओनी गुरुने सहाय मळे छे तेवी वात ध्यानपात्र छे. यतिश्रीपूज्यनी परम्परामां देवसाधनानुं प्राधान्य के प्राबल्य हतुं ते वात तो जाणीती छे ज; ते आवा उल्लेखो द्वारा पुरवार पण थाय छे.
गद्य भागमा शब्दे शब्दे गुरु प्रत्येनो, लेखक-कविनो आन्तरिक लगाव व्यक्त थतो रह्यो छे. तेओ गुरुने मालवा पधारवानी विनवणी करे छे, पण ते करतां करतां ज तेमने ख्याल आवे छे के आ शक्य नथी, तो तेओ ते स्थितिने पोतानां कर्मनो उदय माने छे, अने लखे छे के "आर्य देशमा उत्पन्न थनार माणस जो अनार्य देशे जईने वस्यो होय तो तेने तेम प्रभुजीनां दर्शन मळतां नथी, तेम मारा माटे पण आपनां दर्शन दुर्लभ बन्यां छे."
आ विनवणीना प्रसंगमां तेमणे माळवाना 'श्री मोक्षी पार्श्वनाथ'नो उल्लेख को छे. ते हालना प्रचलित नाम 'मक्षी-मगसी पार्श्वनाथ' अंगेनो छे. 'मोक्षी'नुं भ्रष्ट रूप 'मकशी-मक्षी' थई जवू केटलुं विचित्र दीसे !
(१४) १९मा शतकमां लखायेल आ पत्रनां प्रारम्भिक पद्योनी सं. भाषा रसप्रद छे. सं. भाषा पर पूरतुं प्रभुत्व न होय छतां परम्परा प्रमाणे आरम्भ सं. पद्योथी ज थवो घटे एवी समज ने आग्रह धरावता आ कविनी सं. रचनामां छन्दनो मेळ अक्षरमेळने आधीन नहि, गानने आधीन बने छे. तेथी ते छन्द अक्षरमेळ अने मात्रामेळनुं सम्मिश्रण बनी जतुं होय छे. तेनी भाषामां पण गुजराती-मारवाडी शब्दो आपोआप संस्कारित थईने संस्कृतत्व मेळवी ले छे. विद्वानोने आमां रमूज पडे. अशुद्धप्राय बधां पद्योमा सुधारी न शकाय तेवी क्षतिओ संस्कृतत्व पामी गई छे.
पद्य ४मां 'श्रवणसुणितं मां 'सुणितं' प्रयोग जओ ! सुणवं. सण्यं, ए क्रियापद राजस्थानी बोलीन, ते अहीं 'सुणितं रूपे संस्कृतत्व पाम्यं छे. तो ते ज पद्यमा त्रीजी पंक्तिमा अक्षरोनो कोई मेळ नथी, लघु-गुरुनो पण नहि; छतां
ते 'हरिणी छन्द'ना लयमां गाई तो शकाशे. ढूंकमां, सं. पद्योनो शब्दार्थ करवा जनारो जराक अटवाय तो ना नहि.
भाषाना छन्दो चारणी लढणमां व्रजमिश्रित हिन्दीमां छे,जे प्रभावोत्पादक लागे छे. मालवदेशमां अयवंती (अवन्ती) ने मगसी (मक्षी) बे मुख्य तीर्थ होवानुं सूचवीने त्यांना ते समयना शासक मराठा राजवी 'दोलतराव' नो नामोल्लेख, 'मरहटे मोटो मरद' एवी प्रशस्ति साथे कवि करे छे. पद्मावती छन्दनी चोथी कडीमा 'रतलाम'नुं नाम जड़े छे. आ कवित्तोमा तो मालव-रतलामनी प्रशंसा छ, साथे रतलाममां पर्वतसिंह नामे क्षत्रिय राजा होवानो ने ते वैष्णव होवानो पण उल्लेख थयो छे. तेने हिंगळाज ने मम्माई (मम्मादेवी)नुं वरदान होवार्नु पण ७मी कडीमां सूचवायुं छे. त्यां शान्तिनाथ-मन्दिर होवानो निर्देश पछीना दूहामां छे. पछी भुजङ्गी छन्दमां गुरुवर्णन थयुं छे. तेमां 'असीच्यार गच्छातणी पातसाही' - अहीं 'असीच्यार' पदनो अर्थ ८० + ४ = ८४ एम थतां, गुरु ८४ गच्छना राजा होवा कवि वर्णवे छे.
ते देशनी निन्दा पण कवि करे छे. प्रथम दूहामां ज 'अब वर्णन हांसी करूं' तथा 'हितकरनै हांसी करूं' एम कहीने कवि मांडणी करे छे. तमे मालवदेशमां भले मोह्या हो, पण त्यां तो रोगचाळा घणा होय छे, त्यांना लोक कामणगारा-कामण करनारा छे, ने वळी ओछा वेष पहेरनारी त्यांनी नारी तो बूरी होय छे ! त्यांना लोक 'गुणहीना अतिछीछरा', त्यांनी बोली 'ओछी' अने 'लोक (मनना) नाना'; खाणीपीणीनो स्वाद 'फीको'; त्यां 'प्रीति' जेवं तत्त्व नहि लोको क्रोधी ने अभिमानी, इत्यादि.
पण आटली निन्दा पछी कवि तरत वात वाळी ले छे : आ बधा 'ओगण (अवगुण)'ने बाजु पर राखवामां आवे, तो आ देशमां मक्षी ने अवन्ती पार्श्वनाथ बिराजे छे, ते आ देशनो मोटो गुण गणाय. पछी कवि, गुरुने मरुधर देशमां पधारवानी विनंति करे छे : 'आवौ मरुधर देश'. ढाळनी छेल्ली कडीमां कवि-परिचय आम मळे छे: भक्तिविजयनो शिष्य, कवि मनरूप आम अरज करे छे. आ ढाळमां मारवाडी बोलीनी प्रचुरता जोवा मळे छे, तो हवेनी ढाळमां गुजरातीनुं प्राधान्य जोई शकाय तेम छे.
आ पछी क्रमशः १-३६ गुणवर्णन, सर्वसामान्य पद्यो, गद्य, सं.पद्य, गद्य
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४८मी कडीमां १८७१ मा वर्षे आ गजल रच्यानी नोंध छे.
गच्छपतिने मारवाड पधारवानी विनंति ए आ पत्रनो मुख्य उद्देश छे. विनंति करतां मारवाडनी विशेषताओना वर्णनमा राण(क)पुर, फलोधी, कापरडा, पाली, सोझित - आ बधां क्षेत्रो - तीर्थोनो उल्लेख थयो छे. गुरु पोते सोझितमां जन्मेला होवानुं याद अपावी तेमनी - वाघरेचा गोत्र, माता गुमानदे, पिता हरचंद, ओशवाळ वंश - ए विगतो पण जणावी दीधी छे.
गद्य भागमां विनंति लखतां लखतां जोधपरनो संघ पं. मनरूपविजयजीनी प्रशंसा करे छे ते अंश ध्यानार्ह छे. पत्र त्रुटित छे. सचित्र छे. भाषा मुख्यत्वे राजस्थानी छे. ऐतिहासिक विगतोनी दृष्टिए पत्र महत्त्वनो गणाय तेवो छे.
- आम चाले छे. सं. पद्य ४मां 'जीवनाख्यं नमाम्यहं' ए पदथी जिनेन्द्रसरिन् पूर्वनाम 'जीवन' होवानुं सूचवाय छे. पछी शरु थाय छे मरुधरनुं वर्णन. 'अणनम राठोड' ए मारवाडनी प्रशस्ति छे तेम वर्णवतां कवि जोधाणा-जोधपुर, मानसिंह राजाना उल्लेखपूर्वक तेनुं वर्णन करे छे. त्रोटक छन्दमां थतुं राज-वर्णन उत्तेजक लागे छे. जोधपुरना वर्णनमां जुदां जुदां क्षत्रिय-गोत्रोनां नामो रसप्रद छे. वणिक-गोत्रो, विप्र, महेता, कायथ-कायस्थ, दोढीदार वगेरेनी नोंध पण थई छे. सुरगुरुतुल्य मन्त्री, पुरोहित, व्यास, सैयद, पठाण, मोगल - बधां पण अहीं नोंधायां छे. नाजर, चारण, भट्ट (भाट) पण छे. वडी-मोटी तोप त्यां हती ते पण नोंधवानुं कवि चूकता नथी. चामुण्डा, विष्णु, ज्वालामुखी, हनुमन्त, भीम - एवां विविध देवस्थानोनो, तो पद्मसर, राणीसर, गुलाबसागर, फतेसागर, गंगेलाव, फूलेलाव जेवां जलाशयोनो पण उल्लेख थयो छे. फरी गंगाश्याम, बिहारी-कुंजधाम, जलन्धरनाथ तथा जिननां देरांनी तथा अन्य विविध देवस्थानोनी नोंध आपी छे, 'मनारै अरु महजीत' ए पदमां मस्जीद-मिनारानी नोंध लेवानुं पण कवि चूक्या नथी. जोधपुरमा आ बधुंज हतुं. आ वर्णनथी सांस्कृतिकसामाजिक अध्ययनने पात्र सामग्रीनी एक सुस्पष्ट नोंध आपणने मळी रहे छे, जे ऐतिहासिक पण छे.
कडी २६-२७मां तपागच्छ, खरतरगच्छ, पासचंदगच्छ, लूंकागच्छ - आ बधा गच्छोनी पोषालो विषे नोंध छे. क. २९मां आसन, मठ, फकीरोना तकिया - बधां विषे वात करतां, तकियामां फकीरो अल्लानुं नाम ले छे, ते पण जणाव्यु छे. पछीनी कडीओमां केटलांक वणिक-गोत्रोनां नाम आवे, तेमां 'मुहता वडा मर्द ही मर्द, सही करे अरियणकुं सरद' ए पंक्तिओ 'मुहता'नी मर्दानगीनी साख पूरनारी छे. कायस्थ माटे 'दोत-कलम ही कान धरते' एवं लख्युं छे. तो मुसलमान मक्के भेटे छे ने 'जाकू सच्च जन ही जान' एम जणावे छे. कदाच मक्का जई आव्या पछी ते साचुं ज बोलता - ते विषे संकेत संभवे ?
३६मी कडीमां नगर-वर्णन थया पछी बहार- वर्णन शरु थाय छे: वखतसागर वगेरे सरोवरो, बाग, त्यां काळा-गोरा वीरनुं स्थानक होवानुं सूचवता कवि, ४१ मी कडीमां पार्श्वनाथना उत्तुङ्ग प्रासादनी नोंध ले छे. राजाराम शेठ द्वारा निर्मित उपाश्रयनी पण जिकर करी छे. पछी विविध सरोवरोनी यादी छे.
विजयजिनेन्द्रसूरि तपगच्छना मोटा प्रभावक श्रीपूज्य गच्छपति हशे तेम तेमना पर लखायेला तेमज उपलब्ध थता अनेक विज्ञप्तिपत्रो जोतां लागे छे. आ पत्र पण तेमना पर ज लखायेलो छे. सं. १८७६मां ते मांगरोल चोमासुं हता त्यारे सोझतना संघे आ पत्र लख्यो छे. सोझतने 'सोझाली' एवा नामे अहीं ओळखावायुं छे.
मांगरोलमा 'मीयां मान' शासक, सोमजी दीवान, आनन्दराम कारभारी, फोजदार मीयां छे. आठमा (चन्द्रप्रभु), वीशमा (मुनिसुव्रत) तथा पार्श्वनाथ - एम ३ देरासर त्यां छे. शेठ नानजी, धरमशी, कपुर मोदी अने श्राविका वालुबाई एम ४ नामो पण जोवा मळे छे.
सवैया एकत्रीसा छन्दो द्वारा गुरुवर्णन थयुं छे. तेनी भाषा चारणी हिन्दी छे, अन्य ढाळोमां मारुगुर्जर भाषा छे. आ भाषा आ पत्रोमां सार्वत्रिक होय छे. पध्धडी छन्दमां मारवाडनुं अने सोझतनुं वर्णन व्रज-हिन्दीमां छे. विगतोनुं साम्य पूर्व पत्र जेवू ज; बन्नेनी विगतो सरखावाय तो मजानो अभ्यास सांपडे. ११ उपाश्रय, ३ पोषाळ, तेमां तपगच्छनो उपाश्रय बहु भव्य. 'देवसूर' (क.४४) शब्दनो उल्लेख ऐतिहासिक गणाय. महदंशे अन्य (पूर्व) पत्रनी वातो/वर्णननु पुनरावर्तन थया करे छे. आ पत्र पण सचित्र छे.
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सं. १८८१मां मेडताथी लखायेलो आ पत्र पण मारुगूर्जर भाषामां अने पद्यात्मक छे. पाटण पर 'हामा गायकवाड'नुं राज होवानो उल्लेख महत्त्वनो छे. पाटण- तेमज मेडतानुं विस्तृत वर्णन करता त्यांना अनेक स्थानो, देवस्थानो, बजारो, ज्ञातिओनुं वर्णन कविए आप्युं छे. उपाश्रयवर्णन ए आ पत्रनो विशेष छे. उपाश्रयना बांधकाम विषे, तेमां यक्ष माणिभद्रना स्थान विषेनी, मोतीदाम छन्दमां थयेली नोंध खास ध्यानपात्र छे.
__मेडता-उपाश्रयमां पण माणिभद्रना स्थाननी वात, १०८ गुरुगुण, राजा मानसिंह राठोड, मेडतामा ११ जिनालयो, विविध देवस्थानको, 'हीर' गुरुनां पगलांनी देरी, आ बधुं वर्णन खूब रोचक तथा विगतप्रचुर छे. अगाऊना पत्रो जेवं ज लंबाण वर्णन धरावतो पत्र - एम कही शकाय. आ पत्रो भाषा अने इतिहासनी रीते खूब रसप्रद छ एम फरीथी कहेवार्नु मन थाय,
आ पत्र सं. १८८९मां मुम्बई बन्दरे बिराजता गच्छपति विजयदेवेन्द्रसूरि उपर सूरतना संघे लखेल क्षमापना-पत्र छे. तीर्थकरोना तथा माणिभद्र यक्षनां स्मरण-मङ्गल पछी १०१ गुरु-गुणगान पांच ढाळोमा थयु छे, मोतीचंद (मोतीशा)ना पुत्र खीमचंदने कवि 'नगरशेठ' तरीके ओळखावे छे, जे तेमना प्रभावनुं सूचक छे. चीन देशनो माल अहीं खूब आवतो होवाथी अहींनुं धन-रोकड नाणुं त्यां खूब वहे छे तेवो उल्लेख महत्त्वनो गणाय. 'कुलाबा (कोलाबा)'मां श्रावकोनी वस्ती होवार्नु पण आमां नोंधायुं छे.
अमीचंद साकरचंदना पुत्र मोतीशा ओसवाले सं. १८७४मां शत्रुञ्जयनो संघ काढ्यो, १८८५मां मोतीशा- कमां आदीश्वरनी प्रतिष्ठा करी. ते इतिहास पण आमा छे. 'भोएखला' (भोंयखळा (खळानी भूमि) - भुंइखला - Byculla - भायखला)मां मोतीशानी वाडी. तेमां तेमणे ऋषभदेव बेसाडेला छे ते, तथा त्यां दादासाहेबनां पगला पण छे - आ बधी विगतो आमां छे, ते जोतां स्पष्ट थाय छे के भायखळानुं स्थान शेठनी वाडी हती, तेमां तेमणे पोते देरासरादिनुं निर्माण करेलु, पण ते वाडी देवसमर्पित-देवद्रव्यनी जग्या होवानो कोई ज संकेत के सूचन आमां थयां नथी.
कल्याणजी कानजीना पुत्र बालाभाई उर्फे दीपचंदे १८८७मां शत्रुञ्जयनो संघ काढ्यो, कपुरचंद बोघाना पुत्र फूलचंदे 'घोघा मां पार्श्वनाथन देरासर बनाव्युं, खडतरगच्छना मारु हीराचंदे चिन्तामणि चैत्य (पायधुनी) कराव्यू, आ बधी विगतो तथा अन्य श्रावकोनां नामो आमां मळे छे. आ श्रावकोए गुरुने मुम्बई तेडाव्या होवानुं समजाय छे..
(नोंध : महुवाना जीवितस्वामी भगवानना मन्दिरनो जीर्णोद्धार ताजेतरनां वर्षोमां थयो त्यारे जीवितस्वामीनी पलांठीमां चोतरफ चोडेल पतरां उखाडतां नीकळेली एक पट्टीमां कपुरचंद बोघाना नामनो तथा संवतनो उल्लेख, घोघाना नामपूर्वक वाचवा मळ्यो हतो. ते पट्टी ते वखते हाजर गृहस्थे क्यांक वगे करी होय तेम लागे छे.)
नवमी ढाळ, क. १मां गुरु देवेन्द्रसरिनो परिचय छ : वतन पालडी, माता रूपा. (पितानो उल्लेख नथी). मुम्बईमा मध्यमां पार्श्वनाथ (गोडीजी?)नुं जिनालय, आणसूरगच्छे आदीश्वर, सागरगच्छे शान्तिनाथ, मूळ कोट (फोट)मां पण शान्तिनाथ - आटलां देरां ते वखते त्यां हां, एम आमाथी जाणी शकाय छे.
आ पत्र / पत्रोमा मणिभद्रजीनो उल्लेख बह भक्तिथी थतो होय छे. एक ढाळमां नोंधाया प्रमाणे, आठमे-चौदशे तेमनी सेवा करतां घणो लाभ थाय छे. मेवास(महीवास)मा मगरवाडा क्षेत्रमा माणिभद्रने नमवा गच्छपति पण जाय छे.
मुम्बई पछी कवि सूरतनुं वर्णन करती गजल लखे छे. तापी नदी, १२ दरवाजा, तोपो, अंग्रेज राजकर्ता 'लबीष्टीत्' (भ्रष्ट रूप छे), आडेसर (अरदेशर) कोटवाल, किल्लेदार मालेसिंह, नसरुद्दीन नवाब, इत्यादि नामो ऐतिहासिक सामग्रीरूप छे. मुस्लिमो पछी पारसीओना वर्णनमां, ते लोको 'आग'ने देव माने, 'तापी'ने माता गणी नमे ते विगत पण मजानी छे. मुगलीसरा, चीनीखानु, गुजरीहाट, गोपीपुरा वगेरे स्थानोनी नोंध आमां थई छे. गोपीपुरामां जवेरी ओसवाल, भणशाली आदिनो निवास छ, तपागच्छनो उपाश्रय अने तेमां पत्रलेखक (प्रेमविजय) चोमासुं छे, ते वातो पण कविए वणी लीधी छे. ओ विस्तारमा धर्मनाथ, सूरजमण्डन, गोडीजी, शड्डेश्वर - एम ४५ देरां छे, आ शहेरमा ८४ गच्छो हता, उपाश्रयमां हाथी पर आरूढ मणिभद्रनी स्थापना छे, आवी विविध
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माहिती कवि आपे छे.
आ पछी अश्वनीकुमार, बाला हनुमानथी मांडीने विविध धर्मनां देवस्थानकोदरगाहोनी विगतो नोंधवामां आवी छे. गद्यभागमां गुरुनां घणां बिरुदो, विविध ज्ञातिओगत श्रावको - श्राविकाओनां नामो आपेल छे, जे इतिहासनी रसप्रद सामग्री बनी रहे तेम छे.
सूरत पधारवानी विनंति करतां कवि मुम्बईनी निन्दा पण मजेदार करे छे: कुंकण देशनी मुम्बई नगरीना लोको निर्मोही छे, तेमने तमारा पर भाव नथी, छतां त्यां तमो शुं मोही पड्या छो ? वळी, त्यां मांकड, चांचड, मगतरां, मच्छरोनो भारी प्रकोप छे. एवा क्षेत्रमां न रहेवाय, अहीं पधारो !
छेले विनंतिनी ढाळमां गुरुनो परिचय पुनः आपतां तेमनां माता रूपा, पिता अमीचंद एम नोंध आपी छे. पत्रने छेडे श्रावकोना हस्ताक्षरो छे, ते अंश अहीं छापेल नथी. आ पत्र पण सचित्र छे.
(१८)
आ पत्र पण जोधाणा - जोधपुरथी लखायो छे, सचित्र छे, देवेन्द्रसूरि उपरनो छे. लखनार भिन्न, वर्ष भिन्न, तेथी एक ज स्थानेथी भिन्न भिन्न पत्रो लखायेला जोवा मळे छे. दरेकमां थतुं जोधपुरनुं वर्णन महदंशे समान होय, पण पत्र मोकलाय ते क्षेत्र बदलातुं होवाथी तेनुं वर्णन नवं होय. आ पत्र वीसलनगर (वीसनगर) मोकलायो छे.
प्रथम 'छप्पय 'मां ज गुजरात देशने काबल (काबुल), बलख (बल्ख), खंधार (कन्दहार - गान्धार) जेवा देशोने जीती जाणे तेवा बुद्धिमान लोकोना देश तरीके गणाव्यो छे.
वीसलपुरमा 'खान' नामे कोई शासकनुं राज छे. मन्त्री इच्छाचंद, हाकेम दीनदयाल, पण्डित भाऊ फणेस, शेठ मंछा मगन तथा अन्य महेता रामजी - आ बधा राज्यना पदाधिकारीओ जणाय छे. विविध दरवाजा, देरां, पोळो, वाव; देरासरोमां कल्याण पार्श्वनाथ तथा आदीश्वरनं त्रिशिखरी मन्दिर, कंसारापोळमां बे मन्दिर, मोलवाडामां एक मन्दिर, खजुरी महोल्लामां एक उपाश्रय ज्यां गुरु बिराज्या छे ते, मोलवाडामां एक संवेगी उपाश्रय, वेदवाडीमां धर्मशाला- आ
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बधुं त्यां होवानुं कवि जणावे छे, जे इतिहासनी रीते महत्त्वपूर्ण छे.
(१९)
नागोरथी पालणपुर लखायेलो आ पत्र मुख्यत्वे मारवाडीमां छे, पण मांना त्रिभङ्गी छन्द तथा केटलांक कवित्तोमां व्रज के चारणी भाषानी छांट खास्सी छे. आमां पण शत्रुञ्जय अने गिरनार द्वारा गुजरातनी ओळख आपी छे, उपरांत शङ्खश्वरनो उल्लेख पण गुजरातनी विशेषतालेखे थयो छे. पालणपुरमां नवाबी राज छे, कारभारी मोती महेता नामे छे, ते नगरवर्णनना आरम्भे ज नों धायुं छे.
गुरु देवेन्द्रसूरिनो परिचय अहीं पण अपायो छे : सेत्रोवा गाम, ओसवाळ वंश, चोपडा गोत्र, अमीचंद - सरूपदेना पुत्र, जिनेन्द्रसूरिना पट्टधर.
२१ श्लोको सं. ना छे. ते वांचतां थाय के कविए आना करतां भाषामां ज पद्यरचना करी होत तो वधु मजा आवत. नागोरना वर्णनमां राठोडोनुं राज्य, ७ पोळवाळो गढ, अनेक सरोवरो, पीर अने विविध देवोनां स्थानको जिनालयो, बे दिगम्बर दे, तपगच्छना ५, पासचंदगच्छना २, खरतरोना ३, लोंकाना ४ उपाश्रयो राजमार्ग पर पांच पोषालो आ बधी ऐतिहासिक विगतो आ पत्रमां प्राप्त थाय छे. आ पण सचित्र पत्र छे.
(२०)
सं. १९९६मां जोधपुरथी लखायेल आ पत्र पण कवित्वनी दृष्टिए विलक्षण / विशिष्ट छे. आना छन्दो, कवित्तो, ढाळो, तेनी चारणी अने मारवाडी बधुं अध्ययनयोग्य छे.
भाषा
देवेन्द्रसूरिने मणिभद्र यक्ष साक्षात् होवानो उल्लेख
"तपगछसानिध तत्परा देविंदने परतक्ष
वर दीधो तिणे हर्षसुं माणिभद्र वड यक्ष"
—
आ पंक्तिओ द्वारा थयो छे, जे बहु अगत्यनो छे. त्रिभङ्गीमां थयेल अमदावादना वर्णनमां दरियाशाहपीर (दरियापुर), शेठ मगनभाईनो बाग (वाडी), हठीसिंहनी वाडी; ते वाडीना बगीचानां विविध वृक्षोनुं वर्णन केटलूं रसाळ छे ! भद्रनो दरवाजो, भद्रकाली मन्दिर, त्रिपोळ-त्रण दरवाजा आदिनो
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उल्लेख कवि चूक्या विना करे छे. १०मा छन्दमा 'वीर विवेकं, रूपके टेक' ए वाक्य 'वीरना उपाश्रय' तथा 'रूप विजयना डहेलाना उपाश्रय' परत्वे होय तेम लागे छे. तेनी सामे ज अष्टापद जिनालय छे ! ११मा छन्दमां हरकुंवर शेठाणीए करावेल ऋषभदेव प्रासाद-तेनी प्रतिष्ठा देवेन्द्रसूरिए करी तेवो उल्लेख छे ते हालना मूलेवा पार्श्वनाथ जिनालय माटेनो जणाय छे. झवेरी महोल ते झवेरीवाड; नागोरी सराय - जेमां गच्छपति हाल - ते वखते चोमासुं रह्या छे ते. शेठ मगनभाई, वाडीभाई, जीवाभाई, ठाकरशी, माणेकचंद, उमाभाई, पानाचंद, गोकळशी - बधा ते समयना अग्रणी श्रावको जणाय छे. मरुधरनु अने जोधपुरनुं वर्णन लगभग अन्य पत्रो जेवू ज छे.
(२१) तपगच्छना 'सौभाग्यलक्ष्मी' तरीके जाणीता विजयलक्ष्मीसूरि, तेमना पट्टधर देवेन्द्रसूरिनी पाटे गच्छपति श्रीपूज्य महेन्द्रसूरि आव्या छे. सं. १८६३मां तेओ 'साणंद' चोमासुं हशे, तेमना पर सीणोरथी लखायेल आ पत्र छे. सीणोरने 'सेनापुर' नामे कवि ओळखावे छे. हाल ते सिनोर-शिनोरना नामे जाणीतुं छे.
नगरवर्णनमां 'गजल' लखवानी आ पत्रलेखकोनी प्रथा रही होवानुं जणाय छे. ते हिन्दीमां लखाय, प्रत्येक पंक्तिने छेडे 'क्' (बंकाक्, डंकाक्) अनिवार्य, एम लागे. आq होय तो ज 'गजल' बनती हशे..
साणंदमां मीठालाल देसाई कारभारी छे, तो शिवलाल व्यवहारीनुं भारे मान छे. साणंदर्नु विस्तृत वर्णन त्यांना महोल्ला-पोळ-फळियानी तेमज विविध ज्ञाति/धर्मना लोकोनी विगतो पूरी पाडे छे. विविध देवस्थानोनी पण स्पष्ट माहिती आपे छे. जोके आ प्रकारनुं माहितीप्रचुर वर्णन लगभग तमाम पत्रोमां जोवा मळे छे, जे बहु रसप्रद होय छे. कोई अभ्यासी आ मुद्दाने अभ्यासनो विषय बनावी काम करे तो सरस संशोधन थाय. साणंद जेवू ज वर्णन सिणोरनुं पण छे, पण ते ढाळबंधमां अने गुजराती भाषामां छे.
सं. पद्यो तद्दन अशुद्ध-अपूर्ण. १५-१६-१७ दूहाओमा पुण्यथी प्राप्त थतां पांच रत्नोनी वात छे, ते बघां स्पष्ट समजातां नथी. राजिस मकुयाणा' ते कोई राजकर्ता व्यक्तिनुं नाम हशे? मकुयाणा-मकवाणा - एम हशे? दूहा ११मां 'वढीहार' देशनी वात कवि कया आशयथी करे छे ते समजमां आवतुं नथी. सूरत के राजनगरने वढियार साथे कशी लेवादेवा तो नथी. कविए प्रयोजेला शब्दो पण अस्पष्ट होय छे : जथाखि (जथा रवि?), झीणाणंद, उल्लाद (आह्लाद?), पितृप्रशन, राजिस, अने अन्य पण घणा, जेनो अर्थ पामवो विकट छे. ब्रह्मचर्यव्रतने कवि 'भ्रमव्रत' तरीके ओळखावे, त्यारे वाचकने भ्रम न थाय तो ज नवाई !
गद्य विभागमा केटलीक प्रासङ्गिक विगतो मळे छे : पर्युषणमां कोणे कयु तप कर्य, धनव्यय द्वारा कयो लाभ कोणे लीधो; ते वर्षे पोताना गच्छमां १ श्राविकाए मासक्षमण कयु अने समग्र शहेरमा ३२ मासक्षमण तथा ५८ सोळभक्त थयां, इत्यादि माहिती रसप्रद छे.
ए वर्षे वरसाद घणो पडेलो ने पोताना उपाश्रयमां थांभलानी कुंभी डूबी जाय तेवू पाणी आव्युं तेवो उल्लेख पण छे. तो ते उपाश्रयनी अगाशीमां खोड आवतां तेनुं समारकाम करवानी आर्थिक ताकात न होवानुं निवेदन केटलुं करुण लागे !
साधु-शिष्यनी वृद्धि अंगे चालती चर्चा-विचारणाना सन्दर्भे कोई एक भाईने अंगे नोंधेली वात प्रमाणे, "ए भाई पं. हेमरत्ननो शिष्य थवानो होवा छतां तमे (गच्छपति) तेने 'उत्तरभेद करीने' लो ते योग्य छ" - आ मतलबर्नु लखाण, ते गच्छनी आन्तरिक स्थिति परत्वे प्रकाश पाथरी जाय छे.
एक पं. नयरत्न नामे मुनिए उचित व्यवहार न जाळव्या विषे फरियाद पण पत्रमा छे. ते साधुनो क्रोध तीव्र हशे अने लांबा समयथी ते यथावत् हशे, तेथी तेना क्रोधने अनन्तानुबन्धिया क्रोधलेखे लेखके वर्णव्यो छे, ने ते साधुने शिखामण आपवा गच्छपतिने टकोर्या छे.
'मीये पण मासखमण ३ थया छि' आ वाक्यमां मीया एटले मीयागाम. ते उपरांत खेडा, धोलका, साणंद वगेरे क्षेत्रोनो पण उल्लेख थयो छे.
(२२)
आ पत्र तपगच्छनी 'रत्न' शाखाना गच्छनायक दानरत्नसूरि पर लखायेलो छे. लखनार साधु कनकरत्ननी काव्यक्षमता मध्यम के सामान्य कक्षानी जणाय.
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पछीथी कांई राजकारणनी अने लडाईनी पण चर्चा करी छे.
(२३) कवि उदयरल ए मध्यकालना एक श्रेष्ठ गुर्जर साधु-कवि छे. तेमनी रचनाओ भक्तिभावथी छलकाती, पदलालित्य तथा अलङ्कार आदिथी समृद्ध अने प्रसादमधुर होय छे. तेओ पण 'रत्न' शाखाना अग्रणी साधु, उपाध्याय छे. तेमणे तेमना गच्छपति दानरत्नसूरि उपर लखेल आ पत्र पूर्णतः व्रजनी छांट धरावती हिन्दी पद्यात्मक छे.
मध्यकालीन काव्यरचनानी जे चमत्कृतिओ होय ते अहीं प्रत्येक कडीमां प्रगट थाय छे, वर्णसगाई, सागर-नागर-आगर-रतनागर - एम आदिप्रास, आम उत्तरोत्तर रचनानी जमावट थती आवे छे. नवमो दूहो ३६ गुणोनुं सूचन करे छे: प्रतिरूप आदि १४, १० यतिधर्म, १२ भावना - एम ३६ गुण. - ओ वांचतां विजयलक्ष्मीसूरिकृत पूजानी नीचेनी कडी याद आवे :
"पडिरूवादिक चौद गुणधारी, क्षान्ति प्रमुख दश धर्म,
बार भावना-भावित निज आतम, ए छत्रीश गुणवर्म." खरेखर तो दरेक दूहानो अर्थ लखीए अने तेमांनी काव्य-चमत्कृति खोलीए, तो ज साचो आस्वाद पामी शकाय. एक १८मो दूहो ज जुओ : "तपागच्छ ते समुद्र, गच्छपति तेमां भरती लावनार चन्द्र-सरीखा; ए आपणने बमणी दोलत ज आपे !"
आ पछीना सवैया-त्रेवीसा तथा एकत्रीशाना छन्दो तो कोई नीवडेल चारणकविनी ने तेनी छन्द-रचनाओनी भ्रान्ति करावे तेवा छे. उदयरत्नकृत 'जोगमायानो छन्द' तो 'अनुसन्धान'मां अगाऊ प्रकाशित छ ज. अनेक जैन कविओए आवी व्रजभाषा-मढेली हिन्दी छन्द-रचनाओ करी छे, अने मध्यकाळने कविताथी छलकावी दीधो छे.
आमां ४ तो चित्र-बन्ध-काव्यो छे : स्वस्तिकबन्ध, कमलबन्ध, अष्टारचक्रबन्ध अने शरावसम्पुटबन्ध. कर्ताना स्वहस्तना आ पत्रमा चारे बन्धकाव्योना चित्राकारो पण आलेखेला जोवा मळे छे. ओमां अष्टारचक्रवाळा छन्दमां दरेक पादना आद्य अक्षरोनी गुंथणीथी गुरुनु नाम पण रचाय छे. पछीना दूहाओमां
पत्रप्राप्तिनी वात तथा वृत्तान्तनिवेदन छे, परन्तु दूहा एटला बधा स्पष्ट-सुग्रथित छे के कविनुं सर्जक चित्त अत्यन्त सुघड होवानी छाप पड्या विना नथी रहेती.
गद्यात्मक निवेदनमा 'वृद्ध साजन', 'लघु साजन' - एवा शब्दो छे तेनो भाव एवो जणाय छे के आखो संघ/समाज जमे ते वृद्ध साजन, अने मर्यादित वर्ग जमे ते लघु साजन. प्रभावना-ल्हाणी-तपस्यादिनी वर्णन उपरांत, पादरी, पादशाहपुर, उमेटा - आ बधां गामोमां वर्तता साधुओ तथा त्यांनी वातो विषे विगतो छ, अन्तिम ५ दूहामां, कविना चित्तनी, गुरुनां दर्शननी आतुरताउत्कण्ठानुं रोचक बयान वांचतां आपणुं हैयुं पण प्लावित थई जतुं अनुभवाय छे.
आ पत्रने उत्तम/श्रेष्ठ पत्र गणवो जोईए. आनन्द ए वातनो छे के उदयरत्न जेवा आपणा मान्य-प्रिय कविनी एक नवतर रचना आपणने सांपडी रही छे. (हस्ताक्षरोनां दर्शन प्रथम मुखपृष्ठ पर थाय छे.)
(२४) कवलागच्छ ए उपकेशगच्छनुं नाम छे, अथवा तेनी शाखा छे. आ गच्छमां आचार्य थाय तेनुं नाम 'देवगुप्तसूरि' ज रखातं. अने ते प्रथा २०मा शतकमां पण चालु होवानुं जाणवा मळे छे, आ पत्रथी. आचार्य 'ककुदाचार्यसन्तानीय' गणाता. गच्छपति होवाथी ते 'चतुरसीती गच्छाधिराज'नुं बिरुद पण धरावता. पत्र नानो छे. छतां तेमां बे-एक कल्पनाओ मजानी छे. जोईए :
दूहो २ - "माबाप मात्र जन्म आपे, तमे (गुरुए) तो चोपगामांथी बेपगो कयों ! - बाळक भांखोडियाभेर चाले ते चोपगो गणाय; के पछी परणे ते पण चारपगो ज; तेवाने साधु बनावी तमे द्विपद-बेपगो बनाव्यो !"
दूहो ४ - "करै कीट तै भुंग" कीडो (ईयळ) भृङ्ग-भ्रमर बनी मुक्त विहरे तेम, कीडा जेवा मने गुरुए 'गुरु' जेवो बनावी दीधो !"
(२५) साव नानो पत्र, पण तेनी प्रस्तुतिने कारणे विलक्षण बनी रहे छे. शिष्य अने संघ गुरुने केवा लाड अने अधिकारथी टकोर करे छे ! जोवा जेवं छे:
"तमे शाह सहसमल अने संपूरदेना दीकरा; मालवाना वतनी; त्यां उज्जैनी अने शाहजिहांपुर तरफ ज विचरो ! पोतानां वतननो मोह न छोडो !
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अमे अहीं पधारवानी वात/विनंति करीए छीए. पण ते वात मन पर तमे लेतां ज नथी ! अमने गुरुमुखे प्रभु वीरनी वाणी सांभळवानो उत्कट भाव छे, पण तमारा वगर ते कोण संभळावे? एटले अमारे तो वाणीनो विरह! ते पण तमारा लीधे ! आ दुःख क्षणे क्षणे कनडे छे. हवे तो एटलुंज कहीए छीए के तमारे अमारी जरूर छे के नहि - ते नक्की करजो. जो अमारो खप होय तो वहेलासर आ तरफ - खंभनयर-खंभात पधारो !"
भावनानी आवी उत्कटता साथे आटली बळकट अभिव्यक्ति अन्यत्र भाग्ये ज जोवा मळी छे, अने ते दृष्टिए आ पत्र महत्त्वनो जणाय छे. वळी, विवेक पण केवो ! १३मी कडीमां 'लघु भारी असमंजस' - अर्थात् अविनयथी प्रेराईने ओछु के वधु पडतुं जे असमंजस वेण लख्यु, ते खमजो! अमारे तो साचा स्वजन तमे-गुरु ज छो; बीजा कोने अमे कहीए? - आ विवेक हृदयस्पर्शी बने छे.
पत्रलेखक खुशाल मुनि छे. गुरुनी पाट परम्परानो निर्देश तेमणे मजानो कों छे:
"समर-राय-विमल-जया-विजै-विनचंद पटोधारी रे,
श्रीअखयचंदसूरीसरु, धरमतणा दातारी रे"
अर्थात् - समरचन्द्रसूरि-रायचन्द्रसूरि-विमलचन्द्रसूरि-जयचन्द्रसूरिविजयचन्द्रसूरि-विनयचन्द्रसूरि- तेमना पट्टधर अक्षयचन्द्रसूरि.
वांचन अने समजणनी भूलने कारणे 'समरराय-पिता, विमलजया-माता, विजयविनयचन्द्रसूरि-गुरु' - आम पण थई शके. पण ते बराबर नहि. पत्रना छेडे के क्यांय वर्षनो उल्लेख नथी.
(२६) लोंकागच्छ-सम्बन्धित आ पत्र व्रजमिश्रित हिन्दीमां छ; अजमेरथी बीकानेर लखायो होई मारवाडीनी छांट होय ते सहज गणाय. कुण्डलिया छन्दमां दूहाछन्दनो समन्वय, तेमां दूहानी चोथी पंक्ति ज कुण्डलियानी प्रथम पंक्तिरूपे आवर्तित थाय छे. दूहा, कवित्त, कुण्डलिया - बधा छन्दो गुरुवर्णन-परक ज छे.
(२७) आ पत्र सचित्र होय तेवी सम्भावना छे, अने जो होय तो तेनां चित्रो शीघ्र
प्रकाशित थवां घटे, केमके तेमां महाराष्ट्री चित्रशैलीनी छाप हशे, जे दुर्लभ गणाय. पत्रमा रिक्तलिपिनां सुशोभनो तेमज बन्ने तरफ फूलवेलनी भात (Border) पण रमणीय लागे छे.
आ पत्र महाराष्ट्रना नवरङ्गाबादथी लखायो छे. तपगच्छनी एक शाखा सागरगच्छ, तेना गच्छपति लक्ष्मीसागरसूरिना शिष्य कल्याणसागरसूरि उपर, नवरङ्गाबाद संघना नामे जयसौभाग्य उपाध्याये लखेलो आ विनतिपत्र छे. आमां, अन्य पत्रोमां होय तेवां अमुक पद्योने बाद करतां, आखी पत्र-रचना नवतर, अन्य तमाम पत्रो करतां वधु ताजी गणी शकीए तेवी छे. अमदावाद-गौर्जरदेशमा रहेला आचार्यने नवरङ्गाबाद पधारवानी विनति आ पत्र द्वारा थई छे.
आमां एक ज ढाळमां गुंथी लेवायेलां श्रावक-नामोमा धामी' तथा 'नीमा ज्ञाति'ना उल्लेख नोंधपात्र छे. नामो स्पष्टतया श्रावको गुजराती होवानुं सूचवे छे. 'शेषपुरा'ना शाह 'नाहना', 'सोझिंतरा'ना 'अमाइदास भूलाभाई' आ नामोथी ते धारणा दृढ बने छे.
त्यांना देरासरमां (के देरासरोमां) ऋषभदेव, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ बिराजमान हशे तेम पण एक उल्लेखथी समजाय छे. नवरङ्गाबादमां पधारेला मुनिगणनां तेमज गुरु साथे वर्तता मुनिगणनां नामो ऐतिहासिक रीते उपयुक्त गणाय.
दरेक पखवाडियानी पाखी-चौदशने दिवसे पौषध-उपवास विपुल संख्यामा थतां हशे, तेनां पारणां विविध गृहस्थो तरफथी कराववामां आवतां होय, तेवी विगत रसप्रद छे, पर्युषणना जमणवारोने अंगे पण तेवी ज विगत छे.
'कर्णपरा' त्यांन परु होवानुं लागे छे. त्या पार्श्वनाथ-जिनालय छे. पछीथी गोडीजी पार्श्वनाथनो निर्देश पण छे, ते त्यांना होय तेनी स्पष्टता नथी थती.
अन्तभागे मराठी भाषामां पार्श्वनाथनुं लघु स्तवन पण रसप्रद रचना छे, तेमां पार्श्वनाथने 'पासूबाबा' तरीके ओळखावेल छे.
पत्र अपूर्ण नथी; पूर्ण ज छे. छेल्ले 'ताम्बूल'ना वर्णननो श्लोक, पत्रलेखक कल्पनाशील कवि होवानुं सूचवी जाय छे.
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(२८)
आ पत्र एकंदरे अन्य पत्रो समान छे. आमां भाषा काव्यो बहु ओछां अने सामान्य छे, सं. पद्यो ५३ छे, अने विस्तृत गद्यांश छे. पद्यो अशुद्ध खरं, पण कर्तानी विद्वत्ता तेमां डोकाय छे. एक बे पद्योनो आस्वाद लईए पद्म २४मां कवि कहे छे के "जैन मत अनुसार, 'छाया (पडछायो ) ' ए भावात्मक अर्थात् पौद्गलिक पदार्थ छे, अने ते साचुं पण लागे छे. एटला माटे के पार्श्वनाथनी छाया थकी आच्छादित मनुष्यो दुःख- दुर्गतिने पामता नथी होता." (आवुं तो ज बने के जो 'छाया' पदार्थ होय) पद्य ४१मां वळी कवि आकाशनी वात करे छे: "आकाश माटे 'शून्य' एवी संज्ञा प्रयोजाय छे, (अने ते तेनो दोष छे), तेनो आ दोष, अ नगरना श्रेष्ठीओनी ऊंची गगनचुम्बी हवेलीओ थकी आपोआप टळी जाय छे. अर्थात् ए हवेलीओ आकाशमां छवाई जईने तेनी शून्यताने भूसी नाखे छे" आम, नवीन कवि-कल्पनोनां छंटणां आ पद्योमां जोवा मळे छे. आ पत्र पण सचित्र छे, अने तेमां रिक्तलिपिमां 'भट्टारक लक्ष्मीसागरसूरी' एवा अक्षरो आलेखाया छे.
(२९)
पेसकपुर ते मारवाडनुं पेसुआ गाम कुबेरधनहेतपुर ते बीकानेर न होई शके. धनपुर (धनारी?) नामे कोई गाम होय तो बने आम तो आ पत्र सामान्य कक्षानो गणाय. सं. १८६१मां तपगच्छना हर्षरत्नसूरिशिष्य राजेन्द्रसूरिने लखायेलो पत्र छे. नगरनुं वर्णन 'गजल-चाल 'मां थयुं छे. विशेष कशी विगत जोवा मळी नथी.
(३०)
आ पत्र मालवणी लखायो छे. मालवण पाटण पासे छे, सुरेन्द्रनगर विस्तारमां पण एक मालवण छे. आ पत्रनिर्दिष्ट मालवण ते पाटण पासेनुं होय तेवी सम्भावना वधु पत्र रत्नविजय पर छे. लखनार व्यक्ति तेमना प्रति गाढ स्नेह धरावता होय तेवो भाव पत्रमां डोकाय छे. लेखक पोताना पत्रने 'प्रेमपत्र' (८) गणावे छे, ते आज वातनुं द्योतक छे. पत्रारम्भे 'परमेष्ठिनुं स्मरणमङ्गल थयुं छे. कडी ७मां चन्द्रप्रभु (मालवण) नो उल्लेख छे.
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लेखक मूलतः अजैन अने कदाच दशनामी सम्प्रदायना साधुना कुळना हशे तेवुं अनुमान, दूहा क्र. ५ जोतां थाय. ए दूहामां कर्ता पोताने 'गोरखकुळ' ना वर्णवे छे. पोते अणघड छे पण 'शम्भुप्याला' (भांग ? ) ना सेवनथी साते धातु खीली उठे छे आ विधान उपरनुं अनुमान प्रेरे तेवुं छे.
कवि 'बारोट' होय तो ते वधु सम्भावित छे. केमके पत्र जेना पर लखे छे ते वडील होवा छतां तेने 'तुं'काराथी उल्लेखे छे : "चिरंजीवी रहो तुं सदा" (६). आवुं जन्मजात बारोट ज लखी शके.
कडी १३ मां नित्यानन्द, फते, जयसिंह वगेरे, तथा क. १५मां चतुर, रामआ बधां विशेष नामो होय तेम जणाय छे.
१४मी कडीमांनी वातो पर लक्ष्य आपतां एम थाय के पत्रलेखक 'मुनि' नहि होय; गृहस्थ व्यक्ति हशे समग्रपणे पत्रनुं अवलोकन करतां आ छाप ज उपसे छे.
"नयणा आडा डुंगरा, मन आडुं नहि कोय" आ एक स्नेही हृदयमांथी उगेली स्वाभाविक स्नेहोक्ति छे. "तमे एटला दूर छो के तमने दैहिक रीते मळवामां आडा घणा पहाडो (अवरोधो) नडे, पण 'मन' थी तमने जोवासंभारवामां तो आवुं कशुं ज नडे तेम नथी. (तमारा जेवा) सज्जन जननो मेळावडो (मने) मळयो, ते पुण्य विना न मळे !"
क. १७मां प्रयुक्त 'बीमणो' शब्द 'बमणा-द्विगुणित' अर्थमां छे. 'भाईजीथी अंतरभाव थयो छे'- ए वाक्यनो मर्म पकडवो कठिन छे. 'भाईजी' शब्द रत्नविजय माटे हशे के अन्य कोई माटे ? घणा भागे अन्य कोई माटे होवो जोईए, 'अंतरभाव' एटले 'अंतरनो भाव' पण थाय, अने अंतर- आंतरुं दूरता पण समजाय. २०मी कडीमां कदाच आनुं कारण आपवामां आवे छे: 'दांणा पांणीको जोर हैं' 'दाणापाणी' एटले 'अंजळपाणी' के 'लेणादेणी'.
आखा पत्रना तात्पर्य विषे सुज्ञ जनो प्रकाश पाडे तेवी अपेक्षा.
(३१)
'रामचरितमानस'नी भाषा तथा शैलीमां, दूहा- चौपाई ओमां बद्ध, आ नानकडो पत्र तेनी भाषा तथा कल्पनाने कारणे एक मजानी कृति बनी गयो छे.
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आ पत्र खरतरगच्छ के लोंकागच्छ साथे सम्बन्ध धरावतो होवाथी अटकळ थाय छे, नयनसुख, रामदास, हंसराज स्वामी, तेमना गुरुलेखे कल्याणमल्ल - आवां नामो आ गच्छोमां होवानुं संभवे छे.
गङ्गा अने सतलज-बे नदी ते शहेरनी नजीकमां वहे छे तेवो उल्लेख जोतां त्रिकुटनगर ज पंजाबचें कोई शहेर के गाम होय तेवू अनुमान थाय छे. गुरुने चन्द्रनी तथा सूर्यनी उपमा आपवा द्वारा तेमनुं वर्णन करवामां कविए कृपणता नथी दाखवी.
(३२) आ एक नवी ज भातनो पत्र छे. एक मारवाडी श्राविकाए एक साध्वी गुरुणी उपर लखेल आ पत्र छे. पत्र पालीताणाथी लखायो छे. लिखितंग लखनार पोतानुं नाम नथी लखतां, पण पोतानो निर्देश आ प्रमाणे करे छे : "पालीताणासु लिखतु हेमचंदारा दादीजी नथमलजीरा भुजीका" अर्थात् "हेमचंदनी दादी अने नथमलजीनी भोजाई"ना खामणां. पत्र साध्वीजी पूनमश्रीजी उपर लखायो छे. ते कया क्षेत्रमा विराजतां हशे तेनो निर्देश नथी. मङ्गलमा १. चिन्तामणि पार्श्वनाथनुं स्मरण छे, ते जसकोरनी धर्मशालाना देरासरना भगवान हशे तेम मानी शकाय; २. ते पछी आदिनाथजीनुं तथा साथे १४५२ वजीर (गणधर), स्मरण छे, ते शत्रुञ्जय परना दादा आदिनाथ तथा १४५२ गणधरपगलांनुं स्मरण लागे छे. चोथा दहामां कांईक विगत होवान लागे. पण स्पष्टता नथी थती. 'नगर अतहि रत्न' एटले शु? श्रेष्ठ रत्न जेवू नगर ? के रत्नपुर? (रतनपुर?). 'सुखेज' पद कोई नाम हशे ? 'सरदारसिंह' तो प्रगटपणे राजानुं नाम छे. एक अनुमान थाय के आ दूहामां सूचवाता क्षेत्रमा साध्वीजी बिराजता होवां जोईए.
५-१५ क्र. ना दूहाओमां १-२७ गुणोनुं वर्णन छे. 'साध्वी' साधुपदमां गणाय, ने ते पदना २७ गुण तेमनामां पण संभवे. ते पछी गद्य विशेषणो आवे छे. पछी पुन: दूहा शरु थाय छे. तेमां दूहा ३मां 'तज' छे त्यां 'भज' होय तो वधु उचित लागे छे. 'समान विशेष' ते 'सामान्य अने विशेष' बे पदार्थोनो उल्लेख छे. जिनआगममां ते बेने, वैशेषिकोनी जेम, परस्पर-निरपेक्ष-स्वतन्त्र पदार्थ नहि, पण परस्परसापेक्ष अने द्रव्यादिना धर्मरूपे स्वीकारवामां आव्या छे, तेनुं अहीं सूचन थयुं जणाय छे. ४मां नव तत्त्वनी वात, ५मां स्व-पर-व्यवसायी
ज्ञान ते सम्यग्ज्ञान तेमज १ थी ९ तत्त्व(?) भेदनी वात करी छे. ६मा निजगुणपरगुणना सन्दर्भमां स्वभाव-परभावनी वात छे. आ रीते दरेक दूहामा गम्भीर तत्त्वज्ञाननी वातो गुंथी लीधी छे, अने ते तत्त्वनुं ज्ञान गुरुनी सेवा करनार जीव गुरुयोगे मेळवी शके (२२) तेम पण कयुं छे. आ दूहा वांचतां लखनार श्राविकाना श्रुतबोध तथा रचनाशक्ति माटे भारे बहुमान जागे छे. जो के केटलांक वाक्यो समजातां नथी, शुं कहेवा मागे छे ते स्पष्टता नथी थती.
१७मा दूहाथी वळी १-२७ गुणोनुं वर्णन शरु थाय छे, जे परम्परागत रीतनुं छे, छेवटना गद्यांशमां साध्वीओनां नाम छे, अने क्षमापना निवेदन छे. पत्र तात्त्विक दृष्टिए महत्त्वपूर्ण छे.
(३३) आ पत्र विज्ञप्तिपत्र करतां आनन्दना अने अनुमोदनाना समाचार आपतो पत्र होवानुं वधु संभवित जणाय छे. कया नगरे कोना उपर लख्यो छे ते विगत नथी, पण सातमा दूहामां "तत्र श्री.... नगरे" एम छे तेथी आ एक खरडो के ड्राफ्ट हशे, जेनी नकलोमांजे ते गामनुं नाम उमेरी मोकलवानो हशे.
बाबसाहेब धनपतसिंहजी ते जेमणे कलकत्तामा आगमोनुं प्रकाशन कयु ते, बाबुना देरावाळा. १४मा दूहामां आवता प्रतापसिंह ते प्रचलित शत्रुञ्जयनुं स्तवन 'सिद्धाचलगिरि, भेट्या रे, धन्य भाग्य अमारां' - एमां आवती पंक्ति 'प्रभुजीके चरण प्रताप के संघमें', तेमांनो 'प्रताप' शब्द - तेज होय तेम लागे छे. रतनविजय कया गच्छ-संघाडाना? तेमना गुरु कोण? ते स्पष्ट नथी थतुं. उपर उल्लिखित स्तवनमां आवतुं नाम 'खीमारतन' साथे एमनो सम्बन्ध होय तो शक्य छे. पण प्रतापसिंहनी सुशील पत्नीनी भावनाथी तेमणे बालुचरमां भगवतीसूत्रनुं वांचन कयु हशे, तेनी वधामणी आपवा माटे लखायेलो आ पत्र छे. प्रथम पद्यमां ज 'प्रणमी तज अहमेव' एवं पद छे. तेनो मतलब छे- "प्रणाम कर अने 'अहमेव - हुंज' एवा अहंकारनो त्याग कर." आ रीते वात मांडनार कविनी अध्यात्ममस्ती अहीं व्यक्त थाय छे. सं. १९१९मां आ प्रसंग बन्यो छे, पत्र लखायो छे.
(३४-३५) आ बे पत्रो कंकोतरी के आमन्त्रण पत्रो छे. पहेलो पत्र तारङ्गातीर्थे निर्माण
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पामेल नन्दीश्वरद्वीपना (बावन) जिनालयमा चौमुखजीनी प्रतिष्ठा-प्रसंगे पधारवानो आमन्त्रण पत्र छे. तारङ्गागढ, वडनगर, गढवाडा, सीपोर - बधां गामोनां महाजनोए संयुक्त रीते ते पाठवेल छे. इतिहासनी एक नक्कर विगत आमां उपलब्ध थाय छे के ते वखते तारङ्गातीर्थनो प्रबन्ध आ बधां महाजनो संयुक्तपणे करतां हां, कोनी अने क्या प्रतिष्ठा? एवो प्रश्न अस्थाने लागे छे. आ पत्रिका ते समग्र मन्दिरनी प्रतिष्ठा माटेनो पत्र होवार्नु मानवू जोईए. सं. १८८०ना मागशरनो पत्र छे, अने महा शुद ५नी प्रतिष्ठा छे.
बीजी कंकोतरी अमदावादना नगरशेठ वखतचंद खुशालचंद तरफथी लखवामां आवी छे, आमां १८८३ना वर्षे अमदावादथी शत्रुञ्जयना संघर्गे आमन्त्रण छे. विलक्षणता ए छे के पो.व.९नुं मुहूर्त छे, अने महा सुद नुं प्रयाण जणाव्युं छे.
कार्तक (१८८३) थी कार्तक (१८८४) - एम एक वर्षतुं 'मुंडकुं' एटले पालीताणाना काठी-गोहिल दरबारो तरफथी रखोपाना बदलामा लेवातो माथादीठ यात्रावेरो, नगरशेठे (सहु यात्रिक जनो माटेनो) चूकवी दीधो छे; तेमज भावनगर, तळाजा, घोघा - आ क्षेत्रोमां पण, त्या-त्यांना राजशासन द्वारा, संघ/यात्रिको आवे तो जे कोई कर वसूलातो होय, ते बधो पण, १२ मास पूरतो, तेमणे चूकवी दीधो छे. तेथी यात्रा माटे तथा संघ साथे पधारनारे ते सम्बन्धी कोई चिन्ता राखवी नहि, तेवं सूचन पण आ पत्रमा थयुं छे, जे ऐतिहासिक विगतलेखे महत्त्वपूर्ण छे.
उपरांत, शेठे इंगर उपर बंधावेल नवा देरासर (उजम फोईनी टंक हशे?)नी फा.शु. ४ना गुरुवारे प्रतिष्ठा थनार छे ते विगत पण आमां नोंधाई छे. (आ कंकोतरीनुं चित्र अङ्कना चोथा मुखपृष्ठ पर आपवामां आव्युं छे.)
ऐतिहासिक मूल्य धरावती आवी कंकोतरीओ आपणने मळे अने ते आ विज्ञप्तिपत्रो साथे प्रगट थाय छे, ते पण एक उपलब्धि ज गणाय,
पूरक नोंध १. आ पत्रोमां गच्छ, गच्छपति जेवा शब्दो वारंवार आवे छे. ते अंगे अनभिज्ञ
जनो माटे थोडीक स्पष्टता : जैन धर्म-संघमां मुनिओनी प्रधानता होय छे. मुनिओना समूहने 'गण' के 'गच्छ' तरीके ओळखाय छे. ते गच्छना वडील-सर्वोच्च आचार्य 'गच्छपति' के 'गच्छनायक' तरीके ओळखाय,
आवा गच्छो विविध-घणा होय छे. क्यारेक ८४ गच्छ हता. जुदा जुदा हेतुसर साधुसमूहो विभक्त थईने अन्यान्य गच्छना नामे जाणीता थाय. कोईक व्यक्ति, स्थळ, घटना, ज्ञाति - आवा विभिन्न पदार्थोनां नामे गच्छो स्थपाता होय छे. एकेक गच्छमां पण पेटाजूथो होय, जे 'संघाडा' के 'समुदाय' तरीके
ओळखाय. २. विज्ञप्तिपत्रोना आ चोथा अङ्क विभागमा ३५ पत्रो प्रगट थाय छे. आ तमाम
पत्रो (तथा केटलाक प्रगट नहि थता-नहि करेला पत्रो पण), जे ते भण्डारो-सङ्ग्रहोमांथी शोधी काढवानु, प्राप्त करवायूँ, तेमनी प्रतिलिपि करवानु, यथामति सम्पादन करवानुं - आ बधां ज कार्य अमारा उत्साही तथा अध्ययनशील बे भाई - मुनि सुयशचन्द्रविजयजी तथा मुनि सुजसचन्द्रविजयजीए कयु छे. तेमना विद्वान् गुरु आ. श्रीविजयसोमचन्द्रसूरिजीनी प्रेरणा तथा अनुमति आ कार्यमां तेमने माटे आशीर्वादरूप बनेल छे. ए
रीते, आ समग्र अङ्कनुं सम्पादन-श्रेय ते बे मुनिराजोने फाळे जाय छे.. ३. ते बन्ने मनिओए जे जे स्थानेथी सामग्री प्राप्त करी छे तेनी नोंध आ प्रमाणे छे:
(१) क्रमाङ्क१,२,६,७,१४,१५,१६, २२, २६, २९,३२= श्रीकैलाससागरसूरि जैन ज्ञानमन्दिर, कोबा; (२) क्र. ४, ५,८,९, १३, २३, २७, ३४, ३५ = ला. द. भा. सं. विद्यामन्दिर, अमदावाद, ह.पं. जितुभाई; (३) क्र. १८,१९, २१ % आर्य जम्बूस्वामी जैन मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिर, डभोई; (४) क्र. १०, ११ = श्रीरत्नाकरविजयजी ज्ञानमन्दिर, महुवा; (५) क्र.३०, ३३ = श्रीनेमिविज्ञानकस्तूरसूरि ज्ञानमन्दिर, सूरत; (६) क्र.३१ = श्रीहेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमन्दिर, पाटण; (७) क्र. २० = श्रीभीलडियाजी जैन ज्ञानमन्दिर, ह. आ. श्रीमुनिचन्द्रसूरिजी; (८) क्र. १७ = श्री केसरबाई जैन ज्ञानमन्दिर, पाटण, ह. मुनिश्रीधुरन्धरविजयजी; (९) क्र. २५ = शेठ डोसाभाई अभेचंद जैन ज्ञानभण्डार, भावनगर, ह. आ. श्रीनिर्मलचन्द्रसूरिजी; (१०) क्र.३ = वीरबाई जैन पाठशाला, पालीताणा, ह. उपा. श्रीभुवनचन्द्रजी; (११) क्र. २४ = भो.जे. विद्याभवन, अमदावाद, ह.श्री रामजीभाई सावलिया; (१२) क्र. १२, २८मां प्राप्तिस्थाननी नोंध नथी; आ तमाम ज्ञानभण्डारो-ग्रन्थालयोनो, तेना संचालको-ट्रस्टीगणव्यवस्थापकोनो तथा आ सामग्री मेळववामां सहायकर्ताओ - तमामनो ते बेउ
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मुनिवरो हृदयपूर्वक आभार प्रदर्शित करे छे. ४. पत्र क्र. १२, १४, १५, १६, १७, १८, १९, २४, २६, २७, २८ आटला
पत्रो प्राय: सचित्र छे. आ बधां चित्रोनुं एक सुन्दर प्रकाशन थq जोईए. अमारा माटे तो जे ते पत्रोना लखाण पूरती जेरोक्स ज उपलब्ध छे,
चित्रोवाळा भाग नहि. परन्तु कोई रसिके आवं काम पण करवा जेवं खरं. ५. आ अङ्कगत पत्रो सम्पादन ए एक आकरी कसोटी तथा महेनत मागी लेतुं
काम ह. छल्ला केटलाक महिना आ पत्रोना वांचन, सम्मान, सम्पादन पछी प्रूफवाचन, नोंधोनु लेखन - आ बधांमां वह्या छे. सामान्य के सहेलं मानी लीधेलं काम करवा बेठा त्यारे केटलुं श्रमसाध्य छे ते समजायुं. आमां घणो परिश्रम तथा समयव्यय मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजयजीए कर्या छे. अने तेमनी हैयाउकलतने कारणे आ पत्रोनो क्रम गोठववाथी लईने अनेक बाबतो सरळ बनी गई छे. तेमने अभिनन्दन आपवां ज पडे. छेले एक महत्त्वनी वात : सम्पादननी अमारी क्षमता/आवडत मर्यादित छे. भाषाज्ञाननी सज्जता नहिवत् गणाय. छन्दबोध पण सीमित. अने आवां सम्पादन माटे चारणी-डिंगळी कोष, राजस्थानी कोष, गुजराती अने हिन्दी कोष - एम विविध कोषोनी, तथा अनेक सन्दर्भग्रन्थो-इतिहासग्रन्थो इत्यादिनी मदद लेवी अनिवार्यपणे जरूरी बने. अमारी अनेकविध मर्यादाओने कारणे अमे आवं कशुं ज कयु नथी. आ अमारी कबूलात छे, बचाव नहि. आ साधनोनी मदद लेवामां आवी होत, तो पदच्छेद, शब्दनी चोक्कस ओळख, तेना अर्थ- निर्धारण, छन्दोनी ओळख तथा तेना बंधारणप्रतिपादन, इतिहासना सन्दर्भो तथा पात्रोनो परिचय तथा कालानुक्रम - आ बधां विषे वधु चोकसाईपूर्वक काम थई शक्युं होत.
अस्तु. तो पण आ काम करवामां एक अनेरो आनन्द आव्यो छे. 'अनुसन्धान ना मिषे, ४ अड्रोमां, विज्ञप्तिपत्रोनुं एक मातबर संकलन थई शक्युं, ते एक घटना लागे छे. एवं नथी के हजु आवा पत्रो नहि होय, पण आ प्रकाशन ते अप्रगट के भण्डारोमा दटाईने पडेला पत्रो माटे उद्दीपक- प्रेरक बनशे तो आ प्रयत्न लेखे लागशे.
- शी.
विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क ४, अङ्क ६५मां प्रगट थता तमाम विज्ञप्तिपत्रोना
सम्पादको मुनि सुयशचन्द्रविजयजी मुनि सुजसचन्द्रविजयजी
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नवेम्बर - २०१४
अनुसन्धान-६५
खनभातथी श्रीविनयविजयजी उपाध्यायनो राजनगरस्थ-श्रीविजयदेवसरिजीने पत्र
उपा० विनयविजयजीनी रचनाशैलीथी प्रायः बधा विद्वानो परिचित हशे ज. तेमनी रचना अर्थनी दृष्टिए गम्भीर होय, छतां गेयतानी दृष्टिए एटली ज सरळ, पछी ते 'शान्तसुधारस' जेवा संस्कृत ग्रन्थो होय के श्रीपाळरास जेवी गुर्जर कृतिओ. प्रस्तुत कृति उपा० विनयविजयजी महाराजनी पत्रसंज्ञक रचना छे. विजयदेवसूरिजीने खम्भात चातुर्मासनी विनन्ती करवा साथे क्षेत्रसम्बन्धि माहितीनो चितार आपता शरुआतनां ७ पद्योमा कवि खम्भात चातुर्मास बिराजमान होई चातुर्मासमां थयेली आराधनानुं वर्णन करे छे. त्यार पछीना ८मा पद्यमां मेघने मन जेम नाना-मोटा सर्वे सरखा होय तेम आपने पण मन होवं घटे एम कही पूज्यश्रीने मीठो उपालम्भ आप्यो छे. शास्त्रमा चातुर्मासयोग्य भूमीना जघन्य १ मध्यम २ उत्कृष्ट ३ एम ३ भेद पाड्या छे. तेमां १३ गुण वाळी भूमी उत्कृष्ट होइ मुनिभगवन्तोने चातुर्मास माटे वधु योग्य कहेवाय. अमदावादमां विहार दुष्कर, गोचरी आघी, इत्यादि घणी प्रतिकूळता थशे. खम्भातर्नु क्षेत्र तेरे गुणथी युक्त छे. तेथी अमदावादथीय चढियातुं छे एम कही चातुर्मास पधारवा विनंती करे छे. खम्भात पधारता विविध तीर्थोनी वन्दना तो थशे ज, साथे जेसिंगजी (विजयसेनसूरिजी) गुरुना स्तूपनी य वन्दना थशे एवं मीटुं प्रलोभन पण मूके छे. अथी य विशेष 'आपने ज्या पदप्रदान करायुं ते स्थान आपनाथी केम विसरी शकाय?' एम कही मीठी लागणीओ द्वारा सूरिजीने चातुमासार्थे तैयार करवा प्रयत्न करे छे.
छल्लो पद्योमा आपना पधारवाथी श्रीसंघमां शासनप्रभावनानां कयां कयां कार्यों थशे तेनो कविए मार्मिक अहेवाल आप्यो छे. सम्पूर्ण कृति खरेखर सुन्दर छे. काव्यमां नौधायेल जिनेश्वर प्रभुना तीर्थोनो तेमज गुरुस्तूपनो उल्लेख ऐतिहासिक दृष्टिए घणो महत्त्वनो छे.
श्रीलेखः स्वस्तिश्री प्रणमुं सदा रे, पास जिणेसर पाय, लेख लिखुं गुरुरायनि, पामी तुम पसाय सुगुरुजी ! पधारो रे, खंभनयरनो आज सोभाग वधारो रे विनती ए महाराज के मनि अवधारो रे ॥१॥ सुगुरुजी [आंकणी] खंभनयरथी वीनवई रे, संघ धरी मनि रंग, खेम-कुशल वर्तइ इहां, तुम नामइ उछरंग २ सुगुरुजी !.... इहां वखाण प्रभावना रे, नंदिमहोत्सव सार, उपधानादिक तप होई, बार व्रतउच्चार ३ सुगुरुजी !... सत्तरभेद जिनमंदिरई रे, पूजा सबल मंडाण, भावइ पावन भावना, श्रावक सब विधिजाण ४ सुगुरुजी !... परव पजूसण पणि हवां रे, विविध महोत्सवधाम, साहमीभगति प्रभावना, प्रमुख हवां शुभ काम ५ सुगुरुजी !... चतुर ! चतुरविध संघनी रे, नति अवधारो नित्त, श्रीआचारजप्रमुखनि, कहियो कोमल चित्त ६ सुगुरुजी !... उत्कंठा अह्मनि घणी रे, देखण तुम देदार, वेगि पूज पाउधारीई, करवा अह्म उपगार ७ सुगुरुजी !...
ढाल ॥ राग-केदारो ॥ देस-विदेसि इणी परि रे, कीध विहार अनेक, देइ उपदेस अबूझनि रे, कीधा सबल विवेक. ८ सुगुरुजी ! वेगि पधारो आंहि, थंभतीरथपुर मांहि सुगुरुजी...[आंकणी] हवइ अमनि वंदाववा रे, म करो पूज्य विलंब, जलधरनि मनि वरसतां जी, सरखा अंब-कदंब ९ सुगुरुजी.... राजनगरि किम संचीइ रे, जिहां दुष्कर विवहार, मुनिवर अलगी गोचरी रे, कादम-कीट अपार १० सुगुरुजी....
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नवेम्बर - २०१४
अनुसन्धान-६५
निसि-दिन सूता-जागतां, अम चरण तुहमारा त्राण रे, खिण-खिण तुम गुण गाइई, तुम नामई कोडि कल्याणो रे २४
जय जेसिंग.... ज(जे)य वलता सुख-संयम तणां, पूज मोकलयो अह्म लेख जी(रे), सेवकनि संभारयो, जिम होइ हर्ष विशेष रे २५ जय जेसिंग.... संवत सत्तरपंचोत्तरे (१७०५), एतो धनतेरसिं सुविशेष रे, कीर्तिविजय वाचक शिष्यें, लिखिओ विनये विधि लेख रे २७(२६)
जय जेसिंग.... ॥ इति श्रीलेख सम्पूर्णम् ॥
तेर गुण त्रंबावती रे, खेत्र तणां छइ जेह, तेणइ कारणि इहां आवq रे, चोमासइ धरि नेह १२ सुगुरुजी.... जिनमंदिर जिहां दुकडा रे, परिसरभूमि पवित्र, अति अलगी नहीं गोचरी रे, भगत लोक मुनिमुत्रि १३ सुगुरुजी.... श्रीसुखसागरपासजी रे, जिहां कंसारीपास, जगतारण जीराउलो रे, चिंतामणि सुखवास १४ सुगुरुजी.... इत्यादिक तीरथ घणां रे, शुभ [सोही जैसिंग, मंदिर अनि उपासिरा रे, सुरघर जिम अति चंग १५ सुगुरुजी.... ते किम मनथी मुकीइ रे, थंभ ती[२]थ गुण थाट जिहां गुरु हीरपटोधरइजी [रे], दीधो तुह्मनि पाट १६ सुगुरुजी... इहां होसई बहु लोकनि रे, बोधिबीज आरोप, तुम आवइ अरिहंतनई रे, शासन चढसइ ओप १७ सुगुरुजी.... पिसनघूक घू-धू करी रे, कलह उपाये कोप, ते तुम दिनकर ऊगमता रे, क्याहि थासइ अलोप १८ सुगुरुजी.... मीणतणी परि कारिमा रे, अवतरणा आटोप, तुह्म प्रतापरवि-तापथी रे, गलतो लहसइ लोप १९ सुगुरुजी.... लाभ घणा तुहमनि ह(हो)सइ जी, विवहारी वडचित्त, सातई खेत्रई वावरी जी, सफल करेसई वित्त २० सुगुरुजी....
ढाल ॥ राग - धन्यासी ॥
घj घणुं लिखिई किस्युं, तुझे सहजइ सघलं जाणो रे, खंभनयरना संघनी ए, वीनंती करो प्रमाण रे २१ जय जेसिंगपटोधरू, श्रीविजयदेवसूरिरायो रे, सुर नर राणा राजीआ, जस प्रेमइ प्रणमइ पाय रे २२ जय जेसिंग.... इणि काका)लि तुम समो को नहीं, ते तो जग सहू जाणई रे, कर्मई नडीआ बापडा, पणि मतीआ निज मत ताणइ रे २३ जय जेसिंग....
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(२) श्रीपुरस्थ-श्रीविजयदेवसूरिजीने उद्देशीने
अहमदानगरथी उदयविजयजीनो पत्र
श्रीपुरनगरमा बिराजमान श्रीविजयदेवसूरीश्वरजीने उद्देशीने लखाएल प्रस्तुत पत्रमा उदयविजयजीए पूज्यश्रीने अहमदानगर पधारवा माटे विनंती करी छे. श्रीपुरनगर माटे अन्य कशो उल्लेख काव्यमां मळतो नथी.
काव्य नानु छे. शरुआतना पद्यमां क्षेम-कुशलना समाचार आपी कविए पछीनां पद्योमा गुरुभगवन्तने मळवा माटेनी उत्कण्ठा दर्शावतां ३ सुन्दर पद्यो मूक्यां छे. त्यार पछीना पद्यथी गुरुना गुणवैभवना लेखननी अशक्ति दर्शावतां ५ कल्पनात्मक पद्यो छे. काव्यना अन्ते मळती पत्रलेखनना समयनी नोंध तेमज कविना गुर्वादिना नामनी नोंध विशेष उल्लेखनीय छे.
॥ ई० ॥ पण्डित श्रीकमलविजयगणिगुरुभ्यो नमः ॥
॥ राग : सारिंग मल्हार ॥ स्वस्तिश्री जिनपय नमि, श्रीपुर नगर सुथान, पुज्यजी, लखितं सेवक विनती, तुम्ह चरणे मुज ध्यान, पुज्यजी. १ एक वार वेग पधारवो, दीजइ सेवक मान, पुज्यजी, तुझ सम अवर कोइ नहीं, धन धन ताहरो ज्ञान, पुज्यजी. २
एक वार..... [आंकणी] कुशल-खेम वरतइ इहां, ते तुम्ह नाम प्रसाद, पुज्यजी, तुम्ह कुशलां नित पाहिए, अम्हनई हर्ष उल्हाद, पुज्यजी. ३
एक वार..... कागल केता हुं लखु, केता कहुं मुखवयण, पुज्यजी, श्रीगु[रु]नइ मिलवा भणी, वेगा देज्यो सयण, पुज्यजी. ४
एक वार.....
तुम्ह चरणे मुझ मन वस्युं, ज्युं ऐरावण इंद, पुज्यजी, जिम मन हंस सरोवरें, ज्यु रे चकोरा चंद, पुज्यजी. ५
एक वार..... जिम समरइ सति(ती) पति, हस्ति समरइ वंझ, पुज्यजी, मधुकर समरइ मालती, तिम हुं समरू तुझ, पुण्यजी. ६
एक वार..... गुण मोटा दि नानडा, रात अंधारि होइ, पुज्यजी, कागल ते हुआं सांकडा, किम लखतां मन होइ, पुण्यजी. ७
एक वार..... मही समान कागल करूं, मसी भरूं समुद्र अपार, पुज्यजी, अहोनिस तुम्ह गुण हुं लखें, तो हि न आवइ पार, पुण्यजी. ८
एक वार..... मुझ मुख एक जीभडी, गुण तो कोडा-कोडि, पुण्यजी, तो किम किंकर लखि सक(के), मोटि एह ज खोडि, पुज्यजी. ९
एक वार..... आऊ करी इंद्रनो, लेखण स्वर्गह दंड, पुज्यजी, आठ पहर रवि उगमइ, [तो] गुण लखइ अखंड, पुज्यजी. १०
एक वार..... श्रीगुरुना गुण अति घणां, केता कहं विस्तार, पूज्यजी, अक्षर तो बावन अछइ, गुणे न आवइ पार, पुज्यजी. ११
एक वार..... धन जे(ते) देस मनोहरू, धन जे(ते) गाम रसाल, पुज्यजी, धन जे(ते) श्राविक श्राविका, जे वंदइ तरकाल, पुज्यजी. १२
एक वार..... थोडइ लख्ये घणुं प्रीछज्यो, मुझ जीवन तुम्ह पास, पुज्यजी, जो निज सेवक लेखवो, आवि पुरो आस, पुज्यजी. १३
एक वार.....
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ए दिसि वेग पधारवो, अहमदानगर मझार, पुज्यजी, श्रीसंघ जोए वाटडी, ज्यं सारिंग घनधार, पुज्यजी. १४
चतुविध संघनी वंदना, घडीअ घडीनी जाण, पुज्यजी, संघनइ अति उमाहलो, सुणवा श्रीगुरुवाण, पुज्यजी. १५
एक वार......
आसो वदि दीपमालिका, इति मंगल गुरुवार, पुज्यजी, लेख लख्यो अति सुंदरूं, हुओ जय-जयकार, पुण्यजी. १६
एक वार......
विबुधा मांहिं सीरोमणी, कमलविजय गुरु सीस, पुज्यजी, ऊदयो आनंद अतिघणो, उदयविजय आसीस, पुण्यजी. १७ एक वार.......
*
पूज्याराध्य नभोमणी, श्रीगछपति चरणांन, पुण्यजी, सेवक लेख पठाइओ, श्रीपुरनगर सुथान, पुण्यजी. १८
*
एक वार.......
*
॥ इति श्रीविजयदेवसूरीश्वरलेखं समाप्तमेतत् ॥ श्रीअहमदानगरे ॥ कल्याणमस्तु ॥ श्रीरस्तु ॥ शुभं भवतु ॥ श्रीः ||
एक वार......
(३)
कवि माणिक्यचदजीनो विजयदेवसूरिने पत्र
कवि माणिक्यचन्द्रजीओ प्रस्तुत कृतिनी रचना करी छे. जेवा भावो कृतिमां गुंथाया छे ते परथी कवि विजयदेवसूरि पर विशेष आदर धरावता हशे एवं चोक्कस विचारी शकाय कृतिना शरुआतनां पद्योमां विविध उपमाओ द्वारा गुरुभगवन्तोना गुणोनुं वर्णन करी कवि पोतानी गुरुमिलन अंगेनी उत्कण्ठा वर्णवे छे. कृतिमांनां केटलांक पद्योना भावो अन्य विज्ञप्तिपत्रमां मळता श्लोकोनी समान ज छे. प्रतमां केटलीक जग्याए प्रतिलेखन अशुद्ध थयेलुं जणाय छे तेथी २-३ पाठो समजी शकाया नथी. तो बीजी २-३ जग्याए पाठमां सुधारोपण करवो पड्यो छे.
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॥ ६० ॥ स्वस्ति सदा तुझनइ हयो, श्रीविजयदेवमुणिंद, महिमा महियलमां घणो, तुं सबसूरिसूरिंद परम हितदायक सदा, लायक नायक खास, हीतकर प्रितिपात्र तुं, सब गुण - कलानिवास. मनमोहन आनंद तुं, मनवल्लभ विश्राम, मुझ मनमंदिर तुं वस्यो, तुं मुझ आतमरांम सकलसयणशिरोमणी, सकल गुंणलंकृतगात, कुमतांधकारनभौमणी, अखिलोपमा रही ख्यात. सो य देस नगर ज भलुं, जिहां गुरु करय विहार, धन्य ते नर-नारी सही, गुरुवाणी सुणे सार. श्रीगुरुवदन सोहामणुं, पेखई परम आनंद, पुण्य पवित्र जन जे होय, तस नर नयणाणंद. पुनिमनिशिनो चंदलो, मुखउपम सो तास अमृतसम जस बोलडां, सुणता होय उल्हास. अहनिसि मुखकज जोयवा, मुझ मन हरख अपार, जोतां तृपति ज नवि होइ, ते जाणे किरतार.
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नयनां निरमल ताहरां, अमी भयाँ अभिराम, स्याम सुंदर भमुहडी बनी, देखि सुखनो ठाम. नयनई सारिंग जीतीयां, तीखां अतिहि विसाल, रांती रेखा रूयडी, ति लहइ लच्छी रसाल. नारीमाहि नर वसे, नर भीतरि पणि नारि, नर धोलो नारी सामली, अनोपम ए अवधारि. [आंख]११ शुकचंचुसम नासिका, अधर ते विद्रुमकंद, श्रवण ते मदनहींडोलडा, दंत जिस्या मचकुंद. ग्रीवा शंख सम सूंदरु, उन्नत हृदय उदार, उदर ष्याम अति राजतु, कटि पंचानन सार. नाभि सुधारसकूपिका, दीसइ गंभीर चंग, जंघा कदलीयंभ जिम, पायपोयण ससरंग, नख उन्न[त] अति राजता, रक्तवर्ण अभिराम, श्रीगुरु तुझ अंग ज सही, लख्यण केरं धाम, गजगति चालि सुहामणी, तेणि मोया नरवृंद, जेणई देसई तु विचरतो, तिहां वलि नो हई दंद. मेरुनी परि धीर तुं, उदधि परि गंभीर, तेजवंत दिनकर पर, चंपकवरण सरीर. मुझ मन माला खिनु तुमह, जपत रहत दिन-रयण, श्रीगुरु तुह मुख दरसकुं, तपता हइ दो नयण. श्रीगुरुप्रेम ज चित्त चढ्यो, जिउं हर सिर चढी गंग, उतर नाही जनमलौ, जो कोट करइ अइ धंग. श्रीगुरुमूरत जु सूरतिकी, मई ठइ कमल उर आनि, पूनुं चंदन चित्तकई, सो जपुं नाम गुण ध्यान. श्रीगुरु गुण तुमाहरा, संभारु सो वार, मन जाणइ तन टलवलइ, नेत्र न खंडइ धार. महिमंडल मई जोईउ, जोई ते नरवर कोडि, जेणई श्रीगुरु तूं वीसरे, ते नहीं जगतिमा जोडि. २२
जो मसि होइ सायरु, कागल होय आगास, लेखण वणराइ होवइ, तो गुण लखें उल्हासि. २३ श्रीगुरु किमहिई न वीसरइ, देस-विदेस गयांई, जिम जिम श्रीगुरुसांभरइ, तिउं तिउं नयण भराई. डुंगर भोंइं छइ अति घणी, नदी-नीझरण असंख, किम आवी गुरु तुझ मिलुं, जो देवे न दीधी पंख. २५ हंस वसे मानससरे, मुंकी सकल आराम, तिम मन माहरइ तुं वस्यो, मुंकी अवर सुठाम. २६ रही न सकुं गुरु तुम विना, घडी घडी जपुं तुम नाम, अहनिसि मुझ चित तुं वसो, अवर न गमे मुझ नाम. २७ सारसडां तुं पांखडी, एक वार मोहि देय, श्रीगुरुनइ करूं वंदना, वलती पाछी लेय. जलसुत तो जलमां बसे, दधिसुत वसे आगास, श्रीपतिवाहन-वाहनो, सो य तुमाहरे पारि(स). एक पख्यका नेहला, जेसो दीप-पतंग,
ओ कछु जीओ न आणहीं, ओन होमई सब अंग. ३० जीह कोडि मुझ मुखि हवइ, आउखुं इंद्र समान, तो गुण श्रीगुरु तणा, हुं करूं नित गुणगान. ३१ पातग बहुलां मई कीयां, कुणस्युं करुं मनवात, नयणे स्वामी तुं मिलइ, ते वात करुं दिन-राति. ३२ दूर थकी अम्ह वंदना, धरज्यो हैडामाहि, मनजा माहि(मणि) मुझ कोई नहीं, जे आवइ तुम्ह ताहि. ३३ लेख लख्यो रलियामणो, मनह तणे उच्छाय, एणि परि वलि जे नेहलो, तस वंछित सुख थाय. ३४ चंदा चतुरसिरोमणि, सुणि तुं माहरी वाणि, श्रीगुरुहार्थि जइ करी, आपे लेख सुजाण. वलतो लेख संदेसडो, देजो श्रीगुरुराज, नित प्रति माहरी वंदना, करयो एतलुं काज.
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लेख-संदे[श] तुं लावणे, देईस सोवनजीह, फुनि मनवंछित जे हुस्यइ, आपीस नित नित दीह. ३७ संवत सोलअठोत्तरी (१६७८), प्रथ[म] आसाढ रविवार, एणि वरसे लेख नीपनो, हरख धरी निरधार. ३८ भवि भवि सेवा ताहरी, हुं वंछु जगदीस, थोडे घणुं तुम जायणो, तुं छे माहरो ईस. काम-काज कहीवयो, श्रीगुरु मननि खंति, लेख लखित वांची करी, धरयो मुझ परि चिंति. कवि माणिकससि रीझवा, लिखिओ कागल एह, अधिकुं ओर्छ जे लख्युं, खमज्यो साहिब तेह.
इति लेख: सम्पूर्णः ।। सज्जन तुझमां गुण घणां, अवगुण एक अपार, नेह लगाडी माणसां, मारइ विणु हथीआर, सज्जन मोती झुमखु, मन परवाली वेल, काआ(या) सरीखो दोरडो, कंठ करेवा हार, २ ॥छ।
पंडितसिरोमणी पंडितश्रीश्रीश्रीश्री५ श्रीसंघविजयगणि ततशिष्य मुनिक्षेमविजय लखितं सुश्राविका हीरबाई पठनार्थं ॥छ। शुभं भवतु कल्य(ल्या)ण मसतु(स्तु) संवत् १६९२ वर(वर्षे) मागसर शु(सु)दि ९ भरूअचबंदरे लिखतं ।
(४) खतभात बिराजमान श्रीविजयानन्दसूरिजीने सूरत श्रीसङ्घ वती श्रीदर्शनविजयजीनो पत्र
सूरतना श्रीसङ्घ द्वारा चातुर्मास पधारवा माटे विनंतीरूपे, प्रस्तुत पत्र, त्रम्बावती(खम्भात)मां विराजमान श्रीविजयानन्दसूरिजीने उद्देशीने लखायो छे. शरुआतनां पद्योमा पार्श्वनाथप्रभु तथा मा सरस्वतीने नमस्कार करी कविए खम्भातर्नु संक्षेपमा वर्णन कयुं छे, अने सूरिजीने वन्दनानी उत्कण्ठा वर्णवी छे. बीजी ढाळमां सूरतनगरनी वर्णना करतां अमे शा कारणथी तमोने अहीं पधारवा विनंती करीए छीए ए कारणो दर्शाव्यां छे. त्यार पछीनी ढाळमां गुरुदर्शनोत्कण्ठानां पद्यो तेमज गुरुभगवन्तनी उपमानां पद्यो सुन्दर छे. चोथी ढाळमां गुरुउपदेशन अने पांचमी ढाळमां गुरुस्मरणर्नु फळ कविए आलेख्यु छे, छेल्ली ढाळमां सूरिजीनी साथे बिराजमान वाचक कीर्तिविजय, उपाध्याय देवविजय आदि पण्डित तथा मुनिपरिवारने सङ्घनी वन्दना लख्या बाद छल्ले स्वनामोल्लेख साथे कवि दर्शनविजयजीए पत्र पूर्ण कर्यो छे.
प्रगटप्रभावी त्रिभुवनि, त्रिभुवनजन सुखकार, प्रणमुं प्रीतिं पासजिण, वंछितफलदातार. १ भगवती भारती मनि धरी, पामी तास पसाय, लेख लखुं गुरुराजनइ, सुणतां सुख उपाय. २ विजयाणंदसूरि(री)सरू, साचि मोहणवेलि, जयविजय कवियण भणइ, दीठइ हो रंगरेलि. ३
ढाल ॥ राग - सामेरी ॥ स्वस्तीयश्री जिनराजना, प्रासाद अतिहिं उत्तंग, राजंति जाणुं जन्मजलनिधि-तरणप्रवहण चंग, गुणवंत संत महंत मोटा, इभ्य अधिक उदार, अति विबुधजनौघ सुंदर, धनद समो अवतार हो १
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पूजा श्रीजिनराजनी रे लाल, दान सीअल तप भाव मेरे साहिब, धरम धन जन वावरइ रे लाल, एहवो सहज सभाव मेरे साहिब. ४ इत्यादिक गुण आगरू रे लाल, सूरतथी संघ सार मेरे साहिब, विनती लखइ गुरुराजनई रे लाल, दर्शन आनंदकार मेरे साहिब, ५
गच्छपति सूरति देसि पधारीयए, विजयानंदसूरिंद हो, गच्छपति संघ वीनती अवधारीयए, तुहमे आवो चौमासिक हलासि हो गच्छपति सेवक सोह वधारीयए, प्रभु आवि अधिक उच्छाय हो
गच्छपति सूरति देसि पधारीयए [आंचली] चोरासी चहुटां उलि उपेइ, चारु चोक विसाल, कल्याणकारी घरि घरि, गुरुगीत रंगरसाल, प्रभुपायपंकजरेणुकाधर, सार सुरभित सार, एम विविध शोभा सुंदरु, त्रंबावती नयरी उदार हो २
गच्छपति आणई देसि पधारी[यए] तिहां सूरिगुण छत्रीस पूरण, गौतमाअवतार, तपगच्छ अति उद्योतकारक, सिद्धिसुखदातार, बहु साधु सुविहित विहितवच्छल, सत्थबुद्धिविशाल, उपदेस समरस सरस कोमल, एतो सुणता अतिहिं रसाल हो ३ उपदेस मीठो निसुणी भविका, बोधि निर्मल थाय, ते आवी तुम गुण उचरइ, सुणी हईउं हरख भराय, वंदवा उतकंठा घणी, मनि ऊपजइ अम सामि, उमाहलो तुझ दरिसको, मित आनंद ताहरइ नामि हो ४ श्रीपूज्यचरणसरोरुहे, ए वीनतीमय लेख, सहु परिवारा वांचयो, मनि धरी रेखई रेख, जे सुणत भवियण जीवनई, संतोष होइ अलेख, मनि गहगही संधि लिख्यो ए सुरतिथी सुविशेष ५
ढाल ॥ राग - काफी ॥ सूरति नयर वखाणीय रे लाल, जिहां गुरु करसि विहार मेरे साहिब, वाचक-बुध-मुनि परवर्या रे लाल, संघनइ जयजयकार मेरे साहिब. १ मारगि कोइनो भय नही रे लाल, जिहां मुनि सुखविहार मेरे साहिब, वन वाडी रलीआमणां रे लाल, गढ मढ जैनविहार मेरे साहिब. २ घट दरसणना दरसणी रे लाल, सुलहां लहइ अन्न-पान मेरे साहिब, धरमी जन आदर लहइ [रे लाल], मुनिजननइ बहुमान मेरे साहिब. ३
के हुं वीरनई [पाटी मोहियो], विजयसेनको नाम, श्रीविजयतिलकसूरि परि जयो, राखिउं चउ घधि नाम. १ [साध]सिरोमनि वंदीओ, विजयतिलकसूरिंद, श्रीविजयानंदसूरि(री)सरू, समस्त संघ मनि आणंद. २
ढाल ॥ राग - केदारो ॥ तुम्ह गुण मोह्या उपासका रे, जूइ प्रभूनी वाट, को कहइ गुरु आवता रे, तस देउं सोवनपाट, १ सूरीसि(स)र आवो सूरति देसि, तुम सेवा साची करेसि,
बहु पुण्यभंडार भरेसि, सूरीसर... सपनान्तरि पणि तुम गुणा रे, रंगि रमइ अम पासि, तो ते उत्तम संगति रे, दीइ सहु साबासि. २ सूरीसर..... जे चित आपणसिउं धरइ रे, कीजइ तेहसिउं नेह, अह्म मन तुम गुणसिउं रमइ रे, रखे वीसारो तेह. ३ सूरीसर..... देस-नगरि प्रभु विचरतां रे, मिलस्यइ भगत अनेक, अह्म मनि गुरु प्रभु तुझे वस्या रे, अवर न को सविवेक. ४ सूरीसर.... साहिब गहलो गरबीउ रे, देखत निज कल्लोल, गुणगंभीर प्रभु अझ तणो रे, देसना अमीअ तोल. ५ सूरीसर..... चंदो कां लाजइ नही रे, उगतो धरी अभिमान, प्रभुमुख-चंद्र सोहामणो रे, निकलं [क] निरुपम वान. ६ सूरीसर..... परवादी मृग बापडा रे, तुं तो पंचायणि सीह, तुझ आगलि ते न थोभीआ रे, गया देसंतरि लीह. ७ सूरीसर..... गरव कस्यो गिरिराजनो रे, कंप्यो जिनअंगूठि, ते जिनशासनभारथी रे, अचल अकंप जस मुंठि, ८ सूरीसर.....
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ढाल || राग - मल्हार ॥ परम गुरु परम मुनिसिरु, श्रीविजयाणंदसूरिंद रे, चित्त धरयो संघवीनती, बहु आनंद-पूरि रे.१ सूरति देसि पधारीय रंगि गुरुराज पधारीय, कृपा करीय चोमासि रे, ओछव अधिक अधिका होस्यइ, गास्यइ गोरडी रास रे. २ तुम वयणा प्रभु अमीय सम, टालइ कुमतविकार रे, तेह भविनइं संभलावतां, होसइ बहु-तप-उपगार रे. ३ तुम दरिसण देखत सुखं, जिम चंद चकोर रे, सज्जननई सज्जन मिलइ, [जिम] घनाघन मोर रे. ४ प्रभुजी जे भूमि पाय ठवइ, तिहां अफलां फलंति रे, महीअलि महिमा अति घणो, आवी इष्ट मिलंति रे. ५
ढाल ॥ राग - केदारो ॥ बहु ज्ञान पूरण परवरिओ, बहु मुनिवरि गुरुराज, वैराग्य शम दम सुंदरुं, सोहइ सोहइ रे सूरि सिरताज. १ परमगुरु आवो सूरति देसि, अम वालो रे तुम उपदेस, ति[णि] टाल्यो रे सयल क्लेश, दीपाव्यो रे वीरनो वेस
परमगुरु..... [आंचली] सिद्धांत शुद्ध परूपतई, अजूआलि हीरनी वांणि, धिन्न धिन्न जेणइ प्रणमीओ, शुभ भावि रे तुं गुणखांणि. २ निज भगत भगति संभारतां, नवि होइq नीराग, पर भगतनई उपगारीओ, प्रतिबोधी रे दिइ सिवमाग. ३ जिम विगल सरगि न पांमीया, तिम त्रिजगि नही तुझ दोष, अवगुणी ते अपमानीआ, गया दूरी पामीआ रोष. ४ प्रागवंश ति प्रगटावीओ, धिन साहश्रीवंतपूत्र, श्रीविजयतिलकसूरिपटि जयुं, ति राख्यु रे तपगच्छसूत्र. ५
ढाल || राग - मेवाडो धन्यासी ॥ उदय अधिक प्रभु जगमां ताहरो, एम बोलइ सहु लोक, तुम गुणि मोहियां बहु भवि प्राणीया धरम करि बहु थोक, १
तुम गुण सुणतां जाइ जे घडी, ते वेला जगि धिन्न, जेणई मनि तुम गुण प्रभु संभारीय, धिन्न ते प्राणी मन्न. २ धिन्न नगर ते पुर पाटण भलुं, जिहां गुरु करइ रे विहार, पुहुवी नवपल्लव होइ घणुं, तिहां तिहां संपद सार. ३ जनम सफल प्रभु जगि ते जीवनो, सफलो तस अवतार, जेणई मन शुद्धि तुं प्रभु वंदीओ, तस सिवसुखदातार. ४ पूरण तुह्म गुणि अहम मन मोहिउँ, कान सुणत संतोस, अति अलजो प्रभु नयणे देखवा, पूज्य पधारी तोसि. ५
ढाल || राग - धन्यासी ॥ श्रीविजयाणंदसूरीसि(स)रू, तुम गुण अनंत अपार रे, रसना कोडिं सुरगुरु भाखइ, तोहइ न पामइ पार रे. १
श्रीविजयाणंदसूरीसिरु... कालां कथन कहीइ वीनती, बालक परि गुरुराज रे, माता-पिता परि ते अवधारी, सारू सेवककाज रे. २ वाचक कीर्त्तिविजयगुरु पासइ, देवविजय उवज्झाय रे, पंडित-मुनिपरिवार सहुनइ, प्रणमति संघ उच्छाय रे. ३ परम भगत श्रीपूज्य तणो ए, तुम ध्यांनइ बहू गाजइ रे, साचो सेवक निज मनि जाणी, प्रभु दर्शननई निवाजइ रे. ४ कृपावंत प्रभु [कृपा] करीनइं, संघ वीनती अवधारो रे, संघ मनोरथ सफल होइज्यो, सूरति नयर पधारो रे. ५ चैत्र धवल तेरसि गुरुवारि, लिखीओ लेख उदार रे, दर्शनविजय कहइ भवियण भणतां, सुणतां जयजयकार रे. ६
॥ इति वीनतीमयलेख: सम्पूर्णः ॥छ।। श्री ॥ || शु || भं || || भ ॥ ॥ व ॥ ॥ तु ॥ ॥छ।।
|| श्रीरस्तु ॥
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श्रीकनकविजयजीलिखित श्रीविजयप्रभसूरि पर प्रेषित श्रीबीजापुरसंघकारित-श्रीगुरुविज्ञप्तिरूपस्वाध्यायः
दक्षिणदेशना बीजापुर-साहपुर गामना श्रीसङ्घमां चातुर्मास पधारवा माटेनी विनन्तीरूप प्रस्तुत पत्र विजयप्रभसूरिजीने उद्देशीने लखायो छे. ओसवंशना साह शिवगणना पुत्र तेमज माता भाणीना लाडीला गच्छपति श्रीविजयप्रभसूरि माटेनो कविनो विशेष राग काव्यमां अवतरित थयो छे. गुरुदर्शननी झंखना पण प्रभुमिलनना तलसाट जेवी ज आतुरतावाळी होय छे तेनो प्रस्तुत कृति उत्तम नमूनो छे. चंद्राउलानी देशीमा रचायेल, अलङ्कारो-प्रासो-शब्दवैविध्यथी सभर कृति कर्ताना कवित्वने उद्योतित करे छे.
___कर्ता वृद्धिविजयजीना शिष्य छे. कर्ताना ज हाथे सं. १७३२ माघ सु. १०ना साहपुर गाममा ज लखायेल 'रत्नाकरपञ्चविंशतिस्तव-भावार्थ' नामनी एक बीजी पण कृति मळे छे.
प्रेमई तास जगीस वधारो, महिर करी मुनिराज पधारो, सेवक जननई कांइ विसारो, हाथि ग्रहीनई पारि उतारो जी. २
वाल्हेसरजी रे..... पूज्य पसायई इहां अछइ रे, सुखिया श्रावक लोक, श्रीगुरुचरणनी चाकरी रे, चाहई जिम रवि कोक, चाहई जिम रवि कोक सनेहई, मोरइं जिम मन बांध्यु मेहई, तिम अम्ह मनि तुं जिहां जिउ देहई, प्रेमई पूज्य पधारो गेहई जी. ३ वीरपाट अजुआलवा रे, तुं अवतरिओ वीर, अम्ह मन कनकनी मुद्रडी रे, तुं लाखीणो हीर, तुं लाखीणो हीर हियानो, तुं प्रभुजी जीवन जीयानो, मधुकर जिम नित कमलई रसिओ, तिम अम्ह मनडई तुं वाल्हा वासिओ. ४ साह-सिवगणकुल-सरवरई रे, तुं अवतरिओ हंस, अवनीतलिई अवतरी रे, दीपाव्यो ओसवंस, दीपाव्यो ओसवंस तई सामी, गिरूआ गछपति गजगतिगामी, तुम्ह पयसेवा पुण्यई पामी, अम्ह मनडाना अंतरजामी जी. ५ श्रीगुरुजी कहो एतली रे, सी अम्हची तकसीर, आज लगि जे अम्ह तणी रे, वीनती मांनो न वीर, वीनती मानो न वीरपटोधर, धरमसनेहई धरमधुरंधर, हरखई कहिइ जोडी हाथ, दरसण दीजइ वहिलुं नाथजी. ६ सेवकसेवा निरखीइ रे, परखीइ प्रीति सुजाण, वहिला आवी वालहा रे, श्रीजिणसासणभाण, श्रीजिणसासणभाण तुं दीसइ, तुम्ह मुख देखइ हियडलुं हींसइ, इक तुम्ह आणा वाहिइ सीसई, ए अवधारज्यो विसवावीसई जी. ७ सहज सनेही सहु तणा रे, सहु जगजनना मित्त, भाणीसुत भगवन सुणो रे, तुम्हस्युं लागुं चित्त, तुम्हस्युं लागुं चित्त अम्हारुं, मुख देखाडो वेगि तुम्हालं, आवी वयण सुणावो सारूं, तन-मनडा ठारणहारूं जी. ८
ए ई०॥ पंडित श्रीवृद्धिविजयगणिगुरूभ्यो नमः ॥
॥ देशी चंद्राउलानी ॥ विजयप्रभ वाल्हेसरू रे, परघल आंणी प्रेम, साहपुर केरा संघनी रे, वीजापुरना संघनी रे, वीनती मांनो एम, वीनती मांनो एम अम्हारी, गोदि बिछाइ करुं बलिहारी, साहिब सूरति लागइ प्यारी, जन-मनडानी मोहनगारीजी. १ वाल्हेसरजी रे, संघ करइ अरदास ते अवधारीइ रे, दक्षिणदेसि उल्लासि पूज्य पधारिइ रे [ए आंकणी] पाटभगत छइ इहां तणो रे, सकल संघ निसिदीस, दरसण देइ पूरीइ रे, प्रेमई तास जगीस,
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सुणो वीरसासनधणी रे, गिरुआ निरुपम नाणी, अम्ह सांभलवा आसिकी रे, गुणखांणी तुम्ह वाणी, गुणखांणी तुम्ह वाणी मीठी, सांभलतां नहीं कहिई अनीठी, अमृतथी पणि अधिकी दीठी, जे करइ शिवरमणीस्युं वसीठी जी. ९ अहनिसि अम्ह हियडइ वसइ रे, इक तुं आतमराम, सास-उसासमां सांभरइ रे, सहस वार तुम्ह नाम, सहस वार तुम्ह नाम जपीजइ, करुणानिधि करुणा हिवई कीजइ, दिल खोलीनइ दरसण दीजइ, लाहो मनगमतो जिम लीजइ जी. १० हठिया कहिई नवि हुई रे, जे गिरुआ गुणवंत, आशा सहुनी पूरवई रे, जिम जलधर वरसंत, जिम जलधर वरसंत निरंतर, न करइं कोई साथई अंतर, तिम जगमां उपगारी पुरुषा, कहिइ सहुइ साथई सरिखा जी. ११ कागलमां लिखतां थकां रे, लागइ कारिमी वात, पणि तु अम्ह हियडइ वस्यो रे, वेधी साते धात, वेधी साते धात रे तनमा, वसिओ वीर ज्युं गोयम मनमां, ते जाणीनइ तपगछईस, करज्यो अम्हारी सफल जगीस जी. १२ तुं तन धन मन गुणनिलो रे, तुं अम्ह जीवित प्रांण, एहमां जो मिथ्या हुइ रे, तो तुझ चरणनी आंण, तो तुझ चरणनी आंण रे भाखी, कै वली केवली कहिइ साखी, तुझ पय छोडी अवरकुं पाखी, नमवानी नित आखडी आखी जी. १३ इम इकतारी जे धरइ रे, तेह तणी अरदास, ऊवेख्यइ स्युं पामस्यो रे, साहिबजी स्याबास, साहिबजी स्याबास वदीजइ, सेवक जननई दरसण दीजइ, जिम तुम्ह वयण सुधारस पीजइ, चरणकमलनी सेवा कीजइ जी. १४ निसिभर सूतां नींदरमा रे, जिम तुम दरसण दीसइ, तिणि परि परतखि जागतां रे, जब दरसण पामीसइ, जब दरसण पामीसइ वीसइ-विसवा ते दिन सफल गणीसइ, ते दिन कहिजे जोसी जगीसई, लाख दान लहइ ते बगसीसई जी. १५
पंथी परि-परि पूछीइ रे, आवता ए दिसि केरा, श्रीगुरुजी आवणतणा रे, कहि संदेसा भलेरा, कहि संदेसा भलेरा रे भाई, तेहनई दीजइ कोडि वधाई, धाई माणिक मोती वधाई, सोवनरसना तास घडाई जी. १६ चातक जिम जलधर दिसई रे, प्रेमई परि परि जोय, पंथ निहालइ तुम्ह तणो रे, तिणिपरि श्रावकलोय, तिणि परि श्रावकलोय दवाजइ, गोखई जोषई वाजतइ वाजइ, छयल छबीली छाजई छाजई, आवत गुरुदेखण काजई जी. १७ कागलमांहि केतलुं रे, लिखिइ आतमराम!, अक्षरि अक्षरि जाणयो रे, कोडि-कोडि परणाम, कोडि-कोडि परणाम अम्हारा, तुम्ह चरणे अवधारयो प्यारा, गिरुआ गुरुजी गुणभंडारा, वीरतखत दीपावणहारा जी. १८ तुम्ह दरसण देखण तणी रे, अधिक उमेदनी वात, नव-नव परि नविलेखमां रे, लिखतां आवइ धात, लिखतां आवइ धात'-सुता जो, पुहवीपट कागल करी ताजो, खीरसमुदरस भरि-भरि खडिआ, करइ सवि तरुअर लेखणि जडिआ जी. १९ पूज्य पधार्यइ पुण्यनो रे, थास्यइ लाभ अपार, ईति भीति भावठि जास्यइ रे, वरतस्यइ जय-जयकार, वरतस्यइ जय-जयकार जगतमां, सेवक आवस्यइ सहुइ भगतिमां, वीर समोसर्ये राजगृहई जिम, चउथो आरो थास्यइ इहां तिम जी. २० विजयदेवसूरिंदनी रे, पूरव तिथि संभारो, साहिपुरइं पधारिनई रे, शांतिजिणंद जुहारो, शांतिजिणंद जुहारो हेजई, कोटिकलानिधि चढतइ तेजई, सहसफणो-मनमोहनपास, वीर आदीसर पूरइ आसजी. २१ परतखि परता पूरता रे, करहेडो कलिकुंड, भाणीनंदन भेटीइ रे, पासप्रभू परचंड,
१. धातानी सुता - सरस्वती ।
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सूरतस्थ-श्रीविजयदयासूरिजीने उद्देशीने सोझितथी रूपविजयजीनो (श्रीसङ्घनो) पत्र
पास प्रभू परचंड प्रतापई, अंतरीख जिन आपो आपई, सेव्यो संपति सघली आपई, जगि जसवाद हुइ जस जापइ जी. २२ ताजुं तीरथ त्रिण जगि रे, मोटुं माणिकसामि, नव-निधि घरि नित संपजइ रे, जपतइ जेहनइ नामि, जपतइ जेहनइ नामि निवाजइ, दिन दिन दीपतइ अधिक दवाजइ, भेटीइ भगवन ने भगवंत, अलवई अलवेसर अरिहंत जी. २३ वार वार स्युं वालहा रे, वीनवइ कर जोडि, तुम्हथी छांनो छइ नहीं रे, अम्ह तुम्ह वंदन कोड, अम्ह तुम्ह वंदन कोड सुजांण, ते जांणी जिणसासणभांण, वीर परंपर वड मंडाण, पूज्यजी वीनती करज्यो प्रमाण जी. २४ वीजापुरना संघनी रे, वीनती मांनी हेव, महिर करी मनमा घणी रे, दीजइ चरणनी सेव, दीजइ चरणनी सेव खास, गिरुआ गुरुजी गुणआवास, पंडित वृद्धिविजयनो दास, कनकविजय मन उल्लास जी. २५ ॥श्रीः।। इति श्रीवीजापुरसङ्घकारित-श्रीगुरुविज्ञप्तिरूप: स्वाध्यायः सम्पूर्णः ।
|| संवत् १७३२ वर्षे ॥
प्रस्तुत पत्र सोझित सङ्घमां बिराजमान कवि रूपविजयजीए दयासूरिजीने उद्देशीने सूरत नगरे पाठव्यो छे. कोईक कारणोसर पत्रनो आगळनो भाग के जेमा मङ्गलाचरण, सूरिजी जे नगरमा बिराजमान छे ते सूरतनगरनुं वर्णन, गुरुभगवन्तनुं वर्णन, पत्र ज्यांथी मोकलायो छे त्यांनुं वर्णन अने श्रीसंघनी विनन्तीवाळो भाग खण्डित थई गयो छे. संस्कृत ३ पद्योथी (खण्डित) पत्नी शरुआत थाय छे, शरुआतनी ढाळमां गुरुभगवन्तना मिलननी उत्कण्ठानु, गुरुगुणवैभवर्नु, सखीने उद्देशीने गुरुभगवन्तो पधार्या ते रजूआतनुं वर्णन सुन्दर छे. पछीनी ढाळमां विजयदयासूरिजीना गोत्र, माता-पितानुं नाम, आचार्यपदप्रदानस्थळ वगेरे ऐतिहासिक माहितीओ छे. छेल्ली ढाळ अमृतध्वनि प्रकारनी काव्यरचना छे. पदरचना गेयतामां जेटली सुन्दर छे तेटली ज समजवामां क्लिष्ट छे. पत्रान्ते श्रीसङ्घमां रूपविजयजीना चातुर्मासनी आराधनानी नोंध, चैत्यपरिपाटीनी चर्चावाळी विगत तेमज पूज्यश्री साथे बिराजमान भगवन्तोनी त्यां रहेला पूज्योने वन्दनानी विगत छे.
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हरखावजोजी । श्री१०८ श्रीपुजजी.. तन करावजोजी । श्रीपुजजी -न दिन अधिक परतापना -र लिखीनै संघनै हरख उपजाववो श्रीपरमपूज्यजीना सर्व, गुण किणही नर-नारीई, लिखित ए..... ज ओपमाई, पार प्रतै न पामइ ॥१॥ असितगिरिसम(म) स्यात् कज्जला(लं) सिन्धुपात्रे०|१|| [याव] द्वीचीतरङ्गान् वहती(ति) सुरनदी जाह्नवी पुण्यतोया, यावद्(दा)काशमार्गे स्त(त)पति दिनकरो भास्करो लोकपाल: ।
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यावत् सूर्येन्द्रनीलस्फु(फ) टिकमणिमहं (यं) वर्त्तते मेरुशृङ्गं
तावत् त्वं पुत्रपौत्रस्वजनपरिवृतौ (तो) जीवि (व) जैनप्रसादात् ॥२॥ सूरयो भूरयस्सन्ति० ||३||
दोय नारी अति सांगली ० ॥४॥
श्रीगुरुगुणसमुद्र जिम, तरी न सकुं तेणि,
अवगुण हेक न संपजइ, रही विलिबुं जेणि ॥५॥
आडा डुंगर अति घणा, नदि नाहला असंख
मन जांणई उड़ी मिलुं, पणि देवे न दीधी पंख||७|| गुरुजी केरा गुण घणां, कहत न आवइ पार, अक्षर तो बावन अछइ, तेणइ वर्णव्या न जाय ||८|| कागद चीरी तो लिखुं, जो कछु अंतर होय, हम तुम जीउरा एक हई देखनके तन दोय ||९||
मिस काली गुण उजला, लेखणिनि रती होय, कागल जांणी सांकड़ा, गुण न लिख्यो कोय ॥१०॥
गोयम- सोहम्म- जंबू- पभवो० ॥ ११ ॥
अज्ज कयत्थो जम्मो० ॥ १२ ॥
गिरौ कलापी गगने च मेघा, लक्षान्तरे (?) भानुं (नु
जले च पद्मम् ।
विलक्ष्य (?) सोमो कुमुदोत्पलानां यो यस्य चित्ते न कदाचिदूरे ||१३|| यथा स्मरनि (ति) गौ: वत्सं० ||१४||
दूहा दीठा गुरु दोलति हूवै, प्रह उगते सूर,
दयासूर पय प्रणमतां, पाप हूइ चकचूर. १ गोरंगी गावै गुणै, नारी चढतै नूर, जाचकजन जय उचरई, वाजै वाजित्र तूर. २ इम अनेकविधि नित हूवै, दयासूर दरबार, राय राणा ओछव करै, आवै लोक हजार ३ कामधेनुं सुरतरु समा, सूरिसिरोमणि जांण, कहई रूप कुंमणा नही, राजरिद्धि मंडाण ४ वर्तमान सहगुरु सही, नमतां नव निधि होय, गुणनो पार न पामीई, कोड जीभ कहे कोय. ५
२३
२४
चालो हे सखी! चालो सैडुंजगिरि भेटीई संदेस हे सखी! संदेस साथ कहाय, पंथी हे सखी! पंथी मुझ वातडी, गछपति हे सखी! गछपतिनै कहै जाय,
श्रीसंघ हे सखी! श्रीसंघ जोवै वाटडी. १ मननी हे सखी ! मननी पूरो कोड, वीनति हे सखी! वीनति ए अवधारी,
तुम सम हे सखी! तुम समवड नही जोड, हरखै हे सखी ! हरखै पूज पधारीई. २ आव्यां हे सखी! आव्यां अधिक उल्हास, सनमुख हे सखी! सनमुख सामे लोक रै, जगगुरु हे सखी! जगगुरु पूरण (इ) आस, ओछव हे सखी! ओछव बहु सूरत बंदिर. ३ पूरण हे सखी ! पूरण कलस लै हाथ, पैहरण हे सखी! पैहरण पाटंबर गोरडी, गावै हे सखी! गांवै मिलिकर साथ, मीठे हे सखी! मीठे स्वर जिम मोरडी. ४ सदगुरु हे सखी! सदगुरु विजैदयासूर, वाणी हे सखी! वाणी अमृत उचरै, श्रीसंघ हे सखी! श्रीसंघ आय हजूर, वंदन हे सखी! वंदन कीधा बहु परै ५ खरच्या हे सखी! खरच्या हे संघ दाम, श्रीफल हे सखी! श्रीफल कीधी प्रभावना, गुणकर हे सखी! गुणकर गोतमस्वाम, पूगी हे सखी! पूगी सवि मनकामना ६ पांम्या हे सखी! पांम्या पुण्यै पूर दिनकर हे सखी! दिनकर समवड दीपता, गिरुवा हे सखी! गिरुवा गुणभरपूर,
वादे हे सखी! वादे पंडित जीपता. ७ अविचल हे सखी! अविचल दुलगि राज, लीजै हे सखी! लीजै सहगुरु भामणा,
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ए देशी ।
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अनुसन्धान-६५
सफलो हे सखी ! सफलो दिन मुझ आज, हूआ हे सखी ! हुआ रंगवधामणा. ८ तपगछ हे सखी ! तपगछपति-सिणगार, सुरतरु हे सखी ! सुरतरु सूरशिरोमणी, नित प्रति हे सखी ! नित प्रति जयजयकार आसिस हे सखी ! आसिस रूपविजै भणी. ९
॥ इति स्वाध्यायः ॥
साहिब तपगछराजा - ए देशी ॥ चरणकमल सदगुरु प्रणमीजै, हेजै हरख धरीजै हो,
साहिब अरज सुणीजै, सदगुरु चित्तमै धरीजे, विनति सफल गिणीजै,
सेवक दरसण दीजै. १ सहियां सहगुरु भेटो.... मरुधरदेशनै पूज वंदाओ, श्रीसंघ इधक उमाहो ओ,
साहिब तपगछनायक, दरसण दोलतिदायक, सकल गुणे करी लायक,
वाणी अमृतवायक, २ सहियां सहगुरु सेवो.... विजयदयासूरि सुगुरु विराजई, गुरु गछनायक छाजई हो,
साहिब सुगुरु विख्याता, सुख-संपत्ति-सुखदाता, दरसण लहियै जी शाता,
सहुनै सहज सुहाता. ३ सहियां सहगुरु सेवो.... गोत्र सुराणा कुल जयवंतो, सकल गुण गुणवंतो हो,
साहिब अमराकुल आया, जननी अनोपदे जाया, गोरी मंगल गाया, हरख धरी हुलराया, दिन दिन तेज सवाया. ४
सहियां सहगुरु सेवो.... सोझीतनो श्रीसंघ सुहावै, पटभगतो भलै भावे हो,
सुणीयै सहगुरुवाणी, ए वीनति चित्त आंणी, साची एह सहिनाणी,
दीजै समकित जाणी. ५ सहियां सहगुरु सेवो.... षट जीवोना थे हीतकारी, विजैक्षिमासूरिपदधारी हो,
सुगुरु ओछव कीधो,
मंगलपुर पद दीधो, संधै मिली जस लीधो,
जाचक लख धन दीधो. ६ सहियां सहगुरु सेवो.... सदगुरु केरी मांगें ओलुजी आवै, धन ते दरसण पावै हो,
साहिब तपगछराया, पुण्यै परतिख पाया, नर नारी सुखदाया,
दीठां दोलित थाया. ७ साहिब सहगुरु सेवो... धन ते गुज्जरदेश वखार्पु, सूरति बंदिर तिहां जाणु हो,
सहगुरु चोमास राजै, एहवा सहगुरु छाजै, वाणी अमृत गाजै,
वाजा सुजसा रा वाजै. ८ साहिब सहगुरु सेवो.... सोझितनै संधै वीनति दाखी, भावभगति कर भाखी हो,
साहिब संघसवाई, वीनति एह पठाई, लिखमी लाभ वधाई, रूपविजय सुखदाई. ९ साहिब सहगुरु सेवो
॥ इति स्वाध्याय: ॥
अमृतध्वनिः ॥ तपगछपति नायक तिलक, दिल दोलति दरीयाव, दयासूरि वंदै दुनी, भाव इधक धरि भाव, तो धरि भाव, इधक उमाव, राणा राव, सब जन आव, ऊलट भाव, प्रणमित पाव, पातिक जाव, भविजल नाव, धरि मन ध्याव, अंग उच्छाव, उकत उमाव, द्यो अंबाव, अमृत साव, वर द्यो माव, मन-वच भाव, रूप सभाव, गुण जस गाव, तेज प्रभाव. १
तपगछपति नायकतिलक० तो गहगट्ट, वंदै थट्ट, राजस वट्ट, जस घणषट्ट, कहै जस भट्ट, चिहुं दिसि थट्ट, भो जगभट्ट, पूरण थट्ट, पुण्य प्रगट्ट, प्रगट पुण्य प्रगट्यो प्रगट, पायो पाट प्रगट्ट, दयासूरि दीठां दरिस, सदा हुवै गहगट्ट. २ पद पायो तपगछ प्रगट, इधकै पुन्यअंकूर, दयासूर सूरिंदजी, लब्धे गुणभरपूर,
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अनुसन्धान-६५
तो भरपूर, गुणै सनूर, चढतै नूर, वाजै तूर, ससिअर सूर, तेज पूर, मनमथ चूर, सील सनूर, कांमीत पूर, दालिद दूर, कीजै चूर, पुन्य अंकूर, लछी लूर, घृत-गुल चूर, वंछित पूर, कर्म करूर, देखत दूर, सदा सनूर, गुण भरपूर, रूप सनूर, कहत हजूर, एम जरूर, सुख भरपूर, पुन्य पडूर. ३
पद पायो तपगछ प्रगट० तो नव निद्ध, रिद्ध समृद्ध, दिन दिन वृद्ध, पावत रिद्ध, कामित सिद्ध, बहू दत्त दीद्ध, सुकृत कीद्ध, जस घण लीद्ध, रूप प्रसिद्ध, कहै जस कीद्ध, वंछीत दीद्ध, प्रणमित सिद्ध, पुन्य प्रसिद्ध, पद पायो तपगछ प्रगट, पुन्य इधक परसिद्ध, दयासूर दीठा दरिस, सदा हूवै नव निद्ध. ४
॥ इति सूरीस्वरगुणवर्णनम् ।। अपरं च श्रीपरमपूज्यजीना सर्व गुण किणही नर नारीयई लिखित पडवज ओपमाई पार न पामई । सुरगुरु असुरगुरु द्विजिह्व फणामणी उभय सहस्र प्रमाणई तदपि तोहि सरस्वती ब्रह्मपुत्री अनंत उत्सपि(णी) ओसर्पिणी जाव काल गुरुवर्णन करई तोहि गुरुगुणकथने कुण समर्थ, नायमर्थ समर्थ ।
अम हईडूं दाडिमकली, भरीयउ तुम्ह गुणेण,
अवगुण एक न संभरे, वीसारीजइ जेण. १
अठै श्रीपूज्यजीना मेल्या चोमासै पुन्यांस रूपविजैजी आया, सो अठै गछी-परगछीमै मेंमा घणी हुइ - पजूसणापर्व निर्विघ्नपणे प्रवा छै. अठाई ८ थई पासखमण ५ थया छ, बेला ३०१ थया छै. अठम ५०३ थया. पांच उपवास ३२ थया छै. पूजा १७ भेदी विशेषै थई. देहरै-उपाश्रयै विसेषै उन्नत हुईजी. अठे वखाणे भगवतीसूत्र सझाय पन्नवणा नित्यै वखांण श्रावक श्राविका आवे छै. धर्मचरचा आछी चालै छै. तिणसुं श्रीतपगच्छ रो घणो भलो दीसै छै. बीजूं समाचार एक प्रीछयो जे अठे खरतर भट्टारकनो श्रीपूज अठै रह्यो सो केहवा लागो जे अम्हे चेत्रप्रवाड पैहली काढस्यां ति वारै अठासुं आदमी १ जोधपुर मेल्यो. पुन्यास रूपविजेजी, पं. राजविजेजी कागद दिवांनां ऊपर लिख्यो अनै श्रीमाहाराजनै पिण समाचार लिख्या अने श्रीसंघ पिण समाचार लिख्या. तदा श्रीमुख श्रीमहाराज
फुरमायो जे सदा तपगछ रो विवहार जादा छै तिण वास्तै चैत्रप्रवाड तो पैहली श्रीतपगछ री नीकलसी, सो श्रीमहाराज हजूरसुं परवानां लिखाय मेल्या जे पैहली तपगछ री चैत्रप्रवाड काढज्यो. सो पैहली चैत्रप्रवाड आपणी च्यारूं ही नीकली . श्रीतपगछ रो सारै ही घणुं भलो दौठोजी. अठा रा श्रीसंघसमस्त री वीनती छैजी श्रीपूजजी चोमासै अठै पधारजोजी. अठै सिंघवी, भंडारी, मोहर्णत, मुहता, साहुकार सहु कोई श्रीपूजजीना दरसण रा अभिलाषी छै. श्रीपूजजीनै वांदवा री उत्कंठा घणी रहे छ. तिण वासतै श्रीसंघ री वीनति सफली करजोजी. तिहां श्रीपरमपूज्यजी सपरिवार-सिंघाडादिक पंडितप्रधान पं. श्रीवल्लभकुशल ग०, पं० श्रीरूपविजय ग०, पं० श्रीजैनेंद्रसागर ग०, पं० श्रीचैनकुशल ग०, पं० श्रीरामविजय गणिनई अम्हारी त्रिकालवंदना श्रीश्रीजीयै अवधारवीजी. इहां श्रीभगवनजीना आदेशी पंन्यास श्रीरूपविजय ग०, पं० जसवंतविजय ग० पं० राजविजय ग०, पं० मोहनविजय ग०, पं० तिलकविजय ग०, चेला सहु परिवार ठाणुं १९नी वंदना प्रतिदिन २ वार १०८ अवधार्योजी. श्रीपूज्यजीना परम पट्टभक्त, सेवक, हुकमी छैजी. बीजुं चरणकमल घोअणवेलाई श्रीसंघ सकलनई संभारवाजी. श्रीजिनराज माहराज श्रीपार्श्वनाथ जगवल्लभजी यात्रायई संभारवाजी , धन्य ते श्रावक श्राविका राक रावल ईभ्य सेठ माडंबी कोडंबी गाहापति नित्य प्रति वांदइ. धन्य ते धरित्री, धन्य पवित्र रजरेणुका पाययुगल स्पर्श धन्य ते सूरतिबंदिर जिहां श्रीजी अमृतनि तिरस्कार करी श्रुत प्रतई सांभलइ ते धन्य, श्रीपूज्यजी मन वचन काय घडी एक वीसरता नथी. श्रीपूज्यजीनी अभिधान-नाममाला अहर्निशि श्रीरविउदय उदये पक्ष्ये मासे वरसे जीविताचंताई वीसरवा नथी,
___तंतुपट्टवेमादिवत सह संवत तिथि ३६०. बारसहं मासाणं तिणिशयसठिरायं-दीयाणं पंचण्हं माहपव्वीणं राईदिवसी चऊदिशि, ३ चोम्मासा, श्यीआलय: ऊन्हालो अर पंचम वरसालओ भाद्रपद सित चऊथि श्रीकालिकाचार्य.. इच्छामि खमासमणो... मुख आगलई तथा पूठई पाछलि श्रीसदगुरु सत्यगुरु परमगुरु गच्छगुरु पई असमंजस अविनय अज्ञानता सापराधपणई लघु दीर्घाक्षर हूस्व दीर्घ प्लुत व्यंजन कानामात्र अशुद्ध लिखित दोषनो मिच्छामि दुकडं.
सं. १७९० काती सुदि १५ दिने इति मंगलमालिका शुभं भवतु ॥
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सूरतथी सुजाणविजयजीनो बालोतरास्थ-श्रीविजयधर्मसूरिजीने विनन्तीपत्र
तपा. विजयधर्मसूरीश्वरजी पर लखायेल सर्व पत्रोमा प्रस्तुत पत्र प्रायः सौथी नानो पत्र हशे कवि रामविजयजीना शिष्य कवि सुजांणविजयजीए सं. १८२३मां सुरतथी वाल्होतरा (बालोतरा ) चातुर्मासनी विनन्ती करवा आ पत्र पाठव्यो छे.
प्रथम ढाळनी शरुआतनां पद्योमां माता सरस्वतीने याद करी कविओ सूर्यमण्डण पार्श्वनाथ, धर्मनाथ, गोडी पार्श्वनाथ तेमज शङ्खेश्वर पार्श्वनाथ प्रभुने वन्दना कर्या बाद विजयधर्मसूरीश्वरजीने सुरतमां पधारवा विनन्ती करी छे. ते ज ढाळमां सूरिजीना सामान्य गुणोनुं वर्णन कयुं छे, साथै सुरतमां गुरुभगवन्तने शा कारणथी पधराववा (बोलाववा) छे ते प्रयोजन जणाव्युं छे. ढाळना अन्त्य भागमां तेमज बीजी ढाळना आगलनां पद्योमां गुरुना सुरतमां पधारता शा-शा कार्यो थशे तेनी कविए सुन्दर शब्दोमां नोंध आपी छे. त्यार पछीनां पद्योमां फरी सामान्य गुणवर्णन करी खामणापूर्वक पत्र पूर्ण कर्यो छे. जो के खामणाना लेखवाळो थोडो भाग खण्डित थई गयो छे. तेमां कदाच सङ्घना होद्देदारोश्रावक-श्राविकानां नामो इत्यादि होय तेवुं बने.
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अथ दूहा :
सरसति मुझ सुपसाय करि, आपो वचनविलास, श्रीविजयधर्मसूरीसना, गुण गाउं ऊल्लास. १ गुरुदरीओ भरीओ गुणें, वर छत्रीस प्रधान, मुझ मति सारी आपज्यो, वर्णव करूं ग्यांन. २ श्रीसूर्यमंडनपासणी, श्रीधर्मनाथ- गौडीपास, श्रीसंखेश्वरपासजी, प्रभू पूरो मननी आस. ३ श्री वीरपाटपटोधरू, श्रीगौतम गणधार, श्रीसोहमपाटपरंपरा, श्रीविजयधर्मसूरि पटधार. ४
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ते गुरुनो वर्णन करूं, करूं वीनती सझाय, ऋद्धि वृद्धि सुख संपजे, श्रीगुरुनें महिमाय. ५
अनुसन्धान- ६५
॥ थे तो सिंहलद्विपमें जाज्यो, सिहलद्विपरा मोती मगायो रे, वाल्हा राजि - दीवाणी (जी) ढोला | ए देशी ॥
शारद मात देज्यो मति सारी, अम्हे थुंणस्युं तपगणधारी रे, म्हारा श्रीपूज्यजी सूरति पधारो, सूरतिना देव जूहारो रे, म्हारा...... १ श्री संघनी वीनती अवधारो रे म्हारा....... [ आंकणी] श्रीविजयधर्मसूरीश्वर राजें, चौरासी गछ सिरताजें रे, म्हारा.....
वर छत्रीस गुणें करीय बिराजें, दिन-दिन गुण अधिक दीवाजें रे म्हारा......२ वसुंधरा पावन करवा सारू, पधारो गौतम गणधारू रे, म्हारा.... अम्हे निश दिन जोउं रे पंथ, आवो मुनिपति निग्रंथ रे म्हारा...... १३ लेई शास्त्र सकलना तंत, धर्मध्यांन धरो एकांत रे, म्हारा....
देश - पुर- पाटण सर्वे तुम सरिखा, कृपा करो गुरु अमृतवरषा रे, म्हारा......४ गुरु सकलजंतुहितकारी, वीनति सेवक चीत धारी रे, म्हारा..... सेवकसानिधिकारी सुविचारी, गुरुमूरति मोहनगारी रे, म्हारा..... ५ सेवकनें उवेखो छो स्थानें, आवो गुरु सुधानिधि वाने रे म्हारा...... सूरतिनो संघ थयो एकतांनें, गुरुवंदने नें गुणग्याने रे, म्हारा..... ६ चकोर थयां छें सेवकना रे नयणां जीव जंपें ते गुणलयलीणां रे म्हारा..... गुरुमुखचंद जोवानें सयणां, हिउं उल्लसें अमृतवयणां रे म्हारा...... ७ पारदर्शनं परि ईहां जिनमत भारिं, पसर्यो छे बहु परिवारिं रे, म्हारा.... आवी करो गुरु तुम्हे ए कला रे, उपदेश ज्ञान देई सारिं रे म्हारा.....८ गुरु- रयणायर संपूरण पूरें, कुमति तृणांनें करो दूरिं रे, म्हारा...... लीलाल्लोल-ग्यांनकल्लोल सनूरें, मीथ्याभेद करो चकचूरिं रे म्हारा...... ९ पन्नग - पाखंडी जीके नवि रहेस्यें, श्रीपूज्यजी जिहां संचरस्ये रे, म्हारा...... विलंब कांई करो महामुनीश, पूज्य आवो चढतें जगीस रे, म्हारा...... १० गजमदभंजण ने मृगराज, तारागणमांहि शसि सिरताज रे, म्हारा...... तमतस्कर नसार्डे दिनराज, तिम अधर्म नासें गुरुकाज रे, म्हारा..... ११ स्वामी तुम्हे देश घणा प्रभु जोया, पिण मारूआडि देशमें मोहया रे, म्हारा..... तुम्हे सेवांणचिदेश जई सोया, नगर बाल्होतरा श्रावक पडिबोह्या रे, महारा....१२
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कृपा- सुदृष्टि सेवकोपरं राखो, गुरु आवी उपदेश दाखो रे, म्हारा... सूरति आवी ज्ञानरस चाखो, वीनती करूं त्रिकरण साखो रे, म्हारा...... १३ सुरति सहर छे अति वारू, जोतां दीसें छें दीदारू रे, म्हारा...... बंदिर शुभ शोभा धारू, सुकृत पुण्य तणुं भंडारू रे, म्हारा...... १४ श्रीविजयदयासूरीश्वरपटधारी, श्रीविजयधर्मसूरि सुखकारी रे, म्हारा.... वीनती करी सेवके मनोहारी, महेंरबानी राखो मुझ सारी रे, म्हारा... १५ गुरू प्रतपो क्रोड वरिस, रवि इंदु ध्रुअ लगि ईस रे, म्हारा...... इम पभणें रामविजयनो शीस, सुजांणनी पूरो जगीस रे, म्हारा..... १६ ||ढाल || टूक अने टोडा विचें रे, मेंदी तणा दोय रूख रे मेंदी रंग लाग्यो ०ए देशी ॥
श्रीसूर्यमंडन पासजी, श्रीधर्मनाथ पूरे आस गिरूआ गछपति [आंकणी ] श्रीगोडीप्रभु पासजी, श्रीसंखेश्वर करे दुखनास गिरूआ १....
मोहनगारी मूर्ति, दीठडें पातिक जाय गिरूआ ..... गुरु आवो देव जूहारवा, सेवक जन सुख थाय गिरूआ... २
वांणी अमृतश्रावणी, निसुणी मन हरखंत गिरूआ.......
तुम्हे सूरीश्वरसेहरू, प्रगटें धर्म अत्यंत गिरूआ......
तुम आव्यें उद्योत थस्यें, वधस्ये पुन्यभंडार गिरूआ ...... ए सूरतिना संघनी, वीनतडी अवधार गिरूआ......
३
सूरतबंदिर पधारयो, अवश्य अवस्यें गुरुराय गिरुआ... रांमविजय सुपसायथी, सुजांणविजय गुण गाय गिरू..... अथ कलस : इम सकल सुखकर दूरित-दुखहर, प्रगट्यो पुण्यदीवाकरू, जसवाद आखें देश-प्रदेश भाखें, सुयश दिशो दस मनोहरू, श्रीविजयदयासूरीश्वरपट्टधारी, श्रीविजयधर्मसूरीश्वरू, भविक भावक ग्यानप्रभावक, तपगछमंडण सुरगुरू, श्रीसूर्यमंडणपासपसाई, संधुण्यो श्रीविजयधर्म अलवेसरू, श्रीसूरतिसंघनी वीनती, श्रीगुरु मांनीई कृपा करू, संवत अढारसें त्रेवीसें (१८२३), रही सूरति चउमास ए रामविजय सुपसायें गायो, सुजाणविजय सुविलास ए. १ ॥ इति गुरूस्वाध्याय ॥
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अनुसन्धान- ६५
ऐं । छप्पर । तुं तपगच्छपति धन्य अन्य कुण तुम्ह सम कहीई, चोरासी गणमांहि ईस को अवर न लहीई, क्षमा दया- गुणपात्र जात्र तुमची सहु चाहें, महिअल अधीक प्रताप पसर्यो चिहुं दिस मांहें, अवीचल ध्रु-तारा लगई तुं प्रतपें तपगछधणी, सकल समीहित पूरवा सेवकजननें सुरमणि || अपरं च श्रीपूज्यजीने श्रीसुरतिनो संघ रात्रि - देवसी पा[खी चाउमासी] संवछरी प्रमुख पांचें पडिक्कमणें करी उब्भु......
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अनुसन्धान-६५
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राधनपुरस्थ-श्रीविजयधर्मसूरिजीने
मेदनीपुरथी सत्यसागरजीनो पत्र प्रस्तुत विज्ञप्तिपत्र विजयधर्मसूरिजी उपर लखायेल अन्य विज्ञप्तिपत्रो करतां थोडो मोटो अने सौथी सुन्दर विज्ञप्तिपत्र छे. विज्ञप्तिपत्रमा आलेखातां तत्कालीन वर्णनो तेमज ऐतिहासिक बाबतोने अहीं विशेषे समावाई छे. कवि काव्यरसना जाणकार होई कृतिने विविध छन्दो, अलङ्कारोथी रसप्रचुर बनाववामां पण सफळ थया छे. शरुआतनां पद्योमा इष्ट परमात्माने नमस्कार करी सौ प्रथम गुर्जर देशनुं वर्णन, पछीनी ढाळोमां अनुक्रमे गुजरातमां थता व्यापारनु, देशनी प्रजानु, गुजरातना तेमांय जैन प्रजाना मुख्य तीर्थ शत्रुजय तथा गिरनारनु, विजयधर्मसूरि ज्यां बिराजमान छे ते राधनपुर नगरनु, त्यांना सुलतान गाजीमखाननु, गुरुभगवन्तना गुणोनु, कवि पोते बिराजमान छे ते मरुधर देशना मेदनीपुर नगरनुं तेमज त्यांना महाराज विजयसिंहर्नु इत्यादि वर्णनो कवि सुन्दर रीते वर्णवे छे. कविनी वर्णनशक्ति खरेखर दाद मागे तेवी छे. अन्त्य ढाळोमां चातुर्मासनी आराधनानुं वर्णन तेमज श्रीसङ्घनी गुरुभगवन्तनी पधरामणीनी आतुरतानुं वर्णन अद्भुत छे. एकंदरे सम्पूर्ण कृति विद्वद्भोग्य छे.
श्रीगिरेंनारिं गिरें थयां, दिक्षा ज्ञांन निरवांण, धर्मचक्री प्रणमुं सदा, नेमिसर जिनभाण ६ स्वस्तिश्रीरमणितिलक, केवलकमलाकंत, शिवसुंदरिनो साहिबो, विघन कोडि हरंत ७ वामारांणिकुंखिसर-राजहंस जिनचंद, अश्वसेनअंगज सदा, वंदु पासजिणंद ८ स्वस्ति[श्री] शासनधणि, वर्धमान भगवंत, केवलज्ञानदिवाकरु, अतिसयवंत महंत ९ सिद्धारथकुलकेसरि, त्रिसलादेविनंद, सिंहलंछन पय सोहतो, वांदु वि(वी)र जिणंद. १० श्रीऋषभजिनेश्वर शांतिजिन, श्रीनेमि(मी)श्वर पास, वर्धमान जिनवर चरण, प्रणमुं मन उल्लास. ११
ढाल - प्रथम ॥ श्रीआदिश्वर वीनवं रे - ए देशी ॥ सकल देस देसां शिरे रे [लाल], गर्जरदेस समद्ध सुखकारी रे, घण कण कंचन पुरीयो [२] लाल, अमरपुरी ज्युं प्रसिद्ध सुखकारी रे. १
गुर्जर देस सोहांमणो रे लोल जंबुद्वीपना भरतमां रे लाल, सोहें घणुं श्रीकार सुखकारी रे, अवर देस अनुचर सदा रे लाल, गुर्जरदेस सिरदार सुखकारी रे.
गुर्जर देस सोहांमणो रे लाल २ सुरसरिता जिम सोहति रे लाल, नदीयां निरमल नीर सुखकारी रे, तीर तरंग विहंगसु रे लाल, सितल जिहां समीर हित(सुख)कारी रे. ३ पग पग पाणि पंथमें रे [लाल], वड जिम मोटा वृक्ष सुखकारी रे, सितल जल छाया सदा रे लाल, पंथी पांमें सुख सुखकारी रे. ४ सालि तणा खेत संपणे रे [लाल], नीका३ भरीया नीर सुखकारी रे, पाका आंबा तोडता रे लाल, केल करे बहु कीर४ सुखकारी रे. ५ गिरिवर कंचनगिरि जसा रे [लाल], उन्नत सिखर आकास सुखकारी रे, निझरणां नदियां वहे रे लाल, षट ऋतु बारें मास सुखकारी रे. ६
गछपतिने लेख लिख्यानी विधिः स्वस्तिश्री सुखसंपदा-दायक देव दयाल, सुखदाई समरूं सदा, ऋषभजिणंद कृपाल १ सेजेजगिरिनो साहिबो, नाभिनंदन सुखकंद, शिवमारगदायक मुदा, प्रणमुं प्रथम जिणंद २ स्वस्तिश्री जिन सोलमो, मनवंछितदातार, शांतिजिनेश्वर नित नमुं, पंचम चक्री सार ३ मेघरथराजा-भवे, सरणे राख्यो जीव, जीवदयागुण-कारणे, प्रणमुं तास सदीव ४ स्वस्तिश्री यादवतिलक, राजिमति-भरतार, सांमलवरण सोहांमणो, शिवादेविमात-मल्हार ५
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अनुसन्धान-६५
आगर सोहे अति भला रे [लाल], साते धातु सुरंग सुखकारी रे, वस्तु विशेष जिहां घणा रे लाल, परिघल पांच रंग सुखकारी रे. ७ आंबा राईण आंबलि रे [लाल], करणा केलि खजूर सुखकारी रे, बहु फल फूलें सोभता रे लाल, तरवर तरल सनुर सुखकारी रे. ८ सरवर भरीया सुंदरं रे [लाल], पंखि करता केलि सुखकारी रे, कमलसुगंधा उपरे रे लाल, षटपद करता केलि सुखकारी रे. ९ वन उपवन आरामना रे [लाल], पग पग न लडं पार सुखकारी रे, अढार भार वनस्पति रे लाल, फूल्या सम सहकार सुखकारी रे. १० रतनागर पासें वसे रे [लाल], रतनजिहांज अनेक सुखकारी रे, परदेशी परखंडना रे लाल, आवें व्यापारी अनेक सुखकारी रे. ११ गाम नगर पुर अति घणा रे [लाल], पग पग प्रबल निवास सुखकारी रे, कोट प्रसाद घर मालियां रे लाल, अति सुंदर आवास सुखकारी रे. १२ मेह जिहां वरसें घणा रे [लाल], निरमल वहे बहु नीर सुखकारी रे, वनस्पति फुलें घणी रे लाल, सुरभि झरे बहु खीर सुखकारी रे. १३ रतनाकरथी जिहां कणे रे [लाल], साहूकारोने संग सुखकारी रे, रतन प्रवाल मोति दंतना रे लाल, प्रवहण आवे जुग सुखकारी रे. १४ सुंदररूप सोहांमणा रे [लाल], सुरपतिने अनुहार सुखकारी रे, चतुराईयें गुण आगला रे लाल, मानव जिहां मनुहार सुखकारी रे. १५ चंदवदन मृगलोचनी रे [लाल], हरिलंकी गजचालि सुखकारी रे, अपछरनें अनुहारडे रे [लाल], मीठाबोलि नारि सुखकारी रे. १६ दोहा : इम अनेक गुण सोहतो, मोटो गुर्जरदेस,
कहियें जिहां लहियै नही, दुरभिष डमर प्रवेश. १७ काव्य : यत्राऽनेकोच्चदुर्गाचलविमलसरित्सुन्दरारामवापी
कूपोत्तुङ्गागराम्भःसरसजलरुहाकीर्णसङ्कीर्णभूमौ । राजन्ते सन्निवेशा विपुलतरलसद्धाम्यधर्मप्रवेशाः, सोऽयं सौराष्ट्रदेश: जगति विजयतां सर्वदेशावतंसः ॥१८॥
दोहा : इम अनेक गुण सोहतो, दुजो सोरठ देस,
दोय तिरथ जिहां सोभता, सिद्धक्षेत्र सुविसेस. १९ सिद्धाचल गिरिसेहरो, मोक्षप्रासाद सोपान, इणि वाटें वहता तिके, पुहता पुर निरवाण. २० आदि न काई इण गिरि तणी, तिम वली नावें अंत, सदा काल ए सासतो, जिनवर इंम वदंत. २१ ए गिरि सिद्धीसिला जिसो, सिद्धवहुनो गेह, नयणें परतिख निरखतां, गिरिपति अधिको एह. २२ अमरापति सहु आविया, भरतादिक सवि राय, ऋषभादिक सब जिनवरा, सेवित कीय थिर ठाय. २३ धन धन ए देशांतिलक, धन जे इहां वसंत, श्रीशेजेजगिरि नित प्रतें, नीय नयणे निरखंत. २४ चिंतामणि जिम दोहिलो, पांमीजे कृतपुन्य, तिम दरिसण ए गिरि तणो, जे पांमें ते धन्य. २५ ढाल - बी[जी] । नींदरडि वेरण होई रहि - ए देशी ॥ ईशानेंद्रने आगलें, शेजगिरि हो महिमा कहें सार के, श्रीमुख सांभलि दाखव्यो, पुंडरिकगणि हो नामें गणधार के.१ भविजन वंदो गिरिपति, ए प्रणिम्या हो पातिक सहु जाय के, ए नामें नव निधि मलें, ए दरिसणि हो बहु फलदाय के. २ दूर थकी ए देखतां, भव भवना हो दुख जायै दूर के, फरसतां भवफेरो टलें, सुख पामें हो वली ते भरपूर के. ३ कर्म खपावी पांमीया, सिद्ध हुआ हो वले होस्यें कोडि के, ए गिरि कांकर-कांकरे, ते प्रणमुं हो हुं बे करजोडि के. ४ सरवर निझर ते कुंडनो, जे फरसें हो गिरिवरनो निर के, परभव दुखजलनिधि तरें, पोहचावें हो सिवपुरनें तीर के. ५ धन जे नर-नारि सदा, गिरि भेटें हो त्रिकरण करि सुध के, नरक निगोदगति नवि फरें, वली पामें हों निरमल शुभ बुद्धि के. ६
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अनुसन्धान-६५
एकमनां थई गुण ग्रहैं, भावना भावें हो भावें एकांत कें, ते नवि फरसें संसारमें, जनम जरा हो नावें थायें अंत कें. ७ धन मेरुवरजी तरुवरा, श्रीसीधवड हो रायणवड ठांम के, दोहग सहू दूरे टलें, लीजंता हो वली जेहनु नाम के. ८ धन शुक ने पारेवडा, जे सेवे हो गिरिपतिनो संग के, ऋषभजिणेसर संत ते, जे देखें हो मन धरि उछरंग के. ९ वली मोर नाग सरिखा पशु, मन धरता हो गिरनो ध्यान कें, अशुभ करम दुर करी, सुख पाम्या हो बहु देवविमान कें. १० इम वनचर नरवर मुनिवरा, जे करसें हो गिरवरनो जाप के, सेंदेवी(?) सिवपद लहि, टाल्या सह हो करमना संताप के. ११ सिद्ध अनंता इहां थया, थास्य वलि हो जांणो सिद्ध अनंत कें, ए तीरथ सदा सास्वतो, इंम भाखें हो श्रीमुख भगवंत के. १२ इणि गिरि प्रथम जिणेसरु, पूरव शुभ हो नवाणुं वार के, समवसरणनी रचना करि, मुनिगणि(ण)नें हो सहने परिवार के. १३ जिनवर सहु समोसा, नेमिश्वर हो जिन विना त्रेविस के,
ते हुं श्रीशेजगिरि, प्रणमुं सदा हो त्रिकरण निसदीस के. १४ काव्य : चिन्तारलमिदं समीहितविधौ पोतो भवाम्भोनिधौ.
दावककर्मवनौघदाहविषये पीयूषपूरो महान् । दुखातङ्कनिराकृताभयहतौ दुगै(गों) निधि[:] स्वागतो,
श्रीसिद्धाचलतीर्थ एष नियतं भूमौ चिरं राजते. १ दूहा :
श्रीसिद्धाचल सारिखा, जिहां तिरथ सुप्रसिद्ध, इत्यादिक गुणे जाणज्यो, सोरठ देस समृद्ध. २ वली तिरथ जिहांकिण वडो, गिरि मोटो गिरिनार, सुखकारी सोहामणो, भेटें सहु नर नारि. ३ दीक्षा ग्यांन समोसरण, जिहां किधां जिन नेम, पंचमगति साधी प्रभु, प्रमदाथी तजि प्रेम. ४
हरिबंधव यादवतिलक, करण भवोदधिपार, नेमि आव्या गिरि उपरें, वरदत्त मुनिपरिवार, ५ धन्य जिके जगजीवडा, जे नियनयणे नित्त, दरिसन फरसन गिरि तणो, करें सदा शुभ चित्त. ६ सुर नर किन्नर मुनिवरा, जपतां गिरिवरजाप, स्वदेहि शिवपद लहि, टाल्या कर्मना ताप. ७
ढाल | मिसरीनी ॥ श्रीगिरिनार सोहामणो, सिखर उन्नत असमान, चिहुं दिसि नीझरणां झरे हो साजन, निरमल नीर प्रधान. १ रैवतगिरि जांणो तुमे, सेजगिरिनो शृंग, प्रह उठी नित प्रणमीयें हो भविका, आंणि भाव असंग, २ वरदत्तादिक मुनिवरा, अणसण करिय उदार, सिवगति साधि सिध थयां हो साजन, तिण ए तीरथ सार. ३ राजुल राणि भव तणो, टालि दुखवियोग, नेमीश्वरथी इहां मलि हो भाविका, लें दीक्षा शुभ योग. ४ गजपदकुंडें गहकता, जे नर करे अंग शुद्ध, ते भवभ्रमण निवारिनें हो साजन, साधे शिवपद शुद्ध. ५ सहसावन सोहामणु, लाखावन ति[म] मल्हार, चंपक केतक मालति हो साजन, सोहें अति सहकार, ६ पातिक जाय पायें चढ्यां, गिर फरस्यां गहगाट, देवल नयणे देखता हो साजन, अलगो जाय उचाट, ७ सांमलवरण सोहामणि, मूरति मोहनवेलि, नयणे दीठा नेमजी हो भविका, साची सिवसुखरेल. ८ केसर-चंदन घसि भलो, मृगमदनो करि घोल, पवित्र थई जे पूजसें हो जिनजी, कर ग्रही रतनकचोल, ९ धुप अनोपम आरति, करें सदा सुखसंग, नाटिक नव नव रंगसु हो भविका, वाजत ताल मृदंग, १०
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अनुसन्धान-६५
जिण दरिसण दुरिगत टलें, पग पग वंछित पुर, भाव धरि भेटें जिके हो प्रभुजी, सदा उगमते सुर. ११ राजिमतिई प्रतिबोधियो, रहनेमि अणगार, पीयुं पहिला मुगति गइ हो भाविका, ए तिरथमहिमा सार, १२ तिण ए तीरथ सास्वतो, बीजो न कोई एहनी जोडि,
गिरनारगिरनो मंडणो हो जिनजी, श्रीनेमि नमुं कर जोडि. १३ काव्य : यस्योत्सङ्गमुपागता जिनमताचारेण पञ्चप्रति
माराध्योत्तमभावभावित(?) स(ह)दा प्राप्ता ह्यनेके शिवम् । भव्या[:] संश्रुत(सृति)सागरान्त मिल(?) जन्तुप्रतारी(?) यतः, नाव(वा) सोऽयमिलातले विजयते तीर्थाधिपो रैवत: ॥१॥
॥ अथ छंद सारसी ॥ उत्तंग चंग उभंग अनवड, शृंग तुंग सुरंग ए. ओनाड झाड पहाड असमर, झमर झंगर" झंग ए, नद नाल खाल अचाल नदीयां, वहें विम्मर वार ए, सिरदार सार अपार सरभर, गिरां सिरि गीरनार ए. १ उडियांण थांभे रह्या आभे, शिखर दह दिसि सेहरा, झड मंडि झिरमिर बहें जाझा महल लग्गे मेहरा, तरु सबल परिमल महकिं तरवर, सफल फल सहकार ए, सिरदार सार..... हुंकार हनमंत रीछ हाका, वाघ गुंजे विम्मरे, डहकंत डमरू वीर डाकां, डींगडाइण डम्मरे, कुहकंत कोईल कुरर केंकी, गहक भमर गुंजार ए. सिरदार सार...... दिसि एक दिणयर तेज दीपें, अवर तरुग्रह अंबरं, महि एक डंडे, मेह माता, पवन वज्जे बहुपरं, तप तपें तापस एकतालि, ध्यान धरि) इक धार ए, सिरदार सार.....
मचकुंद केतक अमल महकें, जाई जयण जासूल ए, कित अंब जंब कदंब करणा, फबे(ले) घण फल-फूल ए, सब ऋतु सुहाइ हेक सरसी, दिल हरे दीदार ए, सिरदार सार. गढ बुरज गिरदी मंडी गोखां, देवदेवल दीपता, झलकति सोवन सिखर जालि, ज्योति रवि शशि जीपता, जिणभुवन पडिगह थंभ जालिम, अन नलिनआकार [ए], सिरदार सार.. घणणाट सघला घंट धणके, झणण झलके झल्लरी, द्रिगगि दौ दो दमामगहकें, भेरी भुंगल झल्लरी, तत्त तत्त थेई थेई नृत ततक्षिण भविक भाव अपार ए. सिरदार सार. घनसार केसर अगर घोलें, नवे अंग चरचे नरा, गुणगीत भावन शुद्ध भावे, पूजि जिनवर बहु परा, मन शुद्ध सघला पाप मेटे हुआ सिवहुंसीयार ए. सिरदार सार..... गिरिनार गिरिवर सिखर गाजी, नेमि जिनवर भवि नमो, ब्रह्मचारि राजुलवर वदीतो तेवो प्रभु बावीसमो भणे भोज यादववंसभुसण, सदा भवि सुखकार ए,
सिरदार सार..... दहा सेत्तुंजो गिरिनारगिरि, मोटा तिरथ दोय,
ते कारण देशांसिरे, जिनमतमांहि जोइ. १ दुजो पिण इण देशमां, वरण अढारह वंद्य, द्वारामति इण नाम धुर, ओपें अतिहि अनंद्य. २ देस देसना जातरूं, आवें मन उल्लास, जात्रा करिने करें भव सफल, करतां लीलविलास. ३ हिवें ते देशे पुर घणां, पिण सहु जनत-परसिद्ध, राधणपुर शुभ ठाम है, नामें हुवै नव निद्ध. ४
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चोरासि चहुटा जिहां, बेंठा साहुकार,
नव नवविध बहु वस्तुस्युं, साच करें व्यापार ५ राज्य करें राजा तिहां, रामचंद्र अवतार, वंशविहारी दीपतो, तेजें जिम दिनकार. ६ तेह तणा तप तेजस्युं, अरियण नाठां जाय, जिम सार्दुला सिहस्युं, गेंवरघट्टा पलाय. ७ मीर अमीर महाबलि, दायम गाजीखांन
नित नित वधतो जेहनें, मांन दीये सुलतान. ८
॥ ढाल ॥
जी हो तेह नगर शुभ स्थानिके लाला, सकल गुणे परधान, जी हो चारित्रपात्रचुडामणि लाला, पंडितमांहि परधांन, चतुर नर भेटो श्रीगुरुभांण १ जी हो सासनपति श्रीवीरजी लाला, श्रीसुधरमां रे स्वामि, जी हो जंबुस्वामि प्रभवादिका लाला, अनोपमगुणअभिराम २ जी हो तेहनें पाटपरंपरा लाला, अंबरभासन सूर,
जी हो श्रीश्रीविजयधरमसूरिंदजी लाला, नायक चढते नूर ३ जी हो सुंदर सुरत सोहति लाला, दीठा आवे दाय
जी हो भविजन नयन-चकोरडां लाला, दिलरंजन निसिराय ४
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जी हो चतुर नमो गुरुचंद्रमां लाला, दिनदिन चढते नुर,
जी हो सोल कलाई सोहतो लाला, उदयो पुण्यअंकुर ५ जी हो कुमतितिमर दुरें हरें लाला, पूरें मननी आस, जी हो तारा जिम अन्यतीरथी लाला, अधिकउ तास उल्लास ६ जी हो जिनसासन दरियो उल्लसें लाला, सुमतिरयण सुखकार, जी हो हरखित श्राविक श्राविका लाला, कुमद अने कासार ७ जी हो अमृतपूर झरें देखना लाला, संयमओषध सूध, जी हो आनंदित दिसि दिसि थई लाला, कुमतिवियोगणी दुख ८ जी हो नित्य उदय ए जाणियै लाला, राहु तणें वसि नांहि, जी हो जलधर पण नहीं ओलवें लाला, कलंक नहि इणमांहि ९
अनुसन्धान- ६५ जी हो सीतल मन साताकरूं लाला, उज (ज्ज) ल विमल अभंग, जी हो गुरुमुख ससिहर ओपमा लाला, राजें अविहड रंग १० जी हो चंदवदन गुरुजी तणो लाला, दीठो अति सुखकार, जी हो वंछितपुरण जगजयो लाला, सुंदर अति सुखकार ११ जी हो गुण अनंत गुरुजी तणा लाला, मुख कही न सके रे कोय,
जी हो आप मुखे जो भारति लाला, जो कहें तो धन होय १२
जी हो श्रीविजयदयासूरिंदनें लाला, पटधारी सुप्रसिद्ध,
जी हो श्रीविजयधर्मसूरिश्वरू रे लाला, नमतां हुवें नव निधि (द्ध)
दूहा
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एक असंजम परिहर्यो, दुविध धरम उपदेस,
त्रण्य तत्त्वपरसंगथी, जीता कषाय कलेस. १
पंच महाव्रत पालता घट काया आधार, भय सातें जिण भंजीया, चुर्या मद अठ मार. २ नव वाडि शुद्ध नित प्रतें पाले सिल सरीर, दसविह धर्म यतितणो, पालें थई महाधीर. ३ अंग इग्यारें जिणें भण्या, बालपणें सुविसेष,
बार उपांग जिणें उपदिश्या, काठिया जित्या अशेष. ४ चउदह विद्या चुंपस्युं, भण्या सिद्धिगुणभेव, सोल कला संपूर्ण मुख, सत्तरह पुजां सदैव. ५ अष्टादस सिलांगरथ, अंगें लहिई आज, टालें दोष काउसग्गना, वीसठाण तर्पाहि समाज. ६ गुण इंकवीस श्रावक तणा, उपदेशक निसदीस, परीसह टालें परा, सुगडांगमध्ये त्रेवीस. ७
॥ ढाल ॥ ईडर आंबा आंबलि रे ॥ दशा - कल्प - व्यवहारना रे, छविस भेद उदार, सत्तावीस गुण साधना रे, अठावीस आचार. १ चतुरनर भेटो श्रीगुरुभांण.......
पापश्रुतपरिसंगने रे, निवारे गणधार, त्रीस महा मोहना रे, थांनिक वारे विचार. २
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सिद्ध एकत्रीस गुण दाखवें रे, योगसंग्रह बत्रीस, आशातना गुरुनी कहि रे, ते वरजो निसदीस. ३ अतिसय सहू जिणंदना रे, वांणिगुण पांत्रीस, छत्रीस गुण सूरीसना रे, धारिक विसवावीस. ४ इत्यादिक गुण छें घणा रे, कहेंतां नावें पार, सुरगुरु पण नवि वर्णवे रे, जेहनी बुद्धि अपार. ५ रूप घणो अति सुंदरू रे, गुण बहुला एक जीह, सेव घणी कर दोय मुझने रे, किम पुरीजे ईह. ६ काव्य देवाधिपो वा भुजगाधिपो वा नराधिपो वा यदिहैह यस्याम् । संदर्शनं ते गुणकीर्तनं ते सर्वेऽञ्जलिः ते तदहं विदध्याम् ॥१॥
॥ ढाल ॥ [ईडर आंबा आंबलि रे] तेहज ॥ सूरज सहसकरणें करी रे, पूरे दह दिसि आस एकण कर तुं पूरवें रे, सहस जणांनी आस. ७ चतुरनर.......
श्लोक भानुः करसहस्रेण, दशाशामात्रपूरकः ।
दूहा
एकस्तव करो राजन्!, सहस्राशाप्रपूरकः ॥१॥
॥ ढाल ॥
आणा नव नव खंडमें रे, प्रतपें तेज अपार, सूरीश्वर तपगच्छपति रे, विजयधर्मगणधार ८ चतुरनर....... सुंदर रूप सोहामणो रे, बहुत्तर कलाभंडार, गुण छत्रीसे गाजता रे, श्रीविजयधर्मगणधार. ९ गिरुओ चोरासि गछमां रे, जिनसासनसिणगार, पटधारी प्रतपो सदा रे, श्रीविजयधर्मगणधार. १० तुं रयणायर गुणभर्यो, लहिरे ज्ञांन लियंत, पार न को पावें नहि, अतिसय धीर अनंत. १ ज्ञानादिक मोटा रयण, अंतरगति भासंत, च्यारुं दिसि चारित्रजल, पसर्यो पूरण पंत. २ इणि जगमां अति दीपतो, जीपतो कोड दिणंद, श्री श्रीविजें धर्मसूरिंदनें, सेवें मुनिजनवृंद. ३
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श्री तपगछनो साहिबो, दीपें जांणें दिणंद,
मात पाटमदे कुखें अवतर्यो, साह प्रेमा कुलचंद. ४ जे सेवे कर जोडिनें, दिन दिन आलस छोडि,
ते मनवंछित फल लहें, मद मछर सवि छो (मो) डि. ५ धन श्रावक धन श्राविका, जे पडिलाभे धरि भाव, निज मंदिर पावन करें, पधरावें गुरुपाव. ६ श्रीगछनायक गुणनिधि, गुणग्राहक गुणवंत, भविक जीव प्रतिबोधता, साचो तुं समवंत ७ ॥ लाछलदे मातमल्हार ए देशी ॥ बालपणें सुविचार, लि (ली) धो संयमभार, आज हो छांडि रे नवि मांडि माया मोहनी जी. १ ओसवंस उद्धार, कीधो जिणे सुखकार,
आज हो टालि रे वलि पालि जिनवर आगन्या जी २
साह प्रेमा कुलसिंह, एकलमल्ल अबिह आज हो मात पाटमदे कुखें अवतर्या जी. ३
संयम पालें सधीर, न दीयें केहनें पीड, आज हो राजें रे विराजें पाटें वीरनें जी. ४
चारित्र लेई सुचंग, अविहड पाले अभंग, आज हो मनरंगे चंगे मारग चालता जी. ५
धरे न ममता काय, जीवदया सुखदाय, आज हो आराधे साधें मारग मोक्षनो जी. ६
क्रोध मांन मद माय, राखे मनमें छ काय, आज हो वारी रे अविकारी गुरुगौतम समो जी. ७
अनुसन्धान- ६५
बुधें अभयकुमार, शीले थुलभद्र सार,
आज हो जस कयवन्नानें जीपतो जी. ८ श्रीतपगछपति नांम, जपें मन राखि ठांम, आज हो नर नारि चायां सुख वरें जी. ९
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अनुसन्धान-६५
श्रीविजयदयासूरिंद, पटधारी तेजे दिणंद, आज हो श्रीश्रीविजेंधरमसूरिश्वररूजी. १० पंडितमांहि प्रधान, रतनसागर अभिधान, आज हो रे सुख पायो सिशु सत्यसागरेजी. ११ जिहां लगि मेरु गिरिंद, जिहां लगें चंद-दिणंद, आज हो प्रतिपो रे तिहां लगि तपगछसाहिबो जी. १२
॥ छंद - भुजंगी । सदाचार आचार सारा सराहें, अनेकोपमा अंगमें रंग आहे, चोरासी गछाराव दीसे सचावो, रिधुराज राजें तपागछरावो. १ महायोगविद्या हणी मोहमाया, कसे छठ अठमादिकें कष्ट काया, दमें पांच इंद्री कीयो काम दुरे, च्यारे क्रोधादिना चक्कचुरे. २ सझें सील सन्नाह सामंत सूरो, पुणां पित्त-माताने पख पूरो धरे धीर धानं धोरीधिकायै, चुगे चातुरी तीर चूमें चलावे. २(३) खिमा खग्ग साहें खत्रीवद्द खेले, अरी कर्मकंधादि आठे उखेलें दया खग उपरि चढ़े दैत दाणं, सवाडें प्रवाडें लीया धम्मसाणं ३(४) आधारें (आराधे) दयाघ्रम आचार ओपें, लगी लीह मर्याद कदें न लोपें, मोदे वाद कुमति तणा मांन मोडे, गुडें जैन आचार गौतम जोडे. ४(५) भलके भलो तेज भालें सुभाणं, त्रिजें मुख चंदो इसो तुड्डिताणं
गिरा भारति आप ओतार गावें, सुधा जेहवी वांण बोलें सुभावें. ५(६) इला रूप जीतें सहुओ अनंगो, गुणे गात उजास गंगा सुरंगो, महिपत्ति मोटा तिकें आंण माने, करें छत्ति उभा थका हेक कांने ६(७) सोहें पाटवीसूरि तेजें सवाई, रिधू दयासूरिंद पाटें रजाई, श्रीविजयधर्मसूरिंद सूरि(री)सराजा, तपे चंदसूरां तपागछराजा ७(८)
अथाष्टकः श्रीशारदां शुभरदां वरदां कवीनां, नत्वा समस्तविबुधाचितपादपद्याम् । स्तोष्ये तपागणपति गरिमासमेतं, श्रीश्रीयुतं विजयधर्मप्रभुं मुनीन्द्रम् ॥१॥ तव यतिपते ! वक्त्रा [ब्जं तं] विलोक्य सदोदयं, प्रमदपटलं भव्य क्रीड चकोरगणोऽनिशम्(?) । रुचिरकिरणवातोपेतं दधाति ततः स्फुटं, विबुधनिकरोद्यत्तारालीविराजितमद्भुतम् ॥२॥ एकाकिनि(नी) यज्जगति भ्रमन्त(न्ती), त्वत्कीतिकन्या दधते न भीतिम् । प्रीति(ती)यते श्रीतपगच्छनेत-र्नाम्नैव भीरुत्वमतोऽङ्गनानाम् ॥३।। त्वदन्यसूरीश्वरकीत्तिकन्या-पाणिग्रहार्थं भुवनत्रयेऽपि । यश:कुमारस्तव बम्भ्रमीति, तथाऽपि नाप्नोति खपुष्पवत् ताम् ॥४॥ त्वत्कीर्तिकन्यां सकलाङ्गिमन्यां, मन्यामहे धन्यतमां तदेनाम् । नैवाऽपवादो न च भीतिरस्याः, स्वैरं भ्रमन्त्या अपि यज्जगत्याम् ।।५।। तव मुनिपते पायं पायं यशोमृतमद्भुतं, सुरयुवतयो गायं गायं गुणान् गणनातिगान् । त्रिदशसरिति स्नायं स्नायं सुधोज्ज्वलवारिणि, सुखमतितमां भेजु जं जनुः सफलं पुनः ॥६॥
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अनुसन्धान-६५
सुवचनकलापूर्ण तूर्ण तवाऽऽस्यसुधाकर, नृपतिवनिता दर्श दर्श यथा मुदमादधुः । इतरशशिनि लक्ष्मोपेते न नैव तथा पुनश्चतुरमनसा(सां) रीतिर्ये(यो)षोत्तमतमकाक्षिणाम् ॥७॥ स्वामिन्! नित्यं भविकमनुजा ये तवाऽऽराधयन्ति, पादाम्भोजद्वितयमनघं भक्तिपूर्व त्रिसन्ध्यम् । तेषां गेहे विमलकमला नित्यवासं विधत्ते, जायन्ते च प्रकृतिसुभगाः पुत्रपौत्राः सरूपाः ॥८॥ इत्थं सर्वगुणाकरा गणधरा सेवाभृत(त:)रसं(शं)करा, श्रीमच्छीविजयादिधर्ममुनिपाः सर्वत्र लब्धादराः । गुर्वाराधनतत्परेण मनसा सत्याब्धिना संस्तुता, नम्रीभूतसमौलिनाऽचि(ति?)विनयेनाऽत्यन्तसौख्याप्तये ॥९॥ चिरं जीव चिरं नन्द, चिरं पालय सव्रतम् । शत शिष्य-प्रशिष्येण, गणे कोटिम्भरो भव ॥१०॥
जैन धर्म जिहां जागतो, मोटो मुरतवंत, आज इणि पंचम अरे, दिनयर ज्युं दीपंत. ४ ईति भीति लामें नहीं, न पडें दुरित दुकाल, दुख दोहग व्या नहि, जिहां नहिं कोई जंजाल. ५ तिण देशें देशाधिपति, अमलि(ली) मांण अभंग, अनमीऔ नाडांगंजणो, जीपण मोटा जंग. ६ सूरवीर क्षित्रिसिरें, ख्याग त्याग निकलंक, सुप्रताप मोजां समुद्र, न्यायवंत निशंक, ७ श्रीविजयसिंघ राजा वडो, मरुधरपति महारांण, षटदरसण प्रतिपालकर, सूरवीर सूविहांण. ८ पिसुणां पाथो रण प्रबल, पति हिंदुपतिसिंह,
महाराज हरिरूप महि, वखतबलि विजयसिंह. ९ छप्पय अधिपति तुहिज एक खागझड दुसमण खंडे,
वरसे मेह वरीसमेह जिम धारा मंडे, त्रिपुर असुरकंध तोड सुरां सुख कीध सवायो, धरा प्रगटि धूय धर्म कलु इक रांम कहायो वखतेस सुतन वडिम वखत छलरख्यण छत्रपति,
कर जोडि जास सेवा करे, मोटा मोटा महिपति. १ दूहा नगर तिहां लाभे घणा, एक एकथी सार, सहु नयरसिरसेहरो, मेदनीपुर श्रीकार. १
॥ ढाल - रसियानी ॥ अलकापुरवर आवि अवतों, धरणीतल घनसार रे रसिया, निरूपण(म) नयर गुणें सोहामणो, गढ मढ पोलि प्रकार रे रसिया,
मरुधरमंडल दीपे हो मेडतो, अवर नगर अनुचर इणि आगलिं, सोभा न पामें हो तेह रे रसिया... जिनवरभुवन जिहां सोहांमणा, उंचा अधिक उत्तंग रे रसिया, सोवनकलस सिखर सोभा करूं, धज पताका सुरंग रे रसिया. २
अथ गद्य:
सकलातिशयसुन्दर श्रीऋषभादि-वर्धमानान्तिमतीर्थङ्करपट्टागतपदवीयः पदवीपदपीठालङ्कारान्, सुमतिगुपति(प्ति)सहितव्रतसंहितसमाराधितशुधा(द्धा)चारान्, सर्वविद्याविनोदविनोदितानेकविवेकजनसंभारान्, अनेकजनाधिराजसंसेवितपादारविन्दान्, श्रीतपागच्छस्वच्छगगनभासनदिवाकरान्, सकल-सकल-भट्टारकपुरन्दरभट्टारक-श्रीश्री१०८ श्रीश्रीविजयधर्मसूरीश्वरचरणान् चरणकमलान्
॥ अथ मरुधरदेसवर्णन: ॥ ................., सकल गुणे सिरदार, सयल देस-देशां सिरे, मरुधरमंडल सार. १ मोटा मोटां जिहां कणे, सहिर वडा सोहंत, इंद्रपुरि जिम सोभतो, वर्ण च्यार विलसंत. २ जिहां अनेक धन धांनसुं, पुरित सुखिया लोक, घर घर मंगल नित घणां, उत्तमसि(शी)ल अशोक. ३
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अनुसन्धान-६५
सत्तरभेद पूजा रचें सदा, भावना भावे अतिसार रे रसिया, समकिति सहू श्रावक श्राविका, जिनगुणमुख जयकार रे रसिया. ३ वसे सदा वडा व्यापारीया, साहपति साह समान रे रसिया.. दाने माने करी वलि आगला, संपदा धनद समांन रे रसिया. ४ वरण चियारे जिहां किण विलसता, पवन छत्रीस परसिद्ध रे रसिया, चहुटा चोरासि जिहां परगडा, निगम प्रवेश नव निद्ध रे रसिया. ५ गोखे गोखें रे जालि मालियां, परवतप्राय परसाद रे रसिया, सुखिया लोक जिहां सहु को वसें, विलसता रिद्धि सवाद रे रसिया. ६ वाडि ने उपवन वनखंडनी, चिहुं दिसि सबजी सुचंग रे रसिया, विच विचमाहे नगर विराजतो, मेरु जिम मोहन रंग रे रसिया. ७ देवकुमर जिसा जिहां दीपता, मांनवना तिहां थाट रे रसिया, ओपें अपछरनें अनुहारडे, नारिय निरुपम घाट रे रसिया. ८ वरते जिहां जिनवरनी आगन्या, पालता धरम दयाल रे रसिया, साध साधवी श्रावक श्राविका, जीवदयाप्रतिपाल रे रसिया. ९ उंचा मंदिर सोहे मालिया, राजभुवन मनरंग रे रसिया, सोवनगिरवर जिम सोहांमणो, उजलवरण उत्तंग रे रसिया. १० रतनागर जिम दीसे रूअडो, चिहुं दिसि सरवर सार रे रसिया, नितनित भरीया रहें जिहां नीरस्युं, सोहता अति श्रीकार रे रसिया, ११ सुगुरु सुदेव अमें सुधरमनो, रागी छे नर नारि रे रसिया, श्रावक नित प्रति जिहां किण साधता, धरमना च्यार प्रकार रे रसिया.१२ इम अनेक गुणे करी सोभतो, मेदनीपुर सुभ थान रे रसिया, श्रीश्रीपूज्यतणे सुवचनथी, धरें महाधरमनइ ध्यान रे रसिया. १३
सरव गुणे करी सोभतो, मोहतो जनमनरंग, मरुधरमंडन दीपतो, मेडतो नगर सुचंग. १ संघ समस्त तिहां थकी, लेख लिख्यो श्रीकार, त्रिविध त्रिविध करि वंदना, अवधारो गणधार. २ श्रीश्रीपुज्यप्रसादथी, छे इहां परम विलास, श्रीजीना निराबाधना, देज्यो पत्र उल्लास. ३
धर्मध्यांन इहां किण घणां, नित नित नवले नेह, ओछव महोछव अभिनवा, कहेंतां नावें छेह. ४ छठ अठम दशम पनर, मासखमण तप तेम, थयां अनेक इहां किणे, नित नवला धरमनेम. ५ पर्व पजुसण पारणा, सामीवछल सार,
आडंबर अधिका थया, परघल बहु परिवार. ६ निराबाध सुख तप तणां, श्रीजि(जी)ना सुखकार, समाचार श्रीसिंघनें, देज्यो चित्त धरि प्यार. ७ संघ समस्त कर जोडिनें, इंम करें अरदास, पधारो श्रीपूज्यजी, चतुर तुमे चोमास. ८
॥ ढाल ॥ पूजजी पधारो हो मरुधर देसमां, श्रीविजेंधर्मसूरिंद गछाधिप, संघ निहालें हो तुमची वाटडी, मोर समागम ई(ई)द गछाधिप. १ दुरलभ दरसण तुमचो जगतमां, जिम चिंतामणिरत्न पटोधर, सुलभ सदा जेहनें उदयें थयो, पूरव पुन्य प्रयत्न पटोधर. २ भमर तणे चित्त जिम जलरुह वसें, चंद उदय ज्यं चकोर पटोधर, सतिय मनें भरतार अहनिसि वसें, जिम सुरभि वछनी ओर पटोधर. ३ गज जिम समरे नित रेवा नदी, कोईल जिम सहकार पटोधर, तिम सहू संघ दरसण श्रीपूजनो, करवा चाहें सुखकार पटोधर. ४
अमने चाह सदा तुमची रहें, थे छो बेपरवाह पटोधर, पिण तुमनें कहो कुण कहि सकें, ए नही अनुप स्वभाव पटोधर. ५ देस नगर घणा तिण परिसरें, एक दीठे बीजो वीसराय पटोधर, मोहनगारा लोक माया अति केलवी, राखे तुम विलंबाय पटोधर. ६ रागविलुधा हो सहु नर गुण स्तवें, दिन दिन चढते भाव पटोधर, धरमसनेह राखो जिण रीतस्युं, पालि अविहड भाव पटोधर. ७ दरिसण तुमचो हो प्रभुजी देखवां, अम मन अधिक उछाह पटोधर, नयण उमाह्यो तुम मुख जोयवा, चित धरै तिम चाह पटोधर. ८
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अनुसन्धान-६५
तुम दरसण विरहें प्रभु अम भणी, अतिहि अणुरमा थाय, पटोधर, दरिसण विण अमची दिन रातडि, अतिहि अलुणि रे जाय पटोधर. ९ जिण दिन गछपति मुरति पेखस्यां, सुणिस्यां तुम्ह मुखवांणि पटोधर, चरणकमल दोइ कर जोडिनें, फरस्यां ते सफल विहांण पटोधर. १० अमची वीनती ए अवधारिनें, पावन किजें हो देस पटोधर, धरम तणो बहु लाहो लीजीयें, कीजीयें कृपा विशेस पटोधर, ११ पुज पधायाँ हो धरम होस्य घणा, वली होस्ये धरमनो लाभ पटोधर. कुमति-मिथ्यात्व सहु दु हस्यें, वधस्यें जिनमतआभ पटोधर. १२ श्रीविजयदयासूरिंदना पाटवी, श्रीविजयधरम गणधार पटोधर, पावन कीजें हो पूज पधारिनें, एह वीनति अवधारि पटोधर. १३ संवत अढारसें त्रीसा (१८३०) वरसनो, मृगसिर सुदि सुखकार पटोधर, द्वीतिया दिवसे हो गायो गछपति, सयल संघ सुखकार पटोधर. १४ पंडितसकलशिरोमणि दीपता, श्रीरत्नसागर गुरुराय पटोधर, तास पसायै गायो गछपति, सत्यसागर सुखदाय पटोधर. १५
॥ इति श्रीविज्ञप्तिकास्वाध्यायसम्पूर्णतामगात् ॥ इति श्रेयः श्रेणि(ण)यः संवत १८४१ वर्षे कार्तिक सुदि १४ वार बुधे पं. माणिकनाथेन लिखितं ॥ गौधावि मध्ये गछपतिनें लेख लिखानि विधिः ॥
भीनमाल बिराजमान विजयधर्मसूरिजीने
सादडीथी मोहनविजयजीनो पत्र प्रस्तुत पत्र विजयधर्मसरिजीने उद्देशीने सादडीथी मोहनविजयजीए लख्यो छे. शरुआतनो मङ्गलाचरण, ग्रामादिकनी वर्णना व. वाळो भाग खण्डित थई गयो होई कृतिनी शरुआत गुरुगुणवर्णनथी ज थाय छे. केटलांक पद्यो गुरुभगवन्तने विषे स्नेहना, केटलांक गूढार्थवाळां, तो केटलांक वर्णनात्मक रजू करी सादडीनगरनु, त्यांना श्रावक-श्राविकारों, अन्य तीर्थोनुं वर्णन कविए सुन्दर शब्दोमां कयु छे. मूडीआ लिपिमां श्रीसङ्कना श्रावकोना नामोल्लेख साथे पू. मोहनविजयजीना चातुर्मासनी, तेमां थयेल आराधनानी सविगत नोंध गद्यमां आलेखाई छे. पत्रान्ते फरी वार श्रीपूज्यजीने चातुर्मास पधारता तीर्थोनी स्पर्शनानी तेमज धर्मआराधनानी जाणपूर्वक कवि विनन्ती करे छे.
शब्दार्थ
१. पोयण = माछली २. चावी = सुंदर ३. चांदुआ = चंदरवा
४. छैल = रसिक ५. झाल = काननुं घरेणु ६. पयाल = प्यालो
किं बहुना ? यतः - असति(सित)गिरिसम(म) स्यात् ॥१॥ दूहा : गयणांगण कागल करूं... १
अम हीयडुं दाडिमकुली... २ श्लोक : यथा केकी स्मरेन् मेघ...१
किहां कोयल किहां अंबवन... २ गिरुआ सहजे गुण करें... ३ हीयडा ते किम वीसरे, जिम सहगुरु सुविचार, दिन दिन प्रतें ते संभरें, जिम कोयल सहकार. ४
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अनुसन्धान-६५
गूढा : दो नारी अति सांमली... ५
काती धुर फागुण विचै... ६
मठमांहिं तापस वसँ... ७ दूहा : जलमांहिं पोयणं वसें...१
तुम्ह दरिसण अम्हे अलजया, जिम सीतानें राम, भट्टारकजी मानज्यो, नितुं जपीई तुम्ह नाम. २ वांन वाधे जिम धर्मनु, दया पालता सार,
तिम सदगुरु आराधता, सफल करे अवतार. ३ काव्य : हंसा: स्मरन्ति सततं मनसा यथैव० ॥१॥ दूहा : घj घणुं लिखीई किस्युं, लिखता नावें पार,
किम गणीइं आकाशना, तारामंडल सार. १ धर्म थकी सुखसंपदा, धर्म थकी नव निद्ध, धर्म थकी वली पांमीइं, सकल मनोरथसिद्धि. २ त्रिण वर्ग जगमें कह्या, धर्म अर्थ में काम,
आदि वर्ग तुम नाममें, नाम जिस्यो परिणाम. ३ गाहा : चित्तं तुह पासत्थं, तुह गुणसुणिएण सवणसंतोषो ।
जीहा नामग्गहणे, एगा दिठि(ट्ठी) तडप्फडइ ॥१॥ अहो ! ते निज्जिओ कोहो... ॥२॥ घj घणुं लिखीयें किसुं, लिखता नावें छेह, वलतो लेख ज पाठवो, जिम घणो वाधैं नेह. ३ संघ सहू विनती करें, अवधारो अरदास,
वहिला पूज्य पधारज्यो, सादडी सहेर चोमास. ४ इति ॥ श्रीतपगछमांहि दिनकरणसमान, भव्यजीवआसाविश्राम, जिम देवतामांहै इंद्र, तारामांहें चंद्र, गिरमांहिं मेर, वाजिनमा भेर, सूत्रमांहिं श्रीकल्पसूत्र, मंत्रमाहि श्रीनवकारमंत्र, सुखमाहिं संतोष, पर्वमांहि पजूसणपर्व, हस्तिमाहें ऐरावण, रत्नमाहि चिंतामणिरत्न, तिम गछमाहिं तपागछ ते मांहि सूरीश्वर गुण सुशोभित छो । श्रीश्रीपूज्यजीना गुण एक मुखें किम कहवाई, जो सरस्वती प्रसन्न थाई तो ही तुम गुण वर्णव्या न जाइ । परमपुरुष, परमगुरु, परमबांधव, श्रीमत्तपागछाधिराज
सकलभट्टारकपरंपरापुरंदरभट्टारक श्रीश्रीश्रीश्री १०८ श्रीश्रीश्रीश्रीश्रीश्रीश्रीविजयधर्मसूरीश्वरजी सपरिवारचरणान्, चरणकमलान् ते श्रीसादडीनगरथी । सादडीसहरवर्णनं
॥ ढाल - यत्तिनी ॥ सादडी नगरमें जे पुण्यपूरा, धर्मधुरंधर श्रावक सूरा, गोडवाडमें नगरी चावी', अमरपुरी के वादै आवी. १ जिनधर्म तणा ए रागी, श्रावक समकितमें सोभागी, श्रद्धावंत सुणे उपदेश, मिथ्यामति तणो नहिं लेश. २ उंचा मंदिर सोहै आवासा, गोख जालीई बहु परकासा, चांदुआ बांध्या अति खासा, दीपावे ते सघली आसा. ३ घर घर मंदिर तोरणमाला, अति सुंदर झाकझमाला, गुणरंगीली ते गावें बाला, मही मयणभड करतो चाला. ४ चतुरा चालें चमकंती, गुरुवंदन हेज धरती, धरमरागस्युं मनमें भीनी, पापव्याप मति दूरे कीनी, ५ धर्मधुरंधर अति वाचाला, श्रावक सोधे घणुं सुकुमाला, दिइ दांन नित दीनदयाला, देव-गुरु उपरि भाव विसाला. ६ श्रावक सघला समकितधारी, जस दोलर्ति दीपें सारी, सुंदर शो) []नविहारी, पासमूरति त्रिण सुखकारी, ७ चिंतामणि सामला पास, अमीझरा त्रीजा सुविलास, देव त्रिणे शोभे दीदारु, त्रयरल तणा दातारु. ८ डावें पासे सुंदर देहरी, गाजै गोडीनी मूरति गैहरी, राणकपुर तीरथ ताजा, तिहां वाण छत्रीस वाजा. ९ छैल- चोगाला सुंदर सारा, कामदेव तण अवतारा, दिन ऊगंते देहरें आवे, सुगुरु वांदे ते पिण भावै. १० नारी पहिरें नवरंगा चीर, चरणाचोली मस्तक हीर, कंने एहवी झबुकें सुंदर झालि', भांति विराजे गोरे गालि. ११ एहवी माननी जे मतवाली, देवदरिसणनें ते चाली, सीलसुरंगी सोहें बाला, भरि मोती सोवनथाला. १२
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हाथ चंगेरी फूलह केरी, भमतीमांहें देती फेरी, गुंहली बनावी मांगे वास, टाले कर्मतणो ते पास. १३ संघ रंगीलो सादडी केरो, धर्म तणो जिहां ताण्यो डेरो, नित्य करणी एहवी जांणो, चीरंजीवो तपगछराणो. १४ समुद्र तणी परि वाणी छाजें, नाभीमंडलमध्य गुहरी गाजै, सादडीई पाउधारो मुनिराया, नर-नारी तुम प्रणमें पाया. १५ ते श्री सादडी सहैरथी, आग्याकारी दास, हुकमी सेवक पूजना, रजरेणुसंकाश. १६
ते श्रीसादडी थकी समस्त संघ... जनरी वंदण १०८ आवधारजीजी। श्रीजीने आदेसै पनीआसै.... वजैजी सोमासै आव्या तणसु संग गणो राजीबंद थओ सेइजी । *अप्रमत्र संगरी अरज सै श्रीरंणपुरजीरी जातरा पधारी अंरी हुकमयइजी । श्रीसंगनै देवा जातरा अद करवाजी । वलमेन कागद प्रसादी करावसीइजी...
___ अत्र संघने सुखशाता छैजी । श्रीश्रीभट्टारकजीने प्रसादे अत्रना संघनें सुख-शाता ,जी । श्रीभट्टारकजीना सुखशाताना, निराबाधपणाना सुखलेख मोकली संघनैं हर्ष ऊपजाववोजी । अत्रनो संघ श्रीभट्टारकजीने घडी १ मात्र वीसरता नथीजी । अत्रना संघ ऊपरें कृपा करीने आदेशें पंन्यासजी श्रीमोहनविजयजी पधार्या तिणथी संघ घणुं रजाबंद हुओ छे राज । श्रीपंन्यासजी सज्झायें पन्नवणा सूत्र, वखाणे श्रीभगवतीसूत्र वंचाय हैं । श्रावक-श्राविका नित्य वखांणे आवें । छट्ठ-अट्ठम-दसम-दुवालस इत्यादि तप घणो हुओ छ । पूजा-प्रभावना-अंगीरचना श्रीपyषणपर्व महामहोत्सव घणे आडंबरपण प्रवां हैं। श्रीजैनधर्मनी विशेष उन्नति हुई है। श्रीपर्यषणारी विगत : अठाईनो पारणो साहजी श्रीकेसवदासजी कृपारांमजीरें घरें थयो , राज । वडाकल्पनो पंडीया श्रीखेमाजी पेमाजीरे घरें थयो , राज । वडाकल्पनो पारणो प्रीयमेलक थयो , राज । संवच्छरीनो पारणो साहजी श्रीदोलाजी, सा० रूघनाथजी, सा० मेंयाचंदजीरें घरें थयो , राज । मरडीया श्रीओदैभाणजी हीराजी श्रीरांणपुरजी यात्रा लेंगा छै राज। इम धर्मकरणी विशेषं हुई हैं राज। * 'अपरं अत्र' एम वांचवें ।
अत्रना संघनी विनती सज्झाय लिख्यतें -
करमपरीक्षाकरण कुमर चल्यों रे - ए देशी ॥ पंथीडा संदेशो रे जई मांहरा पूजने रे, दाखीजें वात वणाय, पंथडै पंथीडा वहजें ऊतावलो रे, वार म लाजें कांय. १
पंथीडा संदेशो रे जई मांहरा पूजने रे.... [आंकणी] सकलदेशां सिरमोड ते देशडो रे, लघु मरुदेश कहवाय, तिणमां नगर अनेक पिछानीये रे, पिण सादडी सहर सवाय. २ ठांम ते ठाम सजलस्थानक भला रे, वाडी वनखंड जोय, पग पग तीरथ वर जिनवर तणा रे, पेख्यां मन हरखित होय. ३ केहवा तीरथ जेंहवा दाखवं रे, सांभलज्यो चित लाय, विरासिर महावीर ते वीर , रे, प्रथम ए यात्र थाय. ४ राणकपुर रिसहेंसर गुणनि(नी)लो रे, तारणतरणजिहाज, वरकाणे पास ते आस पूरे सदा रे, साहिब गरिब निवाज. ५ श्रीनडूलाई नेमिजिनेश्वरूं रे, यादववंश[शि]रमोड, बालब्रह्मचारी शिरशेहरो रे, वंदुबे कर जोडि. ६ नाडूलमंडण दूरितखंडणो रे, श्रीपदमप्रभु महाराय, पंचई तीर्थ पंचम गतिना रे, दायक वंदीयै आय. ७ पूर्वे पूजजी चोमासुं जिहां कयु रे, तिणे एतलं कहवाय, वंदन उतकंठा नरनारिने रे, केहवी कहिय न जाय. ८ मीठी वाणी गुरु तणी सांभली रे, भर भरि श्रवणपयाल, पीवे प्रांणी आंणी हीयडै रे, हुआ होस्य निहाल. ९ गछपति आयां धरमतणो हुसी रे, लाभ अनंत महंत, सूरि छत्रीस गुणें करी सोभता रे, संयम वधू करकंत. १० गौतम सम गिरुआ गुण तुम्ह अछों रे, शीले थूलिभद्र जेम, विद्याई करीने वयरकुमार छों रे, पेख्यां ऊपजै प्रेम. ११ रसना एक ज गुण तें अनेक छै रे, वर्णवू केहा वखांण, सकल गण गछपति सिर लाडलो रे, लायक ऊगो भाण. १२
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देश मेवात विख्यात वखांणीइ रे, भलभला सहस उदार, रूपनगर है गुणनिधि आगला रे, सुगुरु जनम श्रीकार. १३ मात पाटमदें कूखें अवतर्या रे, भविजननै हितकार,
वंश उपकेश विसेशें सोभतो रे, साह प्रेमा कुलसिणगार. १४ श्रीविजयदयासूरीश्वरपाटवी रे, श्रीविजयधर्मसूरीस, विबुध जीवनो मोहन ईम कहे रे, गुरु प्रतपो कोडि वरिस. १४ ॥ इति श्रीसज्झाय ॥
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कोयलो परबत धुंधलो रे ए देशी ॥
ब्रह्मसुता वरदायनी रे लो, प्रणमुं ताहरा पाय रे सूरीश्वर,
वचनविलास ते आपज्यो रे लो, महिम करी मो माय रे सूरीश्वर. १ श्रीविजयधर्मसूरीश्वरू रे लो, सयल सूरिनो राय रे सूरीश्वर, रूपै रतिपति सारिखो रे लो, भवियणनें मन भाय रे सूरीश्वर श्रीविजयधर्म...... तपगच्छतखत भानु थकी रे लो, श्रुत करी तेज सवाय रे सूरीश्वर, अज्ञांनतम अलगो कीयो रे लो, जनमनपंकज विकसाय रे सूरीश्वर ३ सुधा समांणी वांणीइ रे लो, द्यो देशना सुखदाय रे सूरीश्वर दुरगतिदुख दूरै करै रे लो, जे सांभलें चित्तलाय रे सूरीश्वर ४ मनमोहन पूज्य माहरां रे लो, थाहरा दरसणपै वारी जाय रे सूरीश्वर नर नारी निरखें नेहरूं रे लो, तस घरि नव-निधि थाय रे सूरीश्वर. ५ विचरो सारी वसुंधरा रे लो, तो अम दिश विचरोनें आय रे सूरीश्वर पग पग जिनयात्रा करे रे लो, पेख्यां पातिक पु ( प ) लाय रे सूरीश्वर ६ सकल देश सोहांमणो रे लो, ठांम ठांम तरुनि (नी) छाय रे सूरीश्वर, मीठा मेवा नीपजै रे लो, देखी देव रह्या लोभाय रे सूरीश्वर ७ एहवो देश उवेखनें रे लो, स्युं मोहया मुरस्थली जाय रे सूरीश्वर खारो पाणी खराखरी रे लो, पीवो ते न पीवाय रे सूरीश्वर ८ धन धन ते नर-नारीओ रे लो, जे सेवै सद्गुरुपाय रे सूरीश्वर, अमे अलेखें सरजीया रे लो, श्रीजीनो दर्शन थाय रे सूरीश्वर ९
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राधां कान रोहिणी चंद्रमा रे लो, चकवा रयणविहाय रे सूरीश्वर चातुक चाहै जलधरुं रे लो, जनकसुता रामराय रे सूरीश्वर. १० तिम अमें चाहा तुमने रे लो, अहर्निश ध्यान लगाय रे सूरीश्वर, जोसी जोतिक पूजवा रे लो, इक आवै इक जाय रे सूरीश्वर ११ कोई कहै पूज्य आवता रे लो, धुं तस लाख पसाय रे सूरीश्वर मानुं उपगार मोटको रे लो, कोई दीयै श्रीजी बताय रे सूरीश्वर १२ मास सुचि मैं पधारसी रे लो, एहवो निश्चै न्याय रे सूरीश्वर, सादडी केरा संघनी रे लो, मानो वीनती महाराय रे सूरीश्वर १३ श्रीसाहप्रेमा कुलचंदलो रे लो, ओशवंश कुल कहवाय रे सूरीश्वर, रूपनगर पूज्य जनमीआ रे लो, प्रसिद्ध पाटमदे माय रे सूरीश्वर. १४ श्रीविजयदयासूरिपाटवी रे लो, श्रीविजयधर्मसूरिराय रे सूरीश्वर कोडि दिवाली चिरंजीवज्यो रे लो, मोहनविजय गुणगाय रे सूरीश्वर. १५
॥ इति श्रीसज्झाय ॥
तत्रत्य श्रीगणेशरुचिजी, पं० श्रीऋद्धिविजयजी, पं० श्रीप्रमोदविजयजी, पं० श्रीहेतुसागरजी, पं० श्रीहेमविजयजी, पं० श्रीविनीतविजयजी, पं० श्रीजसविजयजी, पं० श्रीसौभाग्यविजयजी, श्रीजि (जी) ना परिवारनें वंदना १०८ वार केहवीजी । अत्रत्य पं० मोहनविजय, पं० चतुरविजय, पं० जसवंतविजय, पं० कस्तूरविजय, पं० विनीतविजय, पं० लब्धिविजय, पं० प्रतापविजय, पं० युक्तिविजय, पं० मनोहरविजय, चेला रामसिंघ प्रमुख ठाणुं ११ वंदना १०८ वार अवधारज्योजी । वलमांन सुखलेख लिखवाजी। सेवक सरिखो कामकार्य प्रसाद करवोजी । देवयात्रा करो तिहां सेवकने संभारवाजी । इति श्रेयश्रेणयः शुभं भवतु । कल्याणमस्तु ॥ श्रेयः ॥
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(१०) उदयपुरस्थ-श्रीविजयधर्मसूरिजीने
मंगलपुरथी मोहनविजयजीनो पत्र 'लटकाळा' ए उपनामथी प्रसिद्ध एवा कवि मोहनविजयजी भक्तिप्रधान श्रेष्ठ कवि छे. एमनां काव्योर्नु पदलालित्य घणुंज सुन्दर होय छे. प्रस्तुत रचना ए ज कविनी एक श्रेष्ठ रचना छे. शरुआतनां ९ संस्कृत पद्यो सिवायनी सम्पूर्ण रचना गुर्जरभाषामां छे. मङ्गलाचरणरूपे पंच जिनेश्वरने नमस्कार करी कविए मेवाडदेशना उदयपुरनुं वर्णन सौ प्रथम प्रारम्भ्युं छे. पछीनां पद्योमा गुरुभगवन्तना ३६ गुणोनुं वर्णन जुदी जुदी ३ रीते करी कुल १०८ प्रकारे सूरिजीना गुणवैभवने दाखव्यो छे, हवे पछीनां पद्योमा सूरिजीनु राजा तरीकेनुं स्वरूप कविए काव्यमां अद्भुत रीते रजू कयु छे. अन्य पत्रोनी माफक संक्षिप्तमा ३६ गुणोनुं वर्णन करवानी कला त्यार पछीनी ढाळमां देखाय छे. खरु जोता सम्पूर्ण पत्रमा वर्णननी जे सजीवनता छे ते अडयल्ल छन्दमां रचायेल मङ्गलपुरवर्णनमां छे, पत्रनी पूर्णाहुति पूर्वे पूज्यश्रीने मङ्गलपुरमां पधारवानी विनंती करतां पद्यो, तेमज चातुर्मास पधारतां श्रीसंघमां शी आराधना थशे ते नोंधनां पद्यो पण सुन्दर छे. पत्रान्ते कविए आपेली विजयधर्मसूरिना माता, पिता तथा वंशनी तेमज पोताना गुरुजीना नामनी नोंध ध्यान योग्य छे.
शब्दकोश १. पापपहार = पापना पहाड ७. प्र) = प्रभाथी २. विलात = विलय पामे ८. खेटो = तलवार ३. मुखवार = मुख रूपी जल ९. कोकबाण = कामदेवना बाण ४. जत-तत = ज्यां त्यां १०. वाणक = वाठवा वाळा(?) ५. वेसरवाहिनी = बळदगाडी ११. वट्ट = वात ६. कटकी = सैन्य
१२. गोलाबालि = तोपनी नाळ
स्वस्तिश्रियं यच्छति यत्पदाब्ज-रजोऽपि लग्नं प्रणतस्य मौलौ । अहो! महोदारधियस्तदेव, दुर्दैवमालिन्यमपाकरोति ॥२॥ स्वस्तिश्रिया यस्य पदाब्जयुग्मं, निरन्तरं वासधिया सु(सि)षेवे । रजोभृतं कण्टककोटीपृष्ट(ष्ठं), न लौकिकं पद्यमियं तु मेने ॥३॥ स्वस्तिश्रियाऽऽढ्यस्य जिनस्य यस्य, सौभाग्यमत्यद्भुतभाग्यभूमी(मि)। पादाम्बुजं यस्य सदा भजन्ते, मरालबाला इव भूमीपालाः ॥४॥ स्वस्तिश्रीमदमन्दमन्दि(न्द)रगिरिशृङ्गाग्रजाग्रत्तमः, श्रेणिभूतपयोदसोदरशिरःसंसर्गिकेशोच्चयः । पूषा तप्तसुवर्णवर्णकिरण: श्रीनाभिभूपात्मजः, पौलोमीदयित: प्रवर्हविबुधानन्दाय कन्दायते ॥५॥ स्वस्तिश्रीसहितं जिनं नमत तं श्रीविश्वसेनात्मजं, कारुण्यैकनिधि जगत्त्रयहितं(त)व्यापारबद्धोद्यमम् । यो राजे वरराजसौम्यनिलयः सारङ्गलक्ष्मोचितं, चित्रं तत्र तथाऽपि नाथ! नियतेर्दोषादयः श्रूयते ॥६॥ स्वस्तिश्रीविलसत्कटाक्षघटनास्ता(:) पान्तु राजीमती(ती), गाढोत्कण्ठितलोचनाञ्चलचलद्भूभङ्गसंसर्गजाः । श्रीमन्नेमिजिनेशितुत्रिभुवनानन्दे विवाहोत्सवे, पौलोमीशधृतातपत्रधवलज्योतिर्भरोद्भासिताः ॥७॥ स्वस्तिश्रीकलितं महोदयकलाकेलीनिवासं महामोहापोहपरायणं मम मनोऽभीष्टार्थदं संस्तुमः । श्रीशङ्केश्वरभूषणं भगवतामग्रेसरं वासवश्रेणीवेणिमिलत्प्रसूनपटलीमाध्वीकधौतक्रमम् ॥८॥ ऐन्द्रप्रश्नशतोत्तरप्रणयिनो यस्मादभूच्छाब्दिकं, तन्वं यन्नयजैर्मतैः पुनरभूत् सर्वोऽपि तर्कक्रमः । विद्यास्थानपदं वदन्ति विबुधा यदृष्टिवादागर्म,
तं वन्दे जगतामधीश्वरमहं श्रीवर्धमानं जिनम् ॥९॥ दूहा : स्वस्तिश्री सुभमंजरी, सोभाफल सिरदार,
सुनिजर वर छाया सघन, समरी सुगुरुसहकार. १
स्वस्ति श्रियामाश्रयणीयमीश!, यमाश्रिता भव्यजना भवन्ति । उदी(दि)त्वरानन्दसमृद्धिभाजः, सुरासुराणामपि माननीयः ॥१॥
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भूभामिनि-सिर-तिलकसम, सकलनगर-शिणगार, श्रीमती श्रीउदयापुरे, स्वर्गपुरी अनुकार. १५ इम श्रीउदयापुरी तणां, केता करूं वखांण, गछपति चोमासुं जिहां रह्या, तेणें सुंदर सुभ थान. १६
॥ अथ श्रीमद्गुरुगच्छाधिराज-गुणगणवर्णनम् ॥ हवें गुण गाउं गुरु तणां, सुणयो सहू सावधान, पट्टपरंपर परगडो, ठाम ठांम जस मान. १ पूज्याराध्यतमोत्तमह, परमपूज्य गुणवंत, चारीत्रपात्रचूडामणी, साधुसिरोमणि संत. २ कुमतिविध्वंसनदिनकर, सकलकलासम्पूर्ण, विद्वज्जनमुकुटामणी, सरस्वतिकण्ठाभर्ण, ३
देशी ॥
राजे रूप छती रति, सती सरस्वती मात, सुप्रसन्न सन्मुख होत ही, पापपहार विलात'. २ आदिनाथ अरिहंत नमी, नमी नित शांति जिणंद, नेमी पास वर्धमांन नमी, दूरि करो दुख-दंद. ३ सकल देसमां शोभतो, धन्य मेवाडह देस, जंगमतीरथ गुरु जिहां, पटधर कीध प्रवेश. ४ पावन जिनमंदिर बहू, पावन भक्ति अपार, पावन गछपतीपायरज, पावन गुरुमुखवार'. ५ जा मे जत ततः देखीइ, दया-दानअधिकार, ता थे जिनपदकी युगति, वरनु बुद्धि अनुसार, ६ एहिज जंबूद्वीपमें, क्षेत्र भरत सुविशाल, तामें देस शिरोमणि, मेवाड देश झमाल. ७
॥ अथ नगरवर्णनम् ॥ दूहा ॥ वापी वप्र विहार बहू, वनीता वर्ण अढार,
वसे घणा वाचाल नर, वन-वाडि विस्तार, ८ वैद्य विप्र वादी घणा, वाग्मि विद्यावंत, वेश्या वेसरवाहिनी', वाजी वारण-तंत. ९ वाचंयम वारू परें, विविध विनीत विनेय, वणिक विवेकविशारदा, विभव विशेष अमेय, १० गढ मढ मंदिर मालीया, सोहे शुभ आवास, सप्तभूमि उंचा जिहां, निरखित हुई उल्लास. ११ जिनमंदिर जिहां झलहलें, रणके घंटनिनाद, दीपें सुंदर कोरणी, भांजे भय-उनमाद. १२ सत्तरभेद पूजा रचें, जिहां श्रावक अतिशुद्ध, जिनवरपद प्रणमें सदा, टाले मार्ग विरुद्ध. १३ श्रीपूज्यजी विचरें जिहां, करे भूपीठ पवित्र, धर्म देखाडे भविकनें, दानादिक सुविचित्र. १४
सुगुरु वंदो चित्त चोखे, विधिसहित त्रिण्य काल रे, सुगुरुना गुणग्राम करते, होवे मंगलमाल रे. ४ सुगुरु..... पंच महाव्रत शुद्ध पाले, टाले च्यार कषाय रे, पंचविध आचार पालें, जेहथी सुख थाय रे. ५ सुगुरु..... वाडि नवविध शीयल केरी, जालवें गुणधाम रे, पंच इंद्री समाधि राखें, चित्त आंणी ठाम रे. ६ सुगुरु..... अष्ट प्रवचन तणी जननी, तेहस्यूं अति रंग रे, एह गुण छत्रीस पूरा, सूरीना अति चंग रे. ७ सुगुरु..... अपर गुण छत्रीस रूडा, कहुं सुणज्यो संत रे, सुगुरुना गुणग्राम करते, होए लाभ अनंत रे. ८ सुगुरु..... प्रतिरूप आदे चौद पूरा, गुण कह्या अभिराम रे, भावना नित्य बार भावें, सिद्धिसुखनें काम रे, ९ सुगुरु..... दस प्रकारे साधुमारग, आदरे सुविसाल रे, एह गुण छत्रीस सुंदर, सूरिना सुप्रकास रे. १० सुगुरु..... वली कहुं गुण सूरी केरा, मनोहर छत्रीस रे, जेह अहनिस चित्त धरे ते, होए सयल जगीस रे. ११ सुगुरु.....
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छक्कायनी नित दया पालें, टालें तिम भय सात रे, अष्ट मदनें दूरि त्यजीनें, करे धरमनी वात रे. १२ सुगुरु..... तप तपे नित बार भेदे, त्यजे गारव तीन रे, एह गुण छत्रीस मानित, रहे मुनी लयलीन रे. १३ सुगुरु...... ए छत्रीसी तीन मिलतें, अष्टोत्तरशत थाय रे, गुण घणा , सूरी केरा, केता मुख केहेवाय रे. १४ सुगुरु..... एह गुणनी माल सुंदर, धरे गुरु गछनाथ रे, श्रीविजयधर्मसूरीस सोहें, सुद्धमारगसाथ रे, १५ सुगुरु..... दुषमकाले देवतरु सम, गुणे गौतमस्वामि रे, श्रीविजयधर्मसूरीस प्रणमो, प्रह समे सिरनाम रे, १६ सुगुरु..... प्रतपयो तपगछनायक, वरस कोडाकोडि रे, विबुध कनकनो चरणसेवक, कहे हरी करजोडि रे. १७ सुगुरु.....
॥ पुन: गुरुवर्णने नमः ॥ तपागच्छतिलक प्रभो, जित सकल समाज, विजयधर्मसूरि वंदतें, दिन दिन अति सुखसाज. १
छंद - सारसी ॥ सुखसाज काज अनुप ओपें भूपति पदवी तुम तणी, सामंत सम मुनिमंडली तुम सेव सारे अति घणी । समता सहेली प्रथम परणी अवर संयमस्त्री भणी, जयो जयो श्रीविजेधर्मसूरी धन्य तुं तपगछ धणी. १ सुभ शिष्य शाखा सुत सवाई उपाई ईजत घणी, मिथ्यात्व अरीदल मारवा तुमे करी कटकी ते भणी; गजराज विनय विवेक धार्या पाखर्या स्मरण भणी, जयो जयो श्रीविजेधर्मसूरी धन्य तुं तपगछ धणी. २ मुनिपंथ दसविध अश्व ओपें कोपता अरिदल प्रतें, शीलांगरथ रण-धणण दीपें जीपता सुररथ प्रभे; गुण साधु सत्तावीस पायक फोज माहे अग्रणी, जयो जयो श्रीविजेधर्मसूरी धन्य तुं तपगछ धणी. ३
सुभ ध्यान गोलानालि काउसग्ग दया खेडों दीपतो, कोकबाण वाणक बांण त्रिपदी भावस्यू करी जीपतो; अतितीक्षा असी कर खिमा दीपें जापतो अरिदल अणी, जयो जयो श्रीविजेधर्मसूरी धन्य तुं तपगछ धणी. ४ मिथ्यात्व अविरति दोय अरियण त्रास पाम्या तुम थकी, तस सैन्य पिण मद मोह विषया वेगली गई भय छकी; नीसांण सुजस प्रसिद्ध वागा जगतमें जीत्या भणी, जयो जयो श्रीविजेधर्मसूरी धन्य तुं तपगछ धणी. ५ जिन वीर पाटें धीर साचो हीरगुरु सम सोहए, अती रूप सुंदर मुनीपुरंदर देखी भविमन मोहए: ससि परे निर्मल सुजस ताहरो कीरति पसरी अति घणी, जयो जयो श्रीविजेधर्मसूरी धन्य तुं तपगछ धणी, ६ धन पुन्यरूप अखूट कीधो जिनाज्ञा भण्डारमा, बहु लील पांमी थया स्वामी जैनसासन सारमां, परजा चतुर्विध संघ परगट्ट ऋद्धिथी ओपे घणी, जयो जयो श्रीविजेधर्मसूरी धन्य तुं तपगछ धणी. ७ अथ घटत्रीस गुरुगुणनी स्वाध्याय ।
सुमति सदा दिलमे धरो ए... || साचा सहगुरु सेवीइ, चतुर पणे चित लाय रंगीले.. तपगच्छपति तखत बिराजतां, श्रीविजयधर्मसूरिराय रंगीले. १
साचा सह...... एक असंजम परिहरी, पाले संयम सार रंगीले, विविध धर्म लाभे भलो, करे अधर्मपरिहार रंगीले. २ त्रिण्य तत्त्व सूधां धरै, त्रिकरण शुद्ध आचार रंगीले, विकथा च्यारे वर्जीनें, धर्मकथा कहे च्यार रंगीले. ३ पंच प्रमादने परिहरी, पालें पंच आचार रंगीले, छक्कायने उगारतो, पाले व्रत निरधार रंगीले. ४
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जाणे सात पीडे घणा, छंडि ते भय सात रंगीले, आठे मद अलगा करी, पाले प्रवचन मात रंगीले. ५ नवविध ब्रह्मव्रत धरे, छांडे नवें निदान रंगीले, दस उपघात अणादरे, दस यतिधर्मस्यूं तांन रंगीले. ६ पडिमा उपासकनी कहे, अवगत अंग इग्यार रंगीले. बार उपांगने अभ्यसी, पाले प्रतिमा बार रंगीले. ७ छंडि तेरे काठीया, तेरे किरीयाठांण रंगीले, भूतग्राम चौदे लहे, चौद विद्यागुणजांण रंगीले. ८ पन्नर परमाधामीनें, प्ररूपे पापप्रयांण रंगीले. सोल कला ससिमुख भलुं, गाथा षोडस जांण रंगीले. ९ सत्तर असंयम वज्जीनें, धारे संयमभेद रंगीले, अढार अब्रह्म त्यागीनें, शीलांगरथस्यूं उमेद रंगीले. १० अध्ययन ज्ञाता अंगना, उपदिसे ओगणीस रंगीले, जीवदया रूडी परें, पाले विसवावीस रंगीले. ११ एकवीस भेद मिथ्यात्वना, छांडे सकल एकवीस रंगीले, मेरुपणे धारीमपणे, सहे परीसह बावीस रंगीले. १२ अंग उपांग त्रेवीस ए, सूत्र अरथना जांण रंगीले, चोवीसें जिनवर तणी, धरै मनसुद्धे आंण रंगीले. १३ भावे पंचवीस भावना, पांचे व्रतनी सार रंगीले, जांणे छव्वीस उद्देसणा, दसा-कल्प-व्यवहार रंगीले. १४ गुण गीरूआ अणगारना, धारे सत्तावीस रंगीले, लबधि अनुवीस अभिनवी, सोहे जस निसदीस रंगीले. १५ ओगणत्रीस अलगा करें, पापश्रुतपरसंग रंगीले, भांजे त्रीस प्रकारनो, मोहनी स्थानिक रंग रंगीले. १६ एकत्रीस गुण सिद्धना, परकासे परगद्र रंगीले. शुभ बत्रीस भेद धरे, योगसंग्रहनी वट्ट रंगीले. १७
तेत्रीसे आशातना, टाले गरुनी जेह रंगीले. चोत्रीसे अतिशय भला, जिनवरना कहे नेह रंगीले. १८ पांत्रीस वाणीना गुण भला, सोहे जस मुखे सार रंगीले, छत्रीस छत्रीसी सूरिना, गुणगिरुओ गणधार. १९ लब्धिपात्र कलिकालमें, गुरु गौतमअवतार रंगीले. विद्या-व्रत विशेषथी, जाणे वयरकुमार रंगीले. २० इत्यादिक गुरु गुण घणां, कहेतां न आवे पार,
पंडित रूपविजय तणो, कहे मोहन सुखकार. २१ दूहा : भूपतिमे चक्री भलो, सुरवरमांहें इंद्र,
महीधरमांहे मेरुजी, ग्रहगणमांहें चंद्र. १ तरुअर मांहें कल्पतरु, सेव्यो द्ये सुखपूर, गच्छ चोरासी मांहि तिम, तपगच्छ पुण्यपडूर. २ नायक ते तपगच्छनो, श्रीविजयधर्म गणधार, विजयदयासूरिपद, प्रगट्यो पुण्यअंबार. ३
॥ छंद-अडयल्ल ॥ मंगलपुर सुंदरह सुखकारह, वर्णवू लेस थकी सुविचारह, सोरठ देस अनोपम राजें, पत्तन नयर तिहां सुभ छाजे. १ दूर्ग विसम विसमी वली खाइ, षड कोठा तिहां सबल सजाई, गोलानालि२ गुहिर ध्वनि गाजे, देखीने अरीयणदल भाणे. २ वन उपवन वाडी अति सोहे, देखी सयण तणां मन मोहे, सहकारादिक भार अढार, वनसपति फल फूल उदार, ३ रयणायर जलपूरथी गाजे, मच्छादिक जलचर तिहां छाजे, तटसोभा दीसे अतिसारह, निरखी हरखें सहू नर नारह. ४ व्यापारी करे तिहां व्यापारह, न्याये करी चलवे व्यवहारह, चोहटानी सोभा तिहां राजे, हट्टश्रेणी वली अधिक विराजें. ५ सेठ-नाणावटी-दोसी दीपें, धनें करी धनंवतने जीवें, लोहकार-सूतार-सोनारह, सुखीया निवसें वर्ण अढारह. ६
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जयवंता जिनवरप्रासादह, सुरमंदिरथी मांडे वादह, श्रीजिनवरबिंब जयकारह, भावथकी पूजे नर-नारह. ७ पोढी पुण्यतणी पोसाल, चंद्रोदयसोभित सुविसालह, वाचंयम व्रतधर व्रत पालें, तप जपथी आतम अजुआले. ८ राज्य करे असुरसारह, न्याय-नीत चाले व्यवहारह, वयरी चोरनें दूरे टालें, भुजबले करी परजा पाले. ९ श्रावक लोक वसे सुखकारी, दाता भोक्ताने धनधारी, पोषे पात्र सदा मनरंगे, अभयदान अनुकंपा संगे. १० सामायक पोषध पचखाणह, धारी निसुणे सदगुरुवाणह, सुहगुरुनी नित सेवा सारें, जिनवरनी आणा चित धारे. ११ सुरतरु सम श्रावक दीइ दानह, श्राविका वली कामदुधा समानह, भाव विसेचे साधु संतोष, दान सुपात्रे दीइ चित चोखे. १२ गुरुदर्शनउत्सक गुणवंता, जिनमारगना सूधा भगता, संघ सकल मिली लिखें लेख, श्रीगुरु चित्तमा धरयो विवेक. १३
इत्यादि फलाणा गामथी सदा सेवक, दासानुदास, पायरजरेणुसमान, आज्ञाकारी सेठ फलाणा....
॥ अथ गुरुविनती भास ॥ मुझ दीजे हो राज्यसदन भणी सीखडी जी - ए देशी ॥ भले भावे हो राजि नमी धुरे सरसती जी वली प्रणमी निज गुरुपाय पुण्यवंता जी, करु वीनती हो राजि अनोपम एकमनें जी सुणो गछपति निज चित लाय गुणवंता जी. १ पूज्य आवो हो राजि ए मंगलपुरे जी एनो सुंदर छे सुभ ठाम पुण्यवंता जी, जिनयात्रा दो राज्य होस्ये वली अतिघणी जी ए तो नाम तिस्यो परमाण गुणवंता जी. २ पूज्य... मंगलपुर हो राजि अछे रलीयामणुं जी केतां कीजे तास वखाण पुण्यवंता जी,
श्रावकजन हो राजि धर्मी सुखीया सहू जी करे पोसहने पचक्खाण गुणवंता जी. ३ पूज्य... इहां आव्ये हो राजि लाभ थास्ये घणो जी पूजा पडिक्कमणा पच्चक्खाण पुण्यवंता जी, साहमीवच्छल हो राजि वली परभावना जी वली माल तथा उपधांन गुणवंता जी. ४ पूज्य... जिनजीनी यात्रा हो राजि होस्ये वली अति भली जी घणो वधस्ये धरमनो रंग पुण्यवंता जी, त्रेवीसमो हो राजि नवलखो भेटवा जी बीजा मुनी(नि)सुव्रतनो उच्छरंग गुणवंता जी. ५ पूज्य.... बीजी पिण हो राजि मूरति छे घणी जी आवी भेटो महाराज पुण्यवंता जी, दरीसण दीठो हो राजि मनडु उल्लसे जी, साचुं मानो गरीबनिवाज गुणवंता जी. ६ पूज्य..... उन्नति भली हो राजि होस्यें जिनधर्मनी जी, तिम वधस्ये धरमस्यूं नेह पुण्यवंता जी, श्रीसंघन[इ] हो राजि होस्ये अतिघणो जी, मानो विनती ए ससनेह गुणवंता जी. ७ पूज्य....
अम मनमे हो राजि दरिसणने अलजे बहू जी तुम्ह वांद्यानु एक चित्त गुणवंता जी, धन्य ते दिन हो राजि देखा जे गुरु तणो जी, मुखपंकज पुण्यपवित्र पुण्यवंता जी. ८ पूज्य..... गुरु गछपति हो राजि आवो देव जुहारवा जी तारवा जन उत्तम वृंद गुणवंता जी, श्रीसंघना हो राजि के वान वधारवा जी पाउधारो तपगछदिणंद पुण्यवंता जी. ९ पूज्य..... साह प्रेमा हो राजि कुले दीपक जयो जी पाटिमदे मात मल्हार गुणवंता जी,
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(११) उदयपुरस्थित-विजयधर्मसूरिजी पर मंगलपुरथी हरिविजयजीनो पत्र
ओसवंसे हो राजि अनुपम ओपतो जी महिमानिधि गणशिणगार पुण्यवंता जी. १० पूज्य..... श्रीविजय हो राजि दयासूरिपाटि पटोधरूं जी श्रीविजयधर्मसूरीस गुणवंता जी, एह विनती हो राजि मनमे अवधारिने जी पूरो मननी संघ जगीस पुण्यवंता जी. ११ पूज्य..... घणु फिरी हो राजि वीनवइ किस्यूं जी, तुमे जाण छो चतुर सुजाण गुणवंता जी, पंडित रूपनो हो राजि मोहन इम कहे जी, करज्यो वीनती प्रमाण पुण्यवंता जी. १२ पूज्य.....
॥ इति विज्ञप्तिभासः ॥
घणा विज्ञप्तिपत्रोमां मळता 'स्वस्ति श्रीसदनं'ना श्लोक पछी अन्य ३ पद्यो वडे कवि प्रस्तुत विज्ञप्तिपत्रनुं मङ्गलाचरण करे छ. उदयपुरमा बिराजमान श्रीविजयधर्मसूरिजीने उद्देशीने मंगलपुरीथी प्रस्तुत पत्र लखायो छे. शरुआतना पद्योमा उदयपुरनी बाह्य समृद्धिनुं वर्णन करीने कविए सिद्धाचलतीर्थनी सुन्दर स्तवना करी छे. पत्र सोरठ (मंगलापुरी - हाल- नाम मांगरोळ) देशमाथी लखायो होइ हवे पछीनां पद्योमां कविए सोरठ देशनो तादृश चितार ढाळ्यो छे. एक-एक पद्य कविनी काव्यशक्ति माटे मान उपजावे तेवू छे. गुरुभगवन्तनी सरखामणी दरिया साथे करतां पद्योनी त्यार पछीनी ढाळ खरेखर अद्भुत छे. दरियानी एक-एक विशेषता- अहीं गुरुभगवन्तना पक्षे सुन्दर आलेखन थयुं छे. कवि पोते चातुर्मास मंगलापुरीमा बिराजमान हता तेथी त्यां चातुर्मासमां केवी केवी आराधना थइ तेनुं वर्णन करी पूज्यश्रीने चातुर्मास पधारवा विनंती करे छे. साथे आपना अहीं पधारवाथी श्रीसंघमां कई कई आराधना थशे तेनो संक्षिप्त अहेवाल पण कविए आप्यो छे. कृतिना अन्ते पोतानुं अने पोताना गुरुना नामोल्लेख साथे पत्रनुं कविए समापन कयु छे.
स्वस्तिश्रीसदनं निरस्तमदनं कल्याणसम्पादनं, विश्वानन्दनिदाननन्दनवनं सिद्ध्यध्वनि साधनम् । वाचाचन्दनन्दनं सुरदनं वामासतीनन्दनं, वन्दे विघ्ननिषूदनं नुतसुरश्रेणीसदावन्दनम् ॥१॥ स्वस्तिश्रीकमलाकरं शिवकरं गाम्भीर्यरत्नाकर, श्रेयःपद्मदिवाकरं सुहृदयं ज्योत्स्नाप्रियोषाकर(रम्) । कामध्वंसनशङ्करं कजकरं विश्वैकरक्षाकरं, पार्श्व सौख्यकरं सदा हितकरं ध्यायाम्यहं शङ्करम् ॥२॥
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स्वस्तिश्रीभुवनं विशालवदनं विस्वा(श्वा)वनीपावनं, दीनानामवनं विमुक्तसवनं लक्ष्मीलताजीवनम् । सतुष्य भवनं(?) मलाभिधुवनं विज्ञानवल्लीवनं, पापाब्दे(ब्धः) पवनं तमोनिधुननं वीर(रं) स्तुवे जीवनम् ॥३॥ स्वस्तिश्री(श्री:) श्रयति स्म यं जिनपति(ति) गौरी च गौ(गो)पीपति(ति), लक्ष्मीर्लक्ष्मीपति(ति)पम? रतीपती(ति) श्रीतेव सम्भाप(ष)ते । रात्रे विद्युपति तमा(मी) द्विजपति(ति) प्रेम्णा शची स्व:पति(ति) श्रीवीराधिपति(ति) नतावनिवर्ति .................. ||४||
स्वस्तिश्री आदिजिनं प्रणम्य, स्वस्तिश्रीशान्तिजिनं प्रणम्य, स्वस्ति श्रीनेमिजिनं प्रणम्य, स्वस्तिश्रीपार्श्वजिनं प्रणम्य, स्वस्तिश्रीवीरजिनं प्रणम्य, सकलदेस-नगरसिरोमणि, नर-समुद्र-वापी-कूप-तडागादि-वाडी-वनखंडआरामसंशोभिते श्रीजिनशासन-जिनप्रासादशिखर-कलस-ध्वजमनोहर श्रेणिसंशोभिते उपाश्रय-सार्मिकजनसहिते धर्मीजनके सम्यक्त्वनित्योत्सवसंयुक्तन्यायप्रवीण नरपति-नगरउत्तम श्रीपूज्यचरणकमलन्यासरेणुपवित्रिते श्रीउदयपुरनगर सुभस्थाने पूज्याराध्योत्तमोत्तम परमपूज्य अरचनीआन् श्रीपूज्य चारित्रपात्रचूडामणी सकलसूरिशिरोमणी कुमतांधकारनभोमणी विद्वज्जनमुगुटामणी । एकसो १०८ गुण लिखवा... दूहा : इम अनेक गुण सोभता, सोरठ देस सिरदार,
जिहां दोय तीरथ भला, महीमानो नही पार. १ सिद्धाचलगिरिसेहरो, मोक्षप्रासादसोपान, इण वाटे वहेता जिके, पोहता पुर निरवाण. २ आदि न काई ए गिरितणी, तिम वली नावे अंत, सदाकाल ए सास्वतो, जिनवर एम कहत. ३ ए गिरि सिद्धसिला जिस्यो, सिद्धिवहूनो गेह, नयणे परतिख पेखतां, अधिको गिरिपति एह. ४ अमरपति सहू आवीया, भरतादिक सवि राय, श्रीऋषभादिक सहू जिनवरा, सेवित कीय थिर ठाय. ५
धन धन ए देशांतिलक, धन जन इहां वसंत, श्रीशेजूंजगिरि नित्य प्रतें, निज नयणे निरखंत. ६ चिंतामणि जिम दोहिलो, पामीजे कृतपुण्य,
तिम दरिसण ए गिरि तणो, जे पामे ते धन्य. ७ ढाल - नायकानी ॥
सकल देसदेसां सिरे रे लाल, सोरठदेस समृद्ध सुभकारी रे, धण कण कंचने पूरीयो रे लाल, ज्यु सुरपुर सुप्रसिद्ध सुभकारी रे. १ सोरठदेस सोहामणो रे लोल, देखता दुःख जाय सुभकारी रे, नर नारी निरुपम सहू रे लोल, वसे सदा सुखमाय सुभकारी रे. २ सुरसरिता जिम सोहती रे लाल, नदीयां निरमल नीर सुभकारी रे, नीरतरंग विहंगसा रे लाल, सीतल सदाई समीर सुभकारी रे. ३ पगि पगि पाणी पंथमा रे लाल, वड जेहवा मोटा वृक्ष सुभकारी रे, सीतल जल छाया सदा रे लाल, पंथी पामे सुख सुभकारी रे. ४ सालि तणां क्षेत्र संपजे रे लाल, नीकां भरीया नीर सुभकारी रे, पाकां आंबा तोडता रे लाल, केल करंतां कीर सुभकारी रे. ५ गिरिवर कंचनगिरि जिस्या रे लाल, उन्नत शिखर आकार सुभकारी रे नीझरणा नदीया वहे रे लाल, षट रितु बारह मास सुभकारी रे. ६ आंबा रायण आंबलि रे लाल, करणां केलि खजूर सुभकारी रे, बहु फल फूले सोभता रे लाल, तरुवर तरल सनूर सुभकारी रे. ७ वन उपवन आरामना रे लाल, पग पग न लहू पार सुभकारी रे, अढार भार वनस्पति रे लाल, फूल्यां सम सहकार सुभकारी रे. ८ सरवर भरीया सुंदरु रे लाल, पंखी करता केल सभकारी रे, कमल सुगंधा ऊपरे लाल, षटपद करता गेल सुखकारी रे. ९ आगर सोहे अति भला रे लाल, साते धातु सुरंग सुभकारी रे, वस्तु विशेष जिहां घणा रे लाल, परीघल पांचे रंग सुभकारी रे. १०
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रतनागर पासे वसे रे लाल, रतनजिहाज अनेक सुभकारी रे, परदेसी परखंडना रे लाल, व्यापारी सुविशेष सुभकारी रे. ११ गांम नगर पुर अति घणां रे लाल, पगि पगि प्रबल निवास सुभकारी रे, कोट प्रासाद घरि मालीया रे लाल, अति सुंदर आवास सुभकारी रे, १२ मेघ जिहां वरसें घणो रे लाल, निरमल वहे बहु नीर सुभकारी रे, वनसपती फूलें घणी रे लाल, सुरभि झरे बहु खीर सुभकारी रे, १३ रतनागरथी जिहां कणे रे लाल, साहूकारने संग सुभकारी रे, रतन प्रवालादी तणा रे लाल, प्रवहण आवे यंग सुभकारी रे. १४ सुंदर रूप सोहामणो रे लाल, सुरपतिने अनुहार सुभकारी रे, . चतुराई गुण आगला रे लाल, मानव जिहां मनुहार सुभकारी रे, १५ चंदवदन मृगलोचनी रे लाल, हरिलंकी गजचाल सुभकारी रे, अपछरनें अनुहारडे रे लाल, मीठा बोली बाल सुभकारी रे. १६ इम अनेक गुणे सोहतो रे लाल, सुंदर सोरठदेस सुभकारी रे,
कहीइ जिहां लहीये नही रे लाल, दुर्भिक्ष डमर-प्रवेश सुभकारी रे. दूहो : शेर्बुजय गिरनारगिरि, मोटा तीरथ दोय,
तिण कारण देसां सिरे, जिनमत मांहे जोय. १
जीहो क्रोधादिक उद्धत सदा लाला, विरूआ च्यार कषाय, जीहो पाठीन पीठ-नक्र-चक्र ए लाला, जलचर रहे मुरझाय. ५ जीहो उपसमरतिपति अंतरे लाला, ओपें अंतरद्वीप, जीहो सरवमती आवी मिले लाला, नदीयां नीर समीप. ६ जीहो जलनिधि ज्यूं जलस्युं भर्यो लाला, गाजें गुहिर गंभीर, जीहो तिम उपदेस गुरु आपता लाला, सुंदर सब्द सधीर. ७ जीहो सागरमांहें सोहे सदा लाला, जंघ शबल जिहांज, जीहो गुरुमां ज्ञान विराजतो लाला, तारे सकल समाज. ८ जीहो वडवागनि कर्दम कह्या लाला, सागर माहें शेष, जीहो गुरुमाहें ए दीसे नही लाला, तिणे करी जाणो विशेष, ९ जीहो धन्य श्रावक धन्य श्राविका लाला, पडिलाभे सूरिराय, जीहो निज मंदिर पावन करें लाला, पधरावे गुरुपाय, १० जीहो विजयदयासूरिंदनो लाला पट्टप्रभावक सूर, जीहो तपगछपति नित नित तपो लाला, श्रीविजयधर्मसूरि. ११
चतुरनर ! सेवो श्रीगुरुचंद.....
अथाष्टकम् ॥ श्रीमद्गच्छाधिभत्रु(तुः) चरणमधुपतां ये श्रयन्तीह भव्यास्त्यक्त्वा कार्यान्तराणि प्रतिदिवसमहो ! श्रद्धया पूरितागाः । तेषां गेहं कदाचित् त्यजति न कमला चञ्चलत्वं विहाय, सत्सङ्गान्नो जनानां भवति न कथं सद्गुणानां प्रवृत्तिः ॥१॥ सकलया कलया कलित[:] प्रभुः, प्रभुतया विदितो विदितागमः । गमनयार्थविचारणतत्पर[:], परमनिर्वृत्तिनिर्वृतयेऽस्तु नः ॥२॥ कामं ददाति भविनां नु विलोकितो य, आकर्णित: क्षिपति दुर्गतिदुःखजालम् । संसेवितो वितनुते श्रियमाश्रितानां, सोऽयं शुभानि विदधातु विभुय(य)तीनाम् ॥३॥
हाल ॥
जीहो गुरुं दरीया गुणे करी लाला, समवड जाणो संत, जीहो तेह तणी विधि वर्णवू लाला, सुणज्यो भवि तजी भ्रांत. १
चतुरनर ! सेवो श्रीगुरुचंद..... जीहो उपसमनीर समावता लाला, चातुर चारितनाव, जीहो पंच महाव्रतरयण ए लाला, गंभीर धीर स्वभाव. २ जीहो विद्याई विविध अगाध लाला, वाणीकल्लोल विलसंत, जीहो मद्दवमोजां उछले लाला, विविध किरिया वरत. ३ जीहो चउदह विद्या चूपसुं लाला, चौदह रयणनी जात, जीहो साधु धरम अंगे धरे लाला, मरजादा विख्यात. ४
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शच्या युष्मद्यशोभिर्निबिडधवलितां वृत्रहाऽऽलोक्य वेणी, त्रैलोक्याखण्डभाण्डोदरविवरगतं वस्तुजातं स्पृशद्भिः ।। भ्रान्ते स्वान्ते प्रपेदे त्रिसमयविदहो निर्जरत्वे जरेति, चित्रं गच्छाधिराजाऽमितविततगुणाम्भोनिधे! ध्येयनामा ॥४|| स्वामी(मि)न्! त्वदीयं किल नाम धाम, श्रियामनन्तं प्रभुताश्रि(श्र)यं यत् । तत् किं वदन्ते परितं स्मृतं नः सुखं सुतेऽल्पीकृतकल्पवृक्षः ।।५।। श्रीसूरिसम्राड्! भवदीयतेजसा, पराभवं पूर्वमलं प्रलम्भितः । धैर्य(य) त्व(न्व)वष्टभ्य कथं कथञ्चन, ब्रघ्नः पुनस्तद् विजयार्थमुद्यतः ॥६॥ प्रतिप्रभातं शकुनं विलोकितुं, शोचिशकाला(लाकां) किल पद्मपुस्तके । चिक्षेप यस्मात् सहसा ज(ऽञ्ज)नासितः, प्रागेव भृङ्गो निरयाय भङ्गदः ॥७॥ प्रभो ! शशाकोपमितं त्वदीयं, सद्दर्शनं सौम्यगुणं विलोक्यः(क्य) । प्रसीदतो मे बत दृक्चकोरा-वभि(भी)ष्टमासाद्य समश्च मोदते ।।८।।
|| इत्यष्टकम् ॥ दूहा : तुं रयणायर गुणभर्यो, लहेरां तान लहंत,
पार कोई पावे नही, अतिसय धीर अनंत. १ ज्ञानादिक मोटा रयण, अंतरगति भासंत, च्यारु दिस चारित्रजल, पसर्यो पूरण पंत. २ भविककमल प्रतिबोधवा, सूरजकिरण समान, जिनशासन अंबर तिलक, तुं मोटो सुविहांण. ३ इम अनेक गुण उपतो, उदयपुर सुखदाय, थिर चर जंतु तणे सदा, दीठा आवे दाय. ४ तेह नगर सुभ थानके, सकलगुणौघप्रधान, चारित्रपात्र-चूडामणी, पंडितमांहे प्रधान. ५ शासनपति श्रीवीरजिन, श्रीश्रीसुधर्मास्वामि, श्रीजंबूस्वामिप्रमुख, प्रभवादिक अभिराम. ६ तेहने पाटपरंपरा, अंबरभासन सूर, श्रीविजयधर्मसूरिंदजी, नायक चडते नूर. ७
गिरुआ सहजे गुण करें, कंत म कारण जांण, श्रीविजयधर्मसूरि सेवतां, दिन दिन वाधे वांन. ८
कुलमंडण, कुलदीपक, कुलउद्योतकारक, कलिकालकल्पद्रुम, भविकजीवआस्थाविश्राम, गुणगच्छमेढीसमान, पंडितप्रधान, तपगछमाहे दिनकरसमान, देवमाहे इंद्र, तारामाहे चंद्र, पर्वतमां मेरु, वाजिनमां भेरू, सूत्रमाहे कल्पसूत्र, मंत्रमा नवकारमंत्र, सुखमां संतोष, पर्वमां पजूसणपर्व, हस्तिमा एरावण, रतनमां चिंतामणरत्न, तिम गच्छमा तपगच्छ, तेहमाहे सूरीश्वर गुणे करी संसोभित दूहा : संघ समस्त ईहां थकी, लखे लेख श्रीकार,
त्रिविध त्रिविध करे वंदना, अवधारो गणधार. १ सकल संघनी वंदना, अवधारो अरदास, पूज्य तणा परसादथी, छे ईहां परम विलास. २ धर्मध्यांन ईहां किण घणा, नित नित नवले नेह, ओछव मोच्छव अभिनवा, कहेतां नावे छेह. ३ छठ अठम पन्नर वली, मासखमण तप तेम, थया अनेक ईहां किणे, नित अधिका धर्म नेम. ४ परव पजूसण पारणां, साहमीवच्छल सार, आडंबर अधिका थयां, परघल अनेक प्रकार. ५ पोसा पडिक्कमणा तणो, नित नित अधिके भेव, दयाधर्म दिन दिन धरे, धर्मध्यान नितमेव. ६ निराबाध सुख तप तणां, साहमीवच्छल सार, आडंबर श्रीसंघनें, देज्यो धरी अतिप्यार. ७ । जिम ईहां संघ समस्तनें, ऊपजे अधिक आनंद, पूज्य तणा परसादथी, नित नित हुवें सुखकंद. ८
परम पूज्य, परम पुरुष परमगुरु, परमपवित्र, श्रीतपागच्छाधिराज, श्रीसकलभट्टारकपुरंदरभट्टारक श्रीश्रीश्रीश्रीश्री १०८......
अथ गुरुवीनतीनी भास लिखी छे ।
१. लहेरे ज्ञान लियंत- पाठां ।
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नय निक्षेपा भाखो हो, सूरि दाखो दोयविध धर्मनें,
पुनः कारण-कार्यना भेद, षट् सप्तभंगी हो, अति चंगी तुम्ह देसन सुणी
भविजन हृदय उमेद ८ वीनती..... समकितगुणदाता हो, जगविख्याता वेहेला पधारज्यो,
खजमंत करस्युं कर जोड, चातुक मन जिम मेहा हो, गुरुधर्मसनेहा अमने अछो,
वंछित पूरज्यो कोडी(ड) ९ वीनती..... घj घणुं वीनवतां [हो], अंतरयामी दीसें कारिम,
गिरुआ श्रीगणधार, बुध कनक पसाये हो, गुण गाया गिरुआ साहिब तणा,
हरीइं लह्यो जयकार १० वीनती.....
॥ इति गुरुभास संपूर्णम् ॥
वीनती अवधारो हो, पाउधारो श्रीमंगलापुरी श्रीसंघ करे अरदास, श्रीविजयदयासूरिंदना हो, पटधार वीनती अम तणी,
चतुर आवो चोमास १ वीनती..... मंगलपुर अति दीपे हो, अलकापुर जी सेहेजथी,
केता कीजे तास वखाण, श्रावक जिनधरमी हो, दुखविरमी निवसें ईहां सदा,
करता व्रत पच्चक्खाण २ वीनती..... पोसह पडिकमणा बहू करता हो, गुण धरता श्रावक श्राविका,
जोवे तुमची वाट, गछपतिजी तुमे आवो हो, बहू ल्यावो मुनिपरिकर भलो,
जिम ईहां होए गहगाट ३ वीनती..... पोसह पडिकमणां बहू होस्ये हो, दुख खोसें भवि तुम्ह वंदतां,
वली साहमीवच्छल सार, वीसथानिक विध उपधाना हो, मालारोपण भला,
वरतस्यें जयजयकार ४ वीनती..... पूजा प्रभावना थास्ये हो, गुण अभ्यासे हो जिनमत उन्नत घणां,
तुम्ह आवो चतुर सुजाण, स्यूं गछपति तुमे मोह्या हो, गुणगेहा हो मरुधरदेसमां,
पावन करो अत्र सुजांण ५ वीनती..... तुम्हे गछपति छो गिरुया हो, गुणभरीया सहूने सारिखा,
ज्यूं आसाढी जलधार, तिम तुमें ईहां आवो हो, वंदावो मंगलपुरना संघनें,
महेर करी गणधार ६ वीनती..... पंच माहाव्रत तुम छाजे हो, गुण गाजे हो महिअल चिहं दिसें,
श्रीविजयधर्मसूरिंद, अमृतध्वनि तुम्ह वाणी हो, भवि जाणी निसुणे हेजसू(सुं)
अंग उपांग अमा(म)द ७ वीनती......
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(१२) सादडीथी श्रीसङ्घनो भिन्नमाल विजयधर्मसूरिजीने
मोकलायेल विज्ञप्तिपत्र
प्रस्तुत पत्र सादडीथी श्रीसद्धे भिन्नमाल विजयधर्मसूरिजीने उद्देशीने पाठव्यो छे । जोके कृति जोतां सम्पूर्ण पत्र आगळ सम्पादित थयेल विजयजिनेन्द्रसूरिजीना पत्रने मळतो छ । पत्र मोकलनार सङ्घनुं नाम, पत्र मोकलायेल स्थाननुं अने त्या बिराजमान गुरुभगवन्तनुं तेमज तेमना माता-पिता विगेरेनुं वर्णन बाद करता पत्र वर्ण हुबहू आगळना पत्रनी नकल छ। अहीं सम्पूर्ण पत्र- सम्पादन न करता विशेष नोंधो/पद्यो आप्यां छे ।
पूर्वपत्रनी विगत प्रस्तुतपत्रनी विगत - पत्र क्याथी लखायो? विजेवानगरथी लघुमारवाडना सादडीथी - क्या लखायो ? राधनपुर भिन्नमाल - कोना उपर? विजयजिनेन्द्रसूरिने विजयधर्मसूरिने
(विजयधर्मसूरिशिष्य) (विजयदयासूरिशिष्य) - माता
गुमानदे
पाटमदे - पिता
प्रेमा - वंश
ओसवाल
ओसवाल - पत्रस्थ तीर्थों शत्रुजय, वरकाणो अर्बुद, राणकपुर अन्य महत्त्वपूर्ण नोंध : १. प्रस्तुत पत्रमा तीर्थमाहात्म्य वर्णवता आबुन वर्णन होइ अन्य ३ पद्यो मळे * आ जे पत्र अंगेनी वात छे ते पत्र अनु. ६४, पृ. १९४-२०९ पर प्रकाशित
छे. ते पत्र विजयधर्मसूरिजीना पट्टधर विजयजिनेन्द्रसूरिजीने उद्देशीने लखायो छे, तेथी अत्रे प्रकाशित विजयधर्मसूरिजी परनो पत्र तेनाथी जूनो होय अने मूळभूत पत्र होय तेमज पूर्वे प्रकाशित पत्र आनी नकल रूप होय, न के आ पत्र ते नवा पत्रनी नकल होय ते सहज समजाय तेम छे. परन्तु सम्पादक मुनियुगले जे रीते नोंध मोकली ते ज प्रमाणे छापवानु उचित धायुं छे. - शी.
छे ते नीचे मुजब - A देशवर्णन ढाळ - चोपाई
प्रथम विमलमंत्रीनो सार, आदिस्वर प्रासाद उदार,
सुंदर उन्नत अधिको सुणो, अविचल आबू मध्य ए थुण्यौ ॥५।। B देशवर्णन, ढाळ - चोपाई
ति[म] वली मांड्यो नेमिप्रसाद, मंदिर गीरसुं करतो वाद,
पोरवाड तेजपाल वस्तुपाल, करापित जिनभुवन विसाल ||७|| C देशवर्णन, ढाळ - चोपाई
अचलगढ जिनभुवन विख्यात, ते मध्य बिंब सकल सप्तधात,
मण चवदेसै चमालीस मान, चौमुख च्यारे प्रतिम समान ॥९॥ २. ढाल - २ 'रंग रो रे.....' देशीमां पद्य ११९ अधिक मळे छ ।
श्रीविजेंदयासूरिंदनो, पट्टधारी सुप्रसिद्ध रे,
श्री विजैधर्मसूरीश्वरु, नमतां होई नवनिद्ध रे. ११ ३. वीनती स्वाध्याय ॥ देशी रसीयानी ॥ पद्य ५मुं
'कीजिइ कीरीया विसेष'नी जग्याए 'चित धरे तिम चाह' आवो पाठान्तर
मळे छ। विज्ञप्ति सज्झाय वीनतडी अवधारो हो, पउधारो लघु मरुधरदेशमें, चतुर तमें चोमास, श्रीविजेंधर्मसूरीसा हो, मुनीइसा संघ समस्तनी, अवधारो अरदास. १
वीनतडी.... पहिली प्रीत लगाई हो, स्युं जाई रह्या परदेशमें, माया रे मनथी मुंक, जलोधरसुं मोह्या हो, स्युं सोह्या करुणासागरु, स्यो पडियो अम चूक. २ शीलें थूलीभद्र सरिखा हो, विद्याई वयरकुमार ज्युं, गोयमनो अवतार, वांणी अमीय समांणी हो, हित आंणी प्रांणी सांभली, बूझ्या केई नर-नार. ३ सरसतीकंठे मोहो हो, मन मोहि मदन तणी परे, रूप वन्यौ वसूदेव, भल भला रांणा राया हो, गुरु हेते वांदवा, चाह करे नितमेव. ४
हरचंद
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नवेम्बर - २०१४ तुम दरिसनने तरसे हो, घणु हरसें हीयडो माहरो. मोरांने जिम मेह. गज जिम समरे रेवा हो, नितमेवा सिता रांमने, पंथीडा मनगेह. ५ एहवी रीत तुमारी हो, इकतारी धारां छो, थारे तो नव लाख, तो पिण मनडे अमने हो, घणु तुमनें अहोनिस संभरे, त्यांरी सुपनां देसी साख.६ वहिली वलण करेज्यो हो, वली दिजो दरसण दासनें, मया करी मुनीराय, सादडीसेहर पधारो हो, अवधारो वीनती म्हांहरी, राजिंद गछपतिराय. ७ आवी देव जुहारो हो, पउधारो श्रीपूज्यजी, रांणकपुर रसहेस, तु तपगछरी गादी हो, जग वादी सघलाई जीतीया, मुनीवर तणा महेस. ८ श्रीविजेंदयासूरी-पाटे हो, मुनीथाटें प्रतपीजो सदा, श्रीविजेधर्मसूरीस, जीवणसागर ग्यांने हो, गुरु-ध्यांने तपगछरायसुं, अहोनिस दै आसीस. ९
॥ इति विज्ञप्ति सज्झाय || ५ अत्रथी सदा सेवग पं० जीवणसागर ग०, पं० मनोहरसागर ग०, पं० हिम्मतसागर ग०, पं० नित्यसागर ग०, पं० चतुरसागर ग०, पं० योग्यसागर ग०, पं० रामसागर ग०, कर्पूरसागर ग०, भावर्षि चेला फतेचंद, तेजसी, जगरूप, देवीचंद प्रमुख ठाणा १७नी वंदणा १००८ वार अवधारवीजी । तत्रत्य सपरिवार साधुने वंदणा वंचावसीजी ।
(१३) सूरत नगरे विजयजिनेदसूरिजीने
थांदलाथी प्रेमविजयजीनो पत्र प्रस्तुत पत्र थान्दला नगरथी प्रेमविजयजीए सरतनगरे विजयजिनेन्द्रसरिजीने उद्देशीने लख्यो छे. पोते शा कारणथी पत्रिका(पत्र) लखी छे ते प्रयोजन बतावी कविए गद्यप्रवाहमा पूज्यश्रीना अनेक गुणोनु वर्णन कयु छे. साथे पद्यमां पण सवैया प्रकारमा ४ पद्यो रची पूज्यश्री प्रत्येनी पोतानी भक्ति प्रगट करी छे. पूज्यश्रीना दर्शननी झंखना अने पूज्यश्री प्रत्येनी समपितता त्यारबादना गद्य पत्रविभागमां जणाई आवे छे. कृतिमां घणा शब्दो मारवाडी भाषाना छे. केटलाक अरबी-फारसी भाषाना छे जे तत्कालीन बोलीना व्यवहारने बतावे छे.
शब्दार्थ १. स्रव = सर्व
५. जदवा-तदवा = जेमतेम २. ग्रसाय = ग्रसित थाय
६. दुजणी =? ३. तकसीर = भूल (?)
७. फुरमास = फरमास = (आज्ञा) इच्छा ४. वावला = वेवलो = गांडो
सकलभट्टारकपुरंदरभट्टारकणी श्रीश्रीश्रीश्रीश्रीश्री १००८ श्रीविजयजैनेंद्रसूरीश्वरजी चर्णा(रणा)न् चर्णकमलचांबुजेभ्यो नमः ॥
|| श्री २४ ॥ श्रीमज्जिनो जयतीतराम् ॥ श्री श्रेयोऽस्तु ॥ स्वस्ति श्रीजिनमानम्य, पञ्चकल्याणनायकः (कम्) । लिखामि पत्रिका(कां) रम्या, सत्समाचारहेतवे ॥१॥
स्वस्ति श्रीऋषभादि-श्रीवीरजिनं प्रणम्य श्रीमति तत्र श्रीसूरतबिंदर महाशुभस्थाने पुरंदरपुराकारे तत्र सकलगुणगणान्, गुणमणिअलंकृतान्, विबुधजनरंजितान्, विद्वज्जनपंडितान्, चारुचातुरीचमत्कृद्दीप्तदेहान्, वाणिगुणमिष्टतान्, धर्मीष्ट महाधर्मवान्, षडत्रिंशद्गुणे शौभितान्, पंच महाव्रत-पंच सुमति-त्रय गुप्ति एवं
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त्रयोदशप्रकार चारित्रधरणधीरसमर्थान्, अर्कवत् तेजकान्, शशिवत् शीतलान्, सुमेरुवत् अचलान्, समुद्रवत् गंभीरान्, कंदर्पदेवसम मूर्तिवान्, विद्यावंत वयरसेनवत्, शीयलगुणे स्थूलभद्रवत् दृढः, सकलगुर(ण)विद्यानिधान, साधितसदाअष्टावि(व?)धान, महामुनीश, मुनिश्रेष्ठराय, भुवि भव्यजनान् भगवत् तुल्यभाय, पुरुषोत्तमप्रवरत्वं पुरुषसार, कलिकालमध्ये गौतमावतार, सरस्वती-कंठाभरण, वादीविजयलक्ष्मीशरण, विज्ञाताखिलपुराण, वादीकदलीकृपाण, निपुणश्रेणिशिरोमणे, कुमतांधकारनभोमणे, विजितवादीवृंद, वादीगरुडगोविंद, वादीनिखदमुखभंजन, विद्याविहितअनेकजनरंजन, ज्ञानरत्नरत्नाकर, महाकविकृतकवीश्वर, शिष्यीकृतबृहस्पते, विनतानेकनरपते, जीतानेकवाद, सरस्वतीलब्धप्रसाद इत्याद्यनेक बिरुदानि सकलनरलोकआलंबण आधारभूत, सर्व भवि प्राणी पक्षीरूपनो प्राग्वट समान, सकल महत् लोकनो तिलकायमान, सकलगछाधिराज, सकलगछमार्तडवद्द्योतायमान, सकलगच्छआभूषण, सकलभट्टारकपुरंदरभट्टारकजीश्रीश्रीश्रीश्रीश्री १००८ श्रीविजेंजैनेंद्रसूरीश्वरचर्णान्, चरणकमलान् चर्णाम्बुजेभ्यो नमः ॥
ऐश्वर्य इन्द्रतुल्यं नरपति तथा दिव्यसौन्दर्यमूर्ति, देवत्वं कल्पवृक्षं गणकुलसमं मेरुचन्द्रार्कबिम्बम् । योगीन्द्रो जैननाथो परमसुखदः सारदाकण्ठवासं,
प्राज्ञ: जैनेन्द्र श्रेष्ठं जगगुरुवरं प्रेमं नित्यं नमामि ॥ अथ सवैयो ॥३शा श्रीविजिनेंद्रसूरि राजत हैं जैनराजा, भाग्यबली भूप जेंसें सुरमें सुरेंद्रसो । तेजमें दिणंद तेम सौमवंत ज्युं शशि, गंभीर्यता गुणोदधि त्यु महिमें महेंद्रसो। दांनीमां करण दाखं ग्यान बुद्धिमां गणेश, ब्रह्म में अडिगवति मुनिमें मुनेंद्रसो। परंपरा वीरपाट थाट सदा घणे थोक, हर्षवंत दूजो हीर नरमें नरेंद्र सो ॥१|| वेद श्रुति वइयाकरणी पाठी पंचकाव्यको, ज्योतिष सिद्धांत गुणलायक छत्रीसको । निजशास्त्र परशास्त्र न्याय तर्कको निपुण, भाषा सब भेद ठानें आगम पेंतालीसको। कुराणको पुराणको राग कोक लिपि कलासामुद्रको, अंगलक्षण जाण हें बत्तीसको। जगगुरू जिनेंद्रसूर नायक मुनिनाथ मेरो, कर जोड प्रेम कहें दास हुँ अधीसको ।।२।।
जाकी छबि सूरतको विशाल देख मोहें स्रव' मार्नु द्रग मूरत ही कामदेव पेखीयें। जाका तप तेजको उद्योत मांनु सूरज सो अग्यानरूपी तिमर मोहभंजन उवेखीयें। जाके जग योगके आसन ही चौरासी नाम आहार दृढआसन इंद्री दृढ देखीयें। चौरासी गछनायकको नाथ हे जिनेंद्रसूर कहें कवि प्रेम नेम वंदित विशेषीयें ।।३।। मंत्र महा परम इष्ट वीर माणभद्र जाकें, चक्केश्वरी पोमावती अंबिका सहाय हैं। रक्षक हे गादीकें इंद्र जक्ष दिगपाल भवानी चौसठ मिली शंकटन् हसाय हे। समरें थें हाजर सदा जाकी हजूर रहें रातदीह आछे जाम अरिकुल ग्रसायहे। कहे कवि प्रेम सुणों राजा जिनेंद्रसूरि आछो तूं ईश मेरो दूजो कोंन भाय हें ॥४॥
अत्र श्रीथांदलानगरत: हुकमी, आज्ञाकारी, चरणरजरेणुसमानसेवक प्रेमविजय लिपिकृतं वंदणामेकसहस्र अष्टोत्तर १००८ त्रिकाल बंदणा अवधारसीजी। आप मोटा छो, कल्पवृक्ष छो, ईश्वर छो, धणी छो, सकलगुरु सद्गुण छो, मुझ सरिखा पतित सेवकनें श्रीश्रीजी साहिबानो दर्शन घणु दुर्लभ छ। जे दिवस श्रीजी साहिबांनो दर्शन करस्युं ते दिवस सफल गिणसुं । म्हारें तो रात्र-दिवस श्रीजी साहिबांनो ज स्मरण छ । हुं तो श्रीश्रीजी साहिबांना गुणनी तारीफ आगें तो सदा सुंणांज छां । पिण वले पं. रामविजयजीना मुख थकी सांभलीने घणो हर्ष घणो सुख पांम्यो छु । जिम कोईक रोगी तथा तृषाक्रांतथको अमृतपान करूं घणो सुख उपजें हुं तद्वत् सुखी थयो छु, तथा जलकमलवत् तथा जलमीनवत् । बीजुं हुं तो श्रीजी साहिबानां दर्शननी उत्कंठा घणी राखं छु. जो मालवदेशमध्ये श्रीमोक्षीपार्श्वनाथजीना दर्शन करवा सारु पधारें तो मझनें दर्शन थायें । पिण श्रीश्रीश्रीसाहिबांनो तो आववो अमारें दर्शनांतरायना योगर्ने माटें कठिन , ते वहिलो किम दर्शन थाय । अत्र दृष्टांत :- जिम कोई भरतक्षेत्रनो आर्यदेशनो ऊपनो जे जीव ते अनार्यदेशमें वसें तेहनें प्रभुनो दर्शन केहबुं दुर्लभ हुवें तिम मुझनें स्वामीनो दर्शन दुर्लभ छे, अने श्रीश्रीजी साहिबांने पासें रहे , तथा वांदें छे तथा वांणी सुंणे छे ते महाविदेहना वासी तद्वत जाणवां । घणो स्युं लिखें आप माहाराज छो, बहु जाण छो, हुं तो स्वल्पमति छु, अज्ञान छु । थोडें लिख्ये घणो कर अवधारज्यो. इण अरजदास्त में इधको-ओछो लिखांणो होवें तो गुन्होतकसीर माफ करसी । के 'गहिला-गुंगा-वावला' तोहि बंदा रावला' तथा 'बालक जदवा-तदवा बोलें मात-पिता मन अमृत तोलें' इति । अत्र लायक
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काम-कल्याण हमेसां लिखावसी दुजणी जाणसी नही। अमारें तो हुकम व्यवहार सदाई राजनो ज छ। अनें वली श्रीजी साहिबांनी फुरमास आवसी ते मार्थे चढावी लेसुंजी । वलमान पत्र कृपाप्रसाद करी वहिला लिखावसीजी । तत्र श्रीश्रीश्री साहिबांने पार्श्ववर्ति साधु सर्व होवें तिणांसुं प्रेमविजयरी वंदणा वांचजोगी। मिति फाल्गुण सुद्ध २ गुरु संवत् १८४५ वर्षे श्रीश्रेय ॥
*
*
*
(१४) जोधपुरथी मनरूपविजयजीनी रतलाम विजयजिनेन्दसूरिजीने विज्ञप्ति
मङ्गलाचरणमां संस्कृत पद्यो द्वारा आदिजिन, शान्तिजिन, नेमिजिन, पार्श्वनाथ, वर्धमानस्वामी तेमज माणिभद्रयक्षराजने नमन करी गर्जरभाषामा पद्यपत्ररचनानी शरुआत करी छे । तेमां पण पूर्वोक्त इष्टदेवना स्मरणनी साथे माता सरस्वतीनुं पण स्मरण करायुं छे । पत्र लेखनक्रमानुसार हवे पछीनां पद्योमा कविए पद्यावती-छन्दमां मालवदेश तेमज रतलाम शहेरनु, अने ते पछीना भुजङ्गी-छन्दनां पद्योमा गुरुभगवन्तनुं वर्णन कयु छ । मालवदेशनी हांसी करतां पद्यो ए आ पत्नी विशेषता छ । हास्य साथे पदार्थ रजू करवानी कविनी आगवी कळा अहीं जोवा मळे छ । अन्य पत्रनी जेम सूरिगुणवर्णन अहीं २ ढाळमां ३६ गुणोथी करायुं छे। त्यार पछी सर्व सामान्यगुणोनी संस्कृत गद्य अने पद्य तेमज गुर्जर गद्यमा वर्णना करी पछीनी ढाळोमां कविए मरुधरदेशनो तथा जोधाणानृप मानसिंघनो चितार आलेख्यो छे। मरुधरदेशनी वर्णना साथे त्यांना राजदरबारीओन, प्रजाजनोनू, जैन-जैनेतर मन्दिरोन, उपाश्रयो तेमज सरोवरादि ऐतिहासिक नोंधोनुं विस्तृत वर्णन कविए 'गझल'मां अद्भुत रीते रजू कयु छ। त्यार पछीनी ७ गाथा पण उपरोक्त वर्णनना पूरक अंश तरीके ज रचाई छ। 'आज हजारी...' आ देशीमां कविए सूरिगुणवर्णनानी साथे सूरिदर्शननी उत्कण्ठा पण आलेखी छे । वळी आपने अहीं पधारतां अन्य तीर्थोनी पण वंदना थशे ते विगतो त्यार पछीनी 'बिंदली' देशीना ५ थी ८मां पद्यमा गुंथी सूरिजीना संसारी अवस्थानी केटलीक ऐतिहासिक माहिती रजू करी छ । मुडीया लिपीना पत्रालेखननी शरूआतमां श्रीसद्धे वन्दनादिपूर्वक चातुर्मास सम्बन्धि विगतो व्यक्त करी छ। ते सिवाय खास विगतमां उपाश्रयनी मरम्मत अंगेनी नोंध जाणवा योग्य छ । उपरोक्त विगतमांथी ज केटलीक वातो पछीना दूहाओ द्वारा वर्णवाई छ । पत्र खण्डित होवाथी हवे पछी विनती करता पद्योवाळी सज्झाय अधूरी ज रहे छ । सम्पूर्ण कृतिनी रचना भक्तिविजयना शिष्य कवि मनरूपविजये करी छ ।
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५८. सांभेला = सामैया
६३. सुगछी = स्वगच्छी ५९. अवस = अवश्य(?)
६४. टुटी = तुटी ६०.अयवंती = अवंती (पार्श्वनाथ प्रभुनु ६५. कानीरो = बाजुनो नाम)
६६. रयो = रह्यो ६१. छतरी = ?
६७. हय जासी = थई जशे ६२. मुदार = मद्दार, आधार ६८. नीगरभी = नीगर्वी = गर्व वगरना
शब्दार्थ १. हाटक = सुवर्ण
३०. झट्टा = झाट २. पंचाइणौ = पंचजन्य (शंखनुं नाम) ३१. खगां = एक ३. अधग = अधोगामी जीवो ३२. फब = ? ४. रिछपाल = रक्षक
३३. अग्गलीयां = आगका ५. दग्ध = ?
३४. प्रोहित = पुरोहित ६. मरहठे = ?
३५. नाजर = अदालतनो एक अमलदार ७. ध्रमरत्ता = धर्ममा आसक्त ३६. दमामा = नोबत ८. सुघटी = सारा आकारनी ३७. भुरजां = बुरज = किल्लाना मथाळा ९. लावनता = लावण्य
परनुं तोप माटेनुं स्थान १०. वहनार = वधू स्त्री
३८. छिव्व = छबी ११. लारै = पाछळ
३९. केहर = केर, गुलम १२. वितारै = विशेषथी जोडे (स्वीकारे) ४०. अडालच = ? (नाम हशे ?) १३. तेग = तलवार
४१. निजदीक = नजीक १४. विचालै = वच्चे
४२. फकीतह = ? १५. छडी = छत्रिका (?)
४३. सरसात = ? १६. चित्रामवाल = चितारो ४४. मनारे = मिनारा १७. चुरी = चोरामां
४५. महजीत = मस्जिद १८. छोलरा = छीछरा
४६. वच्चाक = (वच्चे?) १९. ओगण = अवगुण
४७. असतल = ? (नाम हशे?) २०. ठावौ = मुख्य (?)
४८. ओप = शोभा २१. सराहियै = वखाणीये ४९. पोहकरणाक = ? २२. खतंग = युद्ध (?)
५०. सयान = शाणा २३. वणं = बनी छे
५१. मच्च = मच्या रहे २४. खाग = ख्याग
५२. सुछिम = सुक्ष्म २५. कुमी = अछत
५३. झालरा = एक प्रकारच् वाद्य २६. सकज = कामकाजवाळा (व्यस्त?) ५४. अपणाइत = आपणो गणी २७. काहिका = कोईपण वस्तुनो ५५. प्रारथीया = प्रार्थना करायेल २८. खेस = क्षति, ऊणप, पराभव(?) ५६. पहिडै = पीडे २९. चाव = सुन्दर ?
५७. लार = साथ
॥ ॥ श्रीमद्गौडीपार्श्वनाथाय नमः ॥ अथ लेखपद्धति लिख्यते ।
तत्राऽऽदौ मङ्गलाचरणं पञ्चपरमेष्टिस्तवना कथ्यते । काव्यं - श्रीआदिजिनस्तुतिः ॥
श्रीनाभेयजिनं सुरेन्द्रमहितं, विश्वत्रयोद्योतकं, लोकालोकप्रकास(श)कं सुखकर, ज्ञानप्रदीपोद्धतम् । मोहारिविजितं तपोभिविहितं कर्मारिनिर्नाशकं,
वन्देऽहं शिवदं विशुद्धमनसा नृणां भवोत्तारकम् ॥१॥ ॥ अथ शान्तिस्तवः ॥
श्रीशान्तिनाथं सुखदं नराणां, पारापतायाऽभयदं जिनेन्द्रम् ।
खलु कृपाभिः सुरप्रेक्षणार्थ, विवर्णा (णि)तं वज्रिसभा नभामि ॥२॥ ॥ अथ श्रीनेमिस्तवः ॥ व्याख्यातमिन्द्री प्रबलं परिषत्सु नेमि, रामं हरिं सुरगणं शतकोटिसङ्ख्यम् । शङ्खश्व(स्व)नेन जितमिन्द्रिरथस्य शस्त्रैः,
तस्याहमग्नि(झ)युगलं सततं प्रणोमि ॥३॥ ॥ अथ श्रीपार्श्वस्तवः ॥
ज्वलितभुजगं दत्वा येन मन्त्राक्षरपञ्चकं, श्रवणसुणितं श्रीपार्श्वस्य गिरं मुखदर्शनम् । असुरपदवि श्रीधरणिन्दं जातं भवनाधिपं. परमपदवि त्वं पार्श्वेशं नमामि भवोद्भवम् ॥४॥
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॥ अथ श्रीवीरवर्धमानस्तुतिः ॥
वीरः स्वामिन् कनकशिखरे स्नानकाले घटाना, समोच्चन्ता जलदसदृशि वारिधारः सुराणाम् । इन्द्रेणोक्तं क्षिणमपि स्थिरं कम्पितं तद्दिरिन्द्रं, पादाङ्गुष्टां परिमतिगिरि चम्पितं तत्समेतम् ॥५।। विश्वश्वोट चलति गिरयः कूटविन्दा(वृन्दाः) पतन्ति, क्षम्भा प्राप्ता जलधिरखिलनक्रचक्रासमूहः । कण्ठे लग्ना सुरवधु विभो इन्द्र चित्तं विधत्ते,
त्वं वन्देऽहं प्रबल बलवान्, क्रियतां जन्महर्षम् ॥६॥ ॥ अथ श्रीमाणिभद्रस्तुतिः ॥
श्रीमाणिभद्रं सुरयक्षराजं, सौख्यप्रदं विघ्नहरं नराणाम् । जिनेन्द्रसूरि(रे)जयकारि नित्यं, रिपुक्षयं सङ्घसुखं(ख)प्रदो मि(मे) ॥७॥ ॥ इति मङ्गलाचरणप्रशस्तिकाव्यानि ॥ अथ दूहा : स्वस्तिश्री आदीसरु, धरै धरा उतपन्न,
नमत सुकवि इंद्रादिपद, काया 'हाटक-वन्न, १ संकर जिनसासन-सुखद, अचिरासुत श्रीशांति, पदवी त्रय एक ही भवे, पाम्या परम-महंत. २ जादवकुलअवतंस प्रभु, माधवमोद हरंत, पूर संख पंचाइणौ, संतन हरख धरंत. ३ पारस पारससें भये, वंस इक्ष्वाकुहि माहि, कुकर्म लोह कंचन करे, अधग उधार साहि. ४ नमत-सुरासुर-मुकुटयुत, प्रतिबिंबन-नख-माल, इंद्रवधु-आभा प्रगट, महावीर "रिछपाल. ५ माता तुं ब्रह्मसुता, वरदवरण वर देय, 'दग्ध निकंदन कारणे, शक्त नमण कर लेय. ६ पंचतीर्थ सुगुरु गिरा, हाथ जोड शिर न[मा]य, सुन रींगै सज्जन सुकवि, लिखुं लेख सुखदाय. ७
इति भद्रम् ॥
॥ अथ मालवदेशवर्णनम् ॥
मोटा मालव देशमै, तीरथ दोय उद्योत, अयवंती मगसी उहां, सदा जागती जोत. १ श्रीमद्दौलतराव कै, राज करै मनरंग,
'मरहट्टे मोटे मरद, जबर जीतवा जंग. २ ॥ तो छंदजाति पद्मावती ॥
मालव धर सोहत, सब जन मोहत, कोडि-ध्वज वाणिज्य-धरा, लांबा परलेखा, पुण्य विशेषा, "भ्रमरत्ता जिनराज तणा, सिर सोहै मुगटी, सुंदर 'सुघटी, 'लावनता धारै, तिण देश मझारे, पूज पधारे, अरज वधारै मनुहार. १ पहिरण पाटंबर, झीणा अंबर, डील डिगंबर दूंदाला, पचरंगी बोरी, लटकन दोरी, रेसम-नाडा फूंदाला, "वह-नार सुरंगी, नैन-कुरंगी, लख लख लोक फिरै लारै, तिण देश मझारे, पूर्ण पधारे, अरज वधारै मनुहारै. २ शुभ श्रावक भावी, पुज्य वधावी, सुखसेती मंगल गावै, नित नेम वितारै, आगम धारे, सुदेव गुरु वंदन आवै, निज कुल संभारे, अरथ विचारै, द्वादश व्रत मन सुध धारै, तिण देश मझारे, पूज पधारे, अरज वधारै मनुहारै. ३ श्रावक सुविनीता, देश-वदीता, सदगुरु-भक्तें भाव घणा, तामे वली खासा, पूरण-आसा, सोहै इम रतलाम तणा, कवि वरणें केता, गुणां-उपेता, लाभ लीहंता नहि हारै, तिण देश मझारै, पूज पधारे, अरज वधारै मनुहारै. ४ घर हाट हवेली, सुंदर मेहली, पोल पोल तोरण छाजै, अति मोटा देहरां, सुंदर सेहरा, दंड-पाट सफरी राजै, सौलम जिन ध्यान, नवनिध ठाने, वाजै नोबत गुंभार, तिण देश मझारे, पूज पधारे, अरज वधारै मनुहारै. ५ राजे तिहां राजा, चढत दीवाजा, पर्वतसिंह तिहां राज करै, विष्णुं कुं सेवै, लावा लेवै, क्षत्रीधर्मसुं चित्त धरै,
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शत्रु सब कंपै, जग जस जंपै, तेग तेज बहु धर सारै तिण देश मझारै, पूज पधारै, अरज वधारै मनुहारै.६ उमराव सुभटां, ज्यां बहु थट्टां, जीतण-जंगा जुग जाणे, हिंगलाज ममांई का वरदाई, कवियण कीरत वाखं(खां)ङ्ग, परजा सुखदाई, रहत सदाई, तज अन्याई सुखकार, तिण देश मझारे, पूज पधारे, अरज वधारै मनुहारै. ७ दूहा : शांतिनाथजी को शिखर, परबल अति परचंड,
सुर नर नित सेवा कर, मोटी महिमा मंड. १ ॥ तो छंदजात भुजंगी ॥
सुरां मिंदरां जेम फवे जिनालो, भयै प्रात वंद्यां सकल पाप टालो, घसै केसरं चंदणं चरच अंगी, करै आरती धूप कप्पूर संगी. १ करै नृत्य वाणित्र अति ही वजावै, सदा स्तवन जिनराजकै खूब गावै, करी कोरणीकाम थांभा "विचालै, १५छडी छज्ज-बंधी "सुचित्रामवालै. २ धजाबंध सिखरं धरामांहि सोहै, सदा देखतां बहुत आनंद होवै, विराज सदा पूज्य आनंदकारी, प्रतप्पे सदा भांण ज्युं तेजभारी. ३ असीच्यार गच्छा तणी पातसाही, सदा जैपताका सुआसीस आही, विजैधर्मसूरीसकै पाट छाजै, भविजीव प्रतिबोधतां पाप भाजै. ४ देवे देशना सूरि जिनेंद राया, भली भांति सहु संघ रै मन भाया, सहु सूत्र सिद्धांतको भेद वाचे, सुणे देशना धर्मसु रंग राचे. ५
गछपति ओछी बोली नांना लोक, गुण-हीना अति ही “छीलरा, गछपति खांणे पीणे फीको सवाद, इण खांणासु होवै नर पीलरा. २ गछपति प्रीत न जाणैउ वैफल, अभिमानी अति क्रोधे भर्या, गछपति आप सरब विधि जांण, इसडा श्रावक कांई मन धर्या. ३ गछपति ओर ओगण सवि छांड, एक वडो गुण जालीयौ, गछपति मगसीनै अयवंती पास, तिण विधि मन थारो मालीयौ. ४ गछपति आवौ मरुधर देश, जनमभूम अब देखवा, गछपति संघ करै अरदास, दिल चाहै पूजजीनै पेखवा. ५ गछपति चाहै जेम चंद चकोर, कमल चाहे दिनकर फरसवा, गछपति जिम हम थांसुं प्रीति, द्रग चाहै सदगुरु दरसवा. ६ गछपति भक्तिविजयनो सीस, कवि मनरूपह अरज करे, गछपति देवाणी साख उदार, अहोनिस तुम्ह स्मरण करै, ७
॥ इति सझाय ॥१॥ ॥ अथाग्रे सूरिछत्रीसगुणवर्णनमाह ।। दूहा : भारतीकंठभूषणसमा, कलिगौतमअवतार,
अबोध जीव प्रतिबोधवा, तपतेजे दिनकार, १ उदयवंत दिनकर समो, करण कुमतिमति दूर, प्रतपो श्रीतपगच्छपति, जिहां लगि भू-शशि-सूर, २ इक आणा अरिहंतनी, आराधै मनशुद्ध, द्विविध धर्म जे उपदिशै, धरै त्रिण तत्त्व विशुद्ध. ३ च्यार कषायनै जीपवा, वली धरता व्रत पंच, पीहर जे षट कायना, साते भय नावै संच. ४ आठे मद अलगा करी, नव वाडै धरै ब्रह्म, आराधै गुरु इक मनै, दस-विध साधुनौ धर्म, ५ अनुपम अंग इग्यारना, अरथ अनेकना जाण, बार उपांग तणा बहु, विधि विधि करै वखांण, ६ काठा तेरे काठीया, नाठा तेहथी दूर, चतुर चतुरदश भेदना, विद्याई भरपूर. ७
पैतालीस आगमको ग्यान आखै, भक्ति सीस मनरूप ए अरज भाखै. ६ दूहा : नगर संघ वण्यौँ सहु, चित्त धर अतिही चूप,
अब वर्णन हासी करु, रीझै सुर नर भूप. १ हितकरनै हासी करुं, मालवरी सुखदाय,
तन विकसै सुणतां सही, गुणी रीझ गुण गाय. २ ॥ देशी - फतमलरी | मालव देशे हासी ॥
गछपति कांई मोह्या मालव देश, रोग घणो जिण देशमै, गछपति कामणगारा लोक, नार चुरी ओछा वेशमें. १
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भाखै पनरै सिद्धना, सोल कलासंपुन्न,
ससिहर परै सुहामणु, वदन सदा सुप्रसन्न. ८ ॥ देशी ॥ इडर आंबा आंबली रे - ए चाल ॥
सुगुरुजी मुझ सांभरे रै, दिनमांहि सो वार, मन विकसे तन उल्हसे रै, गुरुनांम सुणी सुखकार,
भविकजन ! वंदो गछपतिराय. १ संयम सतरै भेदना है, आराधै एकंत, अष्टादश अलगी करै रै, पापथानिकनी पंति. २ उगणीस दोस काउसग्गना रै, श्रावक सेवै पाय, बावीस परिसह जीपवा रै, अति द्रढ मन वच काय. ३ सुपरई सुगडांगसूत्रना रै, जाणै अध्ययन वीस, चौवीसे जिनराजनी रै, आंण वहै निसदीस. ४ भावै पचवीस भावना रै, जांण दशाकल्प छव्वीस, सत्तावीस गुणे भर्या रै, लब्धि धरै अठावीस, ५ उगणतीस निवारता रै, पाप श्रुत-परसंग, त्रीस थानिक महा-मोहनी रै, तास करै गुरु भंग. ६ एकत्रीस गुण सिद्धांतना रै, परकासै परवीण, बत्तीसें वर लक्षणे रै, लक्षत अंग अदीन. ७ तेत्तीसै आसातना रै, टालै सुगुरु सदैव, चौतीस अतिसय जिन तणा रै, परूपता नित मेव. ८ पैत्रीस गुण जिनवांणिना रे, श्रीगुरु तेहनां जाण, छत्रीसै गुण सूरिना रे, तेण सदा सोभमांन. ९ असीच्यार गणां सिरे रे, थे छौ मोटा भूप, पंडित भक्तिविजय तणो, नित वंदे मनरूप. १०
॥ इति स्वाध्यायः ॥ दूहा : तूं रयणायर गुण भर्यो, लहिरे ज्ञान लीयंत,
पारन को पामै नही, अतिसय धीर अनंत. १
ज्ञानादिक मोटा रयण, अंतरगति भासंत, च्यारुं दिश चारित्र-जल, पसयौं पूरण पंत. २ इण जगमां अति दीपतो, जीपतो कोडि दिणंद, श्रीविजयजिनेंद्रसूरीदनै, सेवै सुर-नरवृंद. ३
गयणांगण कागल करुं०॥ ४ काव्य : असिति(त)गिरिसम(मं) स्यात्॥ ॥१॥ श्लोक : यथा केकी स्मरेन् मेघ०॥ ॥२॥ दूहा : तपगछमे मेढी समो, गच्छ दीपावणहार,
श्रीविजयजिनेंद्रसूरीश्वरू, सुविहित-मुनि-शृंगार, १
श्रीमच्चारित्रपात्रचूडामणीन्, श्रीजिनशासनमण्डकान्, दशविधसमाचार्युपेतान्, श्रीजिनाज्ञाकारि(र)कान, अमृतमयमहिमानिधानान्, नरनारीसंसेवितपादारविन्दान्, गच्छभारनिरवाहकवरवृषभान, सुमतिगुप्ता(प्त्या)दिविराजमानान्, पञ्चाचारनिरतिचारपालकान्, विनयजनवाञ्छितार्थप्रापकान्, अनेकागमरहस्यको विदान, सल्लब्धिसागरगौतमगणधरसन्निभान्, सकलकलाकलापकौमुदिपतिसन्निभान्, मिथ्यातमप्रध्वंसकर्तरीन, साधुद्विरदयूथाधिपतीन्, अभिवेशागमाञ्जितबुद्धिनेत्रान्, समुच्चरणमुनिजनवाञ्छितसूत्रार्थप्रापककल्पद्रुमान्, मिथ्यात्वमत्तद्विपश्रेणिकेसरिप्रकारान्, अज्ञानपरमशत्रु(जून), ध्वान्तविदारणमार्तण्डान्, पञ्चमहाव्रत-पञ्चविंशतिभावनासमन्वितान्, गुणगणगरिष्ठान्, विद्वज्जनवरिष्ठान, सरस्वतीकण्ठाभरणान्, वादिविजयलक्ष्मीशरणान्, राद्धान्तव्याकरणछन्दोऽलङ्कारनाटिकतर्कस्मृतिपुराणज्ञातान्, विधि(वादि?)कदलीकृपाणान्, विज्ञश्रेणिशिरोमणीन्, कुमतान्धकारराशिनभोमणीन्, जितवादिवृन्दान्, वादिगरुडगोविन्दान्, वादिघूकभास्करान्, डिण्डीरपिण्डपाण्डुरयशमण्डितब्रह्माण्डमण्डपान्, विवेककलाकमलिनीविकासनैकमार्तण्डान्, अनवद्यगद्यपद्यविद्याचतुर्दशधरान्, परमाप्तरत्नरलाकरावतारान् मेरूगिरवधीरसारान्, क्षीरसागरवत् परं गम्भीरान्, विहिताचारचारुचारित्राचरणशीलान्, देशजातिकुलरूपादिजातिवान्, कुलवान्, विद्यावान्, भव्यजीवप्रतिबोधकान्, श्रीगच्छभारधुरन्धरान् ।
क्षमाखड्गं करे धृत्वा, अष्टकर्मारिघातकाः] । प्राणिनां हितकर्ता च, सप्तभयविवर्जक[:] ॥१॥
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जिनाज्ञापालने दक्षः, गच्छरीतसुधारकः । क्रोधशत्रुवंशनन्तं, षड्त्रिंशद्गुणभूषितः ॥२॥ सर्वशास्त्रप्रवक्तारं, भेत्तारं कर्मविद्विषाम् । माया-मोहप्रजेतारं, धा(ध्या)तारं परमं पदम् ॥३॥ ज्ञानदीपप्रदातारं, षट्कायप्रतिपालकम् । अबोधस्य बोधदत्तं, जीवनाख्यं नमाम्यहम् ॥४॥
परम दयाल, वचने रसाल, जशवान्, कीर्तिवान्, सौभाग्यवान्, जि(जी)य कोहे, जीय माणे, जीय लोभे, जीय माये, जीप परिसहे, जीय इंदिये, ध्रुवनी परे अचल, मेरुनी परे अकंप, सूर्यनी परे तेजवंत, चंद्रनी परे सौम्यवंत, कमलवत् निलेप, इत्यादि अनेकोपमायुक्ताणां षड्त्रिंशद्गुणैविराजमानान्, श्रीजिनशासन-उद्योतकारक, धन्य ते राजा, राणा, जुवराज, ईश्वर, माडंबी, कोडंबी, श्रेष्ठ, सेनापति, इभ्य, विवहारीया जे श्रीश्रीपूज्यजीना चरणारवृंद वांद्या अनै वांदै ते धन्य । धन्य ते श्रावक, धन्य ते श्राविका जे श्रीपूज्यजीनी अमृतमय निरंतर देशना सांभलै । पोसह पडिक्कमण करै । व्रत पच्चखांण करै । देशव्रत उच्चरै। पपासना करै ते धन्य । श्रीश्रीपूज्यजी समस्त जीवना हितकारक, करुणासागर इत्यादि. दूहा : श्रीश्रीश्रीश्री अति घणी, एकसो आठ धरान्,
श्रीविजयजिनेंद्रसूरीश्वरू, सपरिवारचरणान् ॥ ॥ अथाने मरुधरदेशवर्णनमाह ॥ दूहा : मरुधर देश लच्छी भर्यो, ठावौ सुखनौ ठोड,
मरुधर तेण सराहिये, अनमी जिहां राठोड. १ सकल गुणें करी सोभतो, सर्व गुणे सिरदार, सकल देसदेसां सिरै, मरुधरमंडल सार. २ मोटा मोटा इहां किणे, सेहर वडा सोभंत, इंद्रपुरी जिम ओपमा, वर्ण च्यार विलसंत. ३ योधांणे नगराधिपति, मानसिंह महाराज, राजवियां सगलां सिरै, बुद्धि सुधारै काज. ४
सूरवीर क्षत्री सबल, क्षा(ख्या)ग त्याग निकलंक, योधासिर अनमी अधिक, जीपण मोटा जंग. ५ भाग्यबली मोटो मणि, अमली बांण-अभंग,
सुभटपुराधिप मोटको, जीपण वडो खतंग. ६ ॥ अथ नृपवर्णनम् ॥ छंदजाति - त्रोटक ॥ भल देश जु भूपति मांन भणं, वपु ओप प्रचंड अधिक वणं, कहू रूपप्रकास सुवास किस्यौ, जगजं[जां]ण गुं कृष्णकुमार जिसो. १ खल खाग ग्रहे कर दुष्ट खंडे, मुख आगल शत्रव को न मंडै, तरवार अपार वहै तिणरी, जस-कीरत फेल रही जिणरी. २ सुभट ही थाट दुर्वार सदा, कवि चारण भट्ट "कुमी न कदा, अश्व गज ही रथ अपार जयं, जाचक शब्द जुं बोल जयं. ३ तेज ही जूं प्रताप अखंड तपै, क्रांति देखत सूर ही वीर कंपै, जग-जेठ वडा उमराव जिकै, तव कीरत-वीरतमान तिकै. ४ ॥ अथ योधांणनगरवर्णनम् ॥ दोहा : समरूं गणपतिने सदा, धरूं ध्यान चित्त धार,
जपूं गजल योधा तणी, निपट सुणो नर-नार. १ कवित्त : जग-जालिम योधांण, सहर सारा सिर सोहै,
बाग वाडी विशेष, मनुष्य देखै मन मोहै, अन धन बहुला अधिक, वाज गज अधिक विराजै, सूर-वीर नर "सकज, छिब इधकी तिहां छाजै, वर्ण ही च्यार सुखीया वसै, वदै मुख अमृत-वांण री,
कवि देख जिसडी कही, जुगत इसी योधांण री. २ । तो चाल गज्जल ॥
मुरधर देश है मोटाक्, तिहां नही "काहिका तोटाक्, जिसमै सेहर है जोधांण, वर्गु ताहि मिष्ट ही वान. १ महिपति मानसिंघ महाराज, सब ही भूपमै सिरताज, डंका वाजते दश-देश, खल ही खग्ग ग्रहि दियै “खेस. २
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अणभंग मंत्री वड उमराव, चांपा कूप जेता चाव, जोधा उद दूदा जोत, कम्मा नाटीयां करणोत. ३ धांधलखी चीरज धारीक, सुभट ही जांणधर सारीक्, गेहलोत मांगल्या गुणवंत, दश ही देशमें दीपंत. ४ धूM अटल वृद धारीक, "झट्टां "खगां अरी दे झीक, मुंहणोत सींघवी मतिवंत, सही तिहां भंडारी सोभंत, ५ मुहता विप्र कायथ मांन, दोढीदार वड दइवांन, वड वड भूपके गज वाज, रथ सुखपाल रूडै राज. ६ असवारी ज फब है इंद, चिठं दिशि चढत दल जैचंद, सुभट ही थाट क्षात्रीवट पूर, नरपति अग्गलीयां मुख नूर. ७ ता पिछ मंत्री सुरगुरु तुल, फब है बाग वाडी जुं फूल, "प्रोहित व्यास बहु वलि पेष, सइद पठाण मुगल ही सेष. ८ ३"नाजर पात्र गायन नेस, वलि तिहां चोपदा रही वेस, चारण भट्टकै बहु थट्ट, नाटिक नाचते बहु नट्ट. ९ । जोय तिहां मल्ल करते युद्ध, बोलत बिरुद केइ बहुबुद्ध, वाजत त्रीस षट ही वाज, गुंजत धरा अंबर गाज, १० षट ही राग उचरत खास, परगट रागणी पढ पास, गज ही करत तिहां गर्जार, हय ही उचरतै हौंकार. ११ जिहां धुर "दमांमा सच जान, निपट ही फरहरै नीसांन, वर्णन पढत असवारीक, भन है सोभ अति भारीक. १२ अब कहुं सेहरका वाखांन, कीरत सुणो दे दे कान, कहुं गढ किला फुन कोटाक, मार्नु मेरुसे मोटाक. १३ उहां दरवज्ज अति उंचाक, परगट आभ लग पोहच्याक, २०भुरजां ताहिकी भारीक, निरखित “छिव्व नर-नारीक. १४ तिस पर वडवडी है तोप, "केहर छूट अरि परकोप, गढमै देवी चामुंडगराज, विष्णुं देहरा विराज, १५ महिल ही वडे हे मंडाण, इलमे देवभुवन ही आंण, परबत तिहां पांचे [च]ढ्याक, भल भल सिद्ध तिहा भेट्याक. १६
ज्वालामुखीदेवी जांण, वड हणमंत भीम वखांण, पदमसर राणीसर परगट्ट, थिर गुलाबसागर थट्ट, १७ सागर फते तिहां सर सात, पढते कीर्ति वड वड पात, गंगेलाव फूलेलाव, नर तिहां बेठतै बहु चाव, १८ तापी वाव जेता कूप, चावा देखकर कर चूंप, बहु लंब चौवडा बाजार, वड नर साह करे व्यापार, १९ ४ अडालच न्याव है अदल्ल, मुखथी करत वड वड मल्ल, चबूतरा कोटवाल ही चाव, निपट ही होत सच्चा न्याव. २० तलहटी मेहल देख्या ताम, नव खंडमाहि जानत नाम, हट्टा गोंख हवेलीक, झुक रहै झरोखा जालीक, २१ सही तिहां देहरा गंगस्याम, धरीया बिहारीकुंज-धाम, जलंधरनाथका देहराक, मनु सेहरका सेहराक. २२ भगवंत देहरा भारीक, नित नित वंदे नर नारीक, राजै कचेडी "निजदीक, तिहां दरीया "फकीतह तीक, २३ सायर तिहां अति "सरसात, आवत द्रव्य अरु दिन-रात, चारण भट्ट चरचावान, देतै राव राणां दांन. २४ ।। शिव गुणपति भैरूं साच, वण्या है देहरा मुखवाच, ४ मनारै वडे अरू ४ महजीत, पढते जवन कर करप्रीत. २५ यतीभुवन वणीया जोर, तुह सम भुवन [न] ही कोई ओर, प्रथम ही तपाका पहिचान, जिहां वलि खरतरांका जान, २६ पास ही चंद लूंका पेख, दयाधर्म उहां बहु देख, परगट दरसणी पौसाल, रूडी वत्त वद रसाल. २७ सरवर मान तिहां सच्चाक, वड नर गंग जिम वच्चाक", पासवान् देहरा पहिचान, धरते उहां नर बहु ध्यान, २८ आसण मठ "असतल आख, देख्या सिद्ध संत ही दाख, तकीया फकीरां का तांम, अहोनिस लेत अल्ला नाम, २९ सिंघव मोहणोत है सिरताज, भला भंडारी बंध भ्रम पाज, मुहता वडा मर्द ही मर्द, सही करे अरीयणकुं सरद[]. ३०
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खीमसरा गोलीया अरु सांड, महिमै कर धमकी मांड, श्रीश्रीमाल अरु सराप, जपते सदा प्रभूकै जाप, ३१ ।। घोघड रूगटीया वड रीत, पाले सदा ध्रमकी प्रीत, वली ललवाणी अरु मणीयार, दीपत वडे ही दीदार. ३२ भारी ओप भंडसालीक, छावा चौधरी है ठीक, सच ओप नगर ही सेठ, भल नर ल्यावते बहु भेट. ३३ पंडित वडे पोहकरणाक, भागवत वेद मुखथी भाख, श्रीमाली— विप्र ५ सयान, पूरै पढत वेद पुरान. ३४ कायस्थ दौतकलम ही कान्, धरते ईश्वरीका ध्यान, मक्के भेट मुसलमान, जाकू सव्व(च्च?) जन ही जांन. ३५ *आसण मठ असतल आख, देख्या सिद्ध संत ही दाख, पातर भगतणी बहु पेख, वैश्या वलि हे जूं विशेष, वरण्या सहिरका वाखांन, पवन छत्रीस है परमान. ३६ बाहिर नगर थानिक बोल, अब सुण चित्त आणइ लोल, सागर वखत फुन है सूर, बाल ही समुद्द बहु भरपूर. ३७ वणीया महिल तिहां विशेष, दोड ही आवते नर देख, वणीया तिहां अधिका बाग, फुनि तिहां खेलते नर फाग. ३८ [वडा] मंडोवर का मंडाण, जिहां वीर काला-गौरा जांण, नागाधडी मेला मंड, बहु नर आवतै परचंड. ३९ अवर ही देवतां आवास, जग-नर पूजते बहु जास, जूंना राजवीका जान, मिंदर बहुत है मंडाण. ४० पारसनाथका परसाद, वलि असमानसे करे वाद, उहां उपासरा बहु ठाम, सेठ राजाराम खरच्या दाम, ४१ प्रबल माली बहु ग्रह पेख, वाडी बागज्युं विशेष, लंबै पूंछ वृद्धि लंगूर, सही तिहां कूदतै ऊग-सूर. ४२ बाग ही रायका वडाक, निपट ही रत्तही तडाक, सरवर सेखावत्तका सच्च, मानव स्नान गहगट मच्च. ४३ तलाव ही वहुजीका ताम, नित वड संत लै प्रभू नाम, सिंघवी अखेराज सयांन, जाका निरमल सरवर जांन. ४४
कागा बाग है केसाक, अवर न देखीया एसाक, केते बाग केक मठान, वलि कीया सुछिमार ही वाखान. ४५ वरण्या सहिरका वाखाण, मेरी मत के उनमान, ईषत नगर गुण अणपार, पंडित पढे नावै पार, ४६ वली अढार [ए]कोतर (१८७१)वर्ष, हिकमत करी काती हर्ष, निपट ही पूर्णिमा तिथि नीक, छावी गजल कीनी ठीक. ४७ तपगछ गछमै सिरताज, रिधु जिणंदसूर ही राज,
पंडित भक्ति महिमा मोड, कहि मनरूप कवि कर जोड. ४८ कलस : योधनयर जग जांण, इंद्रपुरी सम ओपत,
वाजत वज्ज छत्तीस, नित ओछव कर नरपति, राज-रिद्ध वड रीत, प्रीत नर-नार संपेखै, अही सूर अडग, दुनी वड नर थे देखो, वाह जी वाह ओपम वडिम, मनुष्य घणा सुख-मांनरी, कवी दीठी जिसडी कही, जग-सौभा योधांण री. ५० [४८]
॥ इति गजल सम्पूर्णम् ॥ दूहा : पुर बाहिर वणीयो प्रचंड, मिंदर महा सुहाय,
सुखदायक नायक सकल, कीर्ति करत कविराय. १ जबर झरोखा जालियां, विचमै चोक विसाल, सुंदर काम सुहामणो, निरख्या करै निहाल. २ नाथ जलंधर राजकुं, जपै मांन महाराज, देवनाथजीको दरस, कीया हुवै सिध काज. ३ हाटा थट्ट बाजार हद, बागा खूब वणाव, झाझा भरीया झालरा, चिहुं दिस देखण चाव. ४ महिल झरोखा मालिया, वणीयो काम विशेष, सरणै आयां सुख कर, सुधरै काम अनेक, ५ नगर घणा इण मुलक मै, एक एकथी सार, पिण सहु नगरां सेहरो, योधनयर सुखकार. ६
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इम अनेक गुण नगरना, कहितां नावै पार,
पूज्य नयर पावन करो, जिम हुवै हर्ष अपार. ७ ॥ अथ सझाय ॥ आज हजारी ढोलो प्रांहणो - ए देशी ॥ सासणनायक वचनथी, पांमी सुगुरुपसाय, सुगुरु म्हारां हो, अरज लिखुं श्रीगुरु भणी, सांभलो गछपतिराय, सुगुरु म्हारां हो. १ नगर योधांणे पधारीय, श्रीविजयजिनेंद्रसूरीराय, सुगुरु म्हारां हो, ऊमाहो बहु दिन तणो, वांदवा गछपतिपाय, सुगुरु म्हारा हो. २ सफल करो संघ वीनती, द्यो दरसण गछराज, सुगुरु म्हारां हो, सुभहितसाधुसिरोमणि, गणपति गुणना जिहाज, सुगुरु म्हारां हो. ३ युगप्रधान जगमां जयो, वड-वखती व्रतधार, सुगुरु म्हारां हो, सूध संजमधर जगगुरु, गौतमगुणभंडार, सुगुरु म्हारां हो. ४ । सीयलै थूलभद्र समो वडे, विद्याइ वयरकुमार, सुगुरु म्हारां हो, बालपणे व्रत आदरी, पालै पंचाचार, सुगुरु म्हारा हो. ५ तपगछगगनदिवाकरु, सोभित गुणे छत्रीस, सुगुरु म्हारां हो, श्रीविजयधर्मपटोधरू, दिन दिन सबल जगीश, सुगुरु म्हारां हो. ६ परम-दयायै प्रेमसुं, करज्यो करुणा कृपाल, सुगुरु म्हारां हो, सुगुरु सेवकने दिल भरी, महिर करो रिछपाल, सुगुरु म्हारां हो. ७ उत्कंठा मन अतिघणी, श्रीगुरुदरसण काज, सुगुरु म्हारां हो, साचा सेवक जांणनै, मया करौ महाराज, सुगुरु म्हारां हो. ८ तीरथ-यात्रा फल इहां, दीपता श्रावक सार, सुगुरु म्हारां हो, सांभलवा सदगुरू तणी, वांणी अमृत जलधार, सुगुरु म्हारां हो. ९ हूं सेवक तुम्ह चरणनी, साहिब गरीब-निवाज, सुगुरु म्हारा हो, ५"अपणाइत प्रतिपालीये, बांह ग्रह्यानी लाज, सुगुरु म्हारां हो. १० व्रत पच्चखाणादि धर्मनौ, होस्यै लाभ अपार, सुगुरु म्हारां हो, दान प्रभावना पूजणा, सांमीवछल सुखकार, सुगुरु म्हारा हो. ११
"प्रारथीया पहिडै नही, ए उत्तम आचार, सुगुरु म्हारां हो, आस सफल अम कीजीये, अरज सुणो गणधार, सुगुरु म्हारा हो. १३ सुनिजर कीजै सेवक भणी, दीजै वंछित दान, सुगुरु म्हारा हो, विनय विचित्र कर वीनती, सफल करी द्यौ मान, सुगुरु म्हारां हो. १४ इम गछपति गुण गावतां, पांम्या अधिक उल्हास, सुगुरु म्हारां हो,
पंडित भक्तिविजय तणो, मनरूप करै अरदास, सुगुरु म्हारां हो. १५ दूहा : कर जोडी श्राव[क] कर, वीनती वारंवार,
मरुधर पूज पधारज्यौ, लीया साधु-थट लार. १
ओच्छव ५८सांभेला अधिक, करसी संघ केरोड, उमंग करै मन आवज्यौ, मरुधर देशा-मोड. २ अन पाणी मीठा अवस, वलि मुख मीठी वाण, नही रोग सोगह निपट, खूब धरम री खांण. ४ मोटा तीरथ मरुधरा, भेटो भगते भाव,
इण कारण तुम्हे आवज्यौ, रूडा तपगच्छराव. ५ ॥ ढाल ॥ देशी - बिंदलीरी ॥ धणीय “अयवंती ध्यावं, तपगछपतिरा गुण गावू हो, सदगुरु अरज सुणो
[ए आंकणी] अरज सुणीजै मोरी, हूं तो चाहूं सेवा तोरी हो, सदगुरु..... १ अन धन बहू चित्त धारो, पूज मरुधर देश पधारो हो, सद्गुरु.... मरुधर-श्रावक मोटा, तिहां घरमै नही छै तोटा हो, सदगुरु..... २ ज्यां राज गमै कारण जाझा, वलि मांने छै महाराजा हो, सदगुरु.... नीसांण नगारा वाजे, सुखपालां बेठा छाजै हो, सदगुरु..... ३ जाली मिंदर जोखां, गाजै बेठा तिहां गोखां हो, सदगुरु..... वली श्रावक एहवा वंदावो, पेखंता बहु सुख पावो हो, सदगुरु..... ४ भल भल तीरथ भेटो, मानव भव्यना दुख मेटो हो, सदगुरु..... रांणपुरो तिहां राजे, बिम्ब आदीसर अतिछाने हो, सदगुरु..... ५ फलोधी पारसनाथ, पूज्यां हूवै सनाथ हो, सदगुरु..... कापरडो वलि कहीयै, लख-फल प्रभू पूज्यां लही[2] हो, सदगुरु..... ६
नगर.....
थाहरै सेवक छै घणा, मांहरै श्रीगुरु आप, सुगुरु म्हारां हो, मनना मनोरथ पूरवै, जिम टल जायै संताप, सुगुरु म्हारां हो. १२
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छाजै बलूंदै "छतरी, हर्ष आंणीनै पूजो हितरी हो, सदगुरु...... पाली नगर थे पेखो, दूजो कैलास सही देखो हो, सदगुरु..... ७ पंच देहरा तिहां पूजो, एहवी नही छै दूजो हो, सदगुरु..... सौझित सेहर सवायौ, आप जनम तिहां ही ज पायो हो, सदगुरु..... ८ मात गुमानदेजाया, पिता हरचंद नवनिधि पाया हो, सदगुरु..... वाघरेचा गोत्र विराज, ओशवंशमै अधिक ही छाजै हो, सदगुरु..... ९ दरसण साहिब देज्यौ, जन संतोषै जस लेज्यो हो, सदगुरु..... गुरु भक्तिविजय सुपसावै, कवि मनरूप गुण नित गावै हो, सदगुरु..... १०
॥ इति गुरुविज्ञप्तिज्ञेयम् ॥ तत्रत्य पं. विद्याविजयजी, पं. माणिक्यविजयजी, पं. फतैविजयजी, पं. जीतसागरजी, पं. रामविजयजी, पं. दोलतविजयजी, समस्त साधांसु १०८ वार वंदणा अवधारसीजी । अत्रत्य पं. मनरूपविजय, पं. कमलविजय, पं. ऋषभविजय, पं. चतुर्विजय, पं. बुद्धिविजय, पं. विद्याविजय, उमेदविजय, भगवानविजय, रंगविजय, मोहनविजय, भावचारित्रीया शिष्य रलचंद, अगरचन्द, पनालाल, दीपचंद, ऋद्धिकरण समस्त ठाणु १५री वंदणा व०
॥ श्रीगोडीजी सत छै जी ॥ ॥ समस्तश्री रतलाब सुथाने पुज परमपुज सरब ओपमा बीराजमान, अनेक ओपमा लायक, पुजश्रीभटारक सकल भटारकपुरंदर भटारकजीश्री १०८ श्रीवीजेयजीनद्रसूरीश्वरजी चरणकवलायसु जोधपुरथी सदा अग्याकारी समसत सिंघ लीखावत् बंदण १०८ वार अवधारसीजी. अठारा समाचारश्री ........ जी रा तेज परतापसु भला छै । आपरा सदा आरोग चाहीजे । आपरा डीलारा घणा जतन करावसी । सारी "मुदार आपरा डीलासु छ । सुजतनतो श्रीगोडीजी करसी पण सिघने तो लीखीयो चहीजे । अप्रंच पनीयास मनरूपबीजेजी, रीखबवीजेजी आपरी आग्यास अठे चोमासे मेलीया । सो बोत जोग्य हे ने धरम धानमें बोत परवीण छै। सु जोधपुररा चोमास लायक छै। बीजु उपासरे वखाण श्रीरायपीसेणी सुत हुवे छै ।
सीजझाय श्रीजंबुदीपपनतीरी हुवे छै। धरमनी मरजाद आछीतरे "सुगछी परगछी सरब आवे छै । श्रीजीरी आग्य अखंड पाले छै । ओर उपासरारी मरमत हुय गई छ । रीपीआ २३५) लाग गया है। और पीण खोटो भागो "टुटी सुधर गयो छ । एकण "कानीरो भीतरो काम "रयो छ । सो "हयजासी। सो पुनीयासजी मनरूपबीजेजी घणा वरसस् चोमासे आया छै। सु अबरके तो चादर पीछेवडीरी चकरी खण(?) सींघस कीहई आई नही सो अबरके चोमासे ईणने हीज रखावसी । ईणमे गछरो उदोतपणो नीजर आवसी। मारी पीण सारा सींघरी मरजी छै, ने ईणसु सींघ बोत परसन छै सु अबको चोमासो तो सारा सींघरी अरजसु ईणने ही ज ईनामत करावसी । ईतर अरज जरूर मंजुर करावसी, ओर मनरूपवीजेजीरी तरफरी जीती बीरती... ईधकी ओछी कहे सु नही मनावसी । ओ बड़ा जोग छै । नीगरभी'८ छै। मारगरा चलणवाल छै। ने चीत्र लेखमे लीखो छे सु आप वचासी ने धरम ध्यान रे अवसर सिंघने आद करसी । दूहा : सिंघ समस्त इहां थकी, लिखे लेख श्रीकार,
त्रिविध त्रिविध कर वंदना, अवधारो गणधार. १ धर्मध्यांन इहां पण घणा, नित नित नवला नेह, ओच्छव मोच्छव अभिनवा, कहिता नावै छेह. २ परब पजूसणपारणा, सांहमीवछल सार, आडंबर अधिका थया, परिघल अनेक प्रकार, ३ छठ अठम पनरे दशम, मासखमण तप-नेम, थया अनेक ईहां किणे, नित अधिका ध्रम ने[ते]म. ४ पोसह पडिकमणा तणो, नित नित अधिका नेम, दया-धर्म नित नित नवौ, धर्मध्यांन वलि तेम. ५ निराबाध सुण(ख) तप तणा, श्रीजीना सुखकार, समाचार श्रीसंघनै, देज्यो धरि अति प्यार. ६ जिम इहां संघ समस्तनै, ऊपजै अधिक आणंद, पूज्य तणां परभावसुं. नित नित हुवै सुखकंद. ७
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संघ सकल कर जोडने, एम करै अरदास, पउधारो श्रीपूज्यश्री, जोध नयर चौमास. ८ गुरुजी अत्र पधारतां, होस्यै लाभ अछेह, सकल संघनी वीनती, अवधारीजे एह. ९
॥ अथाग्रे समस्त संघनी वीनती री सझाय कहे छइ ॥ देशी रसीयारी ॥
श्री श्रुतदेवी प्रणमी भावसूं, गाय...
संघ सकलनी रंग भर वीनती,
नगर योधांणे हो श्रीजी....
मांन वधारी हो वाट जो
पटोधर
पटोधर. १ पटोधर
१०५
पटोधर. २
[ अहीं थी पत्रनो भाग खण्डित छे]
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(१५)
माङ्गरोलमा बिराजमान विजयजिनेन्द्रसूरिने सोझतवा सतनो विज्ञप्तिपत्र
मङ्गलाचरणमां पांच जिनेश्वरोनी तथा माणिभद्रवीरनी संस्कृतमां स्तवना करी कविए गुर्जरभाषामा पत्र रचनानो प्रारम्भ कर्यो छे। कविए सौ प्रथम सोरठ देशनुं वर्णन कयुं छे । 'गझल' चालमां सोरठदेशना प्रसिद्ध शत्रुञ्जय अने गिरनार ए बे तीर्थोनुं स्मरण करी माङ्गरोलनी राज्यव्यवस्था, लोकव्यवस्था, जिनालयो तेमज श्रावक-श्राविका गणनुं सुन्दर चित्रण कयुं छे। त्यार पछीना दूहा, सवैया, पद्धडी छन्द तेमज देशीना रागमां ३६ सूरिगुणनुं वर्णन करी फरी तेज भावानुलेखन गद्यबद्ध रचनामां कर्तुं छे। पद्धडी छन्दमां रचायेलुं ते पछीनुं मरुधरदेशनं वर्णन ऐतिहासिक दृष्टिए महत्त्वनुं गणाय । मानसिंह भूपालनं, अन्य पदाधिकारीओनं, कोट- बाग जैन-जैनेतर मन्दिरोनुं, उपाश्रय विगेरेनुं वर्णन कविनी वर्णनशक्तिनो परिचय करावे छे। त्यार पछीनां संस्कृत पद्यो तेमज दूहाबद्ध वर्णनमां कविनी गुरुमिलननी उत्कण्ठानुं स्वरूप जणाय छे। फरी छप्पयबद्ध कवित्तमां सूरिजीना गुणोनुं वर्णन करी कविए २ देशी द्वारा सूरिजीने सोझित पधारवा विनन्ति करी छे। सूरिजीना सहवर्ति मुनिवृन्दने वन्दना जणावी गद्यपत्रालेखननी शरुआतमां सूरिजीना गुणवैभवनी विगत आलेखी चातुमासार्थे पधारेल रूपविजयजीनी तथा आराधनानी विगतो रजू करी छे। पत्रान्ते फरी विनन्ति रूपे रचायेल स्वाध्यायमां सोझितनी ट्रंकमां वर्णनाने गुंथी अन्य मुनिवृन्दनी वन्दना जणावी खामणालेखन द्वारा पत्र पूर्ण कर्यो छे ।
पत्रनी रचना कोणे करी छे ते अहिं विचारवा योग्य छे। 'गझल' कार कवि राजेन्द्र मनोहरविजयना शिष्य छे. वीनती स्वाध्याय ढाळ २नी रचना जे रूपविजयजीए करी छे तेओ मनरूपविजयजीना शिष्य छे। बन्ने महात्माए भेगा थई पत्र लख्यो होय तेम पण बने। छतां ते अंगे शोध करतां विशेष बाबत जाणवा मळे ।
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शब्दार्थ
१. पिंडत = पंडित
२८. गल्ल -? २. पाखर - पाछल (फरतो?) २९. सारन्नफेर - ? ३. भलक्या - भडकेला
३०. जवड - जब्बर (मोटुं) ४. इधक - अधिक
३१. छोह बंध - चूनो धोळेलुं (?) ५. फाब - शोभवू(?)
३२. सखर - सुंदर ६. वाल - कासार्नु एक जातवें वाद्य ३३. नीरद्धि - समुद्र ७. सिकदार - (सिक्कादार उपरथी) ३४. डरांक - बीकण सुंदर (?)
३५. वांटै - वहेंचे ८. हासलसद्द - करलेखार (?) ३६. चूतरा - चतुर ९. जद्द - जीद (?)
३७. कच्चेडी - कचेरी १०. धुमण - कामदेव
३८. खाप -? ११. देसोत - राजा
३९. रिणमाइ - रण मेदानमा १२. चोसरा - चारनी संख्याना ४०. सपूज - श्रीपूज्य १३. चंवर - चामर
४१. सको - सर्व कोई १४. मांझ - मर्यादा
४२. तवै - स्तवना करे १५. धुन - ध्वनि
४३. भाखर - पर्वत १६. चोज - विशेषे
४४. बाहुडता - प्रत्युत्तर १७. ताह - सुधी
४५. बीकाण - बीकानेर (?) १८. दईवान - नसीबवाळो (?) ४६. क्रन - कर्ण १९. ज्वान - जुवान (?)
४७. जठे - ज्या २०. डारण -?
४८. जद - ज्यारे २१. भुंवाल - राजा
४९. आढा - विस्तृत (?) २२. खग - तलवार
५०. वाटणो - बहेचनार २३. झाट - झटके
५१. व्रद - विद्वान् २४. हेर - ?
५२. हमरके - आ वखतना २५. दोयल - दुर्जन
५३. वुहार - व्यवहार २६. डाव - ?
५४. आरिज - आर्य २७. भराथ -?
श्रीमदिष्टदेवाय नमः ॥ अथ लेखपद्धति लिख्यते ॥ श्रीमदादिनाथाय नमः । श्रीमच्छान्तिनाथाय नमः । श्रीमन्नेमनाथाय नमः ।। श्रीमत्पार्श्वनाथाय नमः ॥ श्रीमन्महावीराय नमः ॥५॥
स्वस्तिश्रीवृषभेश्वरं जिनवरं, शत्रुञ्जयोद्धारकं ॥१॥ श्रीशान्तिनाथं सुखदं नराणां ||२|| स्वस्तिश्रीज(य)दुवंशभूषणमणि, श्रीनेमिनाथ प्रभू(y) ||३|| स्वस्तिश्रीशिवमार्गदं गुणवतां पूजाधिकानां हि च ॥४||
स्वस्तिश्रीत्रिशलात्मजं जिनवरं सिद्धार्थवंशोद्भवं ०॥५॥ अथ मांणभद्रजी स्तुतिलिख्यते ।
श्रीमाणभद्रं सुरयक्षराजं ॥६॥ अथ भाषामयी पंचपरमेष्ठिनां स्तुतिर्लिख्यते ॥ दूहा : स्वस्तिश्रीप्रभु(भू) आदिजिन ०१
स्वस्ति श्रीजिन सोलमो ०२ यादवकुलनो सेहरो ०३ अश्वसेननृपकुलरवि ०४
सिद्धारथकुलदीवलो ०५ ॥ अथ वीरस्तुति ॥ दूहो : मांणभद्रदेवत भलो ०६ ॥ अथ प्रथम सोरठदेशवर्णनमाह ॥ दूहा : सहुदेसां सिरसेहरो, सोरठ है सिरताज,
रिद्ध सिद्ध बुध है प्रबल, घण थट्ट है गज-वाज. १ ॥ कवित्त । छप्पय ॥
सोरठ है सिरताज, वडा नर सदा वखाणे, अन धन्न जिहां अपार, जैन-ध्रम सहु नर जाणे, रंग राग बहु रूप, सुभट थट्ट जिहां सकज्जह, बाग वाडी फुलवाद, करै नर धर्म सकज्जह, हय-वाल(ज)बंध घर घर घणा, कवि जन बहु कीरत कर, कांन दे नरां सुणज्यौ कहूं, सोरठ सहु देसांसिर. २
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॥ अथ चाल गजलरी ॥
सोरठ देस सब सिरताज, समवर अवर नह को आज, रिध सिध जिहां अनंत अपार, बहु बुधवांन है नर नार, तीरथ सिधाचल तिहां धांम, दूजो नेमपरबत नाम, वाडी बाग है विसेष, 'पिंडत प्रगट त्यां हि ज पेख, 'पाखर कोट है परचंड, नही है अवर नव ही खंड, तिण तलवणी खाई खास, हियमै देखे हरख हुलास, कंगुर कोट लख ही कोड, जोतां जगतमें नहि जोड, वड वड तोप विकट विराज, भलक्यां अरी जावै भाज, घन उंच है जु दरबज घाट, कहुं मइ वज्रके ज कपाट, ओर ही सैर देख्या अपार, चोहटै वने सुगटा च्यार, हाटां वणी लख हजार, विध विध करत है वेपार, महाजन सेठ तिण विच मंड, न्याई नृपत नहि लै दंड, वसहै वरण च्यारुं वास, सुखिया सरस सिव केलास, पुर मांगरोल के महाराज, मीयां मानक रहै राज, सुत है दोय पारसरूप, ओपम कहुं इधक' अनूप, दीठा सोमजी दीवाण, करतो अणदराम ही काम, मीया फोजदार ही "फाब, मुदी मूरतजी निबाब, करहै राजके सबइ काम, रजवट रहै आलु जांम, थिर गज वाज राजमै ठठ, सखरा सूरवीर सुभट्ट, सखरो बुद्धवां[न्] सिरकार, जगमै प्रभा जिनकी सार, रागी करत है बहु राग, वाजा सहै इतना वाग, धन धन घुरत जिम त्रंबाल, निजरां नरां आंख निहाल, नव नव खेलगनका नाच, रंगे राग मुख सुरराच, नटवा गाय गीत जु नाद, वदहै बोल वादो वाद, काजी वाचते कुरान, वलि जुध करत नित जुवान, मुगल ज सैद सेख पठाण, बलसै खैचतेक बाण, दीठा तिन जिनदेहराक्, नीके करै नर सेवाक्, अष्टम वीसमो जिन तास, परतिख पूर परचा पास,
ऊंचा महल अतिआवास, नीका निपट हैज निवास, पासै वण्या वाग ज वेस, दरषत फले फूल असेस, श्रीफल देख दारम दाख, चटके मुखासुक फल चाख, सब ही जान त्रियवग सच्च, बाबु मियां हरचंद रच्च, पक्की वावडी विच पेख, राजी होत नर सहु देख, सोहै चोतरै सिकदार, सखरा न्याच(य?) कर निरधार, सायर लेत हासलसद्द, देतां करन नही को 'जद्द, महाजन सेठ सुखिया मांन, देवै अहोनिस बहु दाम, नांनजी सेठ बुधनिघांन, आछी भगत गुरु उर आंन, चतुर्मास दोय कीध हे सार, बहु भक्ति कीधी अपार, सब जगतमें हुइ इनकी ख्यात, कीरत विस्तरी बहु भात, धरमसी सेठ सबल सुणंत, मोदी सेठ कपुर भणंत,
श्राविका वालुबाई आद, बहु वलि श्राविका गुणनाद, दूहा : सहर वखाण्यौ हु सुण्यौ, गुणिजन सुणज्यो गुझ,
अब पद्धडी छंदह रचु, गुण वरणुं श्री पुज.१ मुझ मुख कीरत कहां कहूं, कहां ओपम कहवाय
श्रीविजैजिनिंद्रसूरिंदनी, कीरत सुजस कहाय. २ ॥ सवईयो - इगतीसो ॥ जैसो है प्रतापवान, पूरन अखंड ग्यांन, नीत सनमान जहां, आनंद उदोत है, आननकी सोभा मांगें, द्युमणकी क्रांत जैसी, तैसी है मधुर वाणी, सुण्या हर्ष होत है, ताहि गुरुराज जुकी, कीरत कहां लग, कांनि संदेह जांचें मै, सूरजकी जोत है, लहर दरियाव गुण, गुहिर सागर जिसी, विजिनेइंदसूर, असो देसोत है. ३ ॥ छंद जाति पद्धडी॥
अवतार विजै साखा प्रबल, नितमेव तपै गादी अचल, ये है सूरमंत्रधारक प्रसिद्ध, षटतीस गुणै सोभत समृद्ध, चोसरा चंवर छलकंत नित्त, सिर परै छत्र सोभत अमित्त. झलहलै वदन जिम चंद जांन, कीरत जग पसरी किरण भांन, व्रत पश्चाधार साहस सधीर, नव वाड मांझ४ गुनके गंभीर,
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इग्यार अंग उपांग बार, छ छेद ग्रंथको वचै सार, धुन मेघ जेम गर्जत वखांण, नितमेव साचवै पचखांण, नवतत्व ज्ञानको सकल जांन, सिद्धांतभेद-विद्यानिधान, विधवांन भाष्य रस ग्रंथ आंन, पुन कर्मग्रंथको भेद ग्यांन, जीव-अजीवको भाव भिन्न, "बतवाय देत सब जीव चिन्न, भवि लोक सुणत विकसै सरोज, उपजै संदेह तिहां पछै चोज,
नित आवै श्राविक वंदै पाय, परगटै जोत अंधियार जाय. ४ ॥ अथ गुरराज षट्त्रिंशद् गुणवर्णनमाह ॥ धरम जिणेसर गावो रंगसूं - ए देशी ।। एकविध असंजम टालक सही, दुविध धरमना प्रकास, म्हारां गुरुजी, तीन तत्वना जांणक थे अछो, च्यार कषाय विनास, म्हारां गुरुजी. १
भविजन वंदो रे एहवा गछपति [टेर(क)] पंच महाव्रत पालक स्वामिजी, षट कायना पीर, म्हारां गुरुजी, सात भयाना आप निवार छो, आठ मदां नावि धीर, म्हारा गुरुजी. २ नवविध ब्रह्मचारजना धारवी, दश विध धर्म प्रकास, म्हारां गुरुजी, अंग इग्यार तणा जांणक वली, द्वादश अंग-उपास, म्हारां गुरुजी. ३ त्रयोदश काठियाना जीपक तुम्हे, चवदै विद्याना जांण, म्हारां गुरुजी, पंचदश भेदे सिद्ध-प्रकाशक, सोलै कला [शशी] वदन सुजाण. म्हारां गुरुजी. ४ सातदश भेद प्रकाशक पूजाना, अढार सहस शीलांग, म्हारां गुरुजी, उगणवीस काउसगदोषनिवारक, वीस-तप-थान उपास म्हारां गुरूजी. ५ एकवीस गुण श्रावकना प्ररूपक, बावीस परिसह जीप[क], म्हारां गुरुजी, तेवीस अध्ययन सदा सुगडांगना, चोवीस जिनाज्ञापाल, म्हारा गुरुजी. ६ पंचवीस भावनाना अति भावक, छव्वीस दसाकल्पप्रपाल, म्हारां गुरुजी, सत्तावीस साधुगुणांना प्रकाशक, अठावीस लब्धदयाल, म्हारां गुरुणी. ७ एगुणत्रीस पाप सुरत परसंगना, त्रीस महा मोहनी थान, म्हारां गुरुजी, वारक वर्जक छो गुरुजी तुम्हे, इगतीस गुणना विनांण, म्हारां गुरुजी.८ बत्रीस लक्षण करि पूजजी विराजता, तेत्रीस असातना टाल, म्हारां गुरुजी, चोतीस अतिसयना परूपक, पैत्रीस वांणीयै विसाल, म्हारां गुरुजी. ९
दुहा : छत्तीस सूरिगुणै करी, सोभंता गुरुराय,
इह विध देशना देशता, नित नित वंदु पाय. १ ॥ अथाने ओपमा लिख्यते ॥ सकलगुणनिधान, सकलक्रियासावधान, सकलगुणालंकृत, सकलजननलिनदिवाकर, सकलनरिंदपूजनीक, सकलसिद्धशिरोमणिः, वादिमानमोडन, याचकजनदुखदारिद्रतोडण, धर्मचक्रवर्तः, जैनधर्मउद्योतकारक, अहंकारीमानमर्दन, सर्वजगत्रवंदन, पापनिकरनिकंदन, राजामनरंजन, वादीभटनिकंदन, कर्मगजविखंडन, पापतिमरभंडन, श्रीजिनशासनदीपक, बहुशास्त्रवादजीपक, वादीचक्रचूडामणि, राजतदिवसनिशामणिः, वादीसिंहसार्दूल, वादीकंदउन्मूलन, भुवलयचक्रचूडामणिः, परमपूज्य, परमात्माप्ररूपक, परमधर्ममूर्तिः, परमकृपाल, परमदयाल, याचकजनप्रतिपाल, परमपंडितशिराल (?), वाचा वाचाल, निश्शेषनम्रीभूतनपाल, श्रीजिनशासनपतिसाह, तपागछउद्योतकारक, कंदर्पोन्मादमारक, धारकांधारक, सर्वसिद्धांतपारक, परमकल्याणकारक, श्रीश्रीविजयधर्मसूरि गुरुजितां पट्टधारक, गादीउछाहकारक, प्रभाविकां प्रभाविक, सर्वजगत्रदीपकसमान, शत्रु मित्र जिम परमान, षट्त्रिंशद्गुणे(जमान, राजमान, शोभमान, दीपमान, इत्यादि अनेकोपमागुणालंकृतान्, श्रीजिनशासनचक्रिवर्तिसमानान्, कलिकालगौतमावतारान्, सकलसूरशिरोमणीन्, समुद्र जिम गंभीरान, सिंह जिम निर्भयान्, भारंड पंखी जिम अप्रमत्तान, मेरु जिम गंभीरान्, सूर जिम तेजस्वीन्, चंद्र जिम शीतलान्, षोडशकलासंपूर्णवदनान्, सश्रीकान्, परमसोभावान्, सकलभट्टारकपुरंदर भट्टारकजी-श्रीश्री१००८ श्रीश्रीविजयजिनेंद्रसूरीश्वरजीत्कानां चरणां, चरणकमलां पत्रम्।।
धन्य ते गुजरात देस, धन्य ते मांगरोल नयर, धन्य ते श्राविकश्राविका, धन्य ते ग्राम-नगर-पुर-पट्टण-सन्निवेस जिहां श्रीपूज्यजी विहारण करै, चौमासो करे, धरती पवित्र करै, चरणोदक प्रसवै । धन्य ते मांगरोलना श्राविकश्राविका जे नित्य श्रीपूज्यजीना मुखनी अमृतमयी वाणी सांभलै । कान पवित्र करै, पोसह-पडिकमण-व्रत साचवै, पच्चक्खांण करें। श्रीतपागच्छमाह दीपक समान श्रीपूज्यजीना मुखनो प्रभात समै दर्शन करै, पूजा प्रभावना करै, धन्य ते श्राविक-श्राविका पुण्यभंडार भरै । इत्यादिक श्री पूज्यजीना गुणनी तारीफ हजार गमैं जीभ हुवै तो वर्णवे न सकै, मो मंदमतिथी किम वर्णवाय?
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नवेम्बर
॥ अथ मरुधरदेशवर्णनमांह | छंद जात पद्धडी ॥
देशां जू सिहर मुरधरह देस, सोझत सहर तिणमै विसेस,
प्रथमही अन धन जिहां पूर, देख्या जू दुःख सब जाय दूर. १ तिहां भूप मांनसिंह भणंत, वपु तेजवान बहु बलवणंत, तिनकी जू कीर्त्ति दश देश ताह, वडवडह भूप कहै वाह वाह. २ दईवान ज्यांन" रण सुदेख, पराकम्म तेज रवि जिम ही पेख, भुजबली भिम जेहो भुंवाल, परदुखटाल पर प्रजापाल. ३ वद मुखा वचनपीयूषबांण, बल सबल जाहि अरजन्नबाण, तिनकै जू तेज अरि पिख्य त्रास, बस्ती ज छोड किय वन ही वास. ४ खग झाट थाट किय खल हि खंड, जग मांहि जस हि रोपे जू दंड, चिहुं दिसा तेज है चक्रवति, कहते जू कवि नव नवी किर्ति. ५ रिद्धि सिद्धि वृद्धि अष्ट हि रखंत, नव निद्धि ताहि नित नित वधंत, हय गज हि थाट द्वार हि जू हेर, कहीयै भंडार मांनुं कुबेर. ६ जिह सुजस पसर नव खंड जास, दोयण जू दुष्ट नित होत दास, अहोनिस हि होत प्राक्रम अवाज, भल भले गढपति जाय भाज. ७ वद सत्यवत्त महा सूरवीर, निज खित्तवट्ट मुख लीयां नूर, उमराव साव तिनकै अपार, है स्वांमधरम बहू हुजदार. ८ सिंघवी भंडारी मोहणोत सर्व, मुंहता जू कांम गुण ग्रहया गर्व, करते जू शुद्ध चित्त स्वांम काज, कायस्थ करै लिखणोसु काज. ९ वड हथ समच्छ बहु बुद्धवंत, के वास जेम सहु नर कहंत, परगट्ट धरमबल तिन ही पाय, अरिदल कितेक दीने उडाय. १० इण मंत्री सम्म नही कोई ओर, तिनके जू वधत नव नवे तोर, धन धन्य कहत सहू नरह धीर, वड है वजीर वीराद वीर. ११ चड नीत जांण चित्त नित्त चाय, डारण जू किते गुंथै जू डाव", हिकमत्त छत्त सहू सिद्ध हाथ, भुजबली अतुल जीपै "भराथ. १२ भूपत्तमांन सनमांन भल्ल, गुनिजन सुजस्स पढते जू " गल्ल, षड खंड शत्रू दीयकित ही खेस, देते ही दाद दशही जू देश.
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जिह राजकाज भुजभार लीन, केतें सुधार वड कांम कीन, तिनकी जू वत्त सुण नृपहि कांन, सहि देत नित्य नित्य सनमांन. १४ नव नवी रीझ नृप नित हि देत, हियमै हरख अत आण हेत, करहै जू राजके सब हि कांम, नव कोट मांहि तिनका जू नांम. १५ गुरु देव सेव कर बहू प्रवीन, लायक ग्यांन भ्रम वात लीन, विद्या विवेक बहू बुद्धवान, जगरीत भात सब हि जू जांन. १६ ओपै जू लखण बत्तीस अंग, सही तजै नीच जनकें जू संग, बहुतरह कला जांणण प्रवीण, नितमेव बुद्ध उपजै नवीन. १७ वर्णवं नगर विश्वा जू वीस, सारद मात नम्माय सीस,
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जाकी जूकिर्त्ति नव खंड जास, कहै कवी दूसरा जू कैलास. १८ परकोट सैहर प्रथम ही पिछांन, जोज्यो जू लंक सम ही जू जांन, तिनके जु भुरज कंगुरे पेख, दोयण जुडवत द्रिग ही जू देख. १९ जिस परह नाल है जू जंछूर, छूटै जुकरै अरि चक्कचूर, बहू लंब चोवटा है बजार, निरखै जू हरख कर नरह नार. २० हाटां जुछटा श्रेणी जू हेर, फब है अवल्ल सारन्नफेर देखो ज प्रबल अन धन अपार, वडे वडे साह करे व्यापार. २१ मांहै जुकिला मेर हि समांन, छावा जु वि (वी) रमदेका थांन, उचै ही ज देव करते अवाज, भलभले शत्रू ही जाय भाज. २२ सही जिनह देहरा है जू सात, पर जनह [दर्श] जाय प्रभात, जलंधरहनाथ देहरा जु जांन, ऊंचा जवडे है अस्समांन. २३ शिवका जु मंदिर चवदै जु साच, विष्णुं ज शिंभु सम मेल वाच, अडिग है ऊपासरा जु इग्यार, पोसाल तीन जाणो ति वार. २४ तपगछ तणो आलय जुतांम, मांनु ज नलनीगुल्मह विमान, वणीयो भुवन अतही विसेष, द्रिग देत देत वड नरह देख. २५ जाली झरोख तिणमै जू जोर, छोहबंध कांम चिहूं को ओर, तिस परह कलीय लागी जूताह, चतुर हि देखते चित्त चाह. २६ थिर लगे तिहां वड वडे थंभ, पेखे जू नरह होत है अचंभ, भूय परह सखर वणी है जू भींत, जगके उपाश्र सब लये जीत. २७
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मांहै ज साधु वड है महंत, तप-तेजवांन ध्रमजान-तंत, हाकम हवेली वणी है जु हद्द, वरणवै लोक वाह-वा जु वद्द. २८ अन्नेक वापी कूप है अपार, पेखतां नरह पावै न पार, वलि है जु बाग वाडी विसेष, दुनियां जु आय तिनकुंज देख. २९ धरमहपुरा जु तिहां वटधांम, नीरद्धी सप्त लगी कीय नाम, वलि अपर कीर्त देशह विदेश, चित चाह दांन देते हमेस. ३० जीवा "डरांक केते जगत्त, वड धन्य नरह “वांटै सुभट्ट, कोटवालि "चूतरा कोटवार, अद्दल्ल न्याव(य) करते अपार. ३१ हासल्ल लेत सायर हमेस, "कच्चेडी काम करते विशेस, जिहां "खांप च्यार बहु चतुर जान, वखत हि विलंद बुधके निधान. ३२ महाजनह अन्य जिहां मंदिरवांन, देते जु अहोनिस अभैदान, देवतरूप तिहां विप्र देख, वेदह पुरांण पढते विसेष, ३४ सूभट्ट थट्ट जिहां है जू सूर, "रिणमांझ अश्व देते जू ऊर, बहु ग्यांन ध्यान कायस्थ कुबुद्धि, सद्भावशक्ति पूजत सुसुद्धि. ३५ षडतीस पोन वसत है खास, मदमस्त रहत ही बार मास, सेवग समर्थ प्रभू करै सेव, देवी "सपूज के अन्य देव. ३६ बाहिर जू कितेक मठांन बोल, इषो जू चित्त आंणीइ लोल, चावी जू देवी चामुंड माय, सेव्यां जू शक्ति करते सहाय. ३७ शीतला मात हनुमान हेर, फब रहै शिव ही भूतेश फेर, गोरा जू श्याम खेतल गिणंत, वंका जू देव नरसिंघ वर्णत. ३८ जनवडे पीर दरगह सुजांन, के ते जु जवन पढते कुरांन, सखर ही वडे मुर ही जू साच, वड नरह कीतै कहै मुखा वाच. ३९ गुणवंत देव मोटो गणेश, हित करह नरह पूजत हमेस, अस्थलह मठ केते अपार, नितमेव आवते नरह नार. ४० सब ही जू नमत कायर जू सूर, पूजा जु होत है भरह पूर, वरण्या जु नगर का जू वखांन, मेरी जु मत्तकै उन जु मान. ४१ भूल ही जू चूक पारे है जु भंत, सुकवि सुधार लेज्यो जू संत, संवत अढार छीहंत्र (१८७६) साच, फाल्गुनह मास शुद पक्ष वाच. ४२
पूनम जू तिथकै दिनह पेख, दुरस ही जू छंद कीनी है देख, तपगछ सदा मोटो जू ताम, गुरराज मनोहरविजय नाम. ४३ सही तिहां देवसूर ही जू साख, भल कवि शिष्य राजिंद भाख, सीखै जु सुण पावै जु सीख, दिन दिनह टलत दालिद दुख. ४४ ॥ कलस ॥ कवित्त छप्पय ॥
वद्यो छंद गुनवंत, भला कवि तिण मन भावै, रीझै राव ही रांण, सुणै नर अवर सरावै, भाव अवल बहु भेद, वेद वाचै सुवखांणे, चारण भाट हि चतुर, जिकै गुण बोली जाणै, सोझाली नयर वरनी सुकवि, जे जे छोड हूंति जिती,
सुण श्रवण साच मांनो "सको, तवै कीर्ति तिणरी किती. १ ॥ इत्यादि छंद पद्धडी संपूर्णम् ॥ अथाग्रे श्लोक लिख्यते ॥ नित्यं ब्रह्म यथा स्मरन्ति मुनयो हंसा यथा मानसं, यद्वच्च स्फुटशिल्लिकावनगजा ध्यायन्ति रेवानदीम् । तद्वदर्शनलालसाः प्रतिदिनं युष्मान् स्मरामो वयं, धन्य कोऽपि स वासरः यदि भवेत्(द्) यत्राऽऽवयोः सङ्गमः ॥१॥ यच्चिन्तन्ति मयूरपावसऋतुं हंसाऽपि मानासरं, यच्चिन्तन्ति ---तत्प्रगुणितं मातङ्ग बन्ध्यं वनम् । पाकश्चिन्तति याति सूर्यवदनं मीनो जलं चिन्तयेत्, तद्वद् चिन्तति अहर्निशं गुणनिधीत्वद्दर्श वञ्च्छामहे ॥२॥ यथा स्मरन्ति(ति) गौ वत्सं ० ॥३॥ दीपो तेलं यथा ध्यात्वा त्पयं (पयः) चाहन्तु चातक(:)। तथाऽहं सर्वदा चित्ते-ऽव्ययं(य!) ध्यानं(न)अ(म)हनिशम् ॥४॥ वारंवारीमयं चिन्ता, वारंवारमियं कथा। युष्माकं दर्शनोत्कण्ठा, नेत्रयोः केन पूर्जयेत् (पूरयेत्) ? ॥५॥ प्रीतिलते पद्मदयालवल्ले, सस्नेहवाक्यामृतसारिणीभिः । अहो(ह)निशं पूज्य ! तथाऽभिस(सि)ज्च्या(द)
यथा च सा पल्लवसालिनी स्यात् ।।६।।
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॥ अथाग्रे स्नेहोक्त दूहा लिखनीया ॥ दु(दू)हा : किहां कोयल किहां अंबवन, किहां दादर किहां मेह,
वीसार्या नवि वीसरे, गुरुजी तणा सनेह. १ मठ माहै तापस वसै ०२ एक घडी आधी घडी, तिणमै आधो आध, जब ही दरसण पाईयै, सो सुखीयारथ कीध.३ हियडां भितर दव बलै, कोय न जाणे सार, कै जांण मन माहरो, के जांणै किरतार. ४ तिसीयो तडफै नीरकुं, भूखो चाहै भात, जेम तुमारा दरसकी, चाह धरूं दिनरात. ५ चातिक चाहै मेहकुं, चकवा चाहत मोर, हम चाहुं तुम्ह दरसकुं, जैसै चंद चकोर, ६ साहिब तोरां दरसकी, मो मन है हुल्हास, जैसै पंथी पंथसिर, पल पल जलकी प्यास. ७ हियडा तुं हेजालुवो, ४२भाखर गिणे न भित, जाकै कारण तुं झुरै, ताकै मन नहीं चिंत. ८ कांमकाज इह छोरकुं, जो हम लायक होय, कृपा करि लिखज्यो सदा, अंतर न रहै कोय. ९ ४"बाहुडता देज्यो सदा, कागद इधक हुल्हास, हितकर लिखज्यो हाथसुं, दसकत अपणे खास. १० गुरुजीसु इक वीनती, मांनीजो महाराज, कृपा करीनै मेडतो, लिखज्यौ श्रीगुरुराज. ११ साहिबजीनुं वीनती, देओ सह "बीकांण, महिर करी लिखज्यो तुम्हे, सुंदरपुर जोधांण. १२ संवत अढारै छिहत्तरै(१८७६), वलि फागुण शुदि मास,
तिथ पूनम शशि वासरे, लिख्यौ लेख हुल्हास. १३ ॥ कवित्त ॥ छप्पय ॥
पंच महाव्रत पाल, काय घट पाल कृपानिध, सत्तर भेद संयमह, वले जिणरी जाणण बुध,
सुमति गुपति सहू सोध, बोध भविजन बहू दायक, पायक ग्यांनप्रवीण, वदै मुख अमृत वायक, नायक गछ असीच्यार नित, प्रसिद्ध ऋद्धि भरपूर है, विजैजिनेद्रसूरि ग्रहीया वडिम, तपै पाट ध्रमसूर रै. १ तुझ दरसण दुख दूर, पूर पुन प्रगट देखै तब, तुझ दरसण दुख दूर, जगत सुख ही उपजै जब, तुझ दरसण दुख दूर, रोग-गम नित वाधै ऋद्धि, तुझ दरसण दुख दूर, शत्य केई नर पांमै सिध, तपगछनाथ तेज हि तरूण, जगत राह दोय जांणीय, बहु ग्यांन ध्यान जांणण प्रबल, विजैजिनेंद्र वखांणीयै. २ गुणकर समंद्र गंभीर, चंद जिम उजल चिहुं दिशि, मेर जीही द्रढ मनह, खलह तिण देख जायै खिस, कंचननी(नि)मल काय, दांनकर "क्रन जिम देयण, अवर सूरन हई सो, लायक व्रिद जग सहू लियण, धजबंध पूज तपगछ धणी, अवस वात चित आंणीय, साहपतिसाह पगवंद सह, विजैजिनेंद्र वखांणीये. ३
॥ इति छप्पय संपूर्णम् ॥ ॥ अथ वीनतीरी सिझाय लिख्यते ॥ ढाल | बिंदलीरी ।। प्रणमुं सरसति पाय, गुण गाव॑ गछपतिराय हो, सदगुरु अरज सुणो, अरज अमारी अवधारो, सोझाली नगर पधारो हो, सदगुरु अरज सुणो. १ मुरधर देस छे मोटो, "जठे अन धनरो नह तोटो हो, सदगुरु अरज सुणो, जठे नगर योधांणो राजै, ओतो अलकापुरि सम छाजे हो, सदगुरु अरज सुणो.२ भूपति मानसिंघ राजा, वाजे नित नोबत वाजा हो, सदगुरु अरज सुणो, नयर सोझाली निरखो, जिकां इंद्रपुरि छै सरिखो हो, सदगुरु अरज सुणो. ३ बाग वाडी आरांम, नव खंडमै जिण रो नाम हो, सदगुरु अरज सुणो, भगवंत देहरा भारी, पूजा हुवै सतरप्रकारी हो, सदगुरु अरज सुणो. ४ श्रावक बार व्रतइ साजे, गुणनिध नित नितका गाजे हो, सदगुरु अरज सुणो, पोसा नै पडिकमणा, वलि भेद सिद्धांता भणणा हो, सदगुरु अरज सुणो. ५
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अनुसन्धान-६५
सुगुरु तणी करै सेवा, पूर्ण एक अरिहंत देवा हो, सदगुरु अरज सुणो, ज्यारा गुण केता मुख गाऊं, परतिख नही पार न पाऊं हो, सदगुरु अरज सुणो.६ तिकै दरसण देखण तोरा, मेहआगम चाहै मोरा हो, सदगुरु अरज सुणो, किरपा तिहां पर कीजै, देशना ध्रमरी तिहां दीजै हो, सदगुरु अरज सुणो. ७
थे गिरुवा बहु गुणधारी, आ वीनती सुणज्यौ सारी हो, सदगुरु अरज सुणो, विजैजिनेंद्र गछराया, औतो रूपविजय गुण गाया हो, सदगुरु अरज सुणो. ८ ॥ इत्यादि श्रीजीरी वीनती ॥श्री।। इंडर आंबा आंबली रे, इंडर दाडम द्राख - ए देशी ॥
शांतनाथ प्रणमुं सदा रे, वलि सदगुरुना पाय, गुण गावां गछपति तणारे, आणंद अंग न माय
सुगुरुजी! थे मोटा महाराज. १ दरसण देखण ताहरो रे, ऊमाहो मुझ अंग, अभिलाषा अहोनिस घणी रे, रूडो तुम्हथी रंग. २ सिंघ करै वीनती सदा रे, निपट सहू नर नार, अरज तिहां री अवधारीय रे, सहुना कारज सार. ३ सोरठ देशै गछपति रे, विलंब रह्या केई वार, एक वार मुरधर आवज्यौ रे, एह अरज अवधार. ४ भाव धरीनै भेटसां रे, परगट गछपतिपाय, जन्म सफल "जद जांणस्यां रे, हियडे हरख न माय. ५ रूपविजय कहै मानज्यो रे, रीत अवस गछराय, साची अरज छै साहिबा रे, कूड म जांणो काय.६
॥ इति संपूर्णम् ॥ दुहा : दुखकाटण दोलतविजय, मुनिवर वडो महंत,
तपगछमें सोभे तरुण, तव गुण मुख नव तंत. १ मांणकविजय मोटो मुनि, गुणवंत जांण गरथ, पैतालीस आगम प?, आढा करै अरथ. २
रामविजय रिधवांटेणौ, गुण गौतम गणधार, जसधारी जतीयां सिरै, नित वंदै नर नार. ३ फतैविजय वद फाबतो, इल मोटो अणगार, जीतसागर बहु जस लीयण, क्षमाविजय मुनिराय. ४ श्रेय इत्यादिक परिवारसुं, मांनीज्यो मनुहार, त्रिविध त्रिविध कर मांनज्यो, वंदन वार हजार. ५
संवत् १८७६ व० मिति फागुण शु. १३ ॥ श्रीजिनाय नमः ॥ स्वसत श्रीमांगलौर वंदर सुभ सुथाने पूज प्रमपूज सरब ओपमा विराजमान, ००० रांजमान, सोभवांन, दीपवांन, इत्यादिक वडी वडी ओपमा विराजमान, सकलगुणनिधान, सकलक्रियासावधान, सकलनरंदपूजनीक, सकलभट्टारकपुरंदर, सकलभट्टारक-सिरोमण, भट्टारकजी श्रीश्री१००८ एकहजार आठ श्रीश्रीविजेजिनंदसूरस्वरजी चणायनं चरणकवलायनं सोझतथी सकल सिंघ लिखतं वंदणा १०८ एकसो आठ वार अवधारसीजी । अठा रा समाचार भला छै। आप रा सदा सुख आरोग चाही जै। आप रा डीलां रा घणा जतन करावसी । जतन तो श्रीवीर साहबजी करसी पिण श्रीसिंघ, तो लिख्यो चाहीजे । अप्र च "हमरके चोमासै पुन्यास रूपविजेजी तुम्हे [मे] लीया सो जोग गीतारथ छे। प्रभाते पाटीये वखाण-पछखांणविध- वुहार मरजाद भली रीत साचवे छे। अणासू इसा ही ज गितारथ जोग्य प्रमाणीक हुवे तिकांनु चोमासै मिलावसी। श्रीसिंग री तो लिखण रो कारण ओछे सो क्रिपा करने हमरको चोमासो इणांनु ईज रखावसी । अठां लायक कामकाज हुवे सू लिखावसी । श्रीदेवजात्राये सिंगर्नु याद करसी । समसथ साधुवांने वंदणा वचावसी। स्रावक स्रावकणीया री वंदणा एकसो आठ वार अवधारसी । म्हा रामदास री वंदणा एकसो आठ वार अवधारसीजी। सं. १८७६ रा मिती फागण सुद १५ वार सोमदिने । ॥ अथ श्रीगुरुराजविज्ञप्तिस्वाध्यायः लिख्यते ॥ ॥ देशी - रसियानी ॥
श्रीविजैजिनेंद्रसूरिंदजी सांभलो, तपगछना शिणगार, राजेश्वर, दरसण देख्या हो सुख ऊपजै सही, जिम रवि कमल प्रकाश, राजेश्वर. १
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अनुसन्धान-६५
सोझत नयरै हो पूजजी पधारीयै, श्रीसिंघ पूरो रे आस, राजेश्वर, सूरि गुण षटत्रीसे सोहता, मोहता नर नै नार, राजेश्वर. २ बतीस [स] हसदेस सोहे भला, आरिज साढा पंचवीस. राजेश्वर तिणमै हो नगर सोझाली सोहामणो, ओपमा अलिका नगीस, राजेश्वर. ३ राठोड वंसे हो राज करे तिहां, मानसिंह मोटो भूपाल, राजेश्वर, जेहनी आंण अखंडित निरवहै, षट दरसण प्रतिपाल, राजेश्वर. ४ ऊंचा मंदिर सोहै अति भला, प्रोढी फबती रे पोल, राजेश्वर, जिननां मंदिर सूंदर सोभता, ओपै हाटांनी श्रेणी, राजेश्वर. ५ सिंघनी वीनती सफल करो सही, पूरो मनरी रे कोड, राजेश्वर, सोझित नगर पधारो साहिबा, अरज करां कर जोड, राजेश्वर, ६ सिंघनै उमाहो हो तुम्ह दरसण तणो, हंस घणी मन माय, राजेश्वर, मधुकर समरै हो जिम केतकी भणी, जिम रेवा गज चाह, राजेश्वर. ७ तप जप खप संजम करता थका, अप्रतिबंध विहार, राजेश्वर, जनमभूमिनै हो आवी संभारज्यो, मनगमती मनुहार, राजेश्वर. ८ सिंघनी वीनती मानो गछपती, अवधारो अरदास, राजेश्वर, गुरू मनरूपविजय सुपसायथी, रूपनि पूरो रे आस, राजेश्वर. ९
अत्रत्य पं० रूपविजय ग०, पं० प्रतापविजय ग०, पं० कपूरविजय ग०, पं० मानविजय ग०, पं० माणिक्यविजय ग०, लघु शिक्ष गुलालचंद, गंभीरमल, लालचंद, फतैमल प्रमुखनी वंदणा १०८ वार अवधारसीजी । समस्त ठाणु १३नी वंदणा पंचावसीजी ॥श्री।।
लिखितं पं० रूपविजयेन ।श्रीरस्तु ॥
पाटण विजयजिनेन्दसूरिजीने
मेडताथी श्रीसङ्घनो विनन्तिपत्र प्रस्तुत पत्र पाटणमा बिराजमान विजयजिनेन्द्रसरिजीने उद्देशीने मेडताना श्रीसङ्के पाठव्यो छ । अन्य पत्रोनी जेम पत्रनी शरुआतमां पञ्चजिन तेमज यक्षराज माणिभद्रने वन्दन करवा पूर्वक कृतिनुं मङ्गलाचरण करायुं छे । पछी कृतिमां सौ प्रथम गुर्जरदेश, वर्णन करता कविए महाप्रभावक श्रीशद्धेश्वर पार्श्वनाथप्रभुनी उत्पत्ति अंगेनो संक्षेपमां इतिहास आप्यो छे । ते तीर्थभमिना नजीकना मोटा शहेर पाटणमां सरिजीनी स्थिरता होवाथी हवेनी 'गझल'मां कविए अनुक्रमे पाटणनी बजारोन, व्यापारी जनसमाजनुं अने जैन-जैनेतर मन्दिरोनुं स्वरूप अद्भुत रीते चीतयु छ । उपाश्रय तेमज धर्मशाळानी झीणामां झीणी विगत कविए मोतीदाम-छन्दमां आलेखी छे। गझलमां अने आ छन्दमां वपरायेला फारसी मिश्र बोलीना शब्दो परथी मोगल सल्तनतनी लोकमानस परनी अमीट छाप स्पष्ट जणाई आवे छे । गुरुगुणवर्णनारूप १०८ गुणोने चार ढाळमां वर्णवी कविए गुरुनी तुलना चन्द्र साथे करती एक देशीबद्ध ढाळनी रचना करी छ। गुरुभगवन्तने मेडता पधारवा विनन्ती करवा नगरवर्णनानी शरुआत कवि मेडतानरेश धनराजनी गुणवर्णनाथी करे छे । पछी शहेरना विस्तृत वर्णननी इच्छाथी कवि 'गझल' रूपे शहेरना बजारो, व्यापारीवर्ग, राज्यसत्ता, जैन-जनेतर मन्दिरो, भौगोलिक स्थळो, उपाश्रयो विगेरे ऐतिहासिक बाबतो काव्यमां गुंथी छ। पत्रनी आ सामग्री, मेडताना इतिहासनी दृष्टिए घणी ज महत्त्वपूर्ण छ । पछीनी देशीमां पूज्य गुरुभगवंत साथे रहेता मुनिवृन्दने पोतानी साथेना शिष्यादिपरिवारनी वन्दना जणावी प्रत्युत्तर पाठववा विनन्ति करे छे । हवे पछी मुडीया लिपीमां सूरिगुणनी नोंध तेमज चातुर्मास तथा पर्युषणपर्व अंगेनी विगतो नोंधी छ। 'आदिनाथप्रभुना जिनालय, काम शरु छे' आ वात परथी कोई प्राचीन जिनालयनो जीर्णोद्धार के नूतन जिनालयना काम अंगे श्रीसद्धे पत्रमा विशेष प्रकाश पाड्यो छे । पत्रान्ते गुरुभगवन्तनी देहशोभानुं वर्णन करी सूरिने मेडता चातुर्मास पधारवानी विनन्ति स्वीकारवा
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कहे छे। साथे साथे सूरिदर्शननी उत्कण्ठा वर्णवी पत्र पूर्ण करे छ । कृतिकार तरीके विनयविजय, तेमना शिष्य कुंवरविजय तथा कस्तुरविजय एम त्रण नाम मळे छे. तेमां गुर्जरदेशनी तेमज ४४ थी १०८ गुणोनी रचना विनयविजयनी, १ थी ४५ गुणोनी गाथा कुंवरविजयनी तथा मरुधरवर्णनथी पत्रान्त विनन्ति सुधीनां पद्यो कस्तुरविजयना रचायेला छे. आम त्रण कविओनी रचना भेगी करी आ पत्र तैयार थयो होय एम बने. छतां आ बाबत पर विद्वानो पोताना विचारो जणावे ए ज आशा.
शब्दार्थ १. उबारण = बचावनार
२१. पलमादार = ? २. हेवा = इच्छा
२२. चरणे = चारण (?) ३. निवाण = जलाशय
२३. चित्राम = चितरामण ४. वरनवर = श्रेष्ठमां श्रेष्ठ २४. उस्तादइ = उस्ताद = होशियार ५. सोबायत = ?
माणस ६. भायत = ?
२५. उमया = पार्वती ७. नैना = नयन
२६. मीर = पैसा ८. मुखमल = मखमल
२७. रत्त = रक्त ९. सावटु = रेशमी जरियान वस्त्र २८. जोट = जोड १०. मुलतान = देशविशेषतुं वस्त्र ११. गुदरी = गुजरी, बजार ३०. रिछयाल = रक्षक १२. जुरत = जोडावू
३१. उन = तेमने १३. बज्जाज = कापडियो ३२. छेलां = कामीजन १४. सखरा = सुंदर
३३. भ्रूह = भ्रमर १५. सराफ = नाणां धीरनार ३४. सावक = ? १६. दमडा = द्रम्म, एक चलण ३५. होरांन = हेरान १७. ढेर = ढगलो
३६. वेसर = नथ, वाळी १८. मुंमन = मेमण, मुसलमानोनी एक ३७. फूटरलोक = सुंदरमनुष्य जात
३८. डार = ? १९. खरादी = लाकडा, हाथीदांत वगैरेनी ३९. वाघ = वस्त्र कोतरणी करनार
४०. हासल = दाण, कर २०. जरदार = भरतकामवाळु वस्त्र ४१. जिहांक = ज्यां
४२. जगाइत = जकात (?) ७१. दूणे = वे गणा ४३. तिहांक = त्यां
७२. फेर = फरक ४४. मेंगल = हाथी
७३. भमटा = भ्रमर ४५. चखाल = ?
७४. हासलडाण = कर, दाण ४६. सुजत्थ = ज्यां (?)
७५. पाक = नजीकमां ४७. विधात = विधाता
७६. पसार्या = दवावाळा (?) ४८. सुहत्थ = स्वहस्त
७७. माजनी = मांडणी, उंचाइ (?) ४९. जकमंध = ?
७८. चांतरो = चोतरो ५०. उदोत = उद्योत
७९. कबज = कब्जे ५१. हदोहद = मनोहर (?) ८०. मैजीद = मस्जीद ५२. पाधर = सीधा (का), सुधार्या ८१. जैन = अन्न, अनाज ५३. सामुहो = सामो
८२. सायरडांण = सागर ५४. घरासिया = गरासिया ८३. पव्वे = वज्रथी (?) बनेलो ५५. मोडखांप = मुगटना हीरा (आभला ८४. ओदादार = अधिकारी, होहादार जेवा (?)
८५. सैर = शहेर ५६. दगल = यूथ(?)
८६. किरमची = एक जातना कीडा ५७. दफै = विखेरी नाखे ८७. दांती = हाथीदातनी नकशी करनार ५८. त्रपमान = सूर्य
८८. कंसर्या = कंसारा(?) ५९. घन्न = मेघ
८९. दिसावर पीठ = अन्य देशनी पेढी ६०. तडदाह = विजळी (?) ९०. अत = अहिं ६१. भलक्कत = भालो
९१. रंगरेज = रंगारा ६२. सेल = एक प्रकारनो भालो ९२. मूंठ्या = हाथर्नु एक प्रकारचें घरेणुं ६३. नाज = नाद
९३. ठंठारा = कंसारा(?) ६४. बुगपंत = बगलानी पति ९४. उमेर = उमेद, इच्छा ६५. नगीना = [शहेररूप] झवेरातनी ९५. जरायत = वरसादना पाणीथी थती कारीगरी
खेती ६६. नोख = टोच, अणी ९६. जारत = दर्शन ६७. रेजावासता = रेशमी वस्त्र ९७. झंगीक = मोटुं ६८. जरतास = झरीयान
९८. संगीक = मनोहर ६९. कटलो = कोटवाळ
९९. पाती = पत्र ७०. पंच = महाजन
१००. सुगटी = सारा घाटवाळी
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१०१. डोल
= ?
१०२. पना = ?
१०३. सप्रवारा = सपरिवार
१०४. व्रणांन = चरणान्, चरणो
१०५. रजाबंध = राजी (?)
१०६. पडकुणा = प्रतिक्रमण
= संवत्सरी
१०७. छमछरी १०८. पुडी १०९. चांगो = सारो
=
पुरी
११०. सेरोवग
= श्रावक
१११. सेरोवका = श्राविका ११२. आछो = अच्छछे सारो
-
॥ ६० ॥ श्रीइष्टदेवाय नमः ॥ श्री जिनाय नमः ॥ अथ श्रीलेखपद्धति लिख्यते ॥ श्रीमदादिनाथ - शान्तिनाथ - नेमनाथ पार्श्वनाथ-माहावीरेभ्यो नमः ॥
स्वस्ति श्रीवृषभेश्वरं जिनवरं शत्रुञ्जयोद्धारकं, नाभेयात्मजमादिनाथजिनकं भरतादिकानां हि च । पितरज्येष्ठतरं महासुखकरं संसारिणां जीवनं, धर्मिष्ठं सुखदं नमामि सततं भक्त्या नमस्कृत्य च ॥१२॥
श्री शान्तिनाथं सुखदं नराणां पारापतायाभयदं जिनेन्द्रम् । खलु क्रिपाभि सुरप्रेक्षणार्थ, विवर्णित वज्रिसभां नमामि ॥२॥ स्वस्तिश्रीभूषण श्रीनाथप्रभुं दुनं पशुमोक्ष कुतश्रिीकृष्णाम् ।
श्रेष्ठं मोहमयीविकारहरणं राजीमतीभर्तृकं,
वन्दे भव्यतमसमुद्रविजयस्याङ्गोद्भवं स्वामिनम् ||३|| स्वस्ति श्रीशिवमार्गदं गुणवतां पूजाधिकानां हि च,
दुष्टात्मानमिदं च कूर्मसठकं ज्ञानप्रदं पावनम् । नासालग्नजलप्रवाहसहनं नागस्त्रियाऽभिस्तुतं, वन्देऽहं क्षमिनं क्रियासु कुशलं श्रीपार्श्वनाथं जिनम् ||४|| स्वस्ति श्रीत्रिसलात्मजं जिनवरं सिद्धार्थवंशोद्भवं, भूपाल (ला) चितपादपद्मयुगलं सिद्धान्तशास्त्रार्थदम् । वन्देऽहं चरमं जिनं सुखकरं श्रीवर्धमानाख्ययं, नित्यैकाग्रमनः प्रसन्नसुहृदा ध्यातं परं पारगम् ॥५॥
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॥ अथ माणभद्रजी स्तुतिर्लिख्यते ॥
श्रीमाणभद्रं सुरयक्षराजं, सौख्यप्रदं विघ्नहरं नराणाम् ।
जिनेन्द्रसूरिजयकारि नित्यं रिपुक्षयं सङ्घसुखं प्रणोमि ||६||
॥ इति श्रीसंस्कृतमयी पञ्चपरमेष्ठीनां स्तुतिः ॥ अथ भाषामयी पञ्चपरमेष्ठीनां स्तुतिः ॥
दूहा :
स्वस्तिश्री प्रभु आदिजिन, धर्म तणो दातार, युगलाधर्म निवारणो, ते बंदु करतार. १ स्वस्तिश्री जिन सोलमो, जीव 'उबारणहार,
ते प्रभु समरुं नित प्रतै, कर जोडी करतार. २ यादवकुलनो सेहरो, नेमिनाथ महाराय,
ते वंदु आणंद धरी, राजीमतीवर राय. ३ अश्वसेननृप कुलरवि, वामाउदरे हंस पार्श्वनाथ नित प्रणमतां, हुवै ज कुलअवतंस. ४ सिद्धारथकुलदीवलो, त्रिसलामात मल्हार, वर्धमान जिन वांदता, थायै धन श्रीकार ५
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॥ अथ वीरस्तुतिः ॥ दूहा
मांणभद्र देवत भलो, अवर देव सिरताज, उडुगण में ससिदेवता, तिम सोभत यक्षराज. १ गुर्जर देसें दीपतो, श्रीसंखेश्वरपास,
मही [य]लमां महिमा अधिक, पूरें सहुनी आस. २ मूरत तणी महिमा अधिक, कहता नावै पार केइ तर्या जिनचरणथी, के भवजलं तरस्यै पार. ३ सेतुबंध जिननामथी, जलधि विषै जिम राम, जीत लई लंका पुरी, सीता युत निज ठांम. ४
युध कीयो यादवपति, जरासंधसुं जोर,
विद्या जरा सवि मिट गई, मेली थी जिण जोर. ५ नेमि तणा वयणै करी, आराध्यौ जिनराय,
दीधी आण पदमावती, मूरति मनोहर माय ६
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श्रीसंखेसर परसादथी, वासुदेवपद पाय,
आज लगण ए मूर्त्तिनो, महिमा सुरगण गाय. ७ ॥ ढाल || नणदलनी ॥ गुर्जर देस छै वारु, तिहां सेहर घणा छै सारु हो, भवियण हिवै सुणो, तिहां पाटणपुर अति दीपे, सुरनगरीने अति ही जीपै हो, भवियण हिवै सुणो. १ तिहां श्रीपास विराजै, जस महिमा अधिकी छाजै हो, भवियण हिवै सुणो, जस सुरपति गुण गावै, जस नर नारी मिलीनें आवें हो, भवियण हिवै सुणो. २ असुर विद्याधर सगला, सुरपात्र रचै तिहां खेला हो, भवियण हिवै सणो. त्रिण भुवन[मां] पूजाणी, प्रभु मूरति सुरतरुखांणी हो, भवियण हिवै सुणो. ३ एहवा जिनने वांदीजै, नरभवनो लाहो लीजै हो, भवियण हिवै सुणो, प्रभु मूरति मोहनगारी, निरख्याथी लागे अति प्यारी हो, भवियण हिवै सुणो. ४ इह भव जिनपदसेवा, परभव पण एहज 'हेवा हो, भवियण हिवै सुणो, तिम वली तारंगो सोहै, भविजनना चित अति मोहें हो, भवियण हिवै सुणो. ५
जैन धर्मनो धाम, तिहां सरसा सगला ठाम हो, भवियण हिवै सुणो, तिहां वृद्धनगर छै वारु, पाटणनगर अति सारु हो, भवियण हिवै सुणो. ६ वन उपवन आराम, तिहां देवरमणना ठाम हो, भवियण हिवै सुणो, नदीय निवाण सुचंगा, जिण देख्या अतिहि उमंगा हो, भवियण हिवै सुणो. ७ धनि ज[न] जिहां पूरा, तिहां धर्मस्थितिमें सूरा हो, भवियण हिवै सुणो, पभणी पांचमी ढाल, विनयविजय सुविसाल हो, भवियण हिवै सुणो. ८ ॥ अथ गुर्जर देसमाहै पाटणनगरवर्णनम् ॥ दूहा : प्रथम गिरा गुरुदेव नम(मुं), तिम वलि जिन वर्धमान,
गजल चाल पाटण वरन, चरन 'वरनवर आंन. १ गो सम गुर्जर धर नमय, पट्टण सहर प्रसिद्ध, कवरसना ओपम कहै, सुरपुर आभा लिद्ध. २ "सोबायत 'भायत सबै, हामो गायकवाड, राजनीत अति राजतो, प्रजा सबै प्रतिपाल. ३
॥ गजल चाल लिख्यते ॥ पट्टण सोहा अति अभिरांम, रसना कहैत है गृहधाम, नगरी अमरथी छिव जोर, औसा सिहर नही कोई ओर. १ वरणन करत हु बाजार, बैठे सेठ साहुकार, अभिनव सोभती हटश्रेण, आवै लोक सोदा लैण. २ मुलमुल देख मैहमुंदीक्, "नैनां होत चकचुदीक्, "मुखमल 'सावटु "मुलतान, सोदा ग्रहैता तोतान्. ३ सुनवर जालियां अरु गोख, चोहटे बीच सुंदर चोक, १'गुदरी जुरत है बहु लोग, तिहां मनमज देखवा अतिजोग. ४ आवी बैठते "बज्जाज, सोदा करत है सिरताज, "सखरा सोभते १५सराफ, दमडा परखते दिल साफ, ५ बैठे पान तंबोरीक, भरीयां खूब चंगेरीक, छाबा फूलमाला हाथ, भमर लूंब ते तिण साथ. ६ घेवर लाडूवांके ढेर, चाखै तनकतोवे जेर,
मुमन "खरादीकी हाट, पटवा बैसते घण थाट. ७ सोना घरत है सोनार, दुपटा ओढणे "जरदार, तंबू तांनीया मनिहार, बेचत हार "पलमादार. ८ चातुरहद्द चितारेक, कांसी घडत कंसारेक, चरणे२ वरणमै छत्रीस, सोहै लक्षणे बत्रीस. ९ वर, सेंहरके आवास, आछी कोरनी हे जास, तोरण जालिया फुनि गोख, नाटारंभकी है नोख. १० सारे सोहते २ चित्राम, कीने २"उस्तादइ काम, लिछमनकुमर सीतारांम, नाटारंभ के चित्राम. ११ रावण रूप मनमोहेंक, दस सिर वीस भूज सोहेंक, मंडे रूप हे माहादेव, २५ उमया संग हे नितमेव. १२ होतें वाघ अतिभारीक, अंबा रुख की तारीक, मंडे काबली बहु "मीर, खेचे लाल तरगस तीर. १३
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बुलबुल बाज तीतर मोर, मंडे सावनुं घनघोर, बहुते जैनके प्रासाद, करते गगनसेती वाद. १४ भेट्यां टलत हैं विखवाद, वाजत संख घंटानाद, जीजां झालरां झिणकार, धपमप मादला धौंकार. १५ चिंतामण पास चिंता चूर, देखत होत दालिद दूर, उंचा देहरा असमान, प ( पो) ढो हेम-मेरु जांन. १६ सुंदर कलस धजादंड, एहवी छिव नही ब्रह्मंड, चातुर लोक हें अति चूंप करतें आरती अनूप. १७ कुमति छोडके निज मत्त, दरसण देख रहतें रत्त, वरनुं वेस हन्नुमांन, धरते लोक जाका ध्यांन. १८ चंडी कालिकाके कोट, सोहते सुरनराकी जोट, पैहरण फुलकी हें माल, आंनन सोभतो विकराल. १९ चोसठ सक्त बावनवीर, पेहरें हार लडकत हीर, जागत- जोत चंडी-थांन, नेवज लावते बहुमान. २० झणणण झालरां झिणकार, होते नोबतां ठिणकार, माता सेंहरकि रिछपाल, मेटें भ्रम मायाजाल. २१ थानक बहुत गोगा पीर, महिमा बहुत खेतल वीर, वनिता खूब है वैश्याक, कांमी चित्त "उन खोज्याक. २२ नीके लागणें हे नॅण, बोलें मुख्य मधुरें वेंण,
मुखभर चावते हें पांन, छेलां मार सहके बान. २३ ओढण दिखणीके चीर, नैनां "सावकाको तीर, भ्रकुटीयुगल कोकबांण, आसक होत है हीरांन५ २४ चालत हस्तनीकी चाल, सुंदर सोहती बाबा (चा) ल, पांनी भरत है पनीहार, दीसत रंभकें उनीहार. २५ घमके घुघरा घमरोल, रणझण वाजती रमझोल,
वेसर वेस मोती भाल, सोभत बीज ज्यां भलकार. २६ देख्या सहसलिंगा घाट, जुडीया नारीयांका थाट, अवर थान है चंगाक, देख्या होत मन रंगाक. २७
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दूहा :
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मांटीमरद हैं मुंछाल, फूटरलोथ (क) ज्यां फूंदाल, सादी बांध है सिर पाघ, सुधै डार पेंहरण "वाघ. २८ राजै राज गाइकवाल, छाजै नीत सखरी चाल,
* हासल चूकते जिहांक, जगाइत लेत हें तिहांक. २९ मेंगल मदसु झरतेक देखी लोक थरहरतेक,
सुंदर फोजकें सिणगार, सोभें राजके दरबार ३० हयवर करत हैं हिंसार, तेजी खूब हें तोखार, कबी कूदणा केकाण, साचा पवनवेगी जांण. ३१ बैठत आप मिल दरबार, मिलते लोक तहां हज्जार, कालीकोट हैं वीरांण, देखें अरी छंडे प्रांण. ३२ वरणें बाग वर वाडीक, नीकी सोहती झाडीक, बाहिर देव देवी थांन जांनों सहरके उनमान. ३३
तिण सेंहरें सोभत भलो किलो मनां क्रम मेट, उपासरो अब सुनन भ्रम, श्रमण साधू जिन भेट. १ उभें चखांल खचकित हैव, जाली गोख सुधाम, ते रसना पावन भणी, कहुं नाम अभिराम. २
॥ अथ छंद जात मोतीदाम ॥ उपाश्रयवर्णनम् ॥
बन्यो अति सुंदर देवविमांन, पयोधर परीव सुसीम पिछांन, थुडी तस नीम पताल सुजत्थ, घड्यो गजधार विधात ४८ सुहत्थ. १ किनां सुर-थांन हर्यो "जकमंध, किनां ग्रहधांम लियो भुजबंध, किनां अलकान्नपनो ग्रहकोस, लख्यो इसडो भल आलय जोस. २ वदै पृथवी जस पोलीयो नांम, फबै न्नख (व?) खंड सुपोलि भिराम, उदोत अपार अछै भ्रमसाल, उभें पट देख घणो सुविशाल. ३ तिहां मुनि बैठण थांन सुखद, झरोख गवाक्ष बनें ५ हदोहद, वडा जसवंत रहेज महां (हंत, सबै श्रुतबोध अभ्यास करत. ४ वसै यखराज लियां निज साज, खरो अरिखंड तपागछराज, जिहां गणधीस तपें गछईस, विराजत भांनुं समो निसदीस. ५
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उभे कर जोड करत आवाज, अहो! गछराज सुणो माहाराज, रहे सब साह सदा कर जोड, वर्दै कवतेह तणा जस कोड. ६ ॥ अथ गुरुवर्णनम् ॥ दूहा : तिण थानिक सोहत सिरें, सुधर्म जंबु गणधार,
पट्टपरंपर अनुक्रमें, रत्नाकर गुणधार. १ देव प्रभु रयणायरु, खिमा-दयाभंडार, धर्ममूत्ति धरणीतले, धर्मसूरि गणधार. २ तास पट्ट पूर्वाचलें, उदयो जेम दिणेंद, अधिक तेज वचने सरस, सोहै विजयजिनेंद्र. ३ पुण्यप्रतापी प्रबल छ, जस गुण अधिक विलास, पट्टण सेंहरे सोहता, वांणी अधिक रसाल. ४ तेह तणा गुण वर्णवू, मुझ मतिने अणुसार, जीव अधिक जो वर्णवई, तो ही न पावै पार. ५ अष्टोत्तर गुण वर्णवू, संख्या कहुं सुणाय,
श्रोताजन सवि सांभलो, दिन दिन दोलति थाय. ६ ॥ अथ गच्छाधिराजवर्णनम् ॥
॥ उंबरीयोनें गाजै हो भटियांणी रांणी वड चूवै - ए देशी ॥ सकल सूरीश्वरराया हो, मन भाया साहिब माहरां, प्रणम्यां पातिक जाय, देख्यां दरसण निजरें हो, पामें परमाणंद ज्युं, दिन दिन अति सुख थाय. १
सकल..... एकविध पुण्य प्रभावें हो, दुविध धर्म भाखै सदा, तीन गुप्तना जांण, च्यार कषायना जीपक हो, तिम पंच सुमतिधारी सदा, षट भाषा सवि जाण. २ नय सातेना चाही हो, मदचूरक अष्ट महीधरा, नवतत्त्वभाषक सरि, दसविधि धर्म प्रकासक हो, अंग इग्यार भाखो मुदा, बार उपांग भरपूरि. ३ काठीया तेरना जीपक हो, चउद विद्याना सायरु, पनरे करमादान, तेह तणा उपदेसी हो, सोल कला तिम चंद ज्यु, ओपो अधिका रांण. ४
सतरे भेदे संजम हो, पालक अतिहें प्रेमसं. सील सहस्स अष्टांदस जांण. उगुणीसें अध्ययने हो, ज्ञातासूत्र वखांणता, वीस समाधिना ठाण. ५ एकवीस भेदें सबले हो, साधु तणा भाख्या जिके, तेह तणो उपदेस, परिसह बावीस जीपक हो, चित चो(त्रे)वीससुगडांगना, अज्झयणा कहो ईस. ६ चौवीसी नित वंदो हो, भावो पचवीस भावना, छव्वीस दसाकप्प जांण, गुण सत्तावीस भाख्या हो, साधु तणा कह्या जिनजी, तेहना तुमे छो जांण. ७ प्रभु तुम ही ए जाणो हो, अठवीस आचार कल्पना, उगुणतीस पापश्रुत ईस, तीसें भेदें मोहनी हो, चोथो अंग कही खरी, भाषक हो जगदीस. ८ सिद्ध तणा इकतीस हो, गुण भाख्या छै आगमै, भाषक हो मुनिराज, बत्तीस जोगसंग्रह हो, धारक छो प्रभुजी तुमे, पालक छो गुरुराज. ९ गुरुनी साखै भाखी हो, तेत्रीसें आसातना, तेहना प्ररूपक ईस, अतिसय छै श्रीजिनना हो, चोत्रीसै करी सोहता, वाणी गण पैत्रीस. १० छत्रीस अध्ययनना हो, उत्तराध्ययने भाखीया, तेह तणा तुमें जांण, गणधर सेंत्रीस भाख्या हो, कुंथुनाथ जिन तणा, भाख्यो श्रीजिनभाण. ११ पार्श्वनाथजी जांणो हो, सहस अडत्रीसे आर्यका, उत्कृष्टी गुणखांण, एहवा श्रीनेमिनाथें हो, ओहीनांण प्ररूपीया, उगुणचालीससें मुनि जांण. १२ बावीसमा श्रीजिननी हो, सहस चालीसे साधवी, तेहना जांण छो देव, इकवीसमा नमि जिननी हो, इकतालीस सहसें साधवी, भाखी छै जिनदेव. १३ वीर जिणेसर पाली हो, दीक्षा लोचनयुग(४२) सही, वर्ष मास षट जांण, तेहना तुमे उपदेसी हो, वली पुण्य-पापविपाकना, अध्ययन त्रयालीस जाण. १४ जिनराज तणा गुण गाता हो, सुख-साता सेवकनें सदा, पहली ढाल रसाल, पंडित विनयनें सीसै हो, कवरै पभणी मुदा, नित नित मंगलमाल, १५ दूहा : दक्षिणदिसि धरणेंद्रना, लाख चम्मालीस धाम,
तेहना थे सुविशेषथी, भाषक जगगुरु स्वामि. १ लाख जोयण पैताल छै, च्यार भेदना जांण, सुर नर तिरय निर्वाणना, तेहना प्रभु छो जांण. २ ब्राह्मी लिपी मांहै कह्या, छयालीस अक्षर संख, ऋ ऋ ल ल ए ऐ. षट अक्षर नही संख. ३
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आसाढी पूनिम दिने, कर्क संक्रांतनें मांण, सैतालीस लक्ष योजन अधिका, रविगत सर ते जाण. ४ धर्मनाथ अरिहंतना, गणधर अडतालीस, तेह तणा उपदेसीया, गछधुरंधर ईस. ५ तेरेंद्रीनो आऊखो, अहोरति गुणपंचास, तेह तणा जांणक प्रभु, सुणवा गुरुमुख आस. ६ मुनिसुव्रतस्वामी तणी, साध्वी संख्या जांण, सहस पंचास जगगुरु कहै, समुवयांग प्रमाण. ७
॥ ढाल - दूजी ॥ देव तणी ऋद्धि भोगवी - ए देशी ॥ चमर असुरनी सुहम सभाना, एकावन सत थंभा, तिम वली बलिंदनी, एकावन सय थंभा रे. १
सूरिपति भाखै गुरुउपदेस, सुर नर असुर विद्याधर सुरपति, वांछै वांणी सुविसेश रे [ए आंकणी] मोहनी कर्मना नाम कह्या छै, बावन्न संख्या जांण, तेह तणा उपदेसी छो प्रभु, कुमति मिटावण भांण रे. २ सूरिपति..... वेपन्न ऋषि श्रीवीरना, पोहता अनुत्तरविमाने, संवर परिया महा तपस्वी, तेहना छो अनुमान रे. ३ सूरिपति..... अवसर्पिणी उत्सर्पिणी कालें, चउपन्न पुरुषरतन्न, तेहो तणी उत्पत्ति थाई, जांणक छो सुविदिन्न रे. ४ सूरिपति..... मल्लिनाथ अरिहंतनो आयु, सहस पंचावन वरस, पूरण भोगवी सिवपद पोहता, जाणक छो गुरु सरस रे. ५ सूरिपति..... जंबूद्वीपमाहै शशि दोय परिकर, उडगन छप्पन जांण, जंबुद्वीपपन्नत्तीमांहै, तेह तणो परिमाण रे. ६ सूरिपति..... मल्लिनाथना मनपजवनांणी, सत्तावन सय मांन, तेह तणा उपदेसी साहिब, परम-गुणागर जांण रे. ७ सूरिपति..... पढम दोय तिसु पंचम पुढवी, मिलीया निरयावासा, लाख अठावन सगला मिलीया, जांणक छो गुरु भासा रे. ८ सूरिपति.....
मल्लिनाथना ओहीनांणी, गुणसठिसयनो मांन, विविध प्रकारें तेह प्ररूपक, अधिक दीप गुरुग्यांन रे. ९ सूरिपति..... विमलनाथनो देहप्रमाण, साठ धनुष उंच जांण, तेह तणा आराधक स्वामी, निरुपम निरमल नांण रे. १० सूरिपति..... कनकाचलनुं पेंहले कांडै, जोयण सहस इगसठि, उंच पणे ते अधिको जांणो, भाषक श्रीगुरू इठ रे. ११ सूरिपति..... बासठि विमान पहिले प्रतरें, संख्यानो परिमाण, तेह तणा जांणक छो गुरुजी, दिन दिन थाओ कल्याण रे. १२ सूरिपति.... ऋषभनाथनें त्रेसठ पूर्व लक्षौ, माहाराज्य पदनी पांमी, कुमरपणुं पिण सहित ए जाणो, भाषक गुरू सिर नामी रे. १३ सूरिपति.... चमरेंद्रने सामानिक देवता, चउसठिसहस सूरा, तेह तणा भिन्न भेद वखांणो, गिरा-गुणें करी पूरा रे. १४ सूरिपति..... जंबूद्वीपमाहे अधिका सोहै, रविमंडण पैसठि, जांणक छो तुमे गुरुराया, पभणे विनय बोल उत्कृष्टो (उक्किट्टि रे. १५ सूरिपति..... दूहा : मनुष्यक्षेत्र मांहि अधिका, चंद सूर भासंत,
छासठि संख्याई सहित, भाषक श्रीगुरु संत. १ शुद्ध समकित जे हुवै, सतसठि गुण करी पूर, देव चलायो नवि चले, उपदेसी भरपूर. २ पछिम पूरब धातकी, अडसठि विजय वखांण, उत्कृष्टा जिनवर तिहां, अडसठि संख्या जाण. ३ मोहनी कर्म वर्जी करी, कर्म प्रकृति नित सात, उगणोत्तरि संख्यया कही, भववारक गुरु त्रात. ४ कर्म मोहनी अधिकतर, सीत्तर कोडाकोडि, सागर संख्या जांणीयै, न करें एहनी होडि. ५ अजितनाथ अरिहंतनी, एकोत्तरि पूर्व लाख, गृहस्थवास वसी करी, समवायांगे साख. ६ कला बहोत्तरि पुरुषनी, तास तणा भंडार, भाखो छो भविजन भणी, सास्त्र तणे अणुसार. ७
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॥ ढाल - तीजी ॥ सहेली हे आंबो मोरीयो - ए देशी ॥ बीजु बलदेव विजय ते, पाली आयु हो तिहोत्तरि लख वर्ष कै, सिद्ध थया सिवपद लही, वली आवस्ये के हो मतिभेद छै वर्ष कै. १ सूरीश्वर इम ते उपदिसै, भविजननें हो भाखै छै भेद कै, श्रोता श्रवण देई सुणे, सुणवानी हो मनमांहि उमेद कै.२ सूरीश्वर..... वीरना बीजा गणधरु, अग्निभूति हो चोहोत्तरि वास के, आयु पालीने सिद्ध थया, इम जंपै हो गुरु वाणी उल्लास कै. ३ सूरीश्वर..... नवमा सुविधि जिणेसरु, केवलि तेहना हो सय पंच्यत्तरि जांण के, मुगतमहिलमै जइ वस्या, प्रभु पाखै हो भवियणनें वांण कै. ४ सूरीश्वर...... भवनपति विद्युत तणा, दक्षिण उत्तर हो मिलिनै थया धाम के, लाख छहोत्तरि सवि कह्या, गुरु भाखै हो निश्चयथी नाम कै.५ सूरीश्वर..... गद्दतोय तुसिया देवता, परिवारै हो तेहनो छै अतीव कै, वरस सतोत्तरि आऊखो, सिवरमणी उल्लास कै. ६ सूरीश्वर...... वीरनो आठमो गणधरु, अकंपित हो अभिधांन , जास के, अठोत्तर वरसनो आऊखो, सिवरमणी हो पोहता छै वास कै. ७ सूरीश्वर...... रयणप्रभा पुढवी तणो, धोचर मांह(?) हो उगुण्यासी जेह कै, जोयण सहस मिल्यां वली, अबाधा हो विच अंतरु एह कै. ८ सूरीश्वर...... तीर्थकर इग्यारमो, असी धनुषनो हो उंचो देहमान के, पहिलो तृपृष्ट वासुदेवनो, देहमान हो इक्यासीनो मांन कै. ९ सूरीश्वर...... मनपज्जवनांणी तेतला, गुरु जंपै हो भवियणनें विलास कै, श्रीगुरुना चरण ग्रहया थकां, सुभ गतिमा हो मंकै भवि तास कै. १० सूरीश्वर....... देवानंदानी कूखमै, रह्या वीरजी हो संख्या ब्यांसी जांण के, अहोरत्तो तिहां अतिक्रमी, कूखै पोहता हो त्रिसलाने ठाण कै. ११ सूरीश्वर...... त्र्यासी दिवसें जइ वस्या, सिद्धारथ हो घरणीनें उल्लास के, गर्भसंहार समें भयो, भविजननें हो गुरु भेदप्रकास कै. १२ सूरीश्वर...... लख चौरासी जिन कही, जीवायोनी हो पुढवी आदि जांण के, मनुष्य पर्यंते सवि मिली, गुरु जांण के हो संख्याना प्रमाण कै. १३ सूरीश्वर......
आचारांगसूत्र चूलिका, तिण सहित हो उद्देसणकाल के, पच्यासी उदेसा भाखीया, श्रीप्रभुजी हो भवि जननें विलास कै. १४ सूरीश्वर...... सुविधिनाथ अरिहंतनें, गणधरनो हो छ्यासीय मान के, गुणविचार कह्या सही, विनयविजयनें हो नित प्रत सुख जांण कै. १५ दूहा : ज्ञानावरण अंतरायनी, दुविधि कर्म में टाल,
षट कर्म उत्तर कही, सत्त्यासी संभाल. १ चंद्रतणा परिवारमें, अठ्यासी ग्रह जांण, नांम कह्या सिद्धांतमें, प्रभु ते अधिक वखांण. २ शांतिनाथ श्रीजिनतणी, सहस नव्यासी जांण, एकउंणी नवसै अधिक, प्रभु जांणे परिमाण. ३ देहमान शीतल तणो, नेऊ धनुष सविसेष, अजितनाथ अरिहंतना, गणधर नेउ असेष. ४ कुंथुनाथ भगवंतनें, ओहीनांणी परमाण, एकाj सय मुनिवरा, नीतिखेवना जांण. ५ गणधर गोतम अधिकतर, लब्धि तणो भंडार, बाणु वर्ष आयु भोगवी, पोहता मोक्ष-दुवार, ६ शांतिनाथ अरिहंतना, त्र्याj सय मुनिराय,
चउद पूर्वधारी थया, भाखै गुरु गुणराय. ७ ढाल - चउथी । नदीय जमुनांकै तीर, उडै दोय पंखीया - ए देशी ॥
अजितनाथ अरिहंतने, ओहीनांणी संपदा, चोराणुं सय मुनिराज स्तव्या सुख संपदा; वीर जिणंदना सीस ते मोर्यपुत्र जाणीयइ, वर्ष पंचाणु आयु भाख्यो सूत्र आंणीइ. १ वाउकुमारना लाख छिन्नु घर सवि कहया, दक्षिण-उत्तर श्रेणि-भवन सास्वत रह्या; तेह तणा उपदेशकै दाता श्रीगुरु, श्रीजिनेंद्रजी गुरुरायनें नमस्कृत्य हुं करूं. २
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इकवीसमा नमिनाथनें वारें दसमो थयो, हरिषेण चक्रवर्ति सत्ताणुं सय पद जयो, रेवती नक्षत्र आदि येष्टा ते तिम गुणी, तारा संख्या जाण अठाणुं इम भणी. ३ मेरु पर्वत भूम जोयण निनाणुं अछ, ऊंचो अधिको सहस संख्या सास्त्रमै अछ, तारा संख्या एम नक्षत्रे सतभिखा, तेह तणो परिमाण भाखै गुरु जिन सारिखा. ४ बीजे देवलोकै भूमि ए अधिकी दोय सै, तेह तणो परिमाण भाखें गुरुजी तिसै, जंबूद्वीप दोय अधिक दोयसै सही, तीर्थ तणो परिमाण कहयो क्षेत्रथी लही. ५ प्रकृत कही अभिधांननी अधिक तीन इकसते, कर्मग्रंथमें एह संख्या छै सही मतें, च्यारे दिसिना च्यार विमान अनुत्तरें, भाखै छै गुरु भेद सिद्धांतने अनुसरें. ६ सहस्रारे सुरलोकनी संख्या सहि मनै, पंच अधिकने एकसो सास्त्रमैं सुभमतै, बोलै गुरु मुखबोल भविक श्रुत सांभलें, भिन्न भिन्न करि भेद कहै ज्युं आपलै. ७ छठो सत्यप्रवाद नांमै पूरव कयो, तेह तणो परिमाण एककोडि रस(६)पद लयो, मज्झम ग्रैवेक चैत्य संख्या किण पर कही, अधिक सप्तने एकसो साखथी लही. ८ सूरीश्वर जैनेंद्र सदा अहिनिसि जपै, सूरिमंत माहामंत्र जप्या सवि कारम खपै], अष्टोत्तर जपमालकै मणीय सिद्ध करी, पामै ते गुरुराज अष्ट सिद्धनें इम वरी. ९
सोहम-जंबू-पाट परम-दीपावता, सुजस तणा गुणखांण अधिक मन भावता, पूरव पुण्य प्रमाण पायो छै पटकरु, श्रीतपगछनो सिररूपकै मानुं रति समवरु. १० अष्टोत्तर गुण एम के गुरुना में कह्या, स्तवता मंगलमाल सदा मन गहगह्या, गुणरत्नाकर माल विनयविजय कही,
चोथी ढाल रसाल के नवें निधि सुख लही. ११ श्लोक : असिति(त)गिरिसम(म) स्यात्०॥ १
अवर तिण देसै पुर घणां, पिण सहु जग-प्रसिद्ध, पाटण सैहर दीप सदा, इंद्रपुरी सम रिद्ध. १ पवित्रकरण पंचम अरै, जंगम सुगुरु-जिहांज,
श्रीविजयजिनेंद्रसूरीश्वर, जिहां विचरें मुनिराज, २ ॥ अथ ढाल ॥ चंद कहै राणी सुणो है कै साजन, टिण रित मेहकै...
वली चंदनी हे - ए देशी ॥ संदर मरति सोहती रे साजन, दीठां आवै दाय के तन मन रंगस्यु ए, वंदो श्रीविजयजिनेंद्रसूरिंद कै, तन-मन रंगस्युं ए [ए आंकणी] १ चतुर नमो गुरुचंद्रमा ए साजन, नित नित चढतें नूर [कै] तन-मन रंगस्यु ए छ दस कलाए सोहतो ए साजन, चढ्यो पुण्यअंकूर कै तन-मन रंगस्युं ए.२ कुमतितिमिर दूरै करै ए साजन, पूरै समीहित आस कै तन-मन रंगस्युं ए, तारा जिम अन्य तीरथी ए साजन, अधिक न तास उजास कै तन. ३ जिनशासनसमुद्र उल्लसै ए साजन, सुमतिरयणी सुखकार कै तन-मन रंगस्युं ए, हरखित श्रावक श्राविका ए साजन, कुमुद अनें कासार कै तन-मन रंगस्युं ए. ४ अमृतपूरै झरै देसना ए साजन, संयमओषधि सुख एह कै तन-मन रंगस्युं ए, आनंदित दिस दिस थइ ए साजन, कुमतिवियोगणीदुख कै तन-मन रंगस्युं ए.५ नित्य उदय जाणीयै ए साजन, राहु तणै वसि नांहि कै तन-मन रंगस्युं ए, जलधर पिण नही ओलवै ए साजन, कलंक नही इण मांहि कै तन-मन रंगस्युं ए.६
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शीतल मनशाताकलं ए साजन, उज्वल विमल अभंग कै तन-मन रंगस्युं ए, गुरुमुख ससिहर ओपमा ए साजन, राजै अविहड रंग कै तन-मन रंगस्युं ए.७ चंदवदन गुरुजी तणो ए साजन, दीठो अति सुखकार कै तन-मन रंगस्युं ए, वंछितपूरण जग जयो ए साजन, सुंदर अति श्रीकार कै तन-मन रंगस्युं ए.८ गछनायक गुरु गछपति ए साजन, गच्छाधिप गच्छेश के तन-मन रंगस्युं ए. गच्छदिवाकर गणधरु ए साजन, गणराजान गणेश कै तन-मन रंगस्युं ए. ९ गुण अनंत गुरुजी तणा ए साजन, मुख कहि न सकै कोइ कै तन-मन रंगस्युं ए, आप मुखें जो भारती साजन, जो कहै तो धन होइ कै तन-मन रंगस्युं ए. १० श्रीविजयधर्मसूरीदनो ए साजन, पटधारी सुप्रसिद्ध के तन-मन रंगस्युं ए, श्रीविजयजिनेंद्रसूरीश्वरू ए साजन, नमतां हुवै नव निधि कै तन-मन रंगस्युं ए. ११
तपगछमां मेढी समो, गच्छदीपावणहार, श्रीविजैजिनेंद्रसूरीसरु, सुविहितमुनीशृंगार. १ भाग्यवंत महिमानिलो, सोभागी सिरदार, परउपगारी परगडो, महिमामेरु अपार, २ श्रीश्रीश्रीश्री अति घणी, एकसो आठ धरान्,
श्रीविजयजिनेंद्रसूरीसरु, सपरिवारचरणान्. ३ श्रीश्रीश्री १०८ श्रीश्रीविजयजिनेंद्रसूरीश्वरजी चरणान् चरणकमलान् । ॥ अथ मरुधरवर्णनम् ॥
सारद पाय प्रणमी करी, गणपति लागुं पाय, सहर मेडतो सोहतो, देख्यां आवै दाय. १ ईति भीति लाभै नही, न पडै दुरित दुकाल, सुखीया लोक वसै घणा, तिहां नही कोइ जंजाल. २ सकल देसदेसां सिरै, मरुधरमंडल सार, तेहमां नगर विराजतो, अलकापुरी अवतार. ३ धर चंगी चिह दिसि हरी, शीतल नीरप्रवाह, दिसि च्यारुं ही देखतां, नयर मेडतो वाह. ४ रवि शशि किरण जिहां धरै, आवै देवविमान, घडी यक वासो ते करै, देखी एहवो सुन, ५
नगर तिहां देसै घणा, एक एकथी सार, सरव नगर सिरसेहरो, मेदनीपुर श्रीकार. ६ मारिवाड देसां सिरै, सहु देसां सिरमोड, छावा नर तिहां नीपजै, अमली मांण अरोड. ७ तिण देसै देसाधिपति, मानसिंह नरपाल, वैरी जन *पाधर कीया, ले करमें करवाल. ८ सूरवीर खत्री सिरें, ख्याग त्याग नीकलंक, सुप्रताप मोजा-समुद्र, न्यायवंत निस्संक, ९ राज करै तिहां राजवी, मानसिंह महाराज, तेहना तेजबले करी, शत्रू गया सहु भाज, १० राठोडां सिरसेहरो, रतिपति करें रूप, षट दरसण पालै खरो, भला नमाड्या भूप, ११ तिण राजा रा नामथी, भागै अरी असेष, जंग न जोडै ५ सामुहो, नयणां निरख विसेष. १२ नरपति चाहो चिहुं युगै, धरम नीत नरपाल, सीम समंदा लग करी, अरिभंजण मछराल. १३ वरण वेश इण देसनो, सुणियै श्रीगुरुराय, तीन पहोर नृप माननी, तरुण सीम संधाय. १४ चांपा कुंपा मेडत्या, जोधा उदा जांण, चांदा भोम ५ घरासिया, थंभइ ताय वखांण, १५
॥ अथ मत्सुद्दीवर्णनम् ॥ सांम काम सिंघवी सझै, सरस भंडारी सोध, ५५मोडखांप मुहणोत है, जुध सम मुंहता जोध. १६ खांप च्यारु बुधवांन ए, सभा मांन सिणगार, उलटै दगल अरियां तणा, सो लेवै तुरत उतार. १७
॥ अथ राजवर्णनम् ॥
त्रोटक छन्द प्रथवीयपती तप-तेज तपै, अरीयां असीधारसु होत “दफै, विजमाल तखत्तसु ओप दियां, गुमांन तणो सुत फोज लीयां. १
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पत्रपमांन महां तव वंदनकुं, मन उज्जल पाप निकंदनकुं, गडधौम नगारन धुंस दीयै, घनराज तणी पर ओप लिय. २ गजराजघटा वण "घन्न तणी, तडदाह भलक्कत सेल २ अणी, गगडधौं निसाण सुघोष वजै, गडडाट पयोधर नाण गजें. ३ "बुगपंत सुसेत पताक वह, मिल दंपति चात्रक चित्त चहै, . सुरणाइ वगै सुर कोकिल है, असवार समीर अनोपम है. ४ नर मोर झिंगोर वदै मुखतै, प्रतपो घननाथ सदा सुखतै, इण भांत अनोपम क्रांत लियां, वरपै करदांन आवाज किया. ५
॥ अथ सेहरवर्णनमाह ।। सारदमाता समर हुं, गुरके लागु पाय, मेदनीपुरकं वरणवू, दीजै उक्त वताय. १ जिनवरवाणी सोहती, दया-जीव बहुजांन, दांन सील तप भावना, एते धर्म प्रमाण. २ मारवाड सुखधाम है, सिरै विचालैं सेहर, बहु मिंदर रचना बहु, रहत जैन की मेहर. ३ मेहर करी सब जीवपै, जैन धर्म प्रगटाय, जिनवर चोवीसुं सबै, वसै सेहरकै माहि. ४ कविजनसुं कर जोडकै, यथाबुद्धि अनुसार, गजल मेडता सैहरकी, सुणो सकल नर नारि. ५
॥ गजल चाल ॥ मेडता सहर है अभिरांम, रसना वरणवै जस धांम, नगरी लंकथी छिव जोर, जैसा सहर नवि कोइ ओर. १ पहिला वरनवू बाजार, सगला सेठ साहुकार, हद्दोहद्द है हटश्रेण, ऊभे लोक सोदा लेण. २ मुलमुल सावटु मलतांन, सोदा ग्रहै तानोतांन. मुखमल देख मैमूदीक्, नैणां होत चकचूंदीक. ३ वरनुं नगीनाकी नोख", सुनतां होत है मन जोख, रेजावासता जरतास, सेला डोरिया फिर खास. ४
जिनवर देहरो फिर जांन, 'कटलो नाम ही वाखांन, होवै पंच" एको ठांम, सारै सब] कोईको काम. ५ सोनी घडै चांदी हेम, मांहै खोट घालण नेम, सुनवर जालियां अरु गोख, चोहटै वीच सुंदर चोक, ६ कपडो विकत है भारीक, चाहो चीज लो सारीक, सखरा सोहते सराफ, दमडा परखते दिल स्याफ. ७ आना आठसोकै लार, एतो व्याजको विस्तार, करडा कंदोयाका काम, सो तो करै "दूणे दांम. ८ घेवर लाडवाके ढेर, वरणुं पंच वरणा "फेर, मालण साग ही देवेंक, दमडा तुरत ही लेवेंक. ९ छाबां फूलमाला हाथ, भमटा लूंब ते तिण साथ, मंडी मांहै आवैऽनाज, जावै स[ब]को लेवण काज. १० गहुँ बाजरीय..... र, मुंग अरु मोठका अणपार, गाडा ऊंट भर भर आंण, वेच्यां भरै “हासलडाण. ११ मणिहारा बैसते पाक, डबी कंठीयां राखैक, आणू पसार्याकी हाट, जिनकै औषध्यांका थाट. १२ मिंदर बालजीको जांन, दरसन करत सकल जिहांन, मिंदर "माजनी अनूप, निरखे चतुरभुज ब्रजभूप. १३ कहियै "चांतरो धर नेह, तस्कर कब[ज] करते तेह, ऊंची बोत है मैजीद, करती गगन सैहती जीत. १४ नीचै नको कोठार, चऊदिसि हाटका विस्तार, तिनके निकट सायरडांण, हासल भरत है बहुमान. १५ आणू नाथका है थान, ताकुं नमत नरवर आंन, बैठे पान तंबोरीक्, भरीयां खूब चंगेरीक्. १६ तिनके पास अति सोहैक, देहरा आदका मोहैक, ऊंचो देहरो असमान, पव्वे हेम-मेरु जांन. १७ सुंदर कलस धजादंड, एहवी छिब नहीं ब्रहमंड, चातुर लोक है अति चूंप, करते आरती अनूप. १८
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कुमती छोडकै निज मत्त, करते दरस होते रत्त, मिथ्यामतके है जान्, तिनकुं करत है हेरान्. १९ भेट्यां टलत है विखवाद, वाजै संख घंटानाद, जीझा झालरां झणकार, धप-मप मादला धुंकार. २० दस एक जैनके प्रासाद, करते गगन सेती वाद, गनपत सोहते है ठोर, साहमी राजकी है पोर. २१ मांहै गोख जाली महल, तामै सुभट करते सहेल, अंबा नागणेचा थांन, ताको भूप राखै मान. २२ बैठे सकल ओदादार, झूठै साच काढे तार, हाकम हुकम है सिरजोर, ताको परगनांमै तोर. २३ आगै देहरो जस धांम, मुरधर कोट नवमें नाम, माहै च्यार भुजवारैक्, सो तो प्रांनको प्यारैक्. २४ ताकै द्वारपै घडियाल, नोबत बजत है चोसाल, वरण आठ दस आवैक्, पूजा भक्तसु भावैक्. २५ चुतरभुज सँरकै रिछपाल, मेटै भ्रम मायाजाल, सेवग ध्यावते धर चूंप, करते आरती अनूंप. २६ झणणण झालरं झणकार, टणणण टोकरी टणटंकार, मंडप सभा मन भावेक्, गुन ज्या हरीके गावेक्. २७ आणू मोचीयांको वास, दरगा पीरकी है खास, पटवा तणी हाटां जोर, तिनकै जोर न आवै ओर. २८ रेसम किरमचीका ढेर, वरणे पंच वरणा फेर, पटवा पोवता है पाट, ज्यां आभूषणा है थाट, २९ "दांती "कंसऱ्या आगैक्, दिसावरपीठ १ अत लागैक, वाकै पास है रंगरेज, रंगत खूब ल्यावै तेज, ३० आगू लखारा भारीक, मूंठ्या पैरती नारीक्, आगै ठंठाराकी हाट, कांसी वासणाका थाट. ३१ सिवको देहरो भारीक, सेवे सहु नर-नारीक्, सागरदेव भरीयो नीर, मिंदर दोय उनकी तीर. ३२
आगै दूधसागर डोल, ताके पास है दोय पोल, मैजत् पीरकी छाजेक्, आगै रगतमल गाजैक्. ३३ आगू बेठवाको बाग, तिणमै रूख बहोतसे साग, माहै राजका है मैल, तिणकुं देखणीकी सैल. ३४ पास हीरका पगल्याक्, अकबरसाह प्रतबोध्याक्, पूजा भक्तसूं भावैक, सहु नर-नारीयां आवैक्. ३५ मेलो मंडत है भारीक्, दसमी पोस दिन सारीक्, सागरडां गोलाइ जान, लक्ष्मी मात को तीहां थान. ३६ करते पूज सकलंउमेर, चढते फूल चंदन नीर, आगू नवसर भारीक्, सोभा करत नर नारीक्. ३७ साची वरवासणकी राय, तिनके सकल नमते पाय, कुंडल जबर हे दरियाव, तिनकुं देखणैको चाव. ३८ तामें जुगत है सारीक्, निपजें जरायत भारीक्, मालकोट है अनुसार, चहुं दिस भुरजको विसतार. ३९ माहै पीरको मकान, तिनकी करै जारत आंन, ज्यां है रूंखकी झंगीक ", पंखी रैत है संगीक". ४० तिनके वीच वाडी पास, सब जन आवते उल्लास, भावै भावना भारीक्, पूजा करत नर नारीक्. ४१ तपगछगछपती सोहेक्, धरमसूर इ[म] मन मोहैक, तिणकै छित्तरीकै पास, पगल्या आदका है आस. ४२ मांहै वीरको है थान, चढते फूल पाती पान, परचा पूरहै ततकाल, मेटै भ्रम मायाजाल. ४३ असो वीर साचो जोर, तपगछमांय उनको तोर, सांमी सिरै सोझत पोल, उंची १० सुगटी है डोल०१. ४४ भैरव सैरडीयो भयभंग, चडते तेल-पना०२ अंग, छतरीमांय छाजै छेल, करै बाग वाड्या सैल. ४५ लोडोपासरो आगैक्, मांहै वंदन श्रीराजैक, सामो देहरो छानैक्, तिनमै आदि जिन छाजैक्. ४६
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तपगछतेज-प्रबल प्रताप, पोषदसाल दी थाप, वडोपासरो भारीक, उनकी छिब है न्यारीक्. ४७ जाली गोख सुंदर चोक, बैठे करै साधू जोख, साचो माणभद्रवीर, भेट्यां जायै दुख सहु पीर. ४८ साहू रहत बारै मास, साझै जोग तप उपवास, सास्त्र सिद्धांतको अभ्यास, करते जोग केरो न्यास. ४९ वचते सूत्र सार्थ सिद्धांत, श्रवण्यां मिटै मनकी भ्रांत,
श्रावक श्राविका भाविक्, गुन गुरुदेवके गावैक्. ५० ॥ इति श्रीमेडतारी गजल श्रेयां भवतु ॥ अथ भास लिख्यते ॥ ॥ झिरमिर वरसें मेह हो लाला, परसालै पाणी पडें म्हारा लाल - ए देशी ॥ श्रीश्रीजी पासै छ तेह हो लाला, गीतारथगण गुण बहु म्हारा लाल, नाम प्रणामें(माणे) जेह हो लाला, विवरीने हवे ते कहु म्हारा लाल, १ माणिक्यविजय मांणिक हो लाला, फतैविजय मनोहरु म्हारां लाल, दोलतविजय दीपता हो लाला, जीतविजय सुहंकरु म्हारी लाल. २ खिमाविजय खिमावंत हो लाला, हीरविजय हीरो भलो म्हारी लाल, प्रेमविजय गुणगेह हो लाला, लक्ष्मीविजय लक्ष्मीनीलो म्हारां लाल. ३ साधु गुणना गेह हो लाला, इत्यादि मुनि मै कह्या म्हारां लाल, अवर हुवै मुनि जेह हो लाला, साहिबा पासै जे रह्या म्हारां लाल. ४ वंदना संघ तणीह हो लाला, त्रिविध त्रिविध करी वीनवू म्हारा लाल, हिव सहु सुणो अत्र महंत हो लाला, नाम लिखें हुवै जेहवू म्हारा लाल. ५ हेमविजय गुणगेह हो लाला, केसरविजय कलानिलो म्हारा लाल, कसतुरविजय उछरंग हो लाला, माणिक्यविजय महिमानिलो म्हारा लाल. ६ कवरविजय गुणधांम हो लाला, उदयविजय मनोहरु म्हारा लाल, जीनविजय गुणवंत हो लाला, सुरेंद्रविजय सोहंकरु म्हारा लाल. ७ कीरतविज कीर्तवंत हो लाला, चंदसरी ते वीनवै म्हारा लाल, वंदना करें नितमेव हो लाला, सर्व साधुनी मानवै म्हारा लाल. ८ साधु ने श्रीसिंघ हो लाला, वंदणा अमाहरी अवधारज्यो म्हारा लाल, इहांना सिंघ तणोह हो लाला, तिहांना सिंघनें जुहारज्यो म्हारा लाल. ९
जंगम थावर तीर्थ हो लाला, वंदणा होय हजार ज्यो म्हारा लाल, नाम लेई करो यात्र हो लाला, वलता पत्र दिरावज्यो म्हारा लाल. १० संवत अढार इक्यासि (१८८१) हो लाला, मीगसर सुदि सप्तमी वर म्हारा लाल, श्रीजी भणी लेख लिख्योह हो लाला, कस्तुरवीजै वीनती करै म्हारा लाल. ११ दूहा : त्रिविध त्रिविध करी वंदना, अवधारो गुणगेह,
कवरविजय कर जोड के, लिख्यो लेख धरि नेह. १ ॥ इति श्रीगुरु गच्छाधिराजस्वाध्यायः ॥ श्रेयो मंगलो भवतु ॥ श्रीः ॥ श्रीः ।। ॥ श्री परमेसरजी सत छै जी ॥
श्रीपाटणनगर सुभ सथाने सकल सुभ ओपमा लायक, अनेक ओपमा विराजमान, कलकालश्रीगौतमाअवतार, सरसुतीकंठआभरण.... पुज, सकलगछसीरोमणी, सकलभटारकपुरंद्र भटारकजी श्रीश्रीश्रीश्रीश्रीश्री १०९ श्रीश्रीविजैजिनंदसुरीसुरजी सप्रवारा व्रणांन" चणकवलाय श्रीमेडतानगरथी सदा सेवग, आग्याकारी, हुकमी, पाटभगत श्रीसींघ संमसत लीखावतु त्रीकाल वंदणा दीन प्रतै वार १०८ वार अवधारसीजी । अठारा समाचार श्रीपुजजी री क्रीपा करनै भला छै जी । श्रीपुजजीरा सदा सरवदा आरोग्य चाहीजैजी । श्रीपुजजी रै आहार पाणी गंगाजल आरोगणरा घणा जतन करावसीजी । जतन तो श्रीमाणभद्रजी करै छै पीण सेवगने ओ लीखणो चाहीजैजी । श्रीपुजजी मोटा छोजी, श्रीगणधरजी री गादी विराजीया छो सु श्रीपुजजी रा गुणनो पार नहीजी। मेडता रा सींघ उपरै सदा क्रीपा भाव राखै छै जीणसु वसेष रखावसीजी । संघ वीनती रो चीत्र लेख मेलीयो छे सु सभासुमधे वंचावसी नै क्रीपा करने सींघने वंदावसीजी। सीघने भेटण री घणी ज ऊतकंठा लाग रही है सु श्रीफलोधी पारसनाथजीरी जात्रा साटु पधारसीनै सींघनै पावन करावसीजी घणी अरज..... लखीजी । पटो मेलीयो सु सबा समुखे वेचायो छे तै पुजजी री आग्या अखंड पलै छै जी । मेडतै चोमासै श्रीजी री अग्यासु पुनास श्रीहेमवीजैजी, केसरवजैजी, कीसतुरवीजैजी, कवरवीजैजी रहा । सींघनै घणा रजाबंध राखीया छै नै श्रीपजुसणा परबनी वीगत पणे पुजा, प्रभावना, वखांण, पछकाण, पोसा, "पडकुणा तथा चेत्रपाल घणा आडंबरसु नीसरी छ। "छमछरी रा पारणा खीवसरा अमरचंद सीरीचंद ठोरमलरे घेरे सीरा "पुडी
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रो हुवो छ । श्रीसीघ रो "चांगो उदोत छै। पाटीपे वोखांन ऊतराधेनजी वचीजे छे ने ....... श्रीसंतनाथ चरित्र वचे छ । सैझाय श्रीगीनाताजी वचे छ । वखाणमें सेरो वगर", सेरोवका १९, गछी, परगछी आवै छे । सींघ रो अने श्रीजी रा उपासरा रो घणो १२ आछो गावे छे। श्रीआदेसरजी रा मींदर रो काम सरु छे ने ऊपासरा रो मरमत पीण हवे छे। मरमत घणी चोखी हई छै ने परे काम सरू छ। और सादवी रतनसरीरे ठीकाणे सादवी चंदसीरी रो पटे नाब घलाय देसी। श्रीजी स्हायबा रे पुरमे गीतारथ....... घणे मांन वंचावसीजी ।
और मेडते चोमासौ ईसाइ जोग्य देखो जीणांनै लखाव सीजी। खेत्र री मरजाद माफक रहै ने गछ रो अछो लगा छे जीणाने लेखावसीजी । श्रीदेवराज री ......... हुई जीण दीसा आयुखो वासखेपन्ही मंगायो छे जी.. घरै हाथ वात रही थी। अगलेवार आचार पं. पेमवीजैजी ......
............ समाचार लखा छे................. ते सारा समाचार प्रेम वीजेजी कहे सुजाणसीजी। ............ क्रीपा करने दीरावसीजी । १८८१ रा पोस वद २ वार बुध ।
? दत(स्त)क तें सीवचंद रा छे समतत सींघ री आग्यासु ।
श्रीपाटणनगर रा श्रीश्रींधने मैडता रा समसत सींघ री जुहार वचावसी घंणै घणे मांनसु । धन छै श्रीपाटण रो सींघ सु नीत ऊठ्ये श्रीजी रा चणारवींद भेटै छे में श्रीजीस्हायबा रा मुखारवींदरी अमृतवाणी सुणै छे तीने श्रीजी स्हायबा री सेवा भगत नीत साचवै छै तीउ धन छै।
॥ अथ गुरुभास लिख्यते ॥ अथ वीनतीकी स्वाध्याय लिख्यते ॥
॥ हमारे पगल्यां ने पायड ल्याज्यो हो रसीया मारु - ए देशी ॥ मेडतें नयर पधारो हो गछपति म्हारा, श्रीसींघ वीनती हो साहिब इम करें, जगगुरु श्रीजयकारी हो साहिब म्हारा, प्रबल प्रतापी हो साहिब सुख धरें. १ भालस्थल अति दीपें हो गछपति म्हारा, उज्वल पखमें हो चंद मनोहरु, आनन चंद सम दीपें हो साहिब म्हारा, आंखडी ओपें हो कमलदल सुखकरु. २ नासिका सूकचंचू राजे हो गछपति म्हारा, अधिक विराजे हो दंत मोती परे, अधर प्रवाली दीपें हो साहिब म्हारा, अतिही विराजै हो सोवनसी प्रभा. ३ श्रवण दोनुं अतिराज हो गछपति म्हारा, पोतनीसोला हो कंठ सोहामणो, रिदय नाभि सुभ अंगे हो साहिब म्हारा, पदपंकज हो अति रलीयांमणो. ४
जै जै लक्षण अंगे हो गछपति म्हारा, ते ते दीसें हो पुन्यप्रकृति तणा, पट्टप्रभाकर सोहै हो साहिब म्हारा, श्रीश्रीगुरुजी हो धर्मसूरिंदना. ५ चउमासो पउधारो हो गछपति म्हारा, मेडता नयरे हो गुरुजी कृपा करो, केणहीक समये हो साहिब म्हारा, हित करी चित धरो. ६ जन्मभूमिनो ए देस हो गछपति म्हारा, वाल्हो लागें हो सहूनें हितकरु, इण रीतें मन धारो हो साहिब म्हारा, महिर करीने हो साहिब दिल धरो. ७ तिहां गांम नगर पुर एहवा हो गछपति म्हारा, जिहां तो विचरे श्रीगुरु मलपता, अमने विसारी मुक्या हो साहिब म्हारा, गुज्जर देसे हो स्युं रह्या मोहता. ८ जिम चात्रक चित मेहा हो गछपति म्हारा, जिम वली मनसें हो राम सीता चहै, गज समरे जिव रेवा हो साहिब म्हारा, एहवा गुण तुमचा हो मुझ मनमै रहै. ९ श्रवण सुणी गुण ताहरा हो गछपति म्हारा, इम तुझ भेट्यां हो साहिब सुख घणो, तुमची मोटी वांणी हो साहिब म्हारा, भविजन सुणता हो नेह ज अति घणो. १० विनयविजयनो सीस एम हो गछपति म्हारा, वीनति मांनो हो
कस्तुर[विजय तणी, सिंघ समझे भाख्यो हो साहिब म्हारा, हित करी धरज्यो हो दिल मै अम्ह तणी. ११
॥ इति श्रीगुरुगुणवीनतीस्वाध्यायः समाप्तः ॥ श्रीः ॥
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(१७) मुंबई - विजयदेवेब्सरिजीने सुस्तथी संघनो पत्र
सौ प्रथम जिनेश्वरदेवनी स्तवना द्वारा अन्य पत्रोनी जेम अहीं पण मङ्गलाचरण करायु छ । संस्कृत-गुर्जर बन्ने भाषाना पद्योमां पांचे जिनेश्वरोनी तेमज माणिभद्रवीरनी स्तवना करी कविए सूरिजीना १०० गुणोनुं पद्यात्मक वर्णन प्रारम्भ्यु छ । पांच ढाळमां ते गुणवर्णना करी पछी मां सरस्वतीने वन्दना करवा पूर्वक कविए मुंमाइ (मुंबई) बंदरनी वर्णना आलेखी छे। नगरवर्णननी ढाळमां नोंधायेल ममाईमाताना मन्दिरनी, वालकेश्वरनी लक्ष्मीदेवीनी, तथा कोलाबानी नोंध विशेष उल्लेखनीय छ। 'सरसति.....' ए देशीमां श्रावक शेठ मोतीशा, शेठ बालाभाई, फुलचंदभाई के जेमनी विनन्तिथी सूरिजी मुंबइ पधार्या तेमनां सुकृतोनी आछी रेखा पत्रलेखमां कविए वर्णवी छ । मुंबइनां जिनालयोनी विगत नोंधी फरी सूरिगुणनुं वर्णन करता कविए १० रुचिओनं वर्णन त्यारपछीनी ढाळमां कयु छे । मुंबइथी सङ्घमां सूरिजीना पधार्याथी थयेली आराधनाओनी वातो दूहाबद्ध रजू करी पछीनी ढाळमां सूरिजीने सुरत पधारवानी विनति पूर्वक 'गझल'मां सुरत शहेरने कवि आलेखे छे । ऐतिहासिक कही शकाय तेवी राजा लबीष्टीत् (अंगरेज), कोटवाल आडेसरं (अरदेशर?), किल्लेदार भावसिंह, नवाब नश्रुदिन, नगरशेठ लक्ष्मीदास, हुंडीकार आतमराम(?) विगेरेनां नामोनी नोंधनी साथे साथे नगरलोकव्यवस्था, वाणिज्य, जिनालय, जैनेतर मन्दिरादि विगतोनी पण कृतिमां खास नोंध उमेराइ छ । अन्य पत्रोमां जोवा मळती सूरिगुणवर्णना जेवीज गुणवर्णना प्रस्तुत पत्रमा देखाय छ । पत्रमा शातिवार उल्लेखित करायेल श्रावकवर्गनी यादी आ पत्नी मुख्य विशेषता छ। पद्यपत्रान्ते चातुमासार्थे सुरतमां पधारेल पं. प्रेमविजयजीनी चातुर्मासिक आराधना अंगेनी विगतो लखी श्रीसङ्घ पूज्यश्रीने सुरत पधारवा विनन्ति करे छे । त्यार पछीनी भटीयाणी-देशीनां पद्योमां सूरिजीने सहवति मुनिवृन्दनी वन्दना जणावी कविए फरी सूरिगुण-स्तवना आलेखी गद्यात्मक रीते सहवति मुनिवृन्दनी वन्दना जणावी छ । सुरतनी तोले अन्य कोई शहेर न आवे ते बताडवा कविए करेलो मुंबइना त्रसजीवोना त्रासनो उल्लेख हास्य उपजावे तेवो छ । त्यारबाद
'वीरजीने वचने' ए देशीमां सुरतमां पधारतां थता तीर्थयात्राना लाभोनी साथे श्रीसङ्घनी दर्शनाभिलाषानुं वर्णन करी पद्यात्मक तेमज गद्यात्मक रीते कविए पूज्यश्रीनी निश्रामा रहेल मुनिवृन्दने वन्दना निवेदित करी छे. पत्रान्ते खामणा पूर्वक श्रीसङ्घना श्रावकोनी सहीथी पत्र पूर्ण थाय छे ।।
पत्ररचना कोणे करी छे? ते अंगे मूंझवण थाय तेवू छे. अडधा पत्र सुधी प्रेमविजयजी, कृतिने अन्ते नाम मळे छे. अडधा पत्रमा अमरविजय, कदाच एम बन्युं होय के अमरविजयजीए ज कृतिने अन्ते स्वनामनो उल्लेख न करतां वडीलना नामनो उल्लेख को होय । कृतिमां जोडणी यथावत् जाळवी छ ।
शब्दार्थ १. जितहति = जीतेला हाथी जेवू (?) २. झुज्य = युद्ध
१७. ठाएक = रहेली ३. वेता = जाणनार
१८. फतेमारी = एक जातर्नु नानुं वहाण ४. अंब = माता (?)
१९. रिकुं = रक्षक (?) ५. पट्ट = कहेनार
२०. सब्बाब = ? ६. भट्ठ = भ्रष्ट
२१. सल्लाक = शाळा ७. बूर्ज = किल्लानी उपरना भागे २२. लसतीक = व्याप्त
तोप मुकवा माटे करायेली जग्या २३. अडबे = आरबो ८. देपूर = देवपुरी?
२४. गुघर = धुंधरा ९. चीकूर = वाळ
२५. महेंरीया = स्त्रीओ १०. सारीमार = रमत (सोगठी वडे २६. गाज = मोटा अवाजे (?)
रमाती) (सारी-रमत) २७. निमजा = एक प्रकारनो मेवो ११. कहाक = केटलाक
२८. रेल = बहुलता (?) १२. मर्थत = वलोवq
२९. छब = छबी १३. रोक = रोकड द्रव्य
३०. अल्हाद = आह्लाद १४. नारुकारु = हलकी जातर्नु, ३१. अस्थल = अस्थिओने
वसवायानी १४ जात तेमां ९ नारु ३२. अत्थाग = घणा अने ५ कारु
३३. आवगुं = आगवं १५. वस्तिरण = विस्तीर्ण
३४. पईठ = पेठा १६. जनमार = जन्मारो
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परमात्माने नमः ॥
स्वस्ति श्रीस्वर्णवर्णः स्तुतिपथविषये प्रापितो लेखनाथैनीति लोकस्य कृत्वा सततहितकृते धर्ममाख्याय भव्यान् । वंशहूँ स्वस्य शाखाशतकपरिवृतं यो व्यधाद् विश्वपूज्यं, भूयाद् वो नाभिसूनुत्रिभुवनतिलकः स श्रिये पुण्यमूर्तिः ॥१॥ शान्तिविघ्नविदारणैकनिपुणः शान्ति सुरा(:) संश्रिता(:), कर्मो(मौ)घः खलु शान्तिना प्रतिहतोऽभीक्ष्णं नमः शान्तये । शान्तेयु(M)क्तिसुखं प्रवृत्तममलं शान्तेयंशो निश्चलं, शान्तौ ज्ञानमनन्तवस्तुविषयं शान्ते! क्रिया(न्) मङ्गलम् ॥२॥ सर्वज्ञं जितमन्मथं सुरवधूसंस्तूयमानं विभुं, स्फूर्जन्मोहगजेन्द्रसिंहमनघं गाम्भीर्यरत्नाकरम् । स्मेरास्यामनुरागिणीं नृपकनीं त्यक्त्वा व्रतं संश्रितं, श्रीनेमि यदुवंशमौक्तिकनिभं वन्दे दयामन्दिरम् ॥३॥ पीयूषसोदरवच(:)कृतभव्यमोदो, विश्वातिशायिमहिमा जगतामधीशः । गीर्वाणमौलिमणिरञ्जितपादचूलः, पार्श्वप्रभुर्जयति मङ्गलनामधेयः ॥४॥ देवेन्द्रा ऋषयो निजात्मशुचये हर्षोल्लसन्मानसा, विश्वाश्चर्यकरं चरित्रमसकृद् गायन्ति यस्य प्रभाः । कल्याणं वितरन् जनान् शिवपथे प्रस्थापयन्नादरात्, स श्रीवीरविभुर्जगत्त्रयपतिः सङ्घाय दत्ताच्छ्रियम् ॥५॥ विघ्नव्रातमहीध्रभेदनपविर्धर्माथिभूमिस्पृ.... [शां], जैनेन्द्रे वरशासने कू(कु)शलकृत्(द्) धर्मार्थिनां प्राणिनाम् । सर्वत्राऽस्खलितप्रभावविदिता गच्छे तपानामनि, नीयाच्छ्रीविजयान्] देवेन्द्रगणपान् श्रीमाणिभद्रः श्रियम् ॥६॥
सारद चरणकजे नमी, मांगुं वचनवीलास, अरु प्रणमुं निज गुरु तणे, हियडे धरी उल्लास. १
सर्बुजय गीरीसेहरो, आया ऋषभ जिणंद, पूर्व नवाणुं वारमे(ते), चित्त धरिय आणंद. २ प्रभपुरे सोहामणो, अचिरासुत मनोहार, जस नामे चित्त उल्लसे, शांति जिणंद जुहार. ३ उज्जंतसेले जयो, नेमि जिणंद दयाल, कम्मेंधणदावानले, तपें कियो पायाल. ४ प्रियंगुवरणे करी, सोभे जास शरीर, सो वामेय समरतां, सोसवे गुणतीर. ५ वीर धीर प्रभु सही, दांनधीर वली तेह, तपे धीर प्रभु तुं जयो, हु प्रणमु नीत तेह. ६ पांचे पदने चित्त धरी, गछपतीगुण कहुं सार,
मध्यद्वीप वीचरे मुदा, छत्रीस गुणभंडार. ७ ॥ अथ गच्छाधिराजाधिष्टायक माणिभद्रवीरस्तुति ॥ कवित्त : श्रीतपगछनायक सहाय, 'जितहति जसु बल गरजे,
सूर्य समोवड कांती, रिषिराजन दायक वर, जस धवल कीतिविस्तार, यक्ष माणिभद्र बल अधिक वर, वर्धित सुवास जस नामथी, रीझत निरुपम सहचरीय, यक्षराज तेजबल सूरिवर, श्रीदेवेंद्रसूरि जय वरिय. १
॥ इति श्रीमांणीभद्रकवितः ॥ सकल देसनगरसिरोमणि नगर, नर-समुद्र-वापी-कूप-तडागादि-वाडी-वणखंडआरामसुशोभिते, श्रीजिनप्रसादकलसध्वजामनोहर श्रेणिसुशोभिते, उपाश्रयसाधर्मिकजनसहितर्मिजनस्थानकनित्योत्सवसंयुते, न्यायप्रवीणनरपति, बिंदरउत्तम, श्रीपूज्यचरणन्यासरेणुपवित्रिते, श्रीमूमाइबिंदुर महासुभ स्थाने, पूज्याराध्य, परमपूज्य, अर्चनीयान्, परमपूज्य, चारित्रपात्रचूडामणि, कुमतांधकारनभोमणि, सकलकलासंपूर्ण। अथाने एकसतगुणवरणनमाह ॥
स्वस्ति श्रीसुंदर सुगुण, सकलकलाभंडार, गुरुगुणरयणायर प्रते, लेख लखुं मनुहार. १
दूहा :
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बिंदर एक अनोपम, मंबाई सुविसार, तमोतम श्रीपुज्यजि, सकल कला सिरदार, २ ज्ञाता सकल समय तणा, समय एक अप्रमत्त,
समयवेता जाणज्यो, मम विनति एक सत्त. ३ ढाल : जि हो कुंवर बेठो गोखडे - ए देशी ॥
जिहो अरिहंतआज्ञा एक श्री, जिहो प्रतिपालक छ रे धीर जिहो दुविध धर्मप्रकासका, जिहो तत्त्व त्रणना तीर. १
सूरीश्वर नीसूणो ए अवदात [आंकणी] जिहो तुर्यगतीनीवारका, जिहो पंचम गतिना रे साध, जिहो छ कायरक्षाप्रते, जिहो गौतम सरीखा साध. २ जिहो सात महाभय जिपका, जिहो अड मदसत्रु रे चूर, जिहो नव भेदे अरू ब्रह्म छे, जिहो ज्ञापक छो प्रभू पूर. ३ जिहो दशवीध श्रमणधरम तणा, जिहो प्रकासक गुरू धीर, जिहो अंग इग्यारे धारता, जिहो तेह तणा तुम्हे वीर. ४ जिहो दुवालस उपांग जे, जिहो [प]देशक छो रे पूज्य, जिहो तेर काठिया ते प्रते, जिहो निकासक वड झुज्या. ५ जिहो चौदे विद्या जेय छे, जिहो जांणग छो वड वीर, जिहो पन्नर भेदे सिद्धना, जिहो प्रभु जांणग वर धीर. ६ जिहो शषि दीपे सोले कला, जिहो तनुं सोहे जस भुप, जिहो पूजाभेद ते जाणता, जिहो सत्तर भेद अनूप. ७ जिहो अष्टादस सिलांगना, जिहो धारग सुगुण सूरीस, जिहो एकोनविंसति दोषना, जिहो काउसग वारीस. ८ जिहो विसतिथानक तप करी, जिहो एकविस गुण जे रे श्राद्ध, जिहो प्ररूपक गणपती(ति) तुम्हे, जिहो सुगुण पुरंदर सीद्ध.९ जिहो जिपक तुम्हे बावीसना, जिहो परिसहफोज जे साज, जिहो सुगडांगसमय तेवीसना, जिहो जांणग पूज्य महाराज, १० जिहो चोवीसे जिनजी तणी, जिहो आज्ञा पालो रे राज, जिहो पणविस भावना भावता, जिहो साधे आतमकाज, ११
जिहो दशा-कल्प-व्यवहारना, जिहो आराधक छवीस, जिहो तपोधन सगवीसना, जिहो जांणो वीसवावीस. १२ जिहो लब्धि छे अडवीस जे, जिहो धारग छो वडविर, जिहो पापश्रुतप्रसंगमे, जिहो ओगणत्रिस वीर. १३ जिहो मोहनी-ठाण जे त्रीस छे, जिहो वारक प्रभु वड वीर, जिहो सिद्धगुण एकत्रीसना, जिहो वेता' तुम्हे प्रभु धीर. १४ जिहो विवेकवीजय वाचक तणो, जिहो नर उत्तमसु रे प्रेम, जिहो विजय तणी विनती सुणी, जिहो दाखो नित नित खेम. १५ दूहा : सिद्धारथकुलदीनमणी, वर्धमान जिनचंद, वंदु जिन चोवीसमो, नयनानंद आनंद. १
|| कुंअर गभारो नजरे देखतां जि- ए देशी ॥ कर-चरणे करी सोभता जी, लक्षण अरु बत्तिस रे, आसातन तेत्रीसना जी, वारक विसवावीस रे, १ कर-चरण..... उपदेसक अतिसय तणा जी, जिनना जे चउतिस रे, जिनवांणि पांत्रिसना जी, तुम विण कुण अधीस रे. २ कर चरण.... छत्रीस छत्रीसी गुणे जी, राजित गच्छाधीस रे, श्रीजिनजि कुंथु तणा जी, गणधर जे सगतिस रे. ३ कर चरण.... खुडीयावीमाणवीभतिना जी, उद्देसा सडत्रीस रे, जाणक धारक सवी तुमे जी, तप्पागछाधीस रे, ४ कर चरण.... अढिधीप तेहने वीसे जी, कुलपर्वत छे जास रे, एक उणे चालीस छ जी, तेह तणा छो भास रे. ५ कर चरण.... भगवइ अंग जे तेहनां जी, उद्देसा चालीस रे, जांणो सुभ तेहज तणां जी, देवेंद्र गछाधिस रे. ६ कर चरण.... सिद्धाचल गीरीवरतणां जी, एकतालिस गंभीर रे, प्रकासक देवेंद्रजी जी, वाधे जस गुणकीर रे. ७ कर चरण.... पूण्यतत्त्व बायालना जी, ज्ञायक गुरु सुधिर रे, कर्मविपाक जे सूत्रना जी, त्रेतालिसना वीर रे. ८ कर चरण....
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धरणिधर प्रथवी तणा जी, भुवन लाखचुमाल रे, जाणो तुमे श्रीपूज्यजी जी, भांगो सवी जंजाल रे. ९ कर चरण.... लाख पीस्तालीस जाण छो जी, सिद्धसीलानुं मान रे, ब्राह्मी लीपी वर्णना जी, छेहालिसनुं मान रे. १० कर चरण.... उद्गमदोस टालता जी, लेता सुद्धाहार रे, सुगुरुजी तुमे जाणजो जी, सडतालिस मनोहार रे. ११ कर चरण.... पतन सहसअडत्री(ताली)सनो जी, भोक्ता कहिई तेह रे, सर्व भुपती जेहने जी, सिस नमावे तेह रे. १२ कर चरण.... तेरेंद्री जे जीवगा रे, आयुमांन प्रमाण रे, एक उणुं पंचासमुंजी, दिननां जांण सुजांण रे. १३ कर चरण.... पंचास जोयण मुलथि(थी) जी, पोहलो दीर्घवैताढ्य रे, दिसो छो गणनाथजी जी, संजम-रूपधनाढ्य रे. १४ कर चरण.... प्रेमविजयनी वीनती जी, अवधारो गछराय रे, वंदना नित-नित जाणज्यो जी, अवधारो माहाराय रे. १५ कर चरण....
जिरे म्हारे जाग्यो कुंअर जाम - ए देशी ॥ जी रे मारे देसणकाल सुजाण, नव भेदे ब्रह्मचर्यना जिरे जी, जी रे मारे कथकासक्त सुजाण, भेद एकावन तेहना जिरे जी. १ जी रे मारे द्विपे अरु जिनबिंब, नंदीसर वृत्त आठमो जिरे जी, जी रे मारे उपदेसक वर अंब (?), बावन चैत्य जिहां समो जिरे जी. २ जी रे मारे वरस एक चारित्र, त्रेपन ऋषी श्रीवि(वी)रना जिरे जी, जी रे मारे चोपन दिन सुपवीत्त, नेमिसर छदमस्तना जिरे जी. ३ जी रे मारे पंचावन अध्येन, कल्याणफलवीपाकना जिरे जी, जी रे मारे कह्या तेहना भेद, चरमनीसाई सांजना जिरे जी. ४ जी रे मारे समय भाख्या सार, जाणग अंतरद्वीपना जिरे जी, जी रे मारे छप्पन कहीइं उदार, पुज्य सदा सुरेंद्रना जिरे जी. ५ जी रे मारे जाणो सुखे गणीस, संवरभेद सत्तावना जिरे जी, जी रे मारे पंचम कर्मे भणीस, उत्तरप्रकृती अठावना जिरे जी. ६
जी रे मारे दिन संवत्सर जांण, एक उणो ते साठमा जिरे जी, जी रे मारे देसक सुगुण-प्रमाण, ते संवत्सर साठमा जिरे जी. ७ जी रे मारे कीजे सट्ठी एक, जोयण एक ज तेहना जिरे जी, जी रे मारे भाग तणु सुविवेक, चंद्रादिक मंडल तणा जिरे जी. ८ जी रे मारे बासठ जेह प्रतर, देवादिक उर्ध्वलोकमां जिरे जी, जी रे मारे दुर्गतिभंजन वि(वी)र, उपदेसी वर गछमां जिरे जी. ९ जी रे मारे नरपति जेह त्रेसठ, समय परमाणे दाखिया जिरे जी, जी रे मारे तेह तणा छो पठ', वेसठसिलाका भाखिया जिरे जी. १० जी रे मारे जाणग द्धा(धा)रग तास, ईत्थिकला चउसट्ठना जिरे जी, जी रे मारे रस्मि जंबू जास, मंडल ते पणसट्ठीना जिरे जी. ११ जी रे मारे भासण सुद्ध समत्थ, छासट्ठ गणधर जीन तणा जिरे जी, जी रे मारे मासना भासण अत्थ', सडस? नक्षत्रे मणा जिरे जी. १२ जी रे मारे जोयण अरु अडसट्ट, वैताढ्य दीर्घ ज वलि जिरे जी, जी रे मारे रागादिकथी भट्ठ, मान प्रमाण सवे मलि जिरे जी. १३ जी रे मारे कर्म सातनि जेह, एक ऊणी सित्तेर वलि जिरे जी, जी रे मारे पूज्य भासण तेह, कर्मप्रकृति सवि मलि जिरे जी. १४ जी रे मारे प्रेमविजय कहे एम, त्रिजि ढाल सोहामणि जिरे जी, जी रे मारे तपगछपति सुविसाल, मया करो सेवक भणी जिरे जी. १५ दूहो : सोभे श्रीगुरुणि सदा, भविजनने सुख-सात,
आस्या पूरो दासनि, मात तात विख्यात. १
॥ ढाल - ४ ॥ कामणगारो ए कुकडो रे - ए देशी ॥ भेदन मोहनीकर्मनी रे, सित्तेर कोडाकोड, समतासायर पूज्यजी रे, पूरो मनना कोड
पूज्य पधारो तुम्हे अम्ह पुरे रे [ए आंकणि] बिजो चक्रि जे वलि रे, सगर कहिजे सार, पूर्व लाख एकोत्तरे रे, गृहस्थावास उदार. २ पूज्य..... रवि-ससी पुष्कर अर्धमा रे, दुगसित्तरी सुभ जास, दाखो भाखो लोकने रे, सुद्धो मारग भास. ३ पूज्य.....
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बेहोत्तर लाख संवत्सरे, हलधर वर गंभिर, जांणो तेह सूरीश्वरा रे, सवि गुणगणना तिर. ४ पूज्य..... अग्निभूति गणधरतणुं रे, आयु वर्ष प्रमाण, चूमोत्तर ग्रंथे कह्या रे, दाख्या सुगुण सुजांण. ५ पूज्य..... पूष्पदंत जिनजि तणुं रे, वर्ष पंचोत्तर आय, भवन छोतर लख तणुं रे, विद्यूतकुमार सुहाय. ६ पूज्य..... एक एक महुरत तणा रे, सत्योत्तर लव-माण, अकंपीत गणपती तणु रे, वर्ष अठ्योत्तर जाण. ७ पूज्य..... जंबूद्वीप मनोहरू रे, प्रतोली सूभ चार, विच अंतर एक एकनें रे, सहस्र-ओग्ण्यासी सार. ८ पूज्य..... बिजे स्वर्गे भासिया रे, एसी सहस्र सामान्य, नव नव भिक्खुपडिमा छती रे, एकएसी वीतन्य. ९ पूज्य..... ब्यासि दिन-रयणि लगे रे, वर्धमान जिनमाय, वसिया ते सवि जाणता रे, देवानंदा-ठाय. १० पूज्य..... जिन दशमा सितल तणां रे, गणधर यासि धार, पूर्व लाख चोरासिनु रे, आयु ऋषभ श्रीकार. ११ पूज्य..... आचार अंगे उद्देसीया रे, पंचासि उद्देस, नवमा जिन सुवधि तणा रे, छयासि गणधर सेस. १२ पूज्य..... ग्रंथ कर्म छई मलि रे, सत्यासि नीरधार, प्रकृति गछपती जाणता रे, [उप] देसो सूधाचार. १३ पूज्य..... चंदपनती सूत्रमा रे, दाख्या ग्रह सवी जोग, अठ्यासी तस विमली रे, देख्यो सवि उपयोग. १४ पूज्य..... विवेकविजय वाचक तणो रे, प्रेमविजय लघुभ्रात,
चोथि ढाल मे ए कहि रे, आगे सुणज्यो वात, १५ पूज्य..... दूहा : तुरणीपूर अति सुंदरु, ईभ्य वसे सुवीनीत,
ते माटे विनती सुणि, अमचि पूरो खंत. १
॥ ढाल - ५मी ॥ देशी - सूरती महिनानी ॥ सोलसमा प्रभुजि तणी, सहस नव्यासि जोय, साध्वीतणी संख्या सवि, दाखो गुरुजी सोय. १ दसमा श्रीसितल तनू, नेउ धनूष परीमाण, तेह देशो गणनाथजि, तुम्ह चरणे अम प्राण. २ कालोदधि सागरतणी, परधी जाणो भूप, लाख एकांणू मानने, कथकासक्त अनूप. ३ इंद्रभूति गणधर तणू, बांणुं वर्ष उदार, त्राणू जांणो सुखकरा, अडमा जिन गणधार. ४ बीजा स्वामी अजितना, वरिया सीव-महानंद, चोराणु ते मूनिवरा, अवधिज्ञानी वंद. ५ सप्तमा श्रीसूपार्श्वना, पंचाणू गणधार, एकेका चक्री तणां, छन्नु कोटी उदार. ६ कर्म आठनी सवी मली, उत्तरप्रकृती जोय, सत्ताणुं ते पुज्यजी, भाखो मुझ सुख होय. ७ प्रथम जिणंद श्रीआदीजी, दे देसना सुखकार,
अठाणु निज पुत्रने, करे उपगार उदार. ८ सिद्धाचल सिखरे चढ्या, स्वामि आदिजिणंद, पूर्व नव्वाणूं वारमे, [भा]सो देवेंद्र गणधार. ९ सततारा सुभ उडुतणा, वेत्ता सुभ गुरु द्धी(धी)र, कुल सत एकसोत्तर भला, दिपक शुभ वडधीर. १० समाधी मुख जोग जे, अट्ठ महा वली जेह, धारग पारग तासना, भविबोधक वर मेह. ११ एकसोएक गुणे भला, सूरी जस(ग)विख्यात, प्रतपो ए वर गछपती, वीजयदेवेंद्राख्यात. १२ प्रेमविजयनी वीनती, अवधारो गछराय, पंचमी ढालमें भण्या, गुण सुगुरु-सुपसाय. १३
॥ इति एकसतगुणवर्णनसमाप्तः ॥
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अथाग्रे मुमाईबिंदरवर्णनमाह ॥ दूहा : वचन सरल रसना प्रते, देति भगवति मात,
वचनामृत कविता प्रते, आई वसे मुख वास. १ हंसारूढ सितांबरा, कर धृत वीणा सार, सा वागेश्वरी मुझ दीओ, वांणी वचन श्रीकार. २ स्वयंभूरमणोदधि, मध्य वीसाल सुरंग, बिंदर एक सोहामणू, मुमाई सुवीचंग. ३ सकलराज सीर राजतो, अंगरेज माहाराज, सघले जग जस गाजतो, राज सवे माहाराज. ४ नगरसेठ तेहने वीसे, मोतिचंद अमूल,
खेमचंद सुत तासनो, राजे तस अनुकूल. ५ ॥ ढाल | वाल्हो वजाडे वांसलि रे, पेलि गोपियो वजाडे रंग ताल रे
रास रमाड्याजि - ए देशी ॥ श्रीफल फोफल सुंदरु रे काइ, दाडिम अरु जंबीर रे,
देव्ये (वें)द्रसुरी वंदिये रे [आंकणी] कदलीफल नारंगना रे काइ, वन गुहिरे गंभीर रे देवेन्द्र..... १ वनराजि तिहां अतिभली रे काइ, मोगर चंद कदंब रे देवेन्द्र...., बोलसरी मचकुंदना रे काइ, चारु सुरंभ सुअंब रे देवेन्द्र.....२ लंका नगरी समोवरु रे काइ, वप्र सोहे श्रीकार रे देवेन्द्र, पुरट्टाल सुभ श्रेण छे रे काइ, "बूर्ज अनुप उदार रे देवेन्द्र.....३ मुंमाई लंका समी रे काइ, जलमध्य छे दोय रे देवेन्द्र, देपूर गई लंकापुरी कांई, मुंमाइ बनी सोय रे देवेन्द्र.....४ दंड सोहे जस छत्रमा रे काइ, बंधन जास चीकूर' रे देवेन्द्र, पासा सारीमारमे रे काइ, एसे लोक प्रचूर रे देवेन्द्र..... ५ छिद्र सोहे उरहारमे रे काइ, करपिडन वीवाह रे देवेन्द्र, पर-अपवादमे मुक छे रे कांइ, एसे लोक 'कहाक रे देवेन्द्र....६ परछिद्र देखण अंध छे रे काइ, परधन हरवा पंग रे देवेन्द्र, एसी सेहर बडाइ हे रे कांइ, लोक वसंत सुचंग रे देवेन्द्र.... ७
श्लोक - नगरवर्णनम् ॥
सद्वीक्षपथ्यरम्याणि, कौतुकानि च भूरीष:(रिशः) । प्रवास -- वैधुर्य, पथिका विस्मरन्ति षः (?) ॥१॥ तद्वस्तु --- तत्र, प्राप्यते प्र(प)णभिः सदा । यत्कथास्वपि ---, तत्सर्वमपि वीक्ष(क्ष्य)ते ॥२॥ यत्र चक्राङ्गता हंसे, -- वस्वकुलक्षयम् । अरीष्टं सूती(ति)का गेहे, जने नैव कदा.. [चन] ॥३॥ यन्मृगाक्षी मुखाम्भोज-लावण्येन विनी(नि)जिता । तपतेऽत्रैव त्रपया, सरोजालिः सरोजले ॥४॥ धनी(नि)नां यत्र हमें(म्ये)षु, सदनेषु मनीषी(षि)णाम् ।
वर्द्धते श्री-सरस्वत्यो, मिथ: प्रि(प्री)तिर्गतागते ॥५|| || ढाल पुवली(?) ॥ ध्वज गाणे गुहिरे सदा रे काइ, चिहुं दि[ शि]ए भर्मत रे ...., मांनु सवि दुर्जन तणा रे काइ, जाणे मनहि मर्थत रे ..... ८ ममादेवी मातनु रे कांइ, भुवन सोहे उत्तंग रे तास नामे सर सुंदरु रे काइ, सरस सोभे सुविचंग रे .... ९ पुरमे न्यात चोरासि छे रे कांइ, छत्रिस राजकुलिस रे ...., लक्ष्मीदेवी जिहां वसे रे काइ, वालकेश्वर ईस रे .... १० रयणायर उपकंठमे रे काइ, गोदि छे अनुप रे ...., जहाज बने अति मोटका रे काइ, थंभ सुरूप सुकुप रे .... ११ चीन बंदीरमा नीत वहे रे काइ, धननी रोक अनेक रे ...., व्यापारी घणी जातिना रे कांइ, क्रय वीक्रय सुवीवेक रे .... १२ वर्ण अढार वसे तिहां रे काइ, नव नारु कारु जेह रे ...., तेणे नयणे सुखीया सदा रे कांइ, अन्योअन्यषु नेह रे .... १३ भक्तीवंत श्रा[व]क वसे रे कांइ, कुलाबेसु नीवास रे ...., जे नर जाई देखवा रे काइ, रोटि दालसु खास रे .... १४ प्रेमविजय सीस इम भणे रे कांइ, भव सकल सुवीसेस रे ...., भक्ती करो माहाराजनी रे कांइ, नीसुणी हु हरखेस रे ....१५
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दूहा : तपागछाधिरायवर, सोहे सारद चंद,
घणु प्रतपो परीवारयुत, देवेन्द्र वंद्यानंद. १ ॥ ढाल ॥ सरसति त्रिभोवनसामनी देवी - ए देशी ॥
ओसवालसिरसेहरो जि, मोतिसा साहुकार, सात पेढी जेणे उद्धरी जि, कीधा सुभ जगसार, सवी तुमे वंदो रे देव्ये(वें)द्रसुरीस्वरराया १ [ए आंकणी] अढार चुमोत्तर वर्षमा जि, सिद्धाचलगीरीराय, अमीचंद साकर तणो जि, भेटावे सुत राय. २ सवि..... अढार पंच्यासि वर्षमां जि, मागसिर उज्जलपक्ष, तृतिया सुभ तेह ज तणी जि, थाप्या आदि सुदक्ष. ३ सवि..... मोतिसा सेठ ज तणी जि, वाडी एक अनुप, तामे ऋषभ सुराजता जि, कांतिवंत सुरूप. ४ सवि..... भोएखले ए ठाम छे जि, वस्तिरण सुखकार, दिन दिन जस जगमां घणो जि, सफल करे जनमार." ५ सवि..... साहेब दादा तेहमा जि, आस्या पुरे तांम, मोति-सेठनि वाडीमां जि, आवे सहु को कांम.६ सवि..... श्रीमालिज्ञाते भलो जि, कान्हजिसा प्रसीद्ध, सुत बे तास भला कह्या जि, जगमां उत्तम कीद्ध. ७ सवि..... प्रथम नाम कल्याणजी जि, दुजा त्रीकम नाम, सुत कल्याणजिसा तणो जि, दीपचंद सुठांम. ८ सवि..... नाम दुजु तासनुं जि, बालाभाई विख्यात, मावित्रे बालकपणे जि, हुलरामण आख्यात. ९ सवि..... अढार सत्यासि वर्षमाणि, सर्बुजयगीरी जेह, संघसू हर्षे मेलवी जि, निज जन्म कृतारथ तेह. १० सवि..... कपुरचंद बोधा तणो जि, फुलचंद सुफुल, घोघे श्रीजिनपासनु जि, चैत्यालय अमूल. ११ सवि..... मारु हि( ही राचंदजि जि, हीरा सम जस कीर, खडतरगछे सोभता जि, चींतामण जगवीर. १२ सवि.....
हीराचंद हिवडे हसे जि, देखि श्रीजिन पास, पुरणपुन्य पांमिओ जि, सेवक पुरो आस. १३ सवि..... दमणवासी जेह छे जि, अमरचंद जस नाम, सा दाता अतिसुंदरू जि, राखण जगमे नाम. १४ सवि..... ताराचंद मोतिचंद तथा जि, चीनाई-सिरताज, गगने तारो सोहतो जि, सा कीरति जग आज. १५ सवि..... विजयजिनेंद्रसुरी तणा जि, पट्टालंकार सुर, लेख लखी तेडाविय जि, पोहता मनना पुर. १६ सवि..... प्रेमविजय सीस इम भणे जि, सुणजो सहु नर-नार, लेख तणी मे वणेवि जि, सातमी ढाल उदार. १७ सवि..... दूहो : धर्म तणा मावित्र दो, माता रूपा सुरूप,
सा माता तुम दोयनि, किधा जगमां भुप. १ ॥ ढाल | विनयपद दशमुं प्रकास्युं तथा पालडीपुरनी सेरीए भमता वाल्हा ।। उत्तम काम करे सवि रे वाल्हा माहरा एहवो पुरुषरतन्न रे, रूपा मात उदरे धर्यो रे, मुक्तासुक्तां रतन्न रे,
सुरीपद वंदो रे, लली लली लागु पाय सूरिपद..... १ वीचमे जास वीराजता रे वाल्हा माहरा, त्रेविसमा श्रीपास रे, सुरज उदई आवता रे, आस्या पुरे तास रे, २ सूरिपद..... आणंदसुरी-देहरे रे वाल्हा माहरा, आदिश्वर अरीहंत रे, तस पासे सुविराजता रे, पुरे भवि मनखंत रे. ३ सूरिपद..... सागरगच्छे सोलमां रे वाल्हा माहरा, शांतिजिणंद जुहार रे, शांतिकर श्रीसंघने रे, ईत-उपद्रवहार रे. ४ सूरिपद..... मुल कोटमा ए प्रभु रे वाल्हा माहरा, शांतिकर श्रीशांत रे, अचिरानंदन जग जयो रे, सुमतीवंत सुदांत रे. ५ सूरिपद..... मुंमाई सुभ नगरनो रे वाल्हा माहरा, संघ भलो श्रीकार रे, सेवा करे महाराजनि रे, पूजा ओच्छव सार रे. ६ सूरिपद..... संवर पंच इंद्री तणा रे वाल्हा माहरा, नवविध ब्रह्माचार रे, गुत्तिधर प्रभु तेहना रे, मुक्त कषाय च्यार रे, ७ सूरिपद.....
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महाव्रत पांचे युक्त छो रे वाल्हा माहरा, पालो पंचाचार रे, समीति पंच गुत्तीना रे, छत्रीस सुरीआचार रे, ८ सूरिपद..... ग्रंथे दश रुचियो भणी रे वाल्हा माहरा, कहु तेहना नाम रे, जेहना मनमाहे रुचे रे, सारे तस नीज काम रे. ९ सूरिपद..... प्रथम रुचि उपदेश छे रे वाल्हा माहरा, नीसर्ग बीजि सार रे, बीजि आज्ञारुची भणी रे, सूत्ररुचि अरु च्यार रे, १० सूरिपद..... बीजरुचि पंचमी भणी रे वाल्हा माहरा, अभिगम छट्ठी धारो रे, विस्ताररुचि क्रियारुचि रे, सत्तमी अठमी श्रीकार रे. ११ सूरिपद.... संक्षेपरुचि नवमी कही रे वाल्हा माहरा, दशमी रुचि ओर धर्म रे, दशरुचिओ जे सरुहे रे, तेह पांमे शीवशर्म रे. १२ सूरिपद.... पूज्य रुचिओ आदरे रे वाल्हा माहरा, देव्येंद्र उर वरहार रे, माण्यक्यविजय वाचकवरे रे, प्रणिपत वारंवार रे. १३ सूरिपद..... खत्यादि दश धर्म छे रे वाल्हा माहरा, भावो भावना बार रे, पडीरूपादि चौदना रे, गुण छत्रीस धार रे, १४ सूरिपद..... वाचक विवेकविजय तणो वाल्हा माहरा, प्रेमविजय वर जास रे, लेख तणो उदंत ज सुणीने, पामो हर्ष-उल्लास रे. १५ सूरिपद......
दूहा : तथा सुरति देशी ॥ हवे ओपम गुरुजि तणा, सुणजो थई सावधान, पट्टपरंपरा-परगडो, ठाम-ठाम जस मांन. १ पृथ्वीपट कागल करूं, लेखण करुं वनराय, सायर सघला मिस करूं, तो ही तुम गुण लिख्या न जाय. २ श्रीपूज्यजी गुण अनंतमय, तरी न सकु तेण, अवगुण एक न संपजे, रहु विलंबी तेण. ३ हीयडा ते किम वीसरे, जे सदगुरु सुविचार, दिन दिन ते पण सांभरे, जिम कोयल सहकार. ४ वीसर्या ते नवी वीसरे, समर्या चित्त न माय, ते गुरुजि किम वीसरे, ते विण घडी न जाय. ५ गिरुआ सेहजे गुण करे, चित्त एक पण जाण, विजयदेव्ये (वें)द्रसुरी वांदता, दिन दिन चढते वान. ६
॥ अथ श्लोक ॥
यथा स्मरंन्ति(ति) गा(गौः) वत्सं ० ॥ दूहा : राजगृही श्रीवीरजिन, समोसर्या सुखकार,
तिम पुजे पावन कर्यो, मुमाइंबिंदर सुविचार. ७ चतुर लोक तिहां वसे, बुद्धिप्रकास अनेक, मधुर वचन मुख बोलता, एहवा जन सुविवेक, ८ धन्य ते श्रावक श्राविका, जे वंदे गुरुपाय, नाममंत्र गुरुनो जपे, नांमे नवनिध थाय. ९ वाणी सुणे जे गुरु तणी, धन धन ते नर नार, पच्चक्खांण श्रीमुखे करे, धन धन तस अवतार. १० केइ बारे व्रत उच्चरे, केइ वहे उपधांन, व्रत चोथु निश्चे करे, श्रावक चतुर सुजाण, ११ मुमाइंबिंदरना संघनो, भाग्य वडो संसार, चोमासे श्रीगुरु रह्या, श्रीविजयदेव्ये(वें)द्र गणधार, १२ पंच माहाव्रत पालता, तिम वलि पंचाचार, सुमति गुपति सुधी धरे, गुरुगौतमअवतार. १३ कलिकाले जिनवर समो, प्रगट्यो पुन्यअंकुर, विजयजिनेंद्रगुरु पाटवी, दिन दिन चढते नुर. १४ केहता दिसे कारिमो, संभारज्यो ससनेह, मेहर्बानि पुज्य राखज्यो, धरज्यो धरमसनेह. १५ गामे नगरे वीचरता, पद ठववा वडवीर,
मुमाई वर बिदरे, ठविया पद वरधीर. १६ ॥ ढाल ॥ नाम इलापुत्र जाणिई, धनदत सेठनो पुत्र - ए देशी ॥ समए सात कथा कही, सोहम जंबु हजुर, सुत्र उत्तराध्येनमा, समता तस चूर. १
सुरीश्वर वर सोभता, तपगछ तणा छे गुरु थंभ... सूरीश्वर..... सिक्षा देता च्यारनी, आठ प्रमाद ते दुर, कारक तुमे उपगारना, विजयदेव्येंद्र सुगुर. २ सूरीश्वर.....
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अनुजोग चार चित्तधरो, अप्रमत्त अरु अकसाय, जोग अजोग सवे वली, समवायंगे कहाय. ३ सूरीश्वर..... कहेता धर्मकथा तणा, जीवदया उर धार, चारीत्रपात्र सुपात्र छो, ज्ञान तणां आधार. ४ सूरीश्वर..... पंचम काले प्रांणिने, उपगारी गुणधीर, भरतसु दक्षण-अर्धमां, वीचरे महियल वीर. ५ सूरीश्वर..... लाहो लेता धर्मनो, पट्टोधर श्रीसार, विजयजिनेंद्रसुरी तणा, विजयदेव्येंद्र [गण] धार, ६ सूरीश्वर... अम्ह पुरे पधारजो, एक वार महाराज, अम्ह विनति हियडे धरी, आज हमारा साज. ७ सूरीश्वर..... कृपा करो वीनति सुणी, वीलंब न करसो पुज्य, सेवक अम्ह सरीखा घणा, वीनति ए अम्ह गुज्य. ८ सूरीश्वर..... माणिभद्र श्रीवीरजि, पुरे मननी रे खंत, अट्ठमी चौदसी सेवतां, देता सुख अनंत. ९ सूरीश्वर..... मगरवाडे मेवासमे, माणिभद्र महाराज, तस सीर नांमे गछपति, सारे वंछीत काज. १० सूरीश्वर...... सिद्धाचलगीरीवरे जई, सिद्धा उत्तम काम, रथजात्रा जुगतें करी, राख्या पूर्वज नाम. ११ सूरीश्वर..... तरूणीपुर बींदर थकि, आणि अधिक उल्लास, प्राणप्रिय तुम्ह दरीसथी, छे साता सुख-वास, १२ सूरीश्वर..... तुम्ह पत्रि वरहंसनी, मुझ करकमले आय, सोह चढाइ अतिघणी, ते जिभे न लीखाय. १३ सूरीश्वर..... तुम्ह बिन को जगमे नही, अवर पुज्य जगदीस, कृपा करो सेवक उपर, सेवक नामे सीस. १४ सूरीश्वर..... डुंगर गुरु उपदेसथी, भ्रात-विवेकसु प्रेम, नरउत्तम अमर भणे, राखो अविहड खेम, १५ सूरीश्वर..... ॥ इति श्रीमुमाइवर्णनं समाप्त ॥
अथाने सूरतबिंदरवर्णनं गजलमाह ॥ दूहो: श्रीगुरुचरण नमि करी, समरु सरस्वती मात,
गजल सूरत सेहरकी, बरनुं ते अवदात १ ॥ तो गजल चाल ॥
सूरत सेर हे सारेक, बिंदर दीपता भारेक, मानुं स्वर्गसें आएक, आपोआपही ठाएक १ मात तापीनदी हे सार, बेल चढती हे दोय वार, चढते पांनी ये भरपूर, वाहण आवते ससनूर. २ सफरी फतेमारी८ आवेक्, मेवा-माल ही लावेक्, नांनी भांत नावा नाम, ज्याके पानीमें सुभ ठाम. ३ तापीनदीकी हे लहेर, सूरत सेहर पर हे महिर, कोट परकोट हे खाईक, चिहुं दिस फिरीने आईक. ४ कंगुर वन्या हे हदसार, देखत होत हे हुंसियार, तोपां धरि हे अति-वंक, जाणे जीपति हे लंक, ५ द्वादस खुब दरवाजेक्, वाजा वाजते सारेक, लबीष्टीत् साहिब हे अंगरेज, राज करे हे अति तेज.६ आडेसर पारसी कोटवाल, न्याव करे हि इकताल, मालेसिंह किल्लेदार, सूरत पर गिने अधिकार, ७ किल्ला खुब हे वड वंक, तोपा धरेह निस्संक, धररर छूटती हे नाल, रिकुंए करे हे संभाल. ८ फररर फरकते निसान, मांनु चढेहिं असमान, घननं वाजते घंटाक, गननं गरजते गडडाक, ९ किल्ले दारुगोले साज, करडे अंगरेज के हें राज, नश्रुदिन खुब हे नव्वाब, हिकमत पूर हे सब्बाब.२० १० मुसलमान अरु काजीक्, ख्वाजा पीरसें राजीक्, वोरा लोककी सल्लाक, मुल्ला मानते अल्लाक्. ११ पारसीलोक हे भरपूर, सघले विणजमांहि सूर, देव कर पूजते हे आग, मात तापीकुं पाए लाग, १२
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पट्टा सईद हे मुगलांन, खाधे धरे हे कब्बांन, मयगल मलपता छाजेक्, मदझर मेघ ज्युं गाजेक्. १३ हयवर हिंसते बाजीक्, दिनकर होत हे राजीक्, म्यांना सैंकडूं सुखपाल, वहेलु रणकती घंटाल. १४ सूरत सहरकी वसतीक् लच्छीपूरसे लसतं, उमदा लोग हे रंगाक् खावे मालभी चंगाक्. १५ अडबे खड बके व्यापार, लेते देत हें अणपार, गणिका करे हें सिणगार, मानुं अपछरा अनुहार. १६ नाटिक करे हि मनरंग, तेसें चली जेसे गंग, रणझण रणकते वीणांक, गुघर ठणकते झीणांक्. १७ मरदां महेंरीया आवेक, नाटिक देख सुख पावेंक, नगरसेठ लखमीदास, श्रीजिनधरमके हि प्यास. १८ सबसें सिरे आतमराम, हुंडी लेखत हे जस नांम, किल्ला पास हे चोगांन, गुजरी इह हे बहु मांन. १९ पटकूल वेचते बज्जाज, तुरत ही दांम लेते गाज", मुगलीसरा हे इक पास, उंची हवेली हे खास. २० पटवे रेसमीका कांम, किसबी तुरत लेते दांम, चीनी-खांनेकी दुक्कांन, तंबोली वचते हि पांन. २१ गांधी मर्द हे गाजीक, कप्पड सिवते दरजीक, कंदोड़ करे हे खाजेक्, बरफी जलेबी ताजेक्. २२ किसमीस द्राख निमजा रेल, केला बिदांम रेलाछेल, दाडिम नींबु अरु नारिंग, लेकर वेचते सुचंग. २३ वाडी वाव हे वनराय, जूइ सेवंती अरु जाय, दमणो चंपेली तरु सार, परिमल लेत हे अणसार २४ क्षत्रीलोक हे उत्तंग, कायथ लोककुं हे रंग, ब्राह्मण नागरुकी जात, हरिहर ध्यावते दिन-रात २५ निज निज धरमआंणाकार, पाले बहोत ही नर नार, अढारे वरण हे एसेक, सुखीया लोक हे तेसेक. २६
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मोटा च्यार हे चोहटाक्, श्रेणी खुब हे हट्टाक्, पुरे पंचवीस हे इतगार, गोपीपुरा हे हृदसार. २७ उंची हवेली सिरे दार, गोखे बेठी हे नरनार, झवेरीलोक हे ओसवाल, परखे हीरा पन्ना लाल. २८ नित प्रतें घोटते हि भंग, पीवे कटोरे हि रंग, भोगी भमर हे छब खुब, मोती मांणकें लहलुंब. २९ जैनी भणसाली धनपाल, दयापाल ते पुन्यपाल, जिहा छे जैनका प्रासाद, देखत होत हे अल्हाद. ३० श्रीजिन जागतो भ्रमनाथ, मेले सिवपुरीनो साथ सूरजमंडणा हे पास, सहुनी पूरतें आस. ३१ गोडी संखेसरो जिनराय, सुर नर सेवते हे पाय, देवल वडे पिसतालीस, बहू सुर नराका ईस. ३२
ते दरसण देख सुख पावेक, दुख भय रोग ही जावेक, श्रावक श्राविका आवेक, मुनिजन भावना भावेक. ३३ चौरासी गच्छ ही दीपेक, अष्ट ही करमकुं जीपेक, साधु साधवी गुणधार, सत्तरभेद संजम सार ३४ नजीक उपासरा हैं तास, तपगछ दीपता है खास,
सकल साधुगुणें भरीयाक्, ॐ विवेकविजय गुण दी (दरी) याक्. ३५ पांचें जैनके सिद्धांत, श्रावक सुणंत हे बुद्धिवंत, व्याकरण छंदकुं जांक, भाषाग्रंथ हिये आंक्. ३६
दया विनय व्रत धारेक, इकवीस गुणें ही सारेक, जैनधरम- आणाकार, पाले बहोत ही करे सार. ३७ उपासरे तपांके बहुमान, मांणिभद्र वीरके हें थान, ऐरावतकी है असवारीक्, ज्याकी सोभा हें भारीक्. ३८ मगरवाडें तुं ही राजेक, स्वेत क्रष्ण ही छाजेक, जक्ष हे खुब मतवालाक्, काटे करमका जालाक्. ३९ तीरथ [सोहे] असनीकुमार, अंग पखालते नर नार हील मील मांडते मेला, खुबी करत हे खेलाक्. ४०
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अनुसन्धान-६५
विष्णुलोककुं हे रंग, रटते रांमकुं हे चंग, मंदिर हइ हे दोय च्यार, वसते किसनके कुंमार. ४१ हणुमंत एक हे बालाक, मिलते मेदनी मालाक्, अस्थल" बांधते अत्थाग२, रहतें वड वडे वैराग. ४२ दरगा खुब हे दरीयाव, अच्छे लोककी हे आव, सोखी बहोत सन्यासीक, मांडे खुब मठवासीक्. ४३ षट् दरसन खुब हे प्यारेक, रहतें जगतसें न्यारेक्, वसती खुब हे विस्तार, भासा बोलते हैं य्या(या)र. ४४ अवर बिंदर हे हदनार, सुरतबिंदर हे सिरदार,
सुरतनयरनी छबि सार, कहता पाईयें नही पार. ४५ ॥ इति श्रीसूरतबिंदरवरणन गजल सम्पूर्ण ॥ अथाग्रे सूरतबिंदरवरणनं ॥ ॥ सवियो ।
सूरतबिंदर सोभित सुंदर, तापीनदीके किनारे बसायो. बडे बडे वाहण पडे बहु भांती के, मानु ए देवविमान रचायो, नर नारिके ठाठ मिले बहु घाटके, नावत धोवत पाप नसायो, एसी छबी देखत इंद्र चले, गजराजघटा सेती चित्त रमायो. १
॥ गोपीपुरावर्णनं ॥ ॥ सवियो ।
गोपीपुरामांहि जवेरिका काम के, देवल खुब धरमनाथ रचायो, सूरजमंडण पास संखेश्वर, गोडीचा रायको तेज सवायो, कमठकुं गंजण नागकुं तारण, कर्मकुं तोडिकें सिवपुर ध्यायो, एसी छबि पेख इंद्राणीय इंद्र, नरेंद्र नागेंद्र ही सीस नमायो. २
॥ अथ उपाश्रयवर्णनं ॥ ॥ सवैयो ।
चोरासीय गच्छ तपे सिरताज के गोपीपरामे उपासरो ठायो, मांणिभद्रको स्थानिक खुब दीपे पंचरंगी फूलें गहगट्ट सवायो, नर नारिय आय बंदे गुरुपाय के धर्मकथा धर्मलाभ बतायो, जंबूद्विपपन्नति सुणे एक चित्त के चंद्रप्रभुको चरीत्र सुणायो. १
॥ अथाग्रे गुरुवर्णनमाह ॥ श्रीपूज्यजी [जा]यसंपन्ने, कुलसंपन्ने, बलसंपन्ने, रूवसंपन्ने, विणयसंपन्ने, नाणसंपन्ने, दंसणसंपन्ने, चारित्रसंपन्ने, तवसंपन्ने, उयंसी. तेयंसी. वच्चंसी. जसंसी, जीयकोहे, जीयमाणे, जीयलोभे, जीयपरीसहे, जीयईदीए, जीविआसमरणभयविप्पमुक्के, तवष्पहाणे, गुणप्पहाणे, एवं चरणकरणनिग्गहनिच्छहखंतिअज्जव-मद्दव-गुत्ती-मुत्ती-विज्णा-मंत-बंभचेर-नय-नीम-सच्च-सोयं-नाण-दसणचरित्ते, उराले, घोरतवस्सी, घोरबंभचेरवासी इत्यादि गुणें करी अलंकृत, ज्ञातसर्वपुराण, वादीलक्ष्मीश्रेणिशिरोमणि, वादीतिमिरदिनमणि, वादीकदलीकृपाण, वादीपर्वतइंद्र, वादिताराचंद्र, वादीगरुडगोविंद, जीत्यावादीवृंद, वादीगोधूमघरट्ट, वादीमानमर्दितमरट्ट, वादीहरणहरी, वादीमदज्वरधन्वंतरी, वादीतिमिरभास्कर, वादीविषयशंकर, वादीमुखभंजन, सकलभूपालरंजन, जीत्या अनेक वाद, सरस्वतीलब्धवरप्रसाद, सरस्वतीकंठाभरण, वादीविजयलक्ष्मीशरण, कुमतमतजडापाडक, पाखंडमतनिर्धाटक, कलिकालश्रीगौतमावतार, शुद्धपंथना देखाडणहार, कुमतना उत्थापक, न्यायमार्गना प्रवर्तावणहार, भविकणीवनें रत्नत्रयना दायक, सर्वगुणलायक, श्रीगुरु आज्ञा आराधक, मिथ्यात्वमतनिकंदक, सकलक्रियाकठोर, छ लाख छत्रीस सहस्र सूचना पारगामी, स्वसमय-परसमयना जाण, अनेकशास्त्र प्रमाण, व्याकर्ण-तर्क-नैषध-कुमारसंभव-पाणिनीय-काव्यछंद-अलंकारादिविद्याप्रवीण, षट्दर्शनप्रवीण, श्रीजिनशासनउद्योतकारक, उत्सर्गअपवाद निश्चय-विवहार कारणना जाण, षट्भंगीनें विषै विदुरवर, परदेशपंचायण, अनेकदेश नगर पुर पाटण खेड कब्बड द्रोणमुह संनिवेसनें विषं विहारना करणहार, धन्नाणं ते राजा राणां जुवराजा कोडंबिक श्रेष्ठि सेनापति ईभ्य व्यवहारीया जे श्रीपूज्यजीनी निरंतर अमृतमय देशना सांभले, धन्य ते श्रावक, धन्य ते श्राविका, श्रीपूज्यजीना चरणकमल वांद्या अने वांदे ते धन्य, अने पोसह पडिक्कमणां कर, व्रत पच्चक्खाण करै, देसविरति उच्चरें, पर्जूषणा पर्व करे ते धन्य, करुणासागर, महिमामेरु, धर्मभारधुरंधर, समुद्रनी परें गंभीर, मेरुनी परें धीर, क्षमाभंडार, तपतेजदिवाकर, चंद्रमानी परें सौम्यवदन, वायुनी परें अप्रतिबंध, भारंडपंखीनी परें अप्रमत्त, वृषभनी परें धोरी, कुंजरनी परें सोंडीर, सिंह जिम दुर्धर, कर्मलेपि करी रहित, पंच महाव्रत भार वहवाने विषै धोरी,
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महाउदयदीप्यमान, तेजपुंज, तपस्वी, धर्मभारधुरंधर, वाचा अविचल, कुलमंडन, कुलदीपक, कुलउद्योतकारक, भव्यजीव आशाविश्राम, जिम देवतामांहें इंद्र, तारामाहें भंभा, सतीमाहें सीता, शास्त्र माहें गीता, हाथीमाहें ऐरावण, साहसीकमाहें रावण, वनमाहें जिम नंदनवन, काष्टमाहें जिम चंदन, बुद्धिमाहे अभयकुमार, तीर्थमाहें शेर्बुजय सार, पुन्यवंतमाहें शांतिनाथ, ब्रह्मचारीमाहें श्रीनेमिनाथ, जिम कर्म माहें मोहनीकर्म, धर्ममाहें श्रीजिनधर्म, रत्नमाहें चिंतामणि, पर्वमाहें पर्जूषण, तिम गच्छमाहें श्रीतपागच्छ तेहना सिरदार, मनवंछितफलदातार, समस्त आर्यदेशें सर्व अमारिनी उद्घोषणा प्रवर्तावक, परमपूज्य परमगुरु, श्रीमत्तपागच्छाधिराज भट्टारकपरंपरापुरंदरभट्टारक, श्रीश्रीश्री १०८ श्रीविजयदेवेंद्र-सूरीश्वरजी सपरिवारान् चरणकमलान्, श्रीसूरतबिंदरात् सदा आदेशकारी चरणसेवक दासानुदास पायरजरेणुसमान, दशाओसवाल ज्ञाती सेठ रत्नचंद निहालचंद, सा. भीखा रूपजी, सा, वीमलचंद झवेरचंद, सा. रूपचंद वनमाली, सा. सुरचंद खुसालचंद मलबारी, सा. नरसीदास दुलभदास, सा. खुसालचंद लालचंद, सा. धर्मचंद केसरीसिंघ, सा, खुसाल नाथा, सा. अमरचंद मोतीचंद, सा. लखमीचंद खुसालचंद, सा. हर्षचंद जेचंद, सा. धर्मचंद नांनाभाई, सा. हर्षचंद मीठा, सा. मनोर दुर्लभ, सा. नेमचंद मोतीचंद, सा. तलकचंद हेमचंद । विसास्त्री(श्री)माली सोरठीया डोटिवाला खुसाल वर्धमान, सा. संघवि ताराचंद फतेचंद, सा. वीरदास मालजी, सा. झवेरचंद फतेचंद, सा. गोडीदास सकलचंद, सा. गुलाल मीठा, सा. हरीभाई भुला, सा. दुलभ जीया, सा. विमलचंद सोभागचंद, सा. प्रेमचंद वणायक, सा, धर्मचंद खेता, सा. हेमचंद वेलचंद, सा. जोईता मेघजी, सा. रायचंद झवेरचंद, सा. दीपचंद वीजेचंद, सा. ताराचंद लालचंद, सा. दीपचंद भवानी, सा. रायचंद सोभाग, सा. भायचंद नथु, सा. वीमलचंद लखमीचंद, सा, तलकचंद माणिकचंद, सा. माणिकचंद प्रेमचंद । तलपदा स्त्री(श्री)-मालीजाती सा. नगराज पुंजीया, सा. विमलचंद माणिकचंद, सा. वनमाली भाईदास, सा. पनाचंद नथु, सा. सुरदास रायकरण, सा. नांनाभाई हीराजी, सा. नारणदास अमाईदास, सा. पाना नांनाभाई, सा. नागर सुंदरजी, सा. वनमाली भुला, सा. इंद्रजी त्रीकम, सा. लाला आणंदजी, सा. वीमलचंद ताराचंद, सा. मलुकसा । विसा ओसवाल ज्ञाती सा. पानाचंद रायचंद, झवेरि नेमचंद वखतचंद, सा. मोती पारेख, सा. वर्द्धमान जीवण, सा. केसरीचंद
नांनचंद, सा. धर्मचंद भुदर, सा. दीवचंद फुलचंद, सा. नेमचंद झवेरचंद, सा. नथुचंद हीरा, सा, फते सुखमाल, सा. खेमा बका, सा. वखत वेलचंद, सा. लालचंद किका, सा. मोतीचंद सोभागचंद, सा. जेठा हरजी, सा. झवेर राजपाल, सा. सवाई जीवणदास, सा. खुबचंद हर्षचंद, सा. नेमीसा सवाई, सा. धर्मचंद डुंगरी, सा, पानाचंद खुसालचंद, सा. सोमचंद नथु, सा. वीरचंद लालचंद, सा. माणिकचंद मलुकचंद, सा. गटक वीरा, सा. केसरसिंघ माणिकचंद, सा. सोमचंद खुसाल, सा. वर्धमान लीलाधर । विसा पोरवाड ज्ञाति सा. लालचंद अखा, सा. फतेचंद रूपचंद, सा. उत्तमचंद देवचंद, सा. खुसाल मंगल, सा. नांनाभाई गलाल, सा. जेचंद गलाल, सा. हरखु मीठा, सा. प्रेमचंद मोतीचंद, सा. प्रसोत्तम हर्षचंद, सा, नरसीदास मयाचंद । भावसार ज्ञाति भा. जगजीवन कुबेर, भा. हीरा भगवान, भा. त्रीकम मीठा, भा. नथुसा, भा. हरजीवन त्रीकम । अथ श्राविकाओ सेठाणि झवेरबाई, श्रा. जोईतीबाई, श्रा. सिंघवण कंकुबाई, श्रा. दुलभबाई, श्रा. नांनीबाई, श्रा. अमृतबाई, श्रा. सूर्यबाई, श्रा. जीवणकुंवरबाई, श्रा. भुलीबाई, श्रा. हेमकुंअरबाई, श्रा. रामकुंवरबाई, श्रा. रत्नबाई, श्रा. सांमकुंअरबाई, श्रा. भुलीबाई, श्रा. हेमकुंअर कुंदलता, श्रा. प्रेमकुंअर, श्रा. रूपांबाई, श्रा. जडाव, श्रा. ईच्छा, श्रा. हेमकुंअरबाई, श्रा. हेमकुंअर-मालीफलीई, श्रा. वीजली, श्रा. सोवनबाई, श्रा. पारबतीबाई, चेली हर्षी प्रमुख समस्त संघके त्रीकाल द्वादशाव्रत वंदना अवधारवीजी । यत श्रीपूज्यजीना सुख संजम निराबाधपणाना, सुखे धर्मध्यान प्रवर्त्यना लेख सविस्तर करी समस्त संघने हर्ष उपजाववा । अपरं च श्रीपूज्यजीने प्रसादे समस्तसंघने सुख-साता , जी । तथा श्रीपूज्यजीनें आदेसे करी पंन्यास श्रीप्रेमविजयजी तथा पंन्यास श्रीनरोत्तमविजयजी अत्र चोमासानी स्थिति सारी पठे साचवी छे जी । श्रीपूज्यजीना गीतारथ जेहवा जोईयें तेहवा ज छ। पंन्यासजी पधार्यां पछी घणां जीव धर्मध्याननें विर्षे प्रवा छे जी। तथा पजुसणांपर्व महोमहोत्सवपूर्वक थया छेजी। तथा श्रीपूज्यजीने प्रसादे सत्तरभेदीपूजा, वीसस्थानक तथा नवाणु तथा सा. तलपदा श्रीमाली मलुकचंद साई कराव्यु अष्टोत्तरी स्नात्रमहोत्सव तथा श्रीहरीपूरामध्ये श्रीलाडुआ श्रीमाली संघ समस्ते पंचकल्याणक तथा नंदीश्वरद्वीपमहोच्छव तथा अष्टोत्तरीस्नात्र महोच्छव तथा बिंबस्थापनमहोच्छव घणा आडंबरें थया छे। तथा विसाओसवाल ज्ञाति सा. गलालचंद सोमचंदे आसाढ चोमासानु सामीवच्छल आवगुं जमाड्युं छे।
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तथा अठाई धरना पारणा सोरठीया स्त्री (श्री) माली ज्ञाति तथा छमछरीना पारणां सा. ओछवभाई तथा सा. हरजीवन धर्मचंदे आऊगो कर्यो छे। तथा प्रभावना तथा तपमध्ये पाखीतप, तथा चोमासितप, तथा छमछरीतप, तथा मांणिकतप, तथा पंचमीतप विधिये सहित तथा छठ, अठम, दशम दुआलस, अठाईयो प्रमुख पोसह पडिक्कमणां व्रत पच्चखांण विसेषें थया छें ते अवधारकुंजी । बिजु श्रीसंघनी विनति एक जे श्रीपूज्यजीनें वांद्यानी श्रीसंघनें उत्कंठा घणी छे । ते माटे श्रीसूरतसेहर वेला पधारवुंजी । घणु सुं लखीं । श्रीसूरतना संघनें श्रीपूज्यजीनी देसना सांभलवाने घणो उछाह छे। ते लिखता पूर्वतुं नथी । बिणुं जे दीवस धन्न करी जांणसुं जे दीवसे श्रीपूज्यजीनो दरसण थस्ये ते माटें श्रीजी साहिबने वेला पधारकुंजी जीम सकलसंघनो मनोरथ पूर्ण थाय। ए वीनती अवधारवीजी । जीहां श्री पूज्यजी देवजात्रा करो तिहां श्रीसूरतना संघनें संभारवोजी । अत्र सिझायध्यानें ज्ञातानी थाय छे, व्याख्यांनमां सूत्र जंबूद्वीपपन्नत्ति वंचाय छे, ते उपर चंद्रप्रभुचरित्र वंचाय छे।
अथ गुरुभास लिख्यते ॥
दूहा :
दरीसण ताहरो देखता, सकल जाये संताप, अंग अधिक सुख उपजें, खुले अनंता पाप. १ गुणवंत मोटा गच्छपति, परगट विद्यापूर, नीर गंगा जिम नीरमला, सही मंत्रधारी सूर. २ भटीयांणिनी ॥ श्रीविजयदेवेंद्रसूरिराया हो, साहिबजी तुम्ह करु विनती, सूरिशिरोमणी सार, देखतां सवी भागे हो, दुख-दोहग जायें थाई ऊन्नति, जेह तणो मुखचंद. १ श्रीविजय..... [आंकणी] वंदो तपगछराय
सुखसंपत्ती थाई हो, सूरी प्रणाम करें थकें
॥ देशी
जन्म कृतारथ थाय, गोयम सोयम आदे हो, सूरीश्वरकू देखके,
शिर नांमे त्रिणकाल. २
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अनुसन्धान- ६५
श्रीविजयदेवेंद्रसूरिराया हो साहिबजि तुम्ह करूं विनती. प्रेमवीजय नित प्रेम हो, सू (सु) खेमविजय वर सुभ मनें, विजय नरोत्तम रूप, अमरविजय नीत वंदे हो, माणिक्यविजय सुपूज्यनें, हेमविजय वर साध. ३ श्रीविजय...... वंदना नित अवधारो हो, तपगछ तणां सिरसेहरो, अवर साधु वर जेह, सपरिकर सवी नांमे हो, त्रीकाले सुखकर सुभ वरा, बत्रीसे सुखकार. ४ श्रीविजय....... लक्षण अंगे बीराजे हो, रूपें सहु जगने मोहता, नीर्जीत कांमविकार,
पंच माहाव्रत पाले हो, प्रवचन आठेसु सोभता,
लब्धि तणा भंडार ५ श्रीविजय...... वाणी सजल - जलद समी गाजे हो, भवीक सीखी श्रवणें सुणी, मोद लहे मनधीर,
सुध धरम उपदेसे हो, भवीयणनें देई हित मुणी,
गुण गावे नर नार. ६ श्रीविजय....... चीत्त धरी सुरतनो हो, वाल्हेस्वर सुअवधारज्यो, सुं लखीइं गुंण तास, पाउसुं सूधारो हो, सूरीश्वर संघ संभारज्यो,
चरण नमें नितमेव ७ श्रीविजय..... संघसिरोमणि वारु हो, सा. भाईचंद सुसेहरो, अवर श्रावीका जेह, वडेरी जोइतिबाई हो, संभारे नित जिम मेहरो, सूरीवरसु तास. ८ श्रीविजय....... श्रीवीजयजिनेंद्रसूरिना हो, साहिबजि तास पटांबरु, महिमा मेरु समांन, दीन-दीन चढते वांने हो, नांमे नव नीद्ध ऋद्ध करु, पांमी गुरुउपदेस ९ श्रीविजय.......
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अनुसन्धान-६५
सूरीश्वर गुण गातां हो, दलीद्द जाइ ते सुभ मणे,
दरिसण दुरित पलाय, गछपतीना गुंण गावे हो, सुप्रेमविजय सिस इम भणे,
वीनतडि ए अवधार. १० श्रीविजय.....
॥ इति श्रीविनति सिज्झाय संपूर्ण ॥ अथाग्रे मुनीवंदनमाह ॥ ___ अत्रत्य पं. प्रेमविजय ग., पं. खेमविजय ग., पं. नरोत्तमविजय ग., पं. रूपविजय ग., पं. अमरविजय ग., पं. माणिक्यविजय ग., मु. हेमविजय ग., मु. गुलाबविजय ग., मु. जसविजय ग., प्र.ठा. ९नी वंदणा १००८ वार अवधारवीजी । साध्वी रत्नत्रयी[श्री], सा. जत्नस्री(श्री)नी वंदणा अवधारवीणी।
॥ अथ गुरुवंदनभास लिख्यते ॥ दूहा : कुंकणदेशमें साहिबा, वीचरो छो गणधार,
तीरथजात्रा नीत करो, करतां उग्र विहार. १ ए देशी दीपे घणो, मुमोईबिंदर बहुमोल, गछपतिजि तुमें सांभलो, सुरतनें नही तोल. २ नीर्मोही देशमें साहिबा, स्युं मोह्या गछराय, सूरतसेहर पधारजो, संघना सीझे काज. ३ मांकण चांचण मगतरा, सूक्षम जिव अपार, सांझ समे मुख पेसतां, मच्छर करें झणकार. ४ सूरतनो सहु संघ मली, विनती लिखें बनाय,
श्रीजि साहिब पधारजो, प्रण, तुमारा पाय. ५ ॥ अथ विनतीना भास प्राह ।। वीरजीने वचनें अमृतरस झरे रे - ए देशी ॥ जनमुखवासनि पद प्रणमी करी रे, विनति करे सुविसाल, संघ चतुर्वीध मलीने विनवें रे, पांमे मंगलमाल. १
सूरत सेहर पधारो गच्छधणी रे [ए आंकणी] ते देसे मोह्या साह्यबा रे, नीसनेही गछराय, वेला पधारो हो सूरतसेहरमा रे, संघने आनंद थाय. २ सूरत.....
सुरतसेहर छे गुरुजि अभिनवो रे, भोजन नव-नवि भांत, साल दाल सुथरा अतिसोभता रे, मेवा तणी घणी जात. ३ सूरत..... संघ तणा मनोरथ पुरवा रे, पउधारो गच्छराय, पनरमा धर्मनाथ जीनेंसरू रे, वली सुरजमंडण पास. ४ सूरत..... संघ चाहे छे गुरुजिने अह-नीसे रे, वीनतडी अवधार, सा. अमीचंदकुलमणी दीनकरू रे, मात सरूपा-उरहार. ५ सूरत.... वाट जोता पुज्यजी बहु दीन थया रे, संदेसा केइ वार, पिण मनमें तुमे आंणो कीम नही रे, द्यो दरीसण एक वार. ६ सूरत... तुम दरीसण वीण सुरत संघने रे, घडी एक वरस समान, संघ वंदावा पुज्यजी पधारीये रे, यो उपदेसनु दान. ७ सूरत..... मुमाईबिंदरनो संघ ते जाणज्यो रे, कामणगारो ते होय, भोलवि राख्यो गुरुजिने तिहां कणे रे, मनमा विमासीने जोय.८
सूरत.... जण जण पुछे हो सुरत संघना रे, गछपति आवंता दिठ, आडा ढुंगर दरीया अति घणा रे, पण मनमाहें पईठ". ९ सूरत..... एम करवु गुरुजिने नवि घटे रे, स्युं ललचावो दीन-रात, एकवार संघने वंदावा पधारीइं रे, कहीई केतलीक वात. १० सूरत..... तुम आवेथी गछपति अतिघणो रे, संघने बहु सुख थाय, संघने विसरता गुरुणि नवि बने रे, गुणनीधी गछपतिराय, ११ सूरत.... सीता चाहे हो दशरथपुत्रने रे, जिम रेवा गजराज, तिम ईछे छे गछपतिराजने रे, गुरुदरिसण सुखसाज, १२ सूरत..... अंग उपांगे पाठक सोभता रे, चरक-करण सीत्तरी गुंण ग्यांन, ए पंचविस गुणे करी दीपता रे, वाचक माणिक्यविजय सुभ ध्यान. १३
क्षमा कांति हीरे रूपे भला रे, रत्न गुमांन सुदर्शन तेह, कस्तुरविजय आदे सहु मुनिवरा रे, वंदना होजो नित नित एह. १४
सूरत..... अमीय समाणी हो गुरुनि देशना रे, सांभले ते नर नार, धन ते दिन वली धन वेला घडी रे, गछपति वांदे सुखकार, १५ सूरत.....
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(१८) वीसलनगरमा बिराजमान विजयदेवेदमूरिजीने ___ जोधपुरथी पं. सिद्धविजयजीनो पत्र
विजयजिनेंद्रसूरिना पट्टधरू रे, विजयदेवेंद्रसूरीराय, सूरत संघनी विनंति मांनीइं रे, अमर नमें नित पाय. १६ सूरत..... ॥ अथाग्रे मुनिवंदनमाह ॥
॥ तत्रत्य ॐ श्रीमाणिक्यविजयजी, पं. खेमाविजयजी, पं. शीवचंदजी, पं. कांतिविजयजी, पं. हीरविजयजी, पं. रत्नविजयजी, पं. जीतसागरजी, पं. दर्शनविजयजी, पं. गुमानविजयजी, पं. दांनविजयजी, पं. धर्मानंदजी, पं. मांनविजयजी, पं. किस्तुरविजयजी, पं. हेमविजयजी, पं. जीतविजयजी, पं. अमीचंदजी, पं. हर्षचंदजी, पं. लालचंदजी, पं. वृद्धिचंदजी, पं. नरंद्रसागरजी, पं. वीरमविजयजी प्र. परिवारने वंदणा कहविजी । श्रीश्रीश्रीश्री श्री ॥
संवत् १८८९ वर्षे मासोत्तममासे माघमासे शुक्लपक्षे पंचमितिथौ ५ शनौ वासरे श्रीयां भवतु । श्री।
अन्य पत्रनी जेम आ पत्रमा पण संस्कृत पद्यो द्वारा पांचे जिनेश्वरोनी वन्दना पूर्वक पत्रलेखननु मङ्गलाचरण कयुं छे । त्यारबाद बीजां संस्कृत पद्योथी माणिभद्र यक्षराजनी स्तवना करी कविए छप्पयमां तेमज 'आज भले....' ए देशी द्वारा गुर्जर देशनुं तेमज वीसलनगरनुं सुन्दर आलेखन कयुं छे । वीसलनगरनी राजाखान (?), मन्त्री इच्छाचन्द, पण्डित भाउ फणेस, शेठ मनछा मगनजी, हेमजी, जेठा लखमी, मेता रामजी विगेरे राज्यपदाधिकारीओनुं वर्णन करी कविए त्यांनां जिनालयो, जैनेतर मन्दिरो, वाव-तळाव विगेरे स्थापत्यो, धर्मशाळा, पोशाळादि स्थानोनो तादृश चितार पत्रमा रजू को छे । 'म्हारा पगल्याने....' ए देशी द्वारा गुर्जरदेशना लोकोनु कटाक्षबद्ध स्वरूप आलेखी सूरिजीने जोधाणा पधारवा अरज करे छे । सूरिगुण ३६ नुं स्वरूप 'चन्द्रप्रभ मुख...' ए देशीमां वर्णवी अन्य गुणोनुं वर्णन त्यार पछीना कवित्तमां तथा संस्कृत श्लोकबद्ध रचायेल लघुकाव्यमां कवि रजू करे छे । आ पत्रनां संस्कृतपद्यो आगळना पत्रमा मळतां संस्कृत पद्य जेवा ज छ। फरकमां त्यां ज्या पालनपुर नगरनुं नाम छे त्यां अहीं वीसलनगरनुं नाम जोवा मळे छ । वीसलनगरनां जिनालयोने जोइ भक्तिवश आप त्यां अत्यार सुधी भले रह्या पण हवे करुणा आणी अमने दर्शन आपवा आप जोधाणा पधारो एम कवि विनन्ति करे छे । अहीं जिनालयोनी साथे सकळायेली विगतो ऐतिहासिक दृष्टिए घणी महत्त्वनी छ । त्यार पछीनी ढाळमां कविए मरुधरदेशनुं, जोधाणा नगरनु, पोळ, सरोवरादि स्थापत्योर्नु वर्णन आलेख्युं छे । फरी त्रिभङ्गी छन्दमां मरुधरनु, त्रोटक छन्दमां मानसिंह नृपतिनुं तथा 'अज जिम.....' ए देशीमां राज्यपदाधिकारीओनुं तेमज नगरना परिसरमा आवती तीर्थभूमिओनुं अने नगरना जिनालयोनुं अद्भूत वर्णन कविए रजू कयु छ । त्यार पछीनां पद्योमां पूज्यश्रीना निश्रावति श्रमणवृन्दने पोतानी साथे रहेला मुनिवृन्दनी वन्दना जणावी पत्रालेखननी संवत् साथे स्वनामोल्लेखपूर्वक पद्यपत्रनुं कविए समापन कयु छ । मुडीया
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लिपिमा लखायेल गद्यपत्रनी शरुआत सूरिना ३६ गुणोनी वर्णनाथी करी पं. सिद्धविजयजीना सफळ चातुर्मास अंगेनी विगतो श्रीसङ्के रजू करी छे । फरी आवता वर्षे पण आमनेज चातुर्मास अहीं राखशो एवी विनन्ति करी पत्रसमापन करे छे । पत्रान्ते सूरिजीना श्रीसङ्कमां पधारता थता उत्साहनी विगतो नोंधी खामणा लखवापूर्वक लेखक पत्र पूर्ण करे छ ।
प्रस्तुत कृतिनी रचना दीपविजयजीना शिष्य कवि सिद्धविजयजीए करी छे.
॥०॥ श्रीजिनाय नमः ॥ श्रीमत्पञ्चपरमेष्ठिने नमः ॥ श्रीपञ्चतीर्थपतये नमः ॥
श्रीयक्षाधिपतये नमः ॥ वंदे श्रीआदिनाथं सकलसुखकरं देवदेवेन्द्रवन्द्यं, राजा श्रीनाभिधेयं जगतजयकरं तस्य वंशेषु जातम् । मातर्मरुदेवि(वी)नाम्नी सकलशुभकरी कन्दराकुक्षिसिंह, तस्मिन् चरणे लुठन्ति शिववधु(धू) वधु(धू)टी सिद्ध मे संदर्द(दा)तु ॥१॥ ॥ श्रीशान्तिनाथस्तुतिः ॥
श्रीशान्तीश्वरं जिनवरं प्रणमामि भक्त्या, विश्वेश्वरस्य कुलसम्भवशुभ्रसक्त्या (?) । तन्नामधेय सुखसम्पदकारको मे,
गर्भस्थितैव प्रकरोति च रोगहानि(नि) ॥२॥ ॥ अथ श्रीनेमिस्तुतिः ॥
नेमिर्नेमवरं विभू(भुर्जयकरं श्रीचन्द्रवंशोद्भवं, श्रीयादवकूलभूषणं शुचिवरं सामुद्रविजयानुजम् । राजीराजीमतीविबोधनपरं कामद्रुमोन्मूलयन्,
वन्दे नेमिजिनं द्विविंशमवरं कारुण्यपुण्यापणम् ॥३॥ ॥ श्रीपार्श्वनाथस्य स्तुतिः ॥
पार्वेशं पार्श्वनाथं कमठशठहठं कन्दकुद्दालभूतं, वामामातप्रसूतं कलमषलहरं अश्वसेनावतंशम्(सम्) ।
तीर्थे सम्मेतशिखरे(शैले) शिवपदविलसन् नामविख्यातकीर्ति(ति),
एतत् पावं नमामि धरणिपदयुतं नागनागेन्द्रवन्धम् ॥४॥ ॥ श्रीवर्धमानस्तुतिः ॥
वीरं वीरजिनेश्वरं द्युतिमहान् दिव्या विभूत्यान्वितं, मेरुश्चालनचालनैकप्रवरं सिद्धार्थसूनो मही । एतत्तीर्थपति सुरेन्द्रमहितं श्रीगौतमाराधितं,
धीरत्वादिगुणान्वितं जयतु मे श्रीवर्धमानो जिनः ॥५॥ ॥ श्रीमाणिभद्रस्तुतिः ॥
बहून् पूज्योभ्यों जगति जयकर्ता शुचिनृणां, गदां चक्रं पुष्पं विमलफलदां अंकुशधरम् । महान्माणिक्येन्द्रो विजयत हहैत्युत्कटवरं, वैस(सबै) श्रीपूज्येभ्य वितरतु मनोवाञ्छितसुखम् ॥६॥ एतत्पञ्चजिनाधीशान-प्रणम्य परमेष्ठितः ।
जक्षाधीशं च सानन्दै-लिख्यते लेखपद्धतिम् ॥७॥ ॥ अथ लेखपद्धति ॥
प्रेमें प्रणमु भारती, गणपति गुणगंभीर, सदगुरुचरण सुहकलं, तीरथपति जिन वीर. १ सहु देशां सिरसेहरो, धर्मधुराधर धीर, गुर्जर जगमां परगडो, निरमल गंगा नीर. २ वड कवि ओपम वर्णवै, मन धरि मतिनी दोड,
पिण सुरगुरु न कही सकै, धर गुज्जरनी जोड. ३ छप्पय : गुणनिधि है गुजरात, देश सारां सिर दीपत,
काबल बलख खंधार, जोर तिणही को जीपत, बहु बुधि रिध-सिधवान, वसै तिहां नर ही विचक्षण, दयाधरम उर धार, जिन गुरु पूजत नित जन, उपगार करत नर नारि अति, सकल काम सुख अनुसरै, गुजरात देस अति वेस इण', कहो होड कुण तसु कर. १
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॥ आज भलें दिन ऊमाहो ए देशी ॥
सहु देसां सिर सोहें हो मन मोहै नर नारी तणा, गुज्जर धर सुभ वेस,
रोग सोग नहीं व्यापे हो संतापें कोपे पापनें,
आपे सुख अति वेस. १ सहु ...... नित प्रति सहु नर नारी हो, सुभकारी सारी सोहती, मोहती इंद नरिंद उज्वल अनुपम वेसें हो, सुखलेसें नयनां चोरती
मोरती मान महेंद. २ सहु..... दिव्य रूप धरें देही हो, जग तेही इंद्राणी नही, पूजें जिन त्रिण काल, घट कायक प्रतिपालें हो, रखवालें प्रवचनमातनें,
वन्दन अनूपम राजें हो, सुख साजै सारद चंदज्युं, वचन अमृत रसाल, तिण ही ज उत्तम देसें हो, नहीं क्लेसें रेसे सुंदरुं,
वीसलनयर विसाल. ४ सहु..... ओपम एहनी कहवा हो, नवि लहवा गुरु निज बुद्धिथी, मुझथी किम कहवाय,
तो पिण बुद्धि विस्तारै हो, किंचित् वर्ण,
सत्य शील सुभ चाल. ३ सहु......
तिहां राजिंद सुखसाजे हो,
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सद्गुरुपद चित्त लाय ५ सहु..... अनड अभंग अगंजी हो, नहि रंजी अरिदल देखनें, गढ मढ पोल प्रचंड, बहुरंगा खाइ-बंधक,
कंगुर भुरज छै चंगा हो,
ठंडा अति ब्रह्मंड ६ सहु...... विराजें नीत गुणें करी, षट्दर्शनप्रतिपाल,
खान महा सुलतान हो, सुभवान दानगुणें करी,
मानमहेंद रिपुसाल. ७ सहु......
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नित प्रति स्वधर्म पालता हो, सुद्ध माला इष्टना नामनी, जपमाला जग सार, रटत सदा तन मनथी हो, वली वचनें स्तवना इष्टनी, सिष्ट सदा हितकार. ८ सहु...... अनमी जगमें राजे हो, दिवाजे साजें तेजथी, मानुं रवि परभात, उदयो गुणगण किरणे हो, नहिं वरणे रातो रोसथी, पोसक परम सुजात. ९ सहु......
तस मंत्री मनमोजें हो, नहि खोजें पापसंतापने, इच्छाचंद सुभ चाल,
चोर चरडने दंडे हो, नहि खंडे आण नरिंदनी,
हाकम दीनदयाल. १० सहु...... पंडितपद करि राजे हो, वलि गाजें राजेंद काममें, भाउ फणेस विख्यात,
सेठ पदें सुभ गाजें हो, विराजें मनछा मगनजी,
देवी अमोलख जात. ११ सहु..... हेमजी जेठा लखमी हो, नहि विषमी सरधा तेहने, केसव चिमन गुलाब,
मेंता पदमें राजें हो, वलि उत्तम सारथ रामजी,
एहनें धर्मनो जांब. १२ सहु......
अवर वली गुरुरागी हो, सुभ जागी सरधा तेहने, अधिका लिखमीवंत, वलि तिहां पवन छतीसे हो, मन हीसें सदगुरु नामसुं, वसत सदा सुख संत. १३ सहु...... वलि जिनघर तिहां चंगा हो, मनरंगा पास चिंतामणि, च्यार भूम चोसाल, शांतीसर मन भाया हो, सुखदाया सेवक संतनें,
धन्य ते पूजे त्रिण काल. १४ सहु......
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नगर सदा रखवाले हो, प्रतिपाले अंबा कालिका,
भीमनाथ महादेव, जालेसर दरवाजें हो, विराजे अधिकी खंतसुं,
सारें सब जन सेव. १५ सहु..... हीरावाव सुचंगी हो, नहि भंगी गंगतरंगथी,
पालीबंध तलाव, वाग मनोहर सोहे हो, मन मोहें रागी लोकनें,
देखत अधिको चाव. १६ सहु..... धर्मसाला सुविसाला हो, तिहां जाला कर्मना कापवा
वडतपगछनी सार, जाली गोख जरोखा हो, जहां "जोखां करता मुनिवरा,
धर्मध्यान उरधार. १७ सहु..... तेह नगरना वासी हो, विसवासी इक गुरुचरणना,
वीनति करें बहुवार, पूज पधारें वेगें हो, नहि छेगें संघनी वीनती,
साथे मुनिपरिवार. १८ सहु..... संघ वधावै हरखै हो, धन वरषै पावस मेघज्युं,
गुहलीगीत रसाल, भक्तिवसें गुरु आगे हो, वड भागे आगम सांभलें,
सिद्ध सहाइ विसाल. १९ सहु.... ॥ छंद - छप्पय ॥
वीसलनयर सुधाम, सहर सारां सिरसेहर, धर्म दया उरधार, पापदल दूरे परिहर, संघ सहु त्रिण वार, साचै मन जिन सेवै, भावै द्वादश भाव, दान सुपात्रे देवै, विजैदेवेंद्रसूरि वंदै विविध, भाव सक्ति मति अनुसरै,
वीसल अनूप गुर्जर धरै, कवि ओपम कहां तक कर. १ दूहा : सहरा घणा उण देसमें, एक एकथी सार,
पिण सहू जगमां परगडो, वीसलनयर उदार. १
॥ म्हारा पगल्याने पायल लाज्यो - ए देशी ॥
गुणनिधि गुज्जर मोह्या हो सदगुरु म्हारा, छयलछबीला हो श्रावक देखने, थारी सूरति अति सुंदर सुखदाइ हो सदगुरु म्हारा,
नयण उमाया हो दरसण पेखवा.१ जिम चंद चकोरी मेहा हो सद..., चात्रक मनमे हो नित प्रति चिंतवै, जिम चंपकतरुवन लीनो हो सद..., भमर ते भीनो हो नित प्रति चिंतवै. २ वलि दिनकरतेज उमाया हो सद..., कमलनी विकसें हो सहसकिरण थकी, तिम तुम्ह गुण मन लीणो हो सद..., तन वलि चीनो' हो गुरुचरणां थकी. ३ गुर्जरलोक ठगारा हो सद..., मोहनगारा हो मोह्या गुरु भलै, स्युं स्युं बोली बोलें हो सद..., कपट न खोले हो अंतर एटले. ४ पीलर वरण देहा हो सद...., मानवदेहा हो सुंदर भामनी, कृसतनु केसरवेसें हों सद..., अंबरदेसें हो मार्नु “दामनी. ५ गुरुनी भक्ति घणेरी हो सद...., करै अनेरी हो नव नवी भांतसुं, दुमक चिंतामण पामी हो सद...., तिम परि परिखें निरखें खांतसुं. ६ मात सरूपा उरजाया हो सद...., सुजस सवाया हो अमीकुलचंदमां, दिनकर तुल्य प्रतापी हो सद...., चोपडागोत्रे हो जिम घन चंद्रमा. ७ गच्छ चउरासीनो राजा हो सद..., चढत दिवाजा हो तखत तपा तणे, जोधाणे नयर पधारो हो सद..., अरज अवधारो हो संघ सहु इम भणै. ८ दरसण द्यो वडभागी हो सद...., तन-मन-रागी हो इक गुरुचरणथी, प्रवर पंडितपदधारी हो सद...., दीप जयकारी हो सिद्ध कहै सरणथी. ९ दूहा : सारद सार दया करी, दीजै वचन विलास,
गुण गाउं सदगुरु तणा, अष्टोत्तरशत खास. १
॥ चंदाप्रभु मुखचंद सखी मोए देखन दे - ए देशी ॥ पूज चरण सुखदाय सखी मोयें वंदन दे, अहनिशि नमु चित्त लाय सखी मोयें वंदन दे, इंद नरेंद मन भाय सखी मोयें वंदन दे, तन मन वचन उमाय सखी मोयें वंदन दे,
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परमानंदपद थाय सखी मोयें वंदन दे, भारतीकंठ विराजता सखी वंदन दे, कलि गौतम अवतार, सखी...... अबोध जीव प्रतिबोधवा सखी...., तप तेजें दिनकार सखी.... १ पूज.... एक असंजम टालता सखी...., दुविध धर्मदातार सखी...., तीन तत्त्व वाचक वरु सखी...., च्यार कषायकुठार सखी.....२ पूज.... पंच महाव्रत पालता सखी...., जीवरक्षक षटकाय सखी...., भय साते ही परहर्या सखी...., आठे मद ही हठाय सखी.... ३ पूज.... वाड नवे ब्रह्मचर्यनी सखी...., पालक विसवावीस सखी...., आदर करिने आदर्या सखी...., दश यतीधर्म जगीश सखी.... ४ पूज.... वाचक अंग इग्यारना सखी...., पडिमा मुनिनी बार सखी...., धारक वारक मोहना सखी...., पारक सुद्ध आचार सखी.... ५ पूज.... जीत्या तेरै काठिया सखी...., चउद विद्या बहु जांण सखी...., सोहमगणधरपटधरा सखी...., पनरै सिद्ध वखांण सखी.... ६ पूज.... सोल कला शशि निरमला सखी...., पूनिम परें जस लीध सखी...., सतरै भेद संयम वरा सखी...., एकंत तन मन कीध सखी.....७ पूज.... सील अंग जिन उपदिस्या सखी...., धारक सहस अढार सखी... काउसगना वलि जाणिये सखी...., उगणीस दोष निवार सखी.....८ पूज..... वीसथानिकतप आकरा सखी...., उपदेशक गुरुराय सखी....., इकवीस सबला सिद्धांतमे सखी...., जाण तज्या मुनिभाय सखी.....९ पूज.... दुर्धर-परिसह जीपीया सखी...., मन-सुद्धे बावीस सखी...., सुयगडांगना वीरजी सखी...., कह्या अज्झयण तेवीस सखी.... १० पूज.... आणा जिन चोवीसनी सखी...., पालक आप जगीस सखी...., भावना पणवीस भावता सखी...., कप्पाज्झयण छवीस सखी.... ११ पूज..... निरमल गुण मुनिराजना सखी...., जाणक सत्तावीस सखी...., नंदीसूत्रमें मतिज्ञानना सखी...., भेद कह्या अडवीस सखी.... १२ पूज.... पापश्रुत सिद्धांतमें सखी...., कह्या जिनवर गुणत्रीस सखी...., मोहनीकर्मनें वारता सखी...., पूरा थानक तीस सखी.... १३ पूज.... सिद्धनां गुण तें जाणिया सखी...., शास्त्र थकी इगतीस सखी...., जोगना संग पिण धारीया सखी...., वलि लक्षण बत्रीस सखी.... १४ पूज....
आशातन सदगुरुतणी सखी...., टाली आप तेतीस सखी....., अतिसय जिनना जाणता सखी...., उपदेशक चोतीस सखी.... १५ पूज..... वाणी गुणथी गाजता सखी...., त्रिगडै जिन पेंतीस सखी....., छत्तीस उत्तराध्ययनना सखी....., वाचक आप जगीस सखी..... १६ पूज..... गणधर पदना गुण घणा सखी....., पिण संख्या छत्तीस सखी...., पंडित दीपविजय तणो सखी...., सिद्ध नमें निस दीस सखी..... १६ पूज....*
[अनुद्दत पद्यो-] [....अवसर पामी सार. ३ पृ. २०० पछी-] मनआनंदे महामुनी, वंदै पास कल्याण, आदीसर अवलोकतां, मन उपनो सुभ ध्यान. ४ तीन सिखर भूमी वली, तीन तिहां जिनराय, वांदी बैठा मुनिवरा, मन आनंद न माय. ५ वली कंसारापोलमै, देहरा दीपै दोय, जेठा लखमीचंदनो, वली दलजी खुस्यालनो होय. ६ खजुरी मोहला विचै, उपासरो चोसाल, तिहां विराजे गणधरा, देशन द्ये सुविशाल. ७ वेदवाडीमांहि वली, वायांनी ध्रमसाल, आगे वली त्रिपोलीयो, चलै तिहां सुभ चाल.८ संवेगी मुनिवर तणो, उपासरो इक सार, मोलवाडामें देहरो, कर्मचंदनो धार. ९ इत्यादिक महाधामनें, ..... आ पत्रमा हवे पछी आवता दूहा, श्लोक, ढाळो व. पालनपुर विराजमान विजयदेवेन्द्रसूरि पर रूपेन्द्रसागरजीओ नागोरथी लखेला पत्रमा (क्र, १९) यथावत् उद्धृत थयां छे. तेथी ओ पद्यो अत्रे न लेतां फक्त अनुद्धत पद्यो ज अत्रे छाप्यां छे. समग्र पत्रना वर्णनक्रमनो ख्याल आवे ते हेतुथी पत्रनी सम्पादकीय भूमिका यथावत् राखी छे. वास्तवमां आ पत्र मूळभूत होवाथी अने रूपेन्द्रसागरजीनो पत्र आना पनलेखनरूप होवाथी आ पत्रमा बधां पद्यो छापी बीजा पत्रमा अतिदेश करतो जोइतो हतो, पण अमारी पासे लखाण अलग क्रमे आव्यु होवाथी तेम करवू शक्य नथी बन्यु. - शी०।
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[पोलां सात प्रचंड छै.... पृ. २०१ पछी-]
राणीसर जग दीपतो, जीपतो लहर तरंग सुगुरुजी, गुलाबसागर जलथी भर्यो, रहत सदा जल चंग सुगुरुजी. ७ मरुधर..... तिहां राजा जग राजतो, गाजतो तेज अनंत सुगुरुजी, मांन महीपति मरुधरै, बुद्धिबलें विलसंत सुगुरुजी.८ मरुधर..... सूरवीर साहसधरु, खाग त्याग निकलंक सुगुरुजी, जोधांसिरे जस जयकरूं, सबला मांने संक सुगुरुजी. ९ मरुधर..... वचन न खंडे आपणो, धर्मथी अधिक मंडाण सुगुरुजी,
तन धन ममता परिहरें, सिद्ध वचे सुप्रमाण सुगुरुजी. १० मरुधर...... ॥ छंद - त्रिभंगी मरुस्थलस्य ॥
सहुदेसासारं, ........ [वंदुं चित्त लाय के'. पृ. २०५ पछी-] रूपविजय महिमानि(नी)लो, रत्न मुनिवर हो रत्ननी खान कें, हीरविजय अति हरखसुं, नित सेवे हो दानविजय जांण के. ३ श्रीविजय.... सुदरसनविजय चित्त उजलें, विवेकसागर हो अति विनयप्रधान के, गुमानविजय गुण आगला, रंगसागर हो रहें चरण प्रमाण के. ४ श्रीविजय.. इत्यादिक मुनिवरघणा, सेवें सदगुरु हो नित चित्त लगाय के, मन तन वचनथी साचवे, गुरुसेवा हो सव सुखनी दायकें.५ श्रीविजय..... इहांथी वंदें भावसुं, नगजयमुनि हो नित नवले रंग के, ईसरविजय आणंदथी, सिधजयमुनि हो मनरंग अभंग के. ६ श्रीविजय..... रिषभविजय रंगें नमें, नवलमुनि हो तुम वंदें भाय के, मानविजय मनरंगथी, संभूमुनि हो सुभ वदन उमाय के. ७ श्रीविजय..... गौतम जयपद चाहतो, मुनिभावें हो मोती मन आंण के, दुरगो जीतो जयकरु, भगवानो हो गंग अगर प्रमाण के. ८ श्रीविजय..... इहाथी मोहन वंदना, मानीजै हो गुरु वार हजार के, सहु मुनिवरथी वंदना, कहज्यो अहनिशि हो नित करुणाभंडार के. ९ श्रीविजय..... रामसिरी अति रंगसु, वंदै सुभ मनै हो पूरै अनुराग के, कनकसिरी करै वंदना, अमृतसिरी हो अधिकै वडभाग के. १० श्रीविजय.....
धन्य ते श्रावक श्राविका, गुरुचरणें हो रहें चित्त लगाय के, तेहनें धर्मलाभ माहरो, वलि संघनी हो वंदना मुनिराय के. १०(११) श्रीविजय..... तिहांना संघ प्रतें वलि, सहु संघनो हो कहज्यो परणाम के, संघ प्रतें संभारण्यो, देवदरसने हो करुणाना धाम के. ११(१२) श्रीविजय..... संवत रसनवसिद्धविधु (१८९६), पोषमासे हो शुचि पांचमी दाख के, गुरुवारें गुरुगुण भला, गाया भावे हो तन-मननी साख के. १२(१३) श्रीविजय..... तपगछमा अति दीपता, गुरु गिरुवा हो गुणना भंडार के, गुलालविजय गहरा गुणी, शिष्य दीपक हो जय सिद्ध मन धारकें १३(१४)
श्रीविजय.... ॥ श्री जिनाय नमः ॥ स्विस्ती श्रीविसलनगर सूभ सुथांने पुज परमपुज सरब औपमाविराजमान, अनेक
ओपमालायक००० छतीस छतीसी एकसौ आठ सूरीश्वरगुणै करी विराजमान, जंगमजूगप्रधान, सकलभट्टारक सिरोमणि पुरंदरभट्टारकजी श्रीश्री१०८ श्रीश्रीश्रीश्रीश्रीश्री विजयदेवेंद्रसूरीश्वरजी चरणान् चरणकमलायत जोधपुरथी सदा अग्याकारी चरणसैवि समसत संघ लिखतं वंदणा १०८ वार दिन प्रते त्रिकाल अवधारसि अठारा समंचार श्रीश्रीजीरा तेज प्रताप सुनिजर कर भला छै। श्रीश्रीजी साहबा रां धरमध्यांन खांन पांन रा सदा सरवदा आरोग्य चाहीजै । श्रीश्रीजी साहबा रां दरसण री अभिलाषा अत्यंत है सू संघ ऊपर कीरपा करनै दरसण दीरावसौ तिको दिन सफल हुसी । अठे चांमासा ऊपर संघरे नांवे सूवरण वरणा आलंकृत पत्र सदा आवै है । सू अस आयौ नही सू किरपा करनै दीरावसी । संघनू भुलौ न चाहीजे। संघ तो सदा सुसेवक छै। तथा उण चामासी संघ उपर कीरपा करनै पं. श्रीसिधविजेजीनू मेलीया सु घणा जोग्य छै ने श्रीजिनराजरौ धरमध्यांन पोसो पडिकमणौ वखांणवाणी जिनपुजादिक री बधोतर उछव आछी तरैसू हुवा छै। ने फैर उछव धरम री वधोतर सदा हुवै छै, ने वाख्यांण श्रीनंदिजी मे श्रुतज्ञांन रौ, उपदेसामे समकीतसूत्र रो ईधकार वचीजै छे सु मालम रैहसी । नै आवतौ चांमासो अठे रखायासुं संघनै उपदेस धरमध्यांन पढावण री बधोतर आछीतरैसू हुवै छ, सु कीरपा करने चांमासौ बेठा-बेठ रखावसी । संघे वीनती अठे खेत्रेमे धरमध्यांन रौ कालानुसारै लाभ देखने लिखी है। सू जरुर मनावसी । बीजु तौ श्रीश्रीजी साहब कीरपा करने मेलो सु प्रमाण छै। पीण अवरके तौ जरूर बेठाबेठ रखावसी ।
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घणौ कांई विनवां आप तौ सरव जांण छौ। श्रीसूधर्मास्वाम री गादी विराजीया छौ सु जरूर कीरपा कर संघने लाभ देखीनै ईणांनुं रखावसि । संघ उपर कीरपा सूदृष्टी रखाव जिणथि विसैष रखावसी । श्रीधरमध्यांने देवजात्राए संघनै याद करावसी वलमांन सूखलेख कीरपा करने दीरावसी। संघ लायक सेवा बंदगी फूरमावसि। सरब साधूनै वंदणा केसी । संवत् १८९६ रा पोस सुद १४ सुकर वार खीवजा राजगरा सुग चंद हरखचंद रही... वनण (णा) वंचावसी..
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दूहा : संघ सकल मिलनें सदा, [आ चार दूहाओ पृ. २०७]
| देशी - गुहंलीनी ॥ सवाई गुरु एहनी चाल ॥
प्रणमी श्रुतदेवी माय, गाउं श्रीतपगछराय, जस नामें नवनिधि थाय,
सूरीश्वर वीनती अवधारो, हित नित करि (री) चित्तमां विचारो जोधाणें जरूर पधारो, आवी वीरजिणंद जुहारो. २ सूरीश्वर ......
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तुम्ह दरसन प्यारे लागे, संघ वीनवें अधिक रागें, चोमास करो वडभागे. ३ सूरीश्वर..... गुरुसूरति मोहनगारी, सहुनें देखत लागें प्यारी, एह गुरुनी जाउं बलिहारी. ४ सूरी.... संघनो आग्रह मानीजें, वाणी अमृतरस पोषीजें, गुरु चरण कृपारस दीजे. ५ सूरीश्वर... गुरु आयां लाभ ज थास्यें, व्रत नियम तपादिक आस्यें, पटकूल घरे पथरास्यें. ६
सूरीश्वर.......
पोसा पडिकमणा सार, साहमीनी भगति अपार, वरस्यें सिद्धपद जयकार. ७ सूरी..... इच्छामि खमासमणो वंदिउं जावणिज्जाए निसिहीआए मत्थएण वंदामि। इच्छाकारेण संदिसह भगवन् अब्भुटिओहं अब्भिंतर दिवसीयं राइयं पक्खियं चउमासिय संवच्छरियं पांचे पडिकमणें खामेउं इच्छं |
सीरी सीरीमल मनरूप जुहरमलरी वदण १०८ वर वदण वचावसी । वनण १०८ वचावसी कीराप (रपा) राखावसी ।
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अनुसन्धान- ६५
पालनपुर बिराजमान विजयदेवेन्द्रसूरिजीने नागोरी कागजीनो पत्र
संस्कृतमिश्रित गुर्जर पद्यमां आदिनाथ प्रभुनी स्तुति द्वारा कवि पत्रालेखननी शरुआत करे छे. त्यार पछी अनुक्रमे शान्तिनाथ, नेमनाथ, पार्श्वनाथ, वीरप्रभु तेमज माणिभद्रजीनी स्तुतिरूप मङ्गल करी कविए गुर्जरदेशनं वर्णन शरु कयुं छे । ज्यां शत्रुञ्जय अने गिरनार जेवां पावन तीर्थो छे ते देशनां केटला वखाण करी शकाय तेम कही कविए पालनपुर नगरनी वर्णना करता पल्लवीया पार्श्वनाथ जिनालयमां थता महोत्सवनुं, त्यांना श्रावक-श्राविका गणनं, व्यापारीवर्गनुं नर-नारी वृन्दनुं सामान्य वर्णन आलेख्यं छे। त्यार पछीना दूहा तथा देशीमां सूरिजीना ३६ गुणोनी वर्णना करी कवि विजयदेवेन्द्रसूरिजीना गाम, माता, पिता, वंशादिना नामोल्लेखपूर्वक स्तुति द्वारा सूरिजीने नागोर पधारवा विनन्ति करे छे । सवैया तथा कवित्तना पद्योमां फरी सूरिगुणस्तवना वर्णवी पछीना पद्योमां गुरुदर्शनना अभिलाषने कवि वर्णवे छे। पत्रनी मध्यमां २१ श्लोक वडे करायली सूरिगुणवर्णनाने आ पत्रनी विशेषता कही शकाय । पालनपुरमां पूज्य श्री शा कारणथी पधार्या ते कारणोने जणावी करुणाथी ए गुरुजीने मरुधरमां पधारवुं जोइए एम रजूआत करे छे । 'आज हजारी" देशीमां नागोर शहेरनी राज्यव्यवस्था, स्थापत्यो, जैनेतरमन्दिरो, जिनालयो, उपाश्रयोनी अद्भुत वर्णना रजू करी छे। त्यार पछीनां पद्यो पण उपरना ज वर्णनना पूरक होइ राजाधिराजना गुणोनुं तेमज राज्यरिद्धिनुं वर्णन त्रिभङ्गी छन्दमां तथा त्रोटक छन्दमां कवि आलेखे छे । राज्यना अन्य वहीवटदारोनुं वर्णन 'अज जिम...' ए चालमां करी नागोरना परिसरनी अन्य तीर्थभूमिओनो कविए सुन्दर चितार रजू कर्यो छे सूरिजी साथे विराजमान मुनिवृन्दने पोतानी तेमज सहवत्ति मुनिवृन्दनी वन्दनानुं आलेखन 'अजित जिणंद' ए देशीमां रजू करी गद्यपत्रनी शरुआत सूरिगुणवर्णनथी ज करे छे। पं. रूपेन्द्रसागरजीनी चातुर्मासिक आराधनानो उल्लेख त्यार पछीना गद्यपत्रालेखमां जोवा मळे छे। फरीना चातुर्मास माटे पंन्यासजीने ज राखवा एवी विनन्ति करी आगळना दूहाओमां
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सूरिजी प्रत्ये मिलननी आतुरताने रजू करे छ । पत्रान्ते नागोरना श्रीसना चातुर्मासनी विनन्ति अवधारवा विनवी सङ्घमां पूज्य श्रीना पधारता थनारा उत्साहनु वर्णन करी खामणा खामी पत्र पूर्ण करे छ ।
प्रस्तुत पत्रनी रचना पण्डित मानसागरना शिष्य कवि रूपेन्द्रसागरे करी छ ।
शब्दार्थ
१. लरै = दबावे (?)
१६. अज्झ = आर्य २. मनमेर = मनस्मर-कामदेव १७. जझं = युद्धमा ३. कहांसत = कहेवावं
१८. दफै = नाश करे ४. ढूंक = अन्य शिखरो १९. धोंस = अवाज ५. ६ = धूवनो तारो
२०. उत = जाणे ६. सुपरे = सारी रीते
२१. तडिदाह = विजळी (?) ७. दिनथाट = घणा दिवसो सुधी २२. इत = अहीं (?) ८. पूरतंत्र = (तपना परम) तंत्रथी पूरा २३. सेल = एक प्रकारनो भालो ९. नूरजंत्र = रूपथी (जाहेर) अने २४. खांप = आभला यंत्रमा (निपुण)
२५. अरकीयो = अटकीयो - अट्क्यो १०. कूरहंत्र = क्रूर (कषायने) हणनार २६. गर = घरे ११. अनड = अनम्र
२७. नीराट = नौरांत १२. कुंगर = कांगरा, शिखर २८. अवरक = आ वखते १३. भुरजा = किल्लानी उपर तोप २९. उप्रं = उपर
गोठववा माटे तैयार करेली जग्या ३०. द्रसीटी = दृष्टि १४. समस = मत्ससहितनुं (?) ३१. आयद = याद १५. झडां = ?
श्रीजिनाय नमः । श्रीमाणभद्रवीराय नमः ॥ अथ चित्रलेख प्रारभाते॥ ॥ प्रथम आदिजिन स्तुतिकाव्य ॥
स्वस्तिश्रीआदिदेवं चरणयुगलं प्रणमंति नित्यं नराः, वृषभ हि लज्छन काय कञ्चन समं अद्भूतकान्ति जिना । रोग हि सोग उचाट आपददलं गमयन्ती तत्पर सदा,
भव्य ही जीव जू तारणं तु शरणं देवाधिदेवं नमः. १ ॥ शांतिस्तुति सवईयो २३सो ।
शांत ही नाथ सदा सुखदायक लायक केवलज्ञान संपूरो, ओच्छव देव जू सेव करे नित ताल मृदंग ही तूरो, जाहि भज्या सुख होत हे जीवकू जावत दुखारु दालिद्र दूरो,
हथणापुरराज कीये ध्रमकाज पछै ग्रह्यो संयम मारग सूरो. २ ॥ नेमिस्तुति सवैईयो २३सो ।
नेम ही देवकी सेव करुं नित चित्तमे धार वडी चतुराई, राजल नारकू त्याग करै ध्रमध्यांन धरै लरै कर्म कषाई, स्याम शरीर बन्यो जिनको तिनको लच्छन शंख शिवादेवी माई,
बालपने ब्रह्मव्रत धर्यो ज्यूं कर्यो मनमेर कुं मीनह कांई. ३ ॥ अथाग्रे पार्श्वनाथस्तुति काव्य - छप्पय ॥
प्रणमुं देव जिन पास, आस पूरै प्रभु अहोनिशि, कमठदलन किरपाल, वले लंछन जिनधरम-विस, सैहसफणा-शिरछत्र, शत्र भाजै तिह समरत, नीलवरण जगशरण, सदा दुख हरत कहांसत, झिगमिग ज्योति तिनकी जगत, देवऋद्धि सिद्धि निद्ध दीयें,
पूजीयां पाप कटत हैं, प्रबल पार्श्वनाथपद प्रणमीयें ४ ॥ महावीरस्तुति ॥ छंद - अडि[य]ल्ल ॥
वर्धमान चित्त आन विबुधवर, निज पद अभैदेत तोकू नर, इंद ही चंद नरिंद नमत नित, वंद ही चरन हरन दुख सतवत. १
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प्रबल लघु पद मेरु जूं चंपित, कर धर धरें उदधि हि कंपित,
जन उधार पार कर जिनवर, हितकर भज्यां दुख भव भवहर. २ अथ दूहा : पंच जिनेसर प्रणमनें, आंणी चित्त उल्लास,
माणभद्रमहिमा कहूं, जागत मर्द है जास. १ ॥ मणिभद्रस्तुति दूहा ॥ दूहा : गुर्जरात देशै दीपता, मांणभद्र महाराज,
मगरवाडमै प्रगटीया, सारत सहुना काज. २ तपगछमंडन सुरतरुसमो, गणनायक वरदाय, माणिकसाहिब दीजीये, दरसाउ परतिख आय. ३ रयणचिंतामणि तूं सही, कामकुंभ सुखकार, साहिब माणक माहरै, अन धन तणो दातार. ४ ताहरा तो गुण छै बहु, सुरगुरुथी न कहाय, वीर साहिब तुम हो वडा, गुरुने करो सुपसाय. ५ लिछमीलीला दीजीयै, महिर करी जक्षराय,
सेवक जांणीने आपज्यो, दिन-दिन रंग सवाय. ६ ॥ अथाग्रे गुज्जरदेशवर्णनमाह ॥
सकल गुणे करि सोहतो, सकल देश शिरदार, गुज्जरदेश सुहामणो, तिहां सेāजो में गिरनार. १ कर्मभूमिमां एहवो, तीरथ अवर न कोय, दरसणथी पातिक हरे, नमतां नव निधि होय. २ इण गिर कांकर कांकरे, सीधा साधु अपार, प्रथम जिणंद पधारीया, पूर्व निनांणु वार. ३ नेमि विना तेवीस जिन, समोसर्या गिरराज, तीर्थ एह जग सास्वतो, इम बोल्या जिनराज. ४ मोटा मोटा जिहां वली, सहिर घणा सोहंत, इंद्रपुरी जिम सोहता, वर्ण च्यार विलसंत. ५ जैनधर्म जिहां जागतो, मोटो मूरतवंत, आज इणें पंचम आरै, दिनकर जेम दीपंत. ६
वर्ते जिहां जिनआगना, श्रावक जिहां परम दयाल, जिनपूजा बहु भगतिसुं, जीवदयाप्रतिपाल. ७ इम अनेक ते देशना, केता करुं वखांण,
गछपति चोमासें रह्या, तिण ते धन्य शुभ ठाण. ८ ॥ अथ देशनगरवर्णनमाह ॥ ॥ ढाल ॥ वालाजी पंचमी मंगलवार के प्रभाते हीडवो रे लो - ए देशी ॥
गुरुजी भरतक्षेत्र-मझार के देशशिरोमणी रे लो, गुरुजी सहस बत्रीसै देश के, वर्णवं ते भणी रे लो. १ गुरुजी मुख्य देश मंडाण कें, सिर गुज्जर कहयो रे लो, गुरुजी जिहां संखेश्वरा पास जिणंद के, तेणें साखे लह्यो रे लो. २ गुरुजी महिमंडल मंडाण के, स्वर्गनें थोभतो रे लो, गुरुजी हारी इंद्रपुरी दूरे जाय कें, लही गुणें सोभतो रे लो. ३ गुरुजी तिण देशें अभिरांम के, नयर घणुं दीपतो रे लो, गुरुजी पालणपुर सिरदार के, स्वर्गने जीपतो रे लो. ४ गुरुजी राज निबाब धिराज के, मोती मैहतो अधिकारीयो रे लो, गुरुजी तिहां रह्या दिलमाय के, तिण नयरें कहें रे लो. ५ गुरुजी बाग वाडी आराम के, सजल जले भर्या रे लो, गुरुजी पहाड अतहि परचंड के, सोहैं ढूंके कर्या रे लो. ६ गुरुजी महाजन अति उछरंग के, तीरथ भेटता रे लो, गुरुजी सेवें पासजिणंद कें, पाप सवी मेटता रे लो. ७ गुरुजी वंदे गुरुजीना पाय के, अति उच्छव करी रे लो, गुरुजी गुण गावें गुरुजीना के, बहु प्रेमें करी रे लो. ८ गुरुजी भावना भावें जाय कें, जिनमंदिर करे रे लो, गुरुजी पूजा सत्तर प्रकार कें, ते शिववधू वरे रे लो. ९ गुरुजी तिहांना संघनो मोटो भाग कें, गुरुवाणी सुणे रे लो, गुरुजी केई वहे उपधांन कें, केई सिद्धांत भणे रे लो. १० गुरुजी धन धन जस अवतार कें, जनम लेखें करे रे लो, गुरुजी स्वस्तिक पूरे आय कें, मुक्ताफल धरे रे लो. ११
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गुरुजी लूंछणा लेती अपार के, गुरु नयणां फेरती रे लो, गुरुजी तृपति न पांमे तेह के, नयणां हेरती रे लो. १२ गुरुजी पालनपुरनो संघ कें, गुरु वंदे भावसू रे लो, गुरुजी गुरु वांद्यानो एह प्रभाव कें, तारे जेम नावसूं रे लो. १३ गुरुजी करो ध्रुनि परें राज के, उच्छवरंगें धरी रे लो, गुरुजी मांनसागरनो शीस, गुण गावै प्रेमे करी रे लो. १४ ॥ पुन: नगरवर्णन देशी ॥ तिण देशे अती दीपतो रें, सकल नगर सिणगार सोभागी सांभलो, दीठां हरखित हुवै रै, पालणपुर सुविचार सोभागी सांभलो. १ अलिकापुर होय अवतयों रे, मानवलोक मझार सोभागी सांभलो, अनुपम सोभा जेहनी रे, कहत न आवे पार सोभागी सांभलो. २ पल्लवीया पास सोहामणा रे, परचा पूरत संघ सोभागी सांभलो, नित नित ओच्छव अभिनवा रे, करे भविक मनरंग सोभागी सांभलो. ३ सत्तर भेद पूजा रचे रे, भाव भगति भरपूर सोभागी सांभलो, नाटिक बहुविध नाचतां रे, कर्म करै चकचूर सोभागी सांभलो. ४ समकित(ती) श्रावक श्राविका रे, जिनधर्मे इकतार सोभागी सांभलो, सातक्षेत्रे धन वावरे रे, करे सफल अवतार सोभागी सांभलो. ५ वसे जिहां व्यापारीया रे, धनपति धनद समान सोभागी सांभलो, दांन मांन करी आगला रे, दिन दिन चढते वांन सोभागी सांभलो. ६ देवकुमर सम दीपता रे, मांनवना तिहां थाट सोभागी सांभलो, अपछररूपें सोहती रे, नारी निरुपम घाट सोभागी सांभलो. ७ पहरि पीतांबर पदमणी रें, सोलें सझी सिणगार सोभागी सांभलो, चालें गजगति चातुरी रे, सारा हे संसार सोभागी सांभलो. ८ आवत जब बाजारमै रे, देखत ख्याल खुस्याल सोभागी सांभलो, व्यापारी व्यापारसुं रे, लेत अमामा(पा?) माल सोभागी सांभलो. ९ ॥ अथ गुरुराजवर्णनमाह ॥ दूहा : उदयवंत दिनकर समो, करण कुमतिमति दूर,
प्रतपो श्रीतपगछपती, जां लगई भू शशी सूर. १
इक आणा अरिहंतनी, आराधे मनशुद्ध, द्विविध धरम जे उपदिसै, धरे त्रिण तत्त्व विशुद्ध. २ च्यार कषायनें जीयता, वलि धरता व्रत पंच, पीहर जे घट कायना, साते भय नावै संच. ३ आठे मद अलगा करी, नव वाडै धरें ब्रह्म, आराधै गुरु इक मनै, दशविध साधुनो धर्म. ४ अनूपम अंग इग्यारना, अरथ अनेकना जांण, बार उपांग तणा बहू, विधि विधि करै वखांण. ५ काठा तेर जे काठीया, नाठा जेहथी दूर, चतुर चतुरदश भेदना, विद्यायै भरपूर. ६ भाखें पनरे सिद्धना, सोल कलाये संपून्न,
शशीहर परै सुहामणुं, वदन सदा सुप्रसन्न, ७ ॥ अथ देशी - इडर आंबा आंबली रे - ए देशी ॥
सो गुरुजी मुझ सांभरें रे, दिन मांहैं सो वार, मन विहसै तन उल्लसें रे, गुरुनांम सुणी सुखकार. १
भविकजन! वंदो गछपतिराय [आंकणी] संयम सतरै भेदसू रे, आराधै एकांत, अष्टादश अलगी करै रे, पापथानिकनी पंति. २ भविक..... उगणीस दोस काउसग्गना रे, ते वारै निसदीस, दुस्तप तपविधिसू वली रे, सेवें थानक वीस. ३ भविक..... गुण इकवीस तणा धणी रे, श्रावक सेवै पाय, बावीस परीसह जीपता रे, अतिदृढ मन वच काय. ४ भविक..... सू(सु)परे सुगडांग सूत्रना रे, जांणें अध्ययन ओवीस, चोवीसई जिनराजनी रे, आण वहै निसदीस. ५ भविक..... भावै पचवीस भावना रे, जांणें दसाकल्प छवीस, सत्तावीस साधु गुणें भर्या रे, लब्धि धरे अठावीस. ६ भविक... उगणत्रीस निवारता रे, पापश्रुत परसंग, त्रीस थानिक महामोहनी रें, तास करें गुरु भंग. ७ भविक......
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एकत्रीस गुण सिद्धना रे, परकासै परवीण,
बत्रीसै वर लक्षणे रे, लक्षत अंग अदीन. ८ भविक.......
तेत्रीस आसातना रे, टालें सुगुरु सदैव,
चौत्रीस अतिसय जिन तणा रे, परूपता नितमेव. ९ भविक....... पेत्रीस गुण जिन वांणिना रे, श्रीगुरु तेहना जाण,
छत्रीस गुण सूरीना रे, तेण सदा सोभमांन. १० भविक ...... असीच्यार गणां शिरे रे, थे छो मोटा राय,
मांनसागर पंडित तणो रे, रूपेंद्र वंदे पाय. ११ भविक.......
॥ अथ गुरुदेशनगरवर्णन ॥
दूहा : धन सेत्रोवा नगर तिहां, धरा नांम धराय,
धन जाति ओसवंश में अवतरीया मुनिराय. १
धन गुरु जिहां जनमीया, धन्य तुम्हारी जाति, धन चोपडा अमीचंद में, धन सरूपदे मात. २ पटधारी जिनेंद्रसूरिनें, भलो सोभायो पाट, गुरु प्रतपो रवि परें, राज करो दिनथाट ३ नागोरनो संघ वीनवे, वेग पधारो राज, अम्हनें तुम्हे पावन करो, सारो धर्मना काज. ४ नागोरनो संघ मिली करी, भाखें वचन विशेष, अवधारो अम्ह वीनती, सूंदर लिखीयें लेख. ५
॥ अथ सवैया ॥
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इंद्रिय पांचको पोष निवारक, धारक सत्य संतोष आराधै, नवविधि वाड मनोहर दाखत, दसविध धर्म मुनिपद साधै, बारस भावना नित्य संभारत, तप-जप खप करि संयम वाधै, सूरि छत्रीस गुणें करि राजत, वीरजिणंद पद मारग लाधै. १
॥ कवित्त ॥
उदयें दिनेंद्र भ्रम, जाहर जिनेंद्र जोत, विमल सुरेंद्र ध्यान, जिनको निहार्यो है, सबही सुरेंद्र मिल, चोसठ करत सेव, नीके नरेंद्र आन, धरम उर धार्यो है,
अनुसन्धान- ६५ सकल भट्टारक मणेंद्रसिर जगतगुरु षट् गुण गुणेंद्र युं, मुनेंद्रपद तार्यो है, राजत जिनेंद्रसूर, तखत देवेंद्रसूर, नूरपूर तप साध, रमेंद्र पोष दोष वार्यो है. २ दूहा: पूरतंत्र तपसा परम, सूरमंत्र सिरताज,
नूरजंत्र जाहर निपुण, कूरहंत्र" मुनिराज ३ पूज तणा गुण वर्णवं, मुझ मुख जीहा एक,
ब्रह्मा च्यार मुखे करी, कर न सकें गुणलेख. ४ गयणांगण कागल करूं ०॥ ५
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अम्ह हियडो दाडिम कुली ० ॥ ६
हियडै ते किम वीसरै, जे सज्जन सुविचार,
छिन छिनमे नित संभरे, जिम कोयल सहकार ७ किहां कोयल किहां अंबवन ०॥ ८
मठ मांहै तापस वसै ०॥ ९
गोह पहिली नीपजे ०॥ १०
दरसण दीजै साहिबा, करि करुणा हितकार, आज इणें दुसम अरै, तुंहि ज संघआधार. ११
॥ अथ गुणवर्णनम् ॥
स्वस्ति श्रीफलवर्द्धिपार्श्वमनिशं वन्दे सदानन्ददं, ते यस्य स्मरणेन पापभवभीकष्टं सतां शाम्यति । विश्वव्यापिमहान्धकारपटलं सूर्यो यथा नश्यति, सद्वृन्दारकवृन्दवन्दितपदं मोहारिनाशेऽगदम् ॥ १॥ मर्त्यक्षेत्रगतोऽपि लोकत्रितयं विद्योतते दीप्तिभि:, ज्ञानादर्शतलेन हस्तकणवत् पश्यन्ति सर्वाङ्गिनः । मेघो वर्णित वारि वारिधि तथा दिश्यन्ति सज्जन्तवः, तं पार्श्व प्रणिपत्य निर्मलधिया कुर्वे गुरोर्वर्णनम् ||२|| प्रवरे पालणपौरे, कुबेरर्द्धिसमन्विते । अखण्डनीतिसंयुक्ते धर्मकर्मान्विते पुनः ॥३॥
एतादृशे शुभे स्थाने, निवश (स) न्ते (न्ति ) महाधियः ।
गुणौघवच्छिरोमण्यः सकलभट्टारकेषु च ॥४॥
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अनुसन्धान-६५
जाइकुलबलसंपन्ने, रूवे विनयदसणे । नाणचारित्र(त्त)संपन्ने, ओयस्तेजवच्चंसी य ॥५॥ यसस्वी खन्ति मुत्तिश्च, मद्दवाज्जवसंयुते । परीसहोवसग्गाश्च, खमे विषयवासना ॥६॥ सर्वविद्याविनोदश्च, विज्ञश्रेणिशिरोमणिः । वादीगुरुडगोविन्द, वादीघरट्टमुद्गरः ॥७॥ वादी समुद्रआगस्त्य, वादीघूकअहर्मणिः । विद्यानवद्यविहित-सर्वभूपालरञ्जनः ॥८॥ वादीमस्तकशूलं च, वादीचूर्णे महोदधि । वादीमर्दितमानं च, सिंहशार्दूलवादिषु ॥९॥ वादीज्वरहरो वैद्यः, वादीहरिणकेसरी । वादीवेश्याभुजङ्गश्च, शब्दलहरीतरङ्गभुक् ॥१०॥ षटदर्शनपशौ गोपः, भाण्डागारसरस्वती । द्विसप्ततिकलाभर्ता, सर्वशास्त्रार्थधारकः ॥११॥ महाकविविनितश्च, शीक्षिकृतबृहस्पति । जितानेकवृन्दवादी, शुद्धमार्गप्रवर्तकः ॥१२॥ न्यायमार्गधरो वेत्ता, मिथ्यामतनिकन्दक । क्रयाकठोरकर्ता च, ज्ञाता स्वपरसामय ॥१३|| मेधाचतुर्दशौधीमान्, द्विसप्ततिकलाधरः । उत्थापकश्च कुमते-श्शुद्धपन्थप्ररूपकः ॥१४॥ शाब्दतर्ककाव्यकोष:-छन्दाऽलङ्कारधर्मवित् । द्रव्यास्तिकस्तु पर्यायै-रस्तिनास्तिविशारदः ॥१५॥ उत्सर्गापवादस्य, निश्चयैर्व्यवहारयुक् । श्रीजैनशासनरतः, उद्योतकशिरोमणिः ॥१६॥ श्रीवीरशासनेरर्क, भव्याम्भोरुहबोधकदबोधबोधकचैव, वादीघूकविमर्दकः ॥१७|| धन्यास्ते रायराणाश्च, धन्या इभ्यनराधिपाः । श्रावक-श्राविका धन्या, गुरोर्वन्दत्यहनिशम् ॥१८॥
शृण्वन्ति तत्पराः भूत्वाः, अमृतध्वनिदेशनाम् । धर्मकृत्यपराश्चैव, व्रतपचक्खाणधारकाः ॥१९॥ सारणा वारणाश्चैव, चोयणा पडिचोयणा । पञ्चाचाररता नित्यं, पञ्चप्रस्थानस्मारकाः ॥२०॥ धन्या गणधरा: पूज्याः, सर्वजीवोपकारकाः ।
कि बहुना गौतमश्चैव, श्रीसोहम्मपरम्पराः ॥२१॥ ॥ इत्यादि सर्वोत्कृष्टगुणोपेता महामुनयः करुणाकटाक्षर्ममैवावगन्तव्यम् । दूहा : पृथवी पदें पावन करी, आव्या गुर्जर देश,
भाग्यदशा जागी भलै, सदगुरु कीयो प्रवेश. १ भावठ भागी मूलथी, पालणपुरनी राज, श्रीविजयदेवेंद्रसूरीश्वरा, जगजीवन हितकाज. २ धर्म सुणे धन वावरे, धन्य तिहां नर नार, जिम तिम आतमहित करै, अवसर पांमी सार. ३ मन आनंदे महामुनी, वंदै पासजिणंद, पापतिमर दूरै हरे, दीपे तेजे दिणंद. ४ वली मिंदर जिनवरतणा, वंदै अधिक उमंग, धर्मध्यांन ध्रमसालमैं, करै भविक मनरंग. ५ उपासरो सोहँ सरस, ऊंचो अति मनुहार, तिहां विराजे गणधरा, देसन चै बहुसार. ६ अवर गच्छतणा वली, उपासरा सोहंत, तिहां बैठा मुनिवर भणे, आगम अधिकै खंत. ७ इत्यादिक महा धामने, देख देख गुरुराय,
आनंद अधिकै गहगहै, मन तन वचन ऊमाय. ८ पिण करुणां आंणी मनें, यो दरसण इक वार,
पउधारो आदर घण, मरुधर देश मझार. ९ ॥ अथ मरुधरदेशनगरवर्णनम् ॥ दूहा : सहु देसां सिरसेहरो, मोटो मरुधर देश,
धण कण जल अधिका तिहां, वांणी रूप विसेस. १
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अनुसन्धान-६५
बुद्धि-वृद्धि बहुली तिहां, साच वाच सुभ नीति,
रूप रंग रति कांति अति, धर्म कर्म शुभ रीति. २ ॥ आज हजारी ढोलो प्राहुणो - ए देशी ॥ बाग बगीचा अतिघणा, अधिक तिहां वनराय सगरु मांहरा हो, अनड" नदी सायर घणा, कमणा नही छै काय सुगुरु मांहरा हो. १
मरुधर देस पधारीयै [ए आंकणी] विनयी लोक बहु गुणी, उपगारी उर धार सुगुरु माहरा हो, दान दियण दाता भला, तप संयमना कार सुगुरु मांहरा हो. २ मरुधर... मरुधर नयर छे नवनवा, सेहर नागोर तिहां सार सुगुरु मांहरा हो, नव कोटां सिरसेहरो, लीलालहिर अपार सुगुरु मांहरा हो. ३ मरुधर..... राठोडांनो बसणौं, अनमी अटल अभंग सुगुरु मांहरा हो, गढ नागोरें अति भलो, देखत नवलो चंग सुगुरु मांहरा हो. ४ मरुधर..... ऊंचो अधिक मनोहरु, मेरुसुं मंडै वाद सुगुरु मांहरा हो, पोला सात प्रचंड छै, सिरई पोल सुप्रसाद सुगुरु मांहरा हो. ५ मरुधर..... पूरवदिशिमें परगडी, सूर्यपोल सुखकार सुगुरु मांहरा हो, कुंगर'२ भुरजां सुंदरु, समस" सरोवर धार सुगुरु मांहरा हो. ६ मरुधर.... गीदाणीसर अति दीपतो, जीपतो लहरतरंग सुगुरु मांहरा हो, तिहां भैरव जग राजतो, छाजतो तेज सुचंग सुगुरु मांहरा हो. ७ मरुधर..... बखतसागर जलथी भर्यो, निरमल जल रहै नित्त सुगुरु मांहरा हो, नर नारी बहुला मिली, केलि करै इकचित्त सुगुरु मांहरा हो.८ मरुधर..... वलि सरवर त्रण्य जाणीय, लाल सागरनें प्रताप सुगुरु मांहरा हो, मोरचो विषम झडां तों, अरीनें उपजे संताप सुगुरु मांहरा हो. ९ मरुधर.... तारकीन पीर जागतो, बाहिर सेहरने पास सुगुरु माहरा हो, मेहलायत करी सोहतो, परचा पूरत खास सुगुरु मांहरा हो. १० मरुधर..... मुरलीधर मन मोहतो, सेहर विचै सोहंत सुगुरु मांहरा हो, शिवमारगमहिमा घणी, सेव करें बहु संत सुगुरु मांहरा हो. ११ मरुधर..... योगीसर बहु युगतिसुं, साचवै गढ मन शुद्ध सुगुरु मांहरा हो, आंण वहै महारायनी, तेहने न लेस कुबुद्ध सुगुरु मांहरा हो. १२ मरुधर.....
हिव मंदिर जिनवर तणा, सात अछै सुखकार सुगुरु मांहरा हो,
आदीसर अविलोकता, न रहै पापपसार सुगुरु माहरा हो. १३ मरुधर..... हीरावाडीयें सोभता, वर्धमान जिनचंद सुगुरु माहरा हो, घोडावतनी पोलमें, चोमुख शांतिजिणंद सुगुरु मांहरा हो. १४ मरुधर..... पास सुमति वलि वांदता, दुख जाय सवि दूर सुगुरु मांहरा हो, दोय मंदिर दिगंबर तणा, प्रतर्फे अधिकै नूर सुगुरु मांहरा हो. १५ मरुधर.... पूजा सतर प्रकारनी, विरचै हरख अपार सुगुरु मांहरा हो, नर नारी मिलि भाव, मणुअ जनम करै सार सुगुरु माहरा हो. १६
मरुधर..... सांडासाहनी पोलमां, ऊपासरो चउसाल सुगुरु मांहरा हो, तिहां मुनिवर दीये देसना, सुणे भविक उजमाल सगरु माहरा हो. १७ मरुधर.... इत्यादिक तपगछ तणा, स्थानिक जाणों पंच सुगुरु मांहरा हो, श्रावक श्राविका युगतिसुं, करें धरमनो संच सुगुरु माहरा हो. १८ मरुधर..... दूहा : पासचंद तणा वली, स्थानिक कहीये दोय,
खरतरना त्रण जांणीय, लौंकाना चउ होय. १ तिहां मुनिवर बेठा थका, उद्यम करै अपार, योतिष वैद्य सिद्धांतना, जाणणहार उदार. २ पोसालां पंच सोभती, पढे तिहां बहु बाल, राजपंथ सोहै तिहां, चलै जिहां सुभ चाल. ३ न्याय नीति पालै सदा, हाकम अति हितकार,
कोटवाल चित उजलैं, करै नगर रखवाल. ४ ॥ ढाल-तेहिज ॥ तिहां राजा जग राजतो, गाजतो तेज अनंत सुगुरु मांहरा हो, तखत-महिपति मरुधरै, भाग्यबलें विलसंत सुगुरु माहरा हो. १९ मरुधर..... सूरवीर साहसधरु, खाग त्याग निकलंक सुगुरु मांहरा हो, जोधांसिरै जस जयकरु, सबला मांने संक सुगुरु माहरा हो. २० मरुधर..... वचन न खंडै आपणौं, धर्मथी अधिक मंडाण सुगुरु मांहरा हो, मांनसागर गुरुरायनो, रूपेंद्र वंदे सुप्रमाण सुगुरु माहरा हो. २१ मरुधर....
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॥ अथाग्रे छंद - त्रिभंगी मरुस्थलस्य ॥
सहुदेसासारं, मरुधरधारं, जगविस्तारं, जयकारं, अनधन्न अपारं, बुद्धिविचारं, रूपअनूपम, सुरधारं, दया-दानदातारं, गुणज्ञातारं, पापनिवारं, परदारं, सहगुरु ध्यातारं, तनमनमारं, मोहमहीपतिमदहारं. १ नही क्रोधप्रचारं, मानहतारं, मतिविस्तारं, मनधारं, वाच सच सारं, ममतामारं, सम-दम-मद्दव शुभकारं, उपगार अपारं, सुद्ध संभारं, निंदा विकथा नहि कारं, तपजपपदधारं, प्रीतिप्रचारं, जगसुखकार, जनसारं इण देस हि अज्झंप, सोभासझं, नागोरह पत्तन, सहु मज्झं, रजै जहां रज्जै, तखत महज्ज, तेज तपै मार्नु सुरज्जं, कंपै अरिजझं, कारह लज्जं, देशांतर तनदहज्जं,
भूपांबिलभणं, जगजससज्जं, सबहियरणं, सुखसज्जं. ३ ॥ अथाग्रे त्रोटकछंद नरेन्द्रस्य ॥ पृथवीयपती तपतेज तपै, कियबंधन वैरी दरिद्र दफै", मांनेस तखत्तसु ओप दियां, महिपति सुकिति सुभाव लियां. १ नृपतखत इहां गुरुवंदनकुं, मनउज्जल पाप-निकंदनकुं, दिशि धौम नगारकि धौंस दिये, घनराज तणी परि ओप लिय. २ गजराजघटा उत" घन्न तणी, तडिदाह उतें इतर सेल' अणी, वर धुंस निसाण सुघोष वगै, गडडाट उतें घनसाण गजें. ३ बगपंति सुसेत पताक वहै, इत लोक सुचात्रक चित्त चहै, सरणाइ वगै सुरकोकिल है, असवार समीर अनोपम है. ४ नर मोर झिंगोर वदै मुखतें, प्रतपो नरनाथ सदा सुखतें, इण भांति अनूप सुकांति लिया, वरथे कर दांन अवाज किया. ५ दूहा : जग नही महिपती एहवो, तखत तणे अणुहार,
धर्मनी तनें पालवा, प्रगट्यो राम ज सार. १ जसु जस पसर्यो उदधि लग, कहां तक करुं वखांन, तीन प्रहर नृपतखतकी, सीम उलंघत भान. २
संघवी सगलामें सिरै, महणोतां मनधार, भंडारी भलपण लहै, महतां महि इकतार, ३ च्यार खांप" अति चूंयसू, सभा तखत सिणगार,
उलटै दल अरिया तणा, लेवै तुरत उतार. ४ ॥ अज जिम कोइक पोषै अंगण - एहनी चाल ॥ मरुधर देस अनूप विराजे, तिहां नयर नागोर राजे रे, तखतमहिपति तिहां सुखसाजै, तेजें अरीदल भाजै रे. १ सदगुरु वीनतडी अवधारो, नागोर नयर पधारो रे, संघ तणी वीनती चित्त धारो, सहुना काज सुधारो रे. २ सदगुरु..... एह नरिंदना काज सुधारण, चांपावत जग जाणो रे, कुंपावत करडा मन आंणे, मेडतिया महिराण रे, ३ सदगुरु..... उदावत अनमी अधिकेरा, जोधा जाण घणेरा रे, जैतावत जसमांहि वडेरा, करणोत काज वसेरा. ४ सदगुरु.... कर्मसोत नृपकाज सधीरा, चांदावत वड वीरा रे, इत्यादिक सामंत वजीरा, खाग त्याग गुणधीरा रे. ५ सदगुरु..... राठोडांनो राज वदीतो, नागोरे गढ जग जीतो रे, तखतसिंह वड वखत प्रतीतो, गुरुचरणे सुपवीतो रे. ६ सदगुरु..... तिण कारण वीनती उर धारो, पूजा पधारो वेगें रे, सहस मुनि गहगाट संघातें, दिन दिन चढते रंगें रे. ७ सदगुरु..... तन मन वचन रह्यो तुम चरणें, चंद चकोरां जिम वरणे रे, भमर लीणो जिम केतकी परणे, वलि मोरा घनसरणे रे. ८ सदगुरु..... मरुधरतीरथ अति ही दीपंता, वाडीपास महंता रे, फलवधि आबु वरकाण सोहंता, राणपुरें रिषभ दीसंता रे. ९ सदगुरु..... इत्यादिक तीरथ छै मोटा, वंदै तिहां नही तोटा रे, नरक निगोद तणा दुख खोटा, सहजें विलाय पंपोटा रे, १० सदगुरु..... मसि काली तुम गुण छे उज्जल, किम करि लिखीय लेख रे, करुणा करि दरसणसुख दीजै, रूपेंद्र वदै सुविसेष रे, ११ सदगुरु.....
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दूहा : श्रीरष्टोत्तरयुत गणी, गणधर सहुना मोड,
श्रीविजयदेवेंद्रसूरिंदजी, कोन करै तुम होड. १ ॥ अजित जिणंदसुं प्रीतडी - ए देशी ॥ मरुधर देस पधारीयै, नागोरे हो जगजनहितकार के, करुणा कीजै साहिबा, श्रीसंघनी हो वीनती चित्त धार के. १ श्रीविजयदेवेंद्रसूरीश्वरा, धन्य मुनिवर हो सेवें नित तुम पाय के, चरणकमलने सेवतां, तेहनें इहांथी हो वंदु चित्त लाय के. २ श्रीविजय..... रूपविजय महिमानिलो, रत्न मुनिवर हो रत्नथी खाण के, हीरविजय अति हरखसु, नित सेवें हो कांतिविजय जाण के. ३ श्रीविजय..... केसरविजय चित्त ऊजलें, विवेकसागर हो अति विनयप्रधान के, दानविजय गुणआगला, रंगसागर हो रहे चरण प्रमाण के. ४ श्रीविजय..... इत्यादिक मुनिवर घणा, सेवें सदगुरु हो नित चित्त लगाय के, तन-मन-वचनथी साचवे, गुरुसेवा हो सब सुखनी दाय के. ५ श्रीविजय..... इहाथी वंदै भावसुं, रूपेंद्रसागर हो नित नवले रंग के, खेमसागर आनंदथी, केसरसागर हो मनरंग अभंग के. ६ श्रीविजय..... मुनि गोतम रंगें नमें, लालसागर हो तुम वंदै पाय के, रिषभमुनि मनरंगथी, वंदै भाव हो सुभ वदन ऊमाय के. ७ श्रीविजय..... उमेदमल उमंगथी, रंगें प्रणमें हो रतनों मन धार के, पूनिमचंद कर जोडिनें, वलि वंदै हो चित्त हरख अपार के. ८ श्रीविजय..... इहांथी मोहन वंदना, मांनीजै हो गुरु वार हजार कें, सहु मुनीवरथी वंदना, कहज्यो अहनिशि हो नित करुणा भंडार के. ९ धन्य ते श्रावक श्राविका, गुरुचरणें हो रहै चित्त लगाय कें, तेहनें धर्मलाभ माहरो, वलि संघनी हो वंदना मुनिराय के. १० श्रीविजय..... तिहांना संघ प्रते वली, सहु संघनो हो कहज्यो परणाम के, संघ प्रते संभालज्यौ, देवदरसनें हो करुणाना धाम के. ११ श्रीविजय..... उगणीससत(१९०७) संवत्सरें, मृगशिर मासे हो वदि तेरस दाख के, रविवारें गुरुगुण भला, गाया भाव हो तन-मननी साख के. १२ श्रीविजय....
तपगछमां अति दीपता, गुरु गिरुवा हो गुणना भंडार के, कृपासागर गहरा गुणी, मानसेवक हो रूपेंद्र मन धार के. १३ श्रीविजय.....
॥ इति श्रीविज्ञप्तिपत्रं संपूर्णम् ॥ ॥ श्री जीनाय नमः ॥ स्विस्ति श्रीपालणपुर सुभ सूथाने पुज, परमपुज, सरव ओपमा बिराजमान, अनेकओपमालायक००० इत्यादिक छतीस छतीसे, एकसो आठ सूरीश्वर गुणे करी बिराजमान जंगमजूगप्रधान सकल भट्टारक सिरोमणी पुरंदरभट्टारकणी श्रीश्री १०८ विजयदेवेंद्रसूरीश्वरजी चरणानु चरणकवलायनै नागोरथी सदा अग्याकारी चरणसैवी समसत संघं लिखत बदणा १०८ वार दिन प्रते त्रिकाल अवधारसी। अठारा समाचार श्रीश्रीजी रा तेज प्रताप सुनिजर कर भलो छै। श्रीश्रीजी साहबा रा दरसण री आभीलाषां अत्यंत है सु संघ ऊपर कीरपा करनै दरसण दीरावसो तिको दीन सफल हसी । अठै चोमासी संघ ऊपर कीरपा करने पं. रूपेंद्रसागरजीनु मेलासो घणा जोग्य छै नै श्रीजिनराज रो धरमध्यान पोस पडिकमणो वखण वाणी जिनपूजादिक री बधोतर उवछ आछीतरसु हवा है। पूरे उछव धरम री बोधोत्तर सदा हुवै छै । हमैक पुसतक पीण गंणां वरससू अरकीयो थो सो इणा रा ऊपदेससु सिघवी मयाचंदजी रै गर लीधो छै नै ऊछव पुसतक रा नीराट गणो हुवा छै । नै वखणे श्रीनंदीजी सुतर वचीजें छै सो मालम हइसी । नै आवतो चोमासो श्रीसिघ ऊपर कीरपा करनै इणानु ही जै रखावसी । पं. रूपेंद्रसागरजी रो चोमासो अठ रखायासु सिधनै ऊपदेस धरमधांन पढावण री बधोतर आछीतरसू हूसी सो कीरपा करनै चोमासो बंठाबेठ रखावसी । सघे वीनती अठै खतरमै धरमधान री कालानुसार लाभ देखै लीखी छै सू जरूर मनावसी । बीजूतो श्रीश्रीजीस्हाब कीरपा करने मेलो सो प्रमाण छै पीण अवरक' तो जरूर बंठाबेठ रखावसी । घणो काइ वीनवै आप तो सरव जाण छै। श्रीसुधरमास्वामरी गांदी वीराजो छ। सो जरूर कीरपा सघने लाभ देखीने इणानु ही ज रखावसी । सीघ "उप्र कीरपा सुद्रसीटी० रखावे जीणथी वीसष रखावसी । श्रीधरमधांन देवजातराए संघनै आयद करावसी । वलमान सुलेख कीरपा करनै दीरावसी । संघ लायक सेवा बंदगी फुरमावसी । सरव साधुनै वनणा कहसी चोपडा गीरधारीमलकी
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(२०) अमदावाद बिराजमान देवेदसूरिजीने जोधपुरथी श्रीसङ्घनो विनन्तिपत्र
बनणा १०८ वार वचावसी । श्री। १९०७ पोस वद ५ भोमवार । दूहा : संघ सकल मिलिने सदा, वीनती करै छई एह,
नागोरें पधारज्यो, मनडुं तुम चरणेह. १ थे गिरुआ गुणवंत छो, वीर सोहम पट्टधार, महामुनिवर करनें मया, द्यो दरसण इक वार. २ जिम मन पसरें माहरो, तिम जो कर पसरंत, चरण ग्रही सरणें रहुं, अमृतध्वनि विलसंत. ३ पदपंकजरजभ्रमरसम, नित सेवक सुभ चाल,
आग्याकारी अधिक मन, रंजन अतहि रसाल. ४ ॥ देशी - नणदलकी ॥ पूज पधारो अम देसडै, नयर नागोर मझार सदगुरु, संघ सकलनी वीनती, मानज्यो निरधार सदगुरु. १ पूज पधारो..... संघ ऊपर सुनिजर करी, आवी करो चोमास सदगुरु, धर्मलाभ थास्यै घणौं, सहुनी पोहचस्यै आस सदगुरु. २ पूज पधारो.... तुम दरसणनें ऊमण्या, भविजन जप रह्या जाप सदगुरु, जिण दिन तुम दरसण होस्यै, मिटस्यै मोहसंताप सदगुरु. ३ पूज पधारो.... प्रेमें प्रथम जिणंदने, जूहारो जगभाण सदगुरु, तपगच्छकेरा राजीया, निरुपम नयना जाण सदगुरु. ४ पूज पधारो..., नियम तपादिक अति घणा, होस्यै हरख अपार सदगुरु, पटकूलादिक बहु परै, पथरास्यै घरे सार सदगुरु. ५ पूज पधारो.... श्रीविजयजिनेंद्रना पाटवी, श्रीय देवेंद्रसूरीराय सदगुरु, गुरु प्रतपो रवि ससि परै, रूपेंद्र रंग सवाय सदगुरु. ६ पूजा पधारो....
सौ प्रथम संस्कृतभाषानां २ पद्योमा श्रीपार्श्वनाथ प्रभुने, त्यार बाद पांच पद्यो द्वारा क्रमथी पांचेय जिनेश्वरोने, त्यारबाद दूहाबद्ध वर्णनामां माणिभद्रयक्ष, सरस्वतीदेवी, गुरुभगवन्त, पद्मावती तेमज चक्रेश्वरीने वन्दन करवारूप मङ्गलाचरण करी प्रथम ढाळमां कवि गुर्जर देशनुं प्राकृतिक सौन्दर्य अद्भुत रीते रजू करे छ । जो के ते करतांय अमदावाद शहेरनी वर्णना करनार मत्तगयंद अने त्रिभङ्गी छंदनां पदो चडीयातां छे। शहेरनी दरीयाशा पीर, हठीभाई- देहरुं, भद्रकाळी मंदिर, माणेकचोक, सेठ मगननो बाग, अष्टापदनुं जिनालय, आवी घणी हकीकत ऐतिहासिक दृष्टिए, तो बीजी नगरकोट, प्रजाजन विगेरेनुं वर्णन काव्यात्मक दृष्टिए महत्त्व- छे । सूरिजीना ३६ गुणोनी स्तवनानां पद्यो आ काव्यनी विशेषता छ । अन्य विज्ञप्तिपत्रना गुणवर्णनानां पद्यो करतां आ पद्यो घणां सुन्दर तेमज विशेष बोध आपनारां छे । त्यार पछी 'मोतीडा' देशीमां सूरिजीना आभ्यन्तर गुणोनुं वर्णन करी कवि मरुधर देशनुं वर्णन करे छ । पत्र जोधाणाथी लखायो होइ पत्र लेखनक्रमानुसार कविए त्यार पछी जोधाणाना राजा, राजरिद्धी, लोकव्यवस्थानु, जैन-जैनेतर मन्दिरोनुं, लोकोपयोगी सरोवर, वाव-बाग-बगीचार्नु तेमज श्रावकसमुदायतुं बारीकाईथी आलेखन 'गझल'मां रजू कयु छे । अहीं पण कवि जोधपुरनो चितार आलेखवामां सफळ थया छ । त्यार पछीनी ढाळोमां श्रीसङ्घना श्रावकोनुं गुणवर्णन, सूरिदर्शननी तेमनी चाह, तेमज सूरिजी पधारता सङ्घना उत्साहनी वातो कविए वर्णवी छ । सूरिजीना सहवर्ति मुनिवृन्दने वन्दना निवेदित करी संवत् निर्देशपूर्वक स्वनामोल्लेख जणावी पद्यपत्र कवि पूर्ण करे छे । गद्यपत्रनी शरुआतमां मुडीयालिपीमां सूरिजीना १८ गुणो तेमज अन्य आन्तरिक गुणवैभवने जणावी श्रीसङ्घनी सूरिदर्शनोत्कण्ठा तथा चातुमासार्थे पधारवानी विनन्ति रजू करे छे. पत्रान्ते फरी सूरिजीना पधारता थनारा सुकृत्योनी पद्यात्मक रजूआत करी सूरिजीना वधामणा करवापूर्वक खामणा सत्कृत्योनी याचना करे छ ।
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मोतीडानी ए देशी, वालिम वहिला - ए देशी, वेशाख वदि - ए देशी तेमज वालाजीनी - ए देशी आ ४ देशीना कृतिकार तरीके प्रमोदविजयनुं नाम छ । बाकी प्राप्त स्थानोमां कवि तरीके रत्नविजयनो उल्लेख छ । आ परथी पत्रनो महत्तम अंश रत्नविजयनो होइ पत्ररचना तेमनी होय तेम विचारी शकाय । छता आ अंगे विद्वानो प्रकाश पाडे ए आशा ।
शब्दार्थ १. डारे = दूर करे
२५. जत्तं = जातना २. कच्छपी = वीणा
२६. थागं = अंत ३. उकत्थ = उक्ति
२७. वेखं = जाणवू (?) ४. हुलास = उल्हास
२८. हराणं = हरावq ५. ओवरण = ओवारणा
२९. भालं = निहाळवं ६. वज = ?
३०. जांबल = जांबू ७. पंथान = प्रतिष्ठान
३१. पभणं = बोलवू ८. विढ = ?
३२. मरुव = मरवो ९. वटाउ = ?
३३. खुलेलं = खुलेलु १०. पकी = पाकेली
३४. नलपुंज = वांसनी झाडी (?) ११. कचनार = एक वृक्ष
३५. रंगरसं = सुंदर १२. चक = चकली
३६. नरोड = नरोडा (गामर्नु नाम) १३. झट्ट = तुरंत
३७. पट्टबध = (शत्रुजयनो) पट्ट बंधाय छे १४. गव्युति = गाउं
३८. भाववधं = भाव वधारनार १५. वाजे = वाद्य वडे
३९. भीर = भीड १६. नकवेसर = नाकनुं घरेणुं, चुंक ४०. अथग्गं = अथाग १७. कुचफल = स्तन
४१. अलं = पुरतु १८. बंभने = ब्रह्माने
४२. नेन मचं = आंख बंध करवी १९. गाल = गाळ, अपशब्द ४३. कुंजड = कंजूस माणस २०. थोव = स्तोक, अल्प
४४. स्याग = शाक २१. पसत्थ = प्रशस्त
४५. ढिग = ढगलो (?) २२. अमद = अमदावाद
४६. थानं = ताको २३. कटकह = सैन्य
४७. गेणाकार = घरेणा बनावनार (?) २४. नेज = वावटो
४८. उमंद = आनंदथी (?)
४९. विलोत = विलुप्त थर्बु ७९. मनराक् = मिनारा ५०. टारे = नाश करे
८०. अरकि = सूर्य (?) ५१. भास = भ्रांति (?)
८१. छिबा = रंगारा ५२. भरं = भ्रम
८२. घानजा = वाणंद ५३. भिस्तमग = विश्वासु (?) ८३. भरावा = भरवाड (?) ५४. जब = ज्यारे
८४. वणिगर = वणकर ५५. सेन = स्येन (बाज) पक्षीनु ८५. सोरगर = सुथार (?) आववानुं स्थान ?
८६. खारोल = ? ५६. टाणं = ताण
८७. खेरादि = ? ५७. वहेगार = वहावनार
८८. चुडीगर = मणियार ५८. वने = बन्या
८९. षटीक = कसाय ५९. सुखमाल = सुंवाळो ९०. डवगर = चामडाना ढोल विगेरे ६०. खर्खरो = खरबचडो
बनावनार ६१. चाव = इच्छा
९१. सीसगर = काचना वासण विगेरे ६२. सुतभूति = श्रवण (?)
बनावनार ६३. पडिअछ = पडदा के भीतना अंतरे ९२. कलाल = दारू वेचनार ६४. सुमि = समिति
९३. पवेद्याक् = ? ६५. मनिषाकर = बुद्धिना भंडार ९४. छयल = चतुर जन ६६. लघवा = तुच्छ (ढूंकी) ९५. किरणा = ? ६७. वप्रनंद = लघु कोट (?) ९६. सूरूंज = ? ६८. थोभ = स्थिति
९७. गुलदावद = ? ६९. थाग = उंडाण
९८. बोहो = बहु ७०. सुंडाला = गणपति
९९. पंखिनका = पंखिओनो ७१. गगण = गगन
१००. राइका = राजानो ७२. विहाल = बेहाल
१०१. अबरेखा = ? ७३. समाद = समाधि
१०२. सहर = शिखर ७४. साय = सहाय
१०३. छाण = शोध ७५. पंकत = पति
१०४. मुसद्दी = राजकारभारी पुरुष ७६. हेराक = आश्चर्यकारी (?) १०५. पेचाण = ओळखाण ७७. एन = अन्न
१०६. संमार = सुधारवं ७८. भलभाक् = सारा भाग्यवाळो (?) १०७. अलि = ?
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१०८. स्यावे = सोहावे १०९. पुसकरावत = पुष्करावर्त ११०. गवलि = गहुँली
१११. विने = विनय ११२. कुकरादृष्टि = ११३. लीगार = जरापण
श्रीमदिष्टदेवाय नमः ॥ अथ श्रीलेखप्रसस्ति लिख्यते ॥ ॥ श्रीमदादिनाथ-शांतिनाथ-नेमिनाथ-पार्श्वनाथ-महावीरेभ्यो नमः ॥
॥ अथेष्टत्वात् प्रथमं पार्श्वस्तुतिः ॥ स्वस्ति पद्या सदा यस्य, पदपद्मावशिश्रयत् । यदुपासकविश्वासं, श्रयत्यद्यापि सम्मदात् ॥१॥ प्राप्य देवश्रयोब्जं यत्, कीर्त्तिर्दिव्यति दिव्यति ।
लेखालेखार्यलेखाचः, स जयत्यादिबोधिदः ॥२॥ ॥ अथ पञ्चेशस्तुतिः ॥ हतं कर्मशत्रून् जितं कामदेव, सुरेन्द्रैः कृतं त्वोत्सवं पञ्चमुख्यम् । धृतं योगमारनेके सुधर्म, नमामो वयं तं च नाभेरपत्यम् ॥१॥ उदारप्रभाविश्वमार्तण्डतद्वत्, कृतात्यन्तदुर्दुष्टदोषायमानम् ।। स्वयं शुद्धबुद्धि सुधन्यं च लोके, जिन: शान्तिनाथो ददातु प्रसौख्यम् ॥२॥ विशुद्धप्रभाज्ञानभृद्देवपूज्यः, स्तुत: किन्नरैये(यों)गिक(कैः) सर्वमान्यः । जित: कामराजो दधानः सुयोगं, स नेमिजिनः पातु मां भूविहारी ॥३॥ सुरैरचितं कीर्तितं चाऽऽप्तपावं, मनोऽभीष्टदं कर्मसर्वविनष्टम् । सुखं लेखपत्रं लिखामो गणेशं, नमस्कृत्य पूर्व जिना(निजा)नन्दहेतुम् ॥४॥ सुमेरुक्षितीन्द्रेशतुल्यं सुधीरं, सदोद तंवा (?) जिनेशं गभीरम् । सुलाभा(?) भवाम्भोधितुल्यं च तीरं, नमामो वयं साधुनाथं तु वीरम् ॥५॥ ॥ इति पञ्चतीर्थीनमस्कार भुजङ्गछन्देन कृतं अथ गच्छाधिष्टिदेवेभ्यो नमस्कारः ।। दूहा : तिर्थ पंच प्रणमि धुरे, संस्कृत वचनविलास,
शब्द धातु का गम नही, सूरिभक्ति वाचाल. १ तपगछसानिधि तत्परा, देविंदने परतक्ष, वर दीधो तिणे हर्षसुं, मणिभद्र वड यक्ष, २
संकट चूरे संघना, पूरे मननी कोड, तन्मय ध्याने अनुभवे, 'डारे चिंता तोड. ३ षोडस नामे सोभती, कच्छपी पुस्तकहत्थ, हंस चढी अंबर चरे, सो द्यो झटति 'उकत्थ. ४ ज्ञानदीप प्रगटे हृदे, चित्तभर्म मिट जात, जो रवी तमभंजन करे, सगुरु नमो साक्षात. ५ पद्यावती चक्रेश्वरी, नमुं संघसुखदाय, लेख लिखु गछपति भणी, उकती द्यो मुझ माय. ६ विश्वमयि जसु व्यापियो, जस उद्योत “हुलास, गच्छपतियां सिर सोहता, मुगटे मणि-प्रकास. ७ स्वस्ति श्रीसुख हेतु छे, अव्यये मंगल जाण,
गुज्जरधर हिवे वर्णवू, श्रवण करो इकतांन. ८ ॥ अथ श्रीमति तत्रेति परिभाषा(ष)या आश्रित्य ॥ अथ गुज्जरदेशवर्णनमाह ॥ ढाल - डोरी थारी आवे हो रसिया कडतले अथवा प्रणमिअ पास जिणेसर प्रेमसं
- ए देसी ॥ सरब देश सिर मुगटमणी, गुज्जर देश समृद्ध मनोहर, नयर पुरे करी सोभा जेहनी, कहतां नवि होय बुद्ध मनोहर. १
मनरंगे ओवरणेवजसु कीजीये [ए आंकणी] ग्राम ग्रामांतर पुर पंथाननु, "विढ वटाउ रे जात मनोहर, पादपश्रेणी इदृग् नामनी, विलोकित पांमे रे संत मनोहर. २ अंबवृक्ष अमृत सम ओपमा, जांबु काजु रे रेणु मनोहर, खरजुरा उंबर महुडा भला, टीबरु नींबु रे जाण मनोहर. ३ बद्रीफल आंबली अरु करमदा, कोठ वडी १"पकी रे पीलु मनोहर, वृक्षादिक षटऋतु फल तणा, तिहां घाल्या पंखि रे मालु मनोहर. ४ मधुमालती मचकुंद कोरंट अरु, कंचनार फुलि रे रंग मनोहर, तीण वासे भमर भमरी मली, तिहां रह्या गुंजी रे चंग मनोहर. ५ पग पग पंथे हो वापी सरवरु, नीरें भरीया रे थट्ट मनोहर, रचक बक बतक पंखी तिहां घणा, केइ आवे उडी रे झट्ट मनोहर. ६
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वहे सरिता बहु नीरप्रवाहथी, डगले डगले रे जाण मनोहर, तस तटे शब्द दिई सारस भला, असत्ये सत्य प्रमाण मनोहर. ७ इण वर्णव करी वन तीहां शोभता, "गव्युति गव्युति रे गाम मनोहर तीहां नर-नारी वृंद वृंदे मिली, गाता प्रभुना रे नाम मनोहर. ८ ताल कंसाल मृदंग "वाजे करी, घुमर दीई रे नार मनोहर, कटी मेखल रणके वली घुघरी, झणके नेउर रे सार मनोहर. ९ "नकवेसर भालतीलक सिर राखडी, कंठे मुक्तिक रे माल मनोहर, अंग चंग "कुचफल देखी करी, रंभा दिई “ब(ब)भने रे गाल मनोहर. १० वली सीलगुणे करी सोभे नर नारी, वहे कुलवटनी रे रीत मनोहर, देव गुरु धर्म सदा हृदये धरे, छंडे व्यसन रे सात मनोहर. ११ धर नारिया केता व्यवहारिया, करता गमन रे बाह्य मनोहर, कीरियाणादिक वस्तु विक्रियता, धरता कमला रे म(स?)ध मनोहर. १२ ॥ दूहो । सोरठो ॥ वरणव जाण अपार, गुज्जर देश तणा सही,
एक जीभ एक मुख, कहतां पार न पामीइं. १ ॥ छंद मत्तगयंद ॥ सप्त'भ' गणोपलक्षित ॥
अहमदावाद अछे अति सुंदर, सोहत लंक समान ही जानो, पुंस वडे भल नार कहावत, देख लजे गइ रंभ विमानो. २ रागरसे भर चातुर मोहत, काज करें अपनें सुभ ध्यानो,
सूरि वसे चउमास सुधाकर, एह पखे परमोद वखानो. ३ ॥ अथ गुज्जरमध्ये राजनगर, तस्य वर्णनमाह गुर्जरवर्णनं कृत्वा ॥ दूहो: इम वरणव गुजरातनो, कीनो मन उलास,
राजनगर हि[व] वर्णवू, द्यो सरसति प्रकाश. १ ॥ अथ मत्तगयंद छंद पूर्वेव ॥ अमुक नगरे इति परिभाषा ॥ देश आश्र(श्रित्य ।।
राष्ट्र वडे बहु देख नरां पिण, गज्जर देशह मे जब पेख्यो, चावल खांण तणां बहु ओपत, बोलत वात हस्ये जब देख्यो, धारत अंग सु[व]र्ण अनोपम, अंबर २०थोव पसत्थ हि वेखो, लोक वसे परमोदरसे भर, भामहि २२अमद सहर अनोखो. १
॥ इदं गौरवत्वं नगरस्य ॥ अथ नगरारामवर्णनं ॥ छंदजाति - त्रिभंगी। द्वात्रिंशत् स्वरोपलक्षितसरसर्ति मातं, जगत सुहातं, मनमां ध्यातं, सुखकर, यो वचनविलासं, मनउलासं. अहिमद तासं. किर्त्तिकरं. बहु नगरपसत्तं, अछे सुसत्तं, घाटनिमत्तं, ब्रह्मरचं, इह घट्ट सुघट्ट, भूतपगट्ट, गुज्जरपट्ट, मानसचं. १ गुज्जर..... तटनी तटपासं, कांप जु खासं, राजप्रकासं, अगरेज, जहां कटकह पूरं, जोध सनूर, वाजत नूरं, ध्वजनेणं, मयगल मदमत्तं, अश्वसु नत्तं, काबल जत्तं, सहसगम, बहु गोलानालं, वयरिसालं, एम नीहालं, अग्गेरमं. २ एम नीहालं..... दरीयासा पीरं, निरखह धीरं, जीर्ण मंदीरं, सब देखं, सेठ मगना बागं, पादप लागं, ताका थागं, कुण वेखं", हठीसिंघह कीधं, भुवनपसिद्धं, निरखत लिधं, प्रभुदारं, ध्वजसहित मंडाणं, उच्चेपमाणं, मेरुहराणं, जगसारं. ३ मेरु हराणं..... तिहां बाग विसालं, सोहे रसालं, प्रत्यख भालं, नाम कहं, कदली अरु अंबं, जंबु कदंब, ताड विलंब, देख रहं, नारंगी दाखं, दाडम चाखं, बद्रिवि आखं, निंबु मीठं, सीताफल सेवं, जांबल मेवं, लक्षां एवं, हम दिठं. ४ लक्षां एवं..... मालति फुनि दमणं, चंपक "पभणं, भमर जु भ्रमणं, अति गुंज, गुल मोगर वेलं, "मरुव चंपेलं, गुलाब खुलेलं, "नल-पुंजं, कोकिल सुक मोरं, करत हे सोरं, कूपकी कोरं, वह चडसं, बगला बहु चंगं, सोहे उमंगं, नरदिल-संगं, रंगरसं. ५ नरदिल.... कवी करि विचारं, "नरोड धारं, पास जेकारं, प्रासादं, मेरु सम जाणं, अछे मडाणं, स्त्री-नर आणं, पूय-पादं, फुनि कार्तिक मासं, पक्ष उजासं, पुनिम दिवसं, "पट्टबधं, तिह दर्श निमत्तं, मेल भरतं, स्नात्र करतं, भाववधं. ६ मात्र.. अव तटनी नीरं, वहते धीरं, जहां नर भीरं, स्नानकर, जल बहुत अथग्गं, निकलत मग्गं, नावकी सग्गं, पारपरं,
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पणघट पणहारी, नगरकी सारी, घट सिरधारी, नीरभरं, भदर दरवणं, देखन कज्जं, कविजन सज्ज, पावधरं. ७ कविजन..... निरखो इह कोटं, लगे न चोटं, नही कछु खोटं, लंक भलं, अति जबर भुरज्जं, उपरि सज्जं, दुष्टके कणं, नाल "अलं, कंगुष्टेकि रेखं, गिणत न लेखं, जुज रवि पेखं, तास परं, दरवज्जकपटुं, लोहलपट्टे, बेठे सुभट्ट, मद्दधरं. ८ बेठे..... टंट टणकारं, चोविस वारं, शब्द हि सारं, घडीयालं, भद्रकाली नाम, देवीधाम, समरि तामं, सुखमालं, तस पाखे ज्ञानं, तस्करठाणं, आगे जाणं, अश्वनवं, त्रिपोलि पेसंतं, चहुट चलंतं, नल देखतं, नेन "मचं. ९ नल.... मणिहार विशेषं, वोरा देखं, मोची लेखं, कुंभकरं, माली तंबोलं, बोडे ओलं, "कुंजडटोलं, "स्यागधरं, बेठे बहु लोकं, माणकचोकं, कंचन थोकं, "ढिगधरं, बज्जाज पुंमानं, वेचे थानं, सरापि खानं, परखकरं. १० सरापि..... भेषज बहु धारं, गांधी सारं, गेणाकार, सोनारं, कंदोइ कंद, वेचे "ऊमंदं, कुंदा फुदं, पटुकारं, ध्रमशाल अनेकं, वीर विवेकं, रूपके टेकं, मतिकाजं, अष्टापद नाम, देवल तामं, बहुविध कामं, जिनराजं. ११ बहु..... हरकुंवर विसालं, रच्यो जिनालं, मन उजमालं, विमानं, गछपति सूरिंदं, विजय देविंदं, किये प्रतिष्ठित, सुभध्यानं, रिषभ प्रासाद, अनुपम आदं, सुमति सुखादं, भय नरं, भल झिगमिग जोतं, झाड प्रद्योतं, तमस विलोतं, भानु हरं, १२ तम..... जव्वेरि महोलं, मध्य अमोलं, घरकी ओलं, तस मध्यं, प्रभु वीर जीणंद, कर्मनिकंद, देवल सोहे, आनंदं, सिर ध्वज लहकंतं, कहे जु तंतं, वीर नमो जिनवर खासं, टरे गर्भावासं, कर्म ज्यु नासं, सेवत टारे, यमफासं. १३ सेवत.... नर थई पवित्तं, भणे स्नात्रं, नेवद मात्र, पूजकर, जिनभुवन बहुलं, वचन ए थूलं, कहतां भुलं, ५ भास ५२भरं,
श्राविका उपाध, वचते शास्त्रं, अन्य सुखास्त्रं, बहु जाणं, मठवासि मटुं, कंठे कटुं, देवल दिटुं, नाराणं. १४ देवल..... शिवब्रह्म वखाणं, रघु पेखाणं, देवल ठाणं, ज्योतिजगं, बहु यवन मजीतं, कर तहां प्रीतं, खुदासु नीत्यं, भिस्तमगं, इम पवन छत्तीसं, विश्वावीसं, स्व-स्व ईशं, जपे सबं, नागोरी सरायं, इहां सवार्य, चउमास ठरायं, पूज्य जबं. १५ चउमास.... प्रतोली वीसालं, मध्य रसालं, चोक सुहालं, वृक्ष लगं, वट नीब-प्रकासं, सीतल जासं, छाया तासं, सेन गर्म, वलि बगला जाणं, खास खजाणं, तिष्टह ठाणं, दलालं, प्रभुगेह अनुप्पं, पासह कुप्पं, अतहि सरूपं, रम बालं. १६ अतहि.... वटवृक्षह सामं, उपाश्रह ताम, छे ध्रमधाम, पूज्यकहं, श्रीविजयदेविंद, मुणिगण इंद, नाम लहिंदं, पापदहं, व्याख्याण वखाणं, तर्क प्रमाणं, जीवहि नाणं, वाक्यरसं, केइ मुनिवर वृंदं, रह आनंद, पठे सुछंद, काव्य जसं. १७ पठे..... सेठ मगनसी भल्लं, वाडी लल्लं, जीवा दल्लं, ठाकुरसिं, फुनि माणकचंद, उमा उमंदं, पानाचंद, गोकलसिं, इम श्राद्ध अनंतं, भाव धरंतं, विनय करतं, हुल्लासं, संघ वीनती किद्धं, सूरि प्रसिद्ध, बहु जस लिद्धं, चौमासं. १८ बहु..... श्रावी करे गानं, रूप-निधानं, गुहलि(ली) टाणं", तांदूलं, इम बहु विसेषं, कहत न लेखं, कविपद पेखं, मन भूलं, संवत्सर चंदं, गोभ्वानंदं, फाल्गुन छंद, वदि मासं, तेरस रवी अमं, प्रमोद प्रपन्न, धरे सुरत्नं, तुम आसं. १९ धरे....
॥ इति राजनगर वर्णन ॥ अथ दूहा - गच्छपति गुणमणि दीपता, त्रण्य तत्व के जाण,
भविजनकुं पडिबोहवा, करे सुयुक्ति वखांण. १ वचनध्वनि मधुरें वदे, षटभाषा जलधार, विद्युत देशना चमकती, भविक कर्म वहेगार. २
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आठ कर्मसें झुंझते, सूरवीर सूरीश, मोहरण कु हठायकें, आप बने ध्रमईस. ३ ध्यान की लहरें रम रहे, चवद सहस मुनीमांह, ज्युं गंधाढ्य नवमालिकुं, भ्रमर छोडते नाह. ४ एसे महा सूरिकुं, प्रणमे सहु नर नार,
गुण षट्त्रीससुं ओपमा, वर्णव करुं विचार. ५ ॥ अथ सकलगुणनिधान इति परिभातेनात्र सूरिगुण अधिकत्वं यदा अन्य गुणप्रबंधन वाच्यमाने सति अंत न तत: सूत्रोक्तगुणान् ब्रुवे फलं मम ।।
अथ सूरीणां षट्त्रिंशतिगुणानां सिझाय ॥ ॥ ढाल- ढोला मारु घडी एक कर हो झुकाय हो ॥ अथवा सिंहलनृप
कहे चंदने राजिंद मोरा जोवो विचारी पुंठ हो - ए देशी ॥ वर षट्तीस गुणे करी साहिब मोरा, जुगपरधान कहाय हो, भविक हृदय पडिबोहवा साहिब मोरा, भास्कर जिम सूरिराय हो. १ रसनो भिनो मारो, ज्ञाननो लीणो मारो सूरिजी
साहिब मोरा भवभयभंजन तेह हो [आंकणी] पंचेंद्री-विषय जीपता साहिब मोरा, तेवीस तणो समुदाय हो, पढम करणना फरस ते साहिब मोरा, अठ कहुं ते गाय हो. २ रसनो.... गुरु लहु "सुखमाल "खर्खरो साहिब मोरा, उष्ण स्निग्ध सितल लुख हो, मन वच कायाई करी साहिब मोरा, पाले प्रथम गुण मुख हो. ३ रसनो.. बीजे गुण रसइंद्रीने साहिब मोरा, रोधे पांचे भेद हो, तीखो कटु कसायलो साहिब मोरा, खट मीठो नीखेद हो. ४ रसनो.... घ्राणेंद्रि तीजे गुणे साहिब मोरा, द्विभेदे अनुभाव हो, सुगंध दुगंध सम गीणो साहिब मोरा, नवि राखो इणसुं 'चाव हो. ५ रसनो.... तुर्य गुणे चक्षुइंद्रीने साहिब मोरा, पंच भेदे तुमे जीती हो, नील पीत स्याम रक्तता साहिब मोरा, स्वेत वरण ए भात हो. ६ रसनो.....
सुतभूति गुण पांचमो साहिब मोरा, भेद त्रण्य करी जांण हो, सुभ असुभ मिश्र वाक्य ए साहिब मोरा, तुमे त्याग्या हित आंण हो. ७ रसनो....
नवविध ब्रह्म गुपति सदा साहिब मोरा, पालो तुमे निसदीस हो, अकिंचन स्थाने नित रहो साहिब मोरा, वाड प्रथम षट इस [हो]. ८ रसनो.... विकथा नवि स्त्रीनी करो साहिब मोरा, वाड बीजी गुण सात हो, स्त्रीबेसणे बेसो नही साहिब मोरा, गुण आंठमो ए भात हो. ९ रसनो..... स्निग्ध द्रगे न विलोकता साहिब मोरा, स्त्री तणा अंग उपांग हो, नवमो गुण ए जाणीइं साहिब मोरा, दशमे गुण दंपतिसंग हो. १० रसनो..... पडिअछ अंतरे जे हुवे साहिब मोरा, नवि रहे तत्थ सूरीश हो, इग्यारमे गुण पूर्वली साहिब मोरा, नवि धरो विषयनी वास हो. ११ रसनो.... द्वादशमे गुण नवी लहो साहिब मोरा, विगयादिक आहार हो, अतिमात्रा वरजी करी साहिब मोरा, त्रयोदशमो गण सार हो. १२ रसनो..... सांसारी-भुषण तजी साहिब मोरा, बंभाभुषणधारी हो, मन वच काया एकता साहिब मोरा, चवदमो गुण जयकारी हो. १३ रसनो..... पणदशमे गुण क्रोध ते साहिब मोरा, च्यार चोकडीई त्याग हो, मान तज्या तुर्य चोकथी साहिब मोरा, षोडस गुणे गतराग हो. १४ रसनो..... चउबंध माया वेलि जे साहिब मोरा, सत्तरमे गुण उनमुल हो, गुण अढारमे लोभनी साहिब मोरा, पांखडी च्यारं घोल हो. १५ रसनो.... एकोनविसतिमे गुणे साहिब मोरा, छ कायमें दया मन्न हो, त्रिकरण करी नवी हणो साहिब मोरा, प्रथम व्रत धर्यो तन्न हो. १६ रसनो. व्रत दुजो गुण वीसमो साहिब मोरा, नवि बोले मृषा वाक हो, दान अदत्त नवी ग्रहो साहिब मोरा, गुण इकविसमो दोष हो. १७ रसनो.... द्वाविसमे गुणे सर्वथा साहिब मोरा, मैथुननो को त्याग हो, पर-रमणी मन नवि धरो साहिब मोरा, आप कसी वज्जलांग हो. १८ रसनो..... जीविंशतिमे गणे साहिब मोरा, परिग्रहनो परिहार हो.. मूर्छा नवि धरो चित्त हो साहिब मोरा, जग जस भयो अपार हो. १९ रसनो.... भणो भणावो ज्ञानने साहिब मोरा, लिखि थापे भंडार हो, गुण चोवीसमो दाखीयो साहिब मोरा, ग्यानरस दातार हो.२० रसनो..... पडिबोहो मिथ्यादृष्टिकुं साहिब मोरा, समकीतमूल बताय हो, संका कंख ते नवी रह्यो साहिब मोरा, पणवीसमो गुण थाय हो. २१ रसनो....
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भवअंबूथी तारे जे साहिब मोरा, तेह चारित्र अमुल हो,
ते सूरिअंगे सोभतो साहिब मोरा, गुण षटवीसमो अतूल हो. २२ रसनो..... तपाचार भेद बारसु साहिब मोरा, षट् बाह्य रस मध्य हो,
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सगवीसमो गुण ए ग्रहो साहिब मोरा, ध्यान-द्वय तुम लद्ध हो. २३ रसन...... रस अष्टावीसमे गुण वस्यो साहिब मोरा, महावीर्यनो पुंज हो,
अनुष्ठाने बल फोरता साहिब मोरा, सूरि महा धर्मध्वज हो. २४ रसनो...... समदृष्टि भूमी दीइ साहिब मोरा, भाषा निरवद्य प्रकास हो,
दोष रहित असन लीइ साहिब मोरा, अभिग्रह धरे सुविलास हो. २५ रसनो...... गुणतीसमे गुण सूरिजी साहिब मोरा, इर्यासुमती धार हो, धनुष एक दृष्टि दिई साहिब मोरा, सदगतिना अधिकारी हो. २६ रसनो..... अग्नि गगन (३०) गुणे तज्यो साहिब मोरा, सावद्य वयण निवार हो, गुण इकतीसमे एषणा साहिब मोरा, बेतालीस दोष विचार हो. २७ रसनो...... आदाननिखेवणसुमि साहिब मोरा, बतीसमे पढिलेण हो, पारिठावणियामि साहिब मोरा, गुण तेत्तीस प्रवेण हो. २८ रसनो...... गुण चौतीस इत्थथी साहिब मोरा, आतमरामता गोप हो, गुण पणतीसमे गुण वाक्यने साहिब मोरा, गोप्यो विभेदे कोप हो. २९ रसनो...... चेष्टा नियुक्ति रूपता साहिब मोरा, यथासूत्रनी चेष्ट हो,
इम घटतीस गुणे करी साहिब मोरा, करता धरमे पुष्ट हो. ३० रसनो...... ॥ इति षट्त्रिंशतिगुणस्वाध्याय । ननु औदार्यादिगुणान् त्यक्त्वा चतुर्विंशतिगुणान् मुक्त्वा अन्यगुणा वर्णिता इति चार्वाकवचं, तस्योत्तरं अव्याप्ति-अतिव्याप्तिअतिरेक-असंभवदूरिकरणार्थं षट्त्रिंशतिगुणा अन्यत्र न लभ्यते । अथेत्यादि रनेकोपमा इति विचिन्त्य ।
सूत्रोक्त गुण षट्त्रीससुं, वर्णव्या श्रीगणराय,
पुनरपि गुण बहुला अछे कहतां पार न थाय. १
छत्रे सोभित महिपति, वंदे जस नित पाय, गुणस्तुति कुण जाकी कहे, अपनि बुद्ध उपाय. २ पिण मे भक्तिवसे करी, गुण स्तव्या सूरिराज, बाल्यकल्पनानी परे, देखायो सरसाज. ३
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त्वद्गुणस्तवनाथी लहे, मणुआ पाप विणास, जिम तपन उदयथी भजे, महातिमिर निर्नास. ४ मनीषोकर प्राक्रम महा, दया तणा भंडार, ज्ञान उदेशे तत्परा, इण कलियुगमे सार. ५ देशी ॥
॥ ढाल ॥ मोतीडानी
तुमे जिनसासन सूर्य समान, तुम सोभा नवि रहि छान,
-
अथ छंद
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साहिबा सूरिश्वरराजा, मोहना सिरताजा,
तुम देशना अमीय समाणि, सुणि तरिया केइ भवि प्राणी साहिबा ......१ द्वादश अंग तणी नय जाणो, मूल टीका निर्युक्ति वखाणो साहिबा .... मोहना..., च निखेपे प्रतिमा थापो, मिथ्यादृष्टिना पडल ते कापो साहिबा .... मोहना....२ खंत्यादिक दश गुण तुम धार्या, राग-द्वेष बे चोरने मार्या साहिबा .... मोहना...... सत्तर प्रकारे संयमधारी, मुक्तीमारगना अधिकारी साहिबा .... मोहना....३ मूरख सिष्यने श्रुत-मति आपो, सारधार करी मारग थापो साहिबा .... मोहना...... यात्रा करो निरंतर जिननी, पारन हो नवि लहे तुझ गुणनी साहिबा .... मोहना.....४ अंबुनिधि भुजबल करी तरवा को पुमान करे मति लघुवा साहिबा .....मोहना...... किलोलमां जलचर छली जावे, बोत चितरे तुझ गुण किम गावे साहिबा ... मोहना...५ तुझ काया दीपे कंचनवान, अंखड अंबुजपंखडि मांन साहिबा ..... ...मोहना...... ओष्ट रक्त शशी अर्ध सम भाल, कर चरणे रेखा विसाल साहिबा .... मोहना.....६ इण विधि करि स्तुति देविंद सूरिंदा, स्तोक पणे करि मन आणंदा, दीन दीन सवाई होत कल्याण, विजयप्रमोद धरे तुम आंण साहिबा ....मोहना ....७ ॥ इति इत्यादिगुणवर्णनं ॥ ढाल || अथ अत्रतो लिखते इति परिभाषा ॥ दूहा : अष्टोपरि सत सहस्रश्री, सोहे तुम सन्मान,
इत श्रीसंघसुभटके, लिखे पत्र कमलान. १ छप्पय ॥ कवित्त ॥
तपगछनायक पदयु[ग]ल, लिखे लेख उच्छव कर, मधुकर चाहत जेम, फूल मालती वास-चर, तिम नर-नारी वृंद, देश मरुधरना रागी,
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अनुसन्धान-६५
चाहत श्रीगुरुराज, दरशण अतिहें रढ लागी, अति मोद धरि चरणारविंद, वंदन चाहत गछपति,
भल थाट जासु हियडे अधिक, ओच्छव करवा सुभमति. १ अथ मरुधरदेशवर्णन : दूहा : सकल राष्ट्र सिर सो[भ]तो, मुगटे मणी समान,
मरुधर इसडो जांणीइ, उत्तम नरकी खाण. १ रूपें करी जिणे जीतीयो, अनंग तणो य रूप, कला बहुत्तरथी भर्या, इहवा पुरस अनूप. २ मदर्भित केइ मच्छरि, किते धर्मि धनवंत, गुणि ग्यानी पंडित भला, सूरवीर अरिहंत. ३ गोधुम-खाण अरु कुंपजल, वप्र-नंद उत्तंग,
फागुण मासे इहां सही, वाजे अधिका चंग. ४ । कवित्त ॥
देश मरुस्तल अति उदार, जहां नर उत्तम खांणी, अति विशाल ओपत विशेष, जास मुख मधुरि वाणी, नारि रंभा जेम रतिहपति-रूप-वखांणी, भल थाट खान पान सुथीर
जा सुधार ...............
......, मोद धरता सुखकरा, दीपत दशा दिशो विजयकर, देश भलो छ मरुधरा. ॥ अथ छंद - पद्धडी || जंगणांत ॥
सहु देशमाहिं अतहि दिपंत, मरुधरा देख हरखत संत, उलास धरत चउ वरण अंग, नही कदा जासु मनरंग भंग, सहु देश-सिरोमणि अधिक सोभ, जहां रहे सिद्ध धर ध्यान थोभ,८ रुजरहित निरमलो जस प्रकास, जहां नही वित्तचिंता उदास, जनपद लोक सुखीया वसंत, दुख-नाम न जाणे तहां रहंत, जहाँ बहुल वृक्ष अति सघन वाग, वाडी उदार लहता न थाग, पर्वत पाहाड अतहि फवंत तेह, अति उंचा तारागण अडेह. १
दूहा: इम वर्णन मरु देशना, छे अति युक्त उदार,
राज करें इहां राजवी, राष्ट्रवंस मनुहार. १ इम कृत पूरव पाइ, इह भव राज्यपदभोग,
तखतसिंघ इहां राजवी, करत राज्य तजि सोग. २ ॥ इति मरुधरवर्णनं ।। अथ राज्ञवर्णनं ॥ मल्यका छंद ।।
राठोड की राखी टेक, तखते समान एक, लोक सव्व माने आण, शत्रू राखे तस काण, न्याये जाणे रामचंद, दुखीनको काटे फंद,
शोभाको पार न पाय, रत्न कहें जीवो राय. १ ॥ अथ जोधनयरवर्णनमाह ॥ दूहा : सुंडाला तो समरतां, उपजे उकति अपार,
गजल कहु जोधाण की, सुणज्यो सर्व संसार. १ नगर देश केई निपट, जगमां केता जोय, जोधाणो देख्यो जरे, होड न इण री होय. २ गजल कहु तीण री गुणी, अपनी मत्त अनुसार,
दिठो जिसडो दाखस्युं, परतिख गुणह अपार. ३ कवित्त : जगजालिम जोधांण, सहर साराइ सिहर,
तखतसिंघ महाराज, राज जिहां करे राजेश्वर, वरण अढार वसंत, सुखी इंदलोक समानह, अन्नधन्न धरां अपार, कदे दुखवात न मुख कह, गज-अश्वथाट वाजी बहु गुनी, नगर देख सुख उपजत नित्त,
कीस्त गजल करीके कई, नरवर चित्त दे सुनहु नीत्त. १ ॥ अथ जोधनगरवर्णनगजल ॥
जोध ही नयर हे एसाक्, मानु इंद्रपुर जेसाक्, कहिये सिकल तिनकी केतीक्, अपनि बुद्ध हे जेतीक, कहता गुनह नावत पार, कहें अपनी मत्तके अनुसार, नृपति तखतसिंघ जिहां राज, करते सदा धर्म हि काज,
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तेज पुंज दिनकर तपंत, जिनकी श्लोका जगत जपंत, देत आसीस नित सहु नर नार, चिरंजीवो कोड अनुवदत जयकार, इणविध सहु देत हें आसीस, वाणी वदत वीश्वावीस,
जा के कुमर हे सुकमाल, जिनका सुजस हे अपार,
गढ जिहां अनड अतहि उंचाक्, परगट गगण लग पोहचाकू, ओपमा कहा देत बुद्धीवान्, विश्वमे लंकगढ ही जान, कंगुरेकी बनी हे ओल, नभमे तारागण समतोल, भुरजां चंड वडी भारीक्, सबही अडग हे त्यांरीक्, नव नव हात तिण पर नाल, शत्रु देख मानत साल, तिणका नाम कीलतोड, वीजलि कटक दुस्मन मोड, चोकीला बान हे केकान, लाखां कोड हें तहां जान, जंबु रेखला जुंजाल, वयरि देख होत विहाल, परगट च्यार प्रौढि पोल, राव तहां करते रोल, महिल अटल मनमान्याक्, जगमे इंद्रलोक जान्याक्, मोति खापर ओर बहु मेल, नाजर तहां करते टेल, बहु तहां जाली गोख, जिहां नर बेठ करते जोख, चोकी हे बडी सिणगार, आगे सभामंडप सार, दपतर बडा है भारी, जहां लिखते इक तरीक, सुरजपोल सिरे मान, आगे अंतपुर ही जान, घडीयाल करत हैं टंकोर, नोबत घुरत हे घनघोर, खजाना खूब हें भरीयाक् देखत काज सब सरियाक्, आतमरामकी समाद, सामा जलंधरका प्रसाद, चामुंडा वडी हे महकाय, देवी बेचरा हे साय, टांका खुब भरीया थाट, उपर वडका गहगाट, बडी सुघटा लोहापोल, बेठ सुभट अतहि टोल, आगे पोल अमरतीक्, लखणापोल हे अडतीक्, झरणा झरत हे अपार, संभुनाथका दरबार, धुवपोलसुं चलीयाक्, पट्टा खुब ही बधीयाक्, भेरुनाथका हें थान, जाकी नाम चोकेलाव,
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सिद्ध हि पोल फेर गोपाल, आगे वडी हें बहु साल, फतेपोल हे अनुप, वरण्या गढका सरूप,
वली करूं सहर का वखान, गुणिजन सुनन दे दे कांन, बहुत हैं चोवडा बाजार, पंकत हाट पाव न पार, झुक रही हवेली झाझीक, माहें मनुख्य रहें माझीक् कोरणी खुब हें एसीक्, इलमे देख नही एसीक्, जिगमिग रहें जाली जोत, रवी प्रतीबिंब होत उद्योत, जिनमे पदम सरवर जांन, वलि राणिसर हि वखान, स्त्रीयों वहत हे जोडाक्, पणघट लागते कोजक्,
गहरा सागर फब ही गुलाब, सागर फते अमृत आब, गंगेलाव फुलेलाव, चित्तमे देखने का चाव, तापिवाव जेता कूप, रूडा नगरका हें रूप,
चावि सिरे चांद हि वाव, जिस पर वडका फेलाव, सरवर मान उदधि समान, परगट नीर गंगा पान, गंग ही स्यामका देहरा, मानु सहरका सेहराक्, कुंजविहारीका परसाद, वली आसमानसें करे वाद, वड महाराजकी सुन वत्त, मिंदर करे प्रभु अनुरत्त, भेटे महावीर देहराक्, परगट पासका हे राक, सुख करते शांतिनाथ, ध्यान धरूं सुमतिनाथ, रीखभदेव देहरा भारी, पाव पुजते नारीक, पास हिवानका परगट, थपे देहरा जु थट, तलहटी महिल मान्याक्, जगमे इंदलोक जान्याक्, कोटवालि चबुतरा के साक्, जोवो देवलोक जेसाक्, वन्यो तिहां अधुना कूप, जल भर्यो हे अनूप, सायर एनका कोठार, भरीया बहु द्रव्यभंडार, तपगछ ओपासरा क्षेत्रपाल, वांहांकी करत हे रखवाल, वृद्ध लघु केई " भलभाक् ज्योज्यो उपासरा जेताक् परगटतां बहु पोसाल, बहु बहु तहां पढते बाल, अस्तल भगतका एताक, दान हि संतकुं देताक्,
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मोटी वड वडी मजीद, पढते यवन तहां कर प्रीत, मोटा अडिग "मनाराक्, सब ही देखके साराक्, तकिया फकीरुं का फाब, उहां कहे अरकि का जाब, आसण मठ जहां अनेक, योगी संयोगी हे केक्, छिब वर्ण पवन छत्तीस, वदी हु नाम विस्वावीस,
खेत्रि विप्र वणिक ही खास, वसते आप आप आवास, कायस्थ की ते देवीदाश, वसते सुद्ध घर की वास, सोनि जाट छिबा सुद्ध, वलि गेहरिद्ध बहुबुद्ध,
घानजा लुहार खाति बुद्ध, अपने काममे भरपूर, कंसारा भरावा कुंभार, वणिगर सोरगर अणपार, "खारोल घांची मोची खंत, वड वड नगरमे वसंत, "खेरादि “चुडीगर "घटीक, ठाचा नगरमाहे ठीक, भडभुंजा माली चारण भाट, खासे द्रव्य घरमे खाट, लखारा सकला घर लाखां, भल भल रहे ते भाखां, "डबगर "सीसगर दरसाव, तेली तंबोली बहु चाव, भाख ही "कलाल ही का भेद, खाटे द्रव्य न करे खेद, वली तिहां अन्य बहु वसतीक्, इहां तो कहीई एतीक्, वणिया सेहर-कोटका वणाव, देखे होय ते न लगे डाव, अतहि विस्तार हे जु उत्तंग, भल परबत करत तु भंग, पाहाड अनड पवेद्यक्, भुजबल हणुमतकुं भेट्याक्, ज्वालामुखी देवी जोत, अहोनिस रहत हे उद्योत, सहिर बाहिरकी सोभाक्, अब कहुं सुणो नर दिल-पाक, सीतल नीर सागर सूर, सागर वखत बहु जलपूर, वालहि समदरका वरणाव, पंडित तिहां देख घर पाव, जलविच महिलायत मोटीक, लागे द्रव्य लख कोटीक, वागां सिरेमाहि च्छेल, जीसमे वडे अद्भूत मेल, क्रिडत तखतसिंघ महाराज, करते सहल अतहि साज, वणियां तिहां अदभुत बाग, छोगा "छयलके चित्त लाग, तिणमे अंब दाडम दाख, सर्व व्रक्ष विस्तरे हैं साख,
जांबु नीबु "किरणा केल, सीताफल बद्रिफल मेल, "सुरुंज काकडी हे हजार, घट ऋतुफल हे तिण मझार, "गुलदावद हे गुलाब, अंगपे धरत वधे आब, मोगरा मरुआ चंपेल सार, जहां भमर [मधुर] गुंजार, पीपल वड ही "बोहो परचंड, जहां पंखिनका बेठे झंड, मेला मंडत हे मोटाक्, द्रव्य न चलत हे खोटाक्, इक हे १० राइका आराम, देखत सरत सबहि काम, सेखावत सरवर सार, आप रहे भर अपार, सरवर बहुजीका सुध, देख्या नीर जाके दुध, अखय तलाव अखेराज, संघवी करायो सिरताज, कायलाणा महल हे भारीक्, सरवर तखत हे वारीक, भट्टारक दीपका तलाव, नीचे वागका फेलाव, मिंदर कीया थासी ताम, लागा तिहां अतहि दाम, बहु सुघट्ट सिवका थान, अध बन्या अजा एड मुकान, मेला भरत हे भारीक्, अबरेखा वागकी त्यारिक्. नाडा बडा सुखदायक, राजे सदा गणनायक, कागा चागकीरत्त, सहु नर कहे सुणज्यो सत्त, उसमे चीज हे चीतचाह, लायक नर लेत हे जु लाह, तहां इक देवीका ठांम, आसपुरी जीस नाम, भगति तहां करत भंडारीक, देवी बहुत हें प्यारीक्, महामिदरकी छब देख, सुर नर रहे नेना पेख, मिंदर उदेहीकुं जाण, जीसमे जलंदर का थान, सागरलाल ही भरीयाक्, दरषत सब हे हरीयाक्, मंडोवर सहर०२ अतहि मोटाक्, कायम गढ नव कोटाक्, छाजे पवन छत्तीसेक, दरसण घट तिहां दिसेक्, वड वड वागका विस्तार, फेले फुल फल अपार, पारसनाथका परसाद, झलर नगारुका नाद, छत्रिवनी मानसिजी रीक्, दरसण भरत लोक भीरीक, मिंदर तहां दोय मोटाक्, पांच च्यार हे छोटाक्,
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कहीये देव तेतीस कोड, छावा लाधते इक छोड, देवल बहुत हि देख्याक्, परगट कोट गढ पेख्याक्, भेरुं जहां हे भारीक्, पूजत पाव नर नारीक्,
ओर बहुआइ ठाण, कहा करुं तिनकी छाण, वरणुं "मुसद्दी का हुं भाव, सच हि सुनत लागे चाव, यवन करत हे दिवाण, चगसि सिंघवीकुं जाण, कायम देख कीलादार, जाका सुजस हे अपार, व्यास हि प्रोहितकुं मान, हाकम कोटवाल ही जांण, श्रावक वडे हे सुजाण, सदा धर्ममा पेचोण, सिंघवी इंद्रमल हे नाम, सदा बुध हि के ठाम, कुसलराज फोज ही राज, जिणके भुपका बहु काज, समरथराज ही वडभाग, नृपभक्तसुं अनुराग, उमेदराज उदेराज, करते राजहीका काज, प्रेमराज सीवराज ही नाम, जाके सदा ध्रमसुं काम, गीरधारीमल बुधके धाम, जिसके सदा प्रभुसुं काम, कुवरचंद भंडारीक्, जामे बुद्ध हे भारीक, जसराज राजकाज स[व] देख, जीवही राजका ध्रम लेख, सिरेमल समरथमल, जिनका सुजस हे अटल, गेवरचंद हे गुणवंत, जाकी साय हे भगवंत, मालमचंद ही सुजान, जिनकुं धरमकी पेचान, भागहीचंद का जस जहार, सवीरचंद हे गुणधार, देवीचंद गु[ग]णेशचंद, बहुत बुध ही के कंद, लुणावतभं चांदहीमल हे नरनाथ, जाके धरम ही की गाथ, अनहीराज सिरेमल, जामे बुद्ध हे अटल, दीपावत रतनचंद करणीयदान, जीतमल हे बुधवान, मनावत दीनानाथ हे वछराज, हंसराज ही आणंदताज, मुता मुकनचंद वडभाग, जा पर भुपका अनुराग, धरम ही ध्यानमें चित्त धार, करते संतकी बहु सार,
मुता बुधमल कोचर, सेवा करत हे बहु नर, परतापमल मुणोयत, जीनकी न्यावमे हि रत्त, विजेचंद वीजेकार, भूप राखते हे सार, सेठ केसरीचंद सुजान, जिनका नगरमे बहु मान, श्रीश्रीमाल गुलालचंद, नवलसाह हे सुखकंद, खीवसरा सांड गोलीया सराप, जपते देव अरिहंतजाप, मणीयार ललवाणी मुख, डार एगमन अलगा दुख, सब ही नगरका वणाव, गुणियन कया गुरुसुपसाय, मो बुध अल्प रे अनुसार, सुकवी भुल-चुक संमार, देख्यो नाहि माहि ज दोस, रखे कोइ करो रीस रोस, संवत उगणीसहसोल १९१६ जाण, सुदि फागुण मास हि जाण,
पंचमी सुक्लपक्ष हि पेख, रत्न कहे अलि लग्न देख. कलश : गजल कही ते गुणी सही रिझें सदाई,
श्रावण श्रवणां सुणे भलि विध तिणे मन भाई, योगी यंगम जती सती रतिवंत सुणत सत्त, सुणी योधाण वखाण वदे मुख साची मत्त, अवर नर रीझें अवस सरस वाक्य सुणने सदा, धन रल साची कहि, कुडी मत जाणो कदा. १
॥ इति योधनगरवर्णनं ॥ अथ इतश्च लिखित भाषा ॥ दूहा : श्रमणोपासिक तपगछना, श्रावि घणु सुविचा[र],
धरम नियम नित सांचवे, जोधहि नगर मझार. १ प्रभुपूजा नित सांचवे, त्रण्य टंक वलि तेह, परवादिक आव्या थकां, निवाणुभेद करेह. २ गुरुभक्ति विधिसुं करे, भात-पान पडिलाव, भेषज वस्त्र पात्रादिके, मन धर अधिको भाव, ३ ग्यानं धरम गुण दानना, ग्राहि व्रत धारंत, ज्ञाताधर्मकथा सुणे, जिनसासन उजमंत. ४
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इहवा श्रीसंघ हर्ष, अहने त्रिणि टंक, श्रीगच्छराज देविंद्रने, वंदे सहस्र अठांक १००८. ५ इहां धर्म नियमादिक हवे, श्रीजिनदेव प्रसाद, श्रीसूरिमहिमा करी, दिन दिन वधते वाद. ६ श्रीगणनायकने बहु, प्रमुदानंद अपार, सकल संघ वांछे अधिक, जिम चातक जलधार. ७ सकल संघोपरि, पूरव प्रीत धरंत, तेहथी अधिकी दिन दिन, राखज्यो मतिवंत. ८ धर्मराग धरज्यो सदा, छो बहु श्रुतना जाण, तुम समा नही महीमंडले, अवर न हेतु वाखांण. ९ धर्मनायक तुमे अछो, सुख-संपतिदातार, जिनसासननमे दीपता, इण कलीयुगमे सार. १० गुणवंत सूरिराजकुं, मरुस्थलना नर नार, वंदननी इच्छा करे, मन धर भाव अपार. ११ आसापूरण मनुजां तणी, आणी दया विसेस, निरमल करवा जन भणी, मरुधर करो प्रवेश. १२ जोधपुरवासी संघ सवी, लीखे वीनति सार,
कृपा करी श्रीसूरिजी, विनति ए चित्त धार. १३ ॥ अथ अप्रंच इति वाक्यात् ॥ ढाल | वालिम वहिला हो आवज्यो - ए देशी ॥ श्रीपालरासमध्ये ॥ मरुधर देश पधारज्यो, सारज्यो अम मनकाज रे, वंछना दिवस बहुनी अछे, वंदवा तुम महाराज रे. १ स्वामि(मी) श्रीसूरिसर वीनती, चीत्त धरी मानज्यो स्वामी रे, जोधही नगर पावन करो, इण कारण लिखुं ताम रे. २ स्वामी..... तुम देशना सुणवा तणी, भवीक मन अधिक अच्छाह रे, तिण कारण स्वामी मया करी, पौधारो सूरि यांह रे. ३ स्वामी.... नेत्र चाहे सूरि निरखवा, मन चाहे मिलवा हेज रे, रसना स्तुति करवा भजे, जिम भावे निद्रालु सेज रे. ४ स्वामी.....
सिखंडीनी चाहत मेघने, कलिकासुं परि व्रत प्रेम रे, (?) मीन भजे फुनि सलिलकुं, इहां चाहे छे भवि तुम एम रे. ५ स्वामी.... अवर महितल विचरता, यत्र मनुजभाव वीसेस रे, पिण किंचित अम मन तणा, भाव निरखो सूरेश रे. ६ स्वामी..... असन पान वली बहु वीध, भगति सगति अनुसार रे, राग धरी मन उचीतसुं, सेवस्यां चरण मनुहार रे. ७ स्वामी..... श्रावक इहां गुणवंत छ, जसु घरे रिद्धि विसाल रे, दांन बहुविध ते दिये, सुपात्र तणे उजमाल रे. ८ स्वामी..... श्राविका शुभ गुणे राजती, साजती धरमना काज रे, मधुर वचने करी जलपती, मानु कमला सिरताज रे. ९ स्वामी..... देव दरसण नीत साजती, गुरुभगति अधिके भावे रे, धरमकरणीनी आकरी, पतिव्रता सुद्ध ते १० स्यावे रे. १० स्वामी..... बारे व्रतधारि श्राविका, वलि नवतत्वनी जांण रे, खेत्रविचार संघयणना, अर्थ रहस्य सममान रे. ११ स्वामी..... तसु हिये वांछा तुम तणी, फुनि वाणि सुणवा चाव रे, वांछना पूर्ण करवा भणी, स्वामि ततखिण इहां आव रे. १२ स्वामी.. एकेद्रियादिक आसरी, सूत्रोक्ते मिथ्यात्व रे, करमग्रंथोक्त सास्वादनि, निश्चेसुं इहां ध्यात्व रे. १३ स्वामी.... पर्व महोच्छव अति थाटस्युं, चेत्रपरवाडि विसेस रे, धर्मवधि बहुपर थस्ये, इहां आव्या सूरिस रे. १४ स्वामी... धन्य ते दिवस अमे जाणस्यां, वांदस्यां सूरि महाराय रे, इम नर नारि तरस्ये सहु, गुरु आगमवल्लि ध्याय रे. १५ स्वामी..... कायभूअंकसशी (१९१६) अब्दमे, फागुण पंचमी सुध रे, विबुध कल्याण पट आदरु, प्रमोद वांछे तुम सुध रे, १६ स्वामी..... ॥ श्रीसूरिवर वीनती ॥ इति अप्रं च ढाल ॥ श्रीरस्तु ॥ ॥ अथ तत्र साधुमंडली प्रति वंदणा ॥ दूहा : पूज्य चरनांबुजे जे रहे, अलि इव पंडितद्वंद,
अष्टादश साखा प्रवर, विजयादिक सुखकंद. १
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रल परे मुनिगण विषे, रत्नविजय जयकार, सूत्र नियुक्ति फकिका, जाणे कर्मप्रकार. २ इणहि नामसुंजाणीइं, जाके ज्ञान अपार, श्रीसंघ वंदे उभयकुं, लेज्यो तेह सकार. ३ दप्तरधर अमृतविजय, वाणी अमृत जास, बुद्धे अधिका जाणीई, मोतिविजय प्रकास. ४ असनविभाग करे सही, दानविजय ध्रमधार, लक्ष्मीविजय लखण अधिक, हेतविजय सुखकार, ५ भगवानविजय जयकरु, इत्यादिक मुनि जेह,
तिणकुं श्रीसंघसुभटको, वंदन भाव करेह. ६ ॥ इति समस्तगीतार्थानां वंदणा ॥ चोपड़ : सकल गुणे करी राजे तेह, मेरु ओपम जेहने देह,
मल्ल शब्द अग्रिम जब थाय, परतिख तेहनु नाम कहाय. १ करे संघ तेहने परणाम, हवे दिक्षायें वंदन स्वाम,
रत्न करे नित ताकुं याद, अहनोदकें हवे शब्द विदाय. २ ॥ छंद - मोतीदाम ॥
रहे चोमास लही तुम आण, कलाणविजे तसु सत्क वखाण,
प्रमोदविजे पटधार कहाय, करा नीत वंदन सूरिय पाय. ३ ॥ छंद - पद्धडी ॥
शिवधन हि मत्त, पुन हे हमीर, विजय जोडी, करीये सधीर,
संज्ञा प्रतक्ष, ए च्यार थाय, कहे रत्न, नमे तुम्ह पाय. १ श्लोक : आग्रहात् सर्वसङ्घस्य, व्यलेखीत् पत्रमद्भुतम् ।
श्रीमद्देवेन्द्रसूरीणां, पादपद्येषु ढौकनम्. २ बाल्यबुद्ध्या च रत्नेन, शुद्धाशुद्धं च यद्वचः । तस्य क्षमतु हे स्वामिन्!, ममैव चर्मचक्षुषा. ३ रसचन्द्राङ्कभूमाने-ऽब्दे (१९१६) तपस्येऽर्जुने दले । पञ्चम्यां कर्मवाट्यां हि, रवी लेखो लिपीकृत[:]. ४ ॥ इति ॥
॥ श्री पार्श्वनाथजी ॥ स्वस्ती श्रीओमदावाद सुभ सुथाने, सरबओपमाविराजमाने, अनेकओपमालायक ००० इतादीक सूरी छतीस गुणे करी विराजमान भटारकजी श्रीपुरंदरभट्टारकजीश्रीश्री श्रीश्री १००८ श्रीश्रीवीजयदेवींदसूरीश्वरजी...... कर चणकुमलायसु जोधपुरथी लिखत समसत सिंघ लिखावतु वंदणा १००८ वार अवधारसीजी। अठा रा समाचार श्रीजी रा तेज प्रतापसुकर भला हे। श्रीजी सायबा रा दीन-दीस घडी-घडी पल-पल रा आरोग्य चाहिजे। आप रा सरीर रा खान-पान रा जतन करावसीजी । जतन तो श्रीअदीष्टायकजी म्हाराज करसी परंतु श्रीसिंघने तो लिखीयो चाहिजेजी । अपच श्रीसिंघने आपने वांदवा री घणी अभिलाषा छे. सुजे दिन दरसणावेरणी वेदी जसे अंतरायपटलसे तीण दीन आपका दरसण.... सी । मनमे तो अभिलाषा बोहत वाग रही है । जीण दीन चरणारवीद आप रा भैटसु सो दीन कोड दीवाकर उदे हवो जाणसी । आपका गणग्रांम करता पार हवे न्ही सायर अथाग थाको थाग दिनकं समरथा किनही आपतो सायर समान गुणां सुकरने संपूरण भर्या छौ । आपके सोभागुण दीसोदीस व्यापी रही छे। तेजकी पासनासे भवी जीव मगन आनंद पाम रहे हैं । आपतो वडा उपगारी सोम मूरती, धीरजवंत, मेरु सम अचल, चंद्र सम सितल, गंगाजल सम निरमल, पय समांन उजल, फिटीक रत्न सम क्रांत, अंधकारभंजन, अष्टकरमरिगंजन, कुमतीदलभजन, किजा-अनुष्ठान-ध्यान-ग्यांनमुद्रा-आसनरंजन भविकजीवकुं उपगार करण अभयपद देनकुं दजाल हो । अग्यांनी अविवेकी जीवकु उनमत सुभावी जीवकुं माही वडे गोप..... । संसार माहे भवीक जीव मोह, अंधकार, क्रोध, मछर, उदवेगसे करके बुड रहै है तीनकुं उधरणेकुं आलबन आधार जीहाज समान हो । कुमती कुटल विसन सातरूप माहारज ताकुं दुर करनेकु वायु समान हो । ओर केते जीव संसारमे करम पूंढके रहे है तिनकु नवपल्लव करनेकु पुसकरावत मेघ समान हो । दया प्रणांमसु सरव संसारी भवी जीवकुं हीत उपदेस देशना इमृत वाणी त्रिपू कर रहे हो । चवदे हजार मुनीश्वरमाहे वीराजके भुयमंडल पृथवीपे वीहार करते पावन पवित्र करता थका दिश नगरमांहे भवी जीवके कारणे समकित हेतु उद्योत कर रहा हो । धरममहि राजेश्वर सुरीराज वीचर रहा हो । इत्यादिक
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नवेम्बर - २०१४ आपकी सोभा गुणकिरती करनेकुं सुरगुरु वृसपत पार पानेक समरथ होय नही सो मनुस लोक कीरती करणेकु समरथ होय ही। ओर श्रीसंगपर श्रीजी महाराज क्रिया धरम प्रीती रखीयोजी... दीन दीन अधीक अधीक ताव रखावसी । श्रीसंगतो आपनो घडी एक भुले न्ही । आपकुं वांदण री घणी इछा वरते छै । सो तो जोगांनजोग कारणे आपका दरसण हुसी । आप गुजरात्र देसमाहे भाव भगतीसु लोभाय रहा छो । कोइक दिन मरुधरामांहे जरूर पधारसी। ओर अठे चोमासी गुराजी परमोदविजयजीसुनि मीलाया सो ओ बोहत गुणवान है। आछा पंडत सुत्रांना जाण छै । भेन भिनकर सरवकांनै समझाय रहा है। सु जागासु इसा ही ज पंडत सूत्र सिधंतरा जांण चोमासे मिलावसी । संग जोग्य काम बंदगी लिखावसी समत् १९१६ रा मिती चेत्र सुदि ४ सोमवार ॥ अथ समस्त संघ वीनती ॥ ढाल ॥ वैशाख वदि पंचमी दिने - ए देशी ॥ पंचमीरी सिझायमे लक्ष्मीसूरि करेल मध्ये ॥ संघ सकल करे वीनती सुण सूरीजी रे,
अवधारो महाराज सहु सिरताज सुण ग्यानीजी रे. १ उच्छव करवा सुभमती सुण सूरीजी रे,
संघ तणे मन रंग, अति उमंग सुण ग्यानीजी रे. २ सोभागी जगमां तुमे सुण......
महिमानिधि गच्छराज, बहु गुणभाज सुण..... ३ भविक हृदय प्रतिबोधवा सुण.....,
चूडामणि सम सार, सुखदातार सुण..... ४ ए पुर तुम चरणा थयां सुण.....,
सुद्ध होस्ये विशेस, टलस्ये क्लेस सुण.... ५ धरम नीयम अधिका हुस्ये सुण.....
दाननी मंगल माल, झाकझमाल सुण.... ६ ना(स्ना)बादिक पूजाविधि सुण.....
पोस उपधान विसेस, क्रिया उदेश सुण..... ७ देईने श्रीसंघनी सुण......
पुरो मन अभिलास, ए अरदास सुण..... ८
प्राज्ञ कल्याणनो इम भणे सुण.....
प्रमोद कहे सुभ देश, यो आदेश सुण..... ९ ॥ इति वीनती अवधार्य || श्रीः ॥ अथ श्रीजीचरणारबिंद वधावो ॥
॥ ढाल ॥ वालाजीनी वाटडी अमे जोता रे - ए देशी ॥ श्रीदेविंदसूरि वधावो रे, मोत्यां थाल भरी भरी ल्यावो रे, एतो जगबंधव जगनोवो, भविजन भावसं सरि वंदो रे. १ [ए आंकणी] कुंकम चंदन गवलि पूरो रे, कंचन चं(त)दुल स्वस्ति सनुरो रे, गावो मंगल वाजिब तुरो, भवि..... २ सुहागण वारणा करती रे, दान याचककु देती रे, सूरी आगल घुमर लेती, भवि..... ३ अति हर्ष पमाडो गुरुने रे, टाली आसातना करो विन्ने रे, एहनि आण धरो तुम तन्ने, भवि..... ४ इम प्रमोद तणी सुणी वाणी रे, सूरिशेवा करो भवि प्राणी रे, जिम पामो शिवपटराणी, भवि..... ५
॥ इति वधावा ढाल ॥ अथ रहस्य ॥ दूहा : नर नारि जोधाणना, करे राजनी चाह,
कामकाज सवि छोडने, कुकरादृष्टि लगाह. १ पूज्य नाम हृदये थकी, भुला नही लीगार, घणी विधसुं करा वीनती, स्वामी वेग पधार. २ श्रीआचार्यगुण बोलतां, रसनाने नही दोस, उगति जुगति देखी करी, म करो कोई रोस. ३ सूरिगुण चत्त लावतां, जिह्वा थाई शुद्ध, रत्न भणे अति शिघ्रसुं, खमज्यो शुद्ध अशुद्ध. ४
॥ इति रहस्यं ॥ सं. १९१६ वर्षे फा० सुदि ५
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(२१) साणन्द बिराजमान विजयमहेन्दसूरिजीने
सीणोरथी हिम्मतविजयजीनो पत्र
कदाच साणन्दना सङ्घने रीस चढे तो तेमने य सीणोर मोकलशो एम जणावी कवि स्वनामोल्लेखपूर्वक पत्रान्ते खामणा आपवा द्वारा पत्र पूर्ण करे छ । पत्नी रचना पं. न्यायविजयजीना शिष्य हिम्मतविजयजीए करी छ।
शब्दकोश
प्रस्तुत पत्र साणन्द बिराजमान विजयमहेन्द्रसूरिजीने उद्देशीने सीणोरना सङ्घ द्वारा मोकलायो छे । पत्रनो आगळनो भाग खण्डित होइ मंगलाचरण, साणन्दनगरना वर्णननो, गुरुगुणवर्णननो अंश पत्रमा मळतो नथी । पत्नी शरुआत 'गझल'मां सीणोर शहेरनी वर्णनाथी कराइ छ । फारसी मिश्रित गुर्जरभाषामा अनुक्रमे वहीवटदारोर्नु, व्यापारीओर्नु, लोकव्यवस्थानु, स्थानोल्लेख साथे जिनमन्दिरोनं, तथा उपाश्रयोन वर्णन पद्यबद्ध आलेखायुं छे । त्यार पछीनी ढाळमां सीणोरक्षेत्रमा चातुर्मासार्थे पधारेल पं० न्यायविजयजीना चोमासामां थयेल सूत्रवाचनादि विगतोनो तेमज मुनिश्रीना गुणोनो सक्षेपमा अहेवाल अपायो छ। गद्यपत्रनी शरुआत गृहस्थोना नामोल्लेख साथेनी वन्दना उल्लेखित करवा द्वारा कराइ छ । त्यान पछीनी विगतोमां फरी चातुर्मासिक आराधनानं वर्णन जोवा मळे छ । पूज्यश्रीने वन्दन करवा माटेनी उत्कण्ठानुं वर्णन करी पूज्यश्रीनी निश्रामा रहेला मुनिवृन्दने वन्दना निवेदन कर्या बाद सीणोर सङ्घना अन्य श्रावकोनी वन्दना जणाववा पूर्वक कवि गद्यपत्रालेखन पूर्ण करे छे । 'कांना तु तो...' ए देशीमां सीणोरनगरनु, त्याना राजा भाउ(?) तेमज अन्य पदाधिकारीओनू, जैनेतरमन्दिरो विगेरेनुं सुन्दर वर्णन करे छ। हरनाथ चिकित्सकनी नोंधने आ पत्नी विशेषता कही शकाय । त्यार पछीनी देशीमां सूरिजीना गुणोनी वर्णना करी श्रीसङ्कमा तेमना पधारता थनारां अनुष्ठानोनी विगत जणावी चातुर्मासार्थे पधारवा विनन्ति करे छ । फरी सूरिगुणस्तवना पछीनी ढाळमां आलेखी सूरिदर्शन-वन्दननो उल्हास कविए पद्यबद्ध रजू को छे। साणन्दना कपटी राजा, मीठा बोला मन्त्री तेमज अन्य प्रतिष्ठित श्रावकोए गुरुजीने भोळवी त्यां राखी लीधा छे एवा भावो रजू करी सूरिजीना सहवर्ति मुनिओने कटाक्षपूर्वक ते नगरनो त्याग करवा अने सीणोर पधारवा विनन्ति करे छ । अहीं पधारता कावी, जम्बूसर विगेरे तीर्थोनी यात्राओ थशे, सङ्गमां घणां अनुष्ठानो थशे ए वात भारपूर्वक आलेखे छे । साणन्दना अवर्णवादथी जो
१. बाडव = ब्राह्मण
२३. गिल्लांक =? २. बहोतर = घणी
२४. कनफटे = कानमां मोटुं कुंडळ ३. खेवट = सुकानी
पहेरनार वैरागी ४. गिल्लाक = शस्त्र मुकवानो २५. शेख = मुसलमानोनी एक जात ओरडो(?)
२६. कबिला = परिवार ५. कमठान = सरसामान
२७. जेदे = ? ६. बंकाक = बहादुर
२८. अडअलमस्त = मस्तान(?) ७. प्याजीक् = फोक्का पडवू (डुंगळीना २९. देदे = आपी दे रंग जेवा)
३०. तालाक् = ताळु ८. अदल = बराबर
३१. तालमखांन = नृत्यशाळा ९. नायव = राजकाजनो मददगार ३२. ठाढीक = मोटी(?) अधिकारी
३३. खलक = सर्वजातना १०. कोरोडी = ?
३४. हठवाडेक = दुकान ११. पायगां = सैनिको
३५. ठाढ़ेंक = मोटा १२. जालम = निर्दय
३६. नीक = प्रवाह १३. हन्नोज = ?
३७. बरनीक = भरेली(?) १४. कांहन = बूम
३८. किचोलीक = कचोका १५. तोराक = रोफ
३९. पडदेक = अंगरखानो पडदो १६. मुखताक = मुख्य पदार्थों ४०. खुडदेक = परचूरण, मोटा सिक्कानी १७. नईयतां = नीयत
किंमतना नाना सिक्का १८. भिडतेक = लडे
४१. गज्जीक = गंजी (जथ्यो) १९. बहोतेरेक = घणा
४२. हेरीक = विगत २०.ठोर = जग्या
४३. बन = बनीने २१. ओलाओल = लगोलग ४४. रत = तल्लीन २२. मुजब = धर्म (मजहब परथी) ४५. छीक = चकित
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४६. फलियाक् = फळियु ४७. मिजलस = सभा ४८. भूर = घणो ४९. सेहराक = मुगट समान ५०.आनाक् = आवq ५१. स्वातुक = स्वाती नक्षत्र ५२. हुजीई = थाजो ५३. जीवोक् = जीवो ५४. मोसे = माराथी ५५. चांचर = ? ५६. गहेर = ? ५७. हेति(ती) ? = ?
५८. क्रमथी = ओळंगती ५९. अगदंकार = रोगरहित (?) ६०. नीक = प्रवाह ६१. ओसंकीया = संकोच पाम्या ६२. वलण = प्रत्युत्तर ६३. थरमा = एक जातवें वस्त्र ६४. पामरिया = बारीक रंगबेरंगी(?)
वस्त्र ६५. ओडावे = वहोरावे ६६. पडीरूवा = ? ६७. सुखवेल = एक जातना चोखा
[पा]नि भरत हे पनिहार............
मांनुं सफरि(री) सम फिरतीक्, बाडवलोक वहां आवेंक, तटनी देख सुख पावेक्. ४ संध्यास्नानकुं करतेंक्, तनकुं विभूति धरतेंक, फिरति नाव बहोतेरेंक, बेठे लोक बहु घेरीक्. ५
खेवटलोक खेडे आप, पेले पार• पोचाय, देखो नदिके तटपरक, रचना बोहत हे दिलभरक्.६ उंचा बहोत हे किल्लाक्, उनमें पूराना गिल्लाक्', भारि बहोत हे कमठान', चांदनी पोहचति असमान. ७ जीनका क्या करूं अनुमान, नावे इंद्रघढ उपमान, महीपतराव हे बंकाक्, निसदिन बाजता डंकाक्. ८ खूबि बहोत हे ताजीक्, जीन पर लोक सब राजीक्, एसा मर्द हे गाजिक, रिपुदल सब किए प्याजीक्. ९ जीनकी अदल हे इनसाफ, काजी देखते हैं किताब, नायव कोरोडी कोतवाल, मिलत फोजदार भुजाल. १०
बेठक बहोत हे खासिक्, मिलते वहां महेवासीक, फीरति "पायगां चोपास, जालम तोडते महेवास. ११ लाखो माल वहां आवेक्, 'हन्नोज छापतां थावेक्, कुलनर करत "कांह्न नेक, दानि दान ले वेगेंक्. १२ मिठारांम देसाईक्, सबमें आन मनवाईक्, हुकमी करत हे जोराक्, रखते अमलका "तोराक्. १३ सीवलालका बहु मांन, मानत लोक जिनकी आन, वडे वडे लोक व्यवहारिक्, खुबि बोलते भारिक्. १४ वसते लोक वड-वखताक्, लावें माल वहां "मुखताक्, पहेने नीत नई पोसाक्, जीनकि नईयतां हे पाक्. १५ ब्राह्मणलोककि बसतिक्, लछी नगरमें लसतिक, ज्ञानि ग्यांनसें रातेक्, अमली अमलसें मातेक्. १६ केतेक वेदकु पढतेक्, वादि(दी) वाद सो भिडतेक्, भाषा रचे केई "ठाठीक, केतेक छंदके पाठीक्. १७ जोतिष जोतषी जोतेक, केतेक नीमितीए होतेक, सीव अरु कृष्णके देहरेक, गनपतथान "बहोतेरेक्. १८ बाजत घंट झालरनाद, गुहिरे गुजते हे साद, श्रावकलोक हे कुलशुद्ध, जीनकी बहोत हे बल-बुद्ध. १९ देसावाल [हे] बणीयात, वसति बनीककी सब नात, हिंदुलोक वसते ओर, वसति बहोत हे सब ठोर". २० अपने धर्मका आचार, पाले बहोत करके प्यार, छीपे भावसारकि पोल, मंदिर बहोत ओली ओल. २१ वणते साडिया नवरंग, विधी विधी भातकी हे चंग, हिंदुलोक बहोतेरेक्, सब व्यापारसें नरेंक्. २२ । सईद सेख अरु पठाण, वडी वडी जात मुसलमान, वहोरेलोक हे विख्यात, जीनकी दोय हे जमात. २३ पढतें काजी और मुलाक्, अपनें मुर्जबकि गिल्लांक, रहेते कनफटे ओर “शेख, जोगीनाथ नव नव भेख. २४
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जिनके कबिला नहि खेस, वेसें फिरत हे दरवेस. र जेदे केइ अडअल मस्त, अपनें हालसें मदमस्त. २५ नटुए करत केई चालाक्, “देदे हाथसो(से?) तालाक्', करति कंचनी केई गान, मानुं होत तालमखांन. २६ वसति बहोत हे गाढीक, मांगें सूरपुरी ठाढीक,२२ एसे च्यार हे चोहटाक्, पंक्ति बहोत हे हट्टाक्. २७ मिलति वस्त सब बाजार, करति "खलक सब व्यापार, गांधी करत "हठवाडेंक, सोदा लेत हे ठाढ़ेंक २८ केरी केल अखर "नीक, अछे स्वादसें "बरनीक, लेकर पान किचोलीक", फीरते केइ तंबोलीक्. २९ दुजि बहोत बनराईक, फलदल फुल सो छाईक, झुले रसभरे सहकार, जेसै सुरतरु अवतार. ३० वाडि बाग वन आराम, सुंदर बने हे सुभ ठांम, माली फिरत हे ले फुल, भोगी लेत हे दे मुल. ३१ सोदा करत केइ "पडदेर्क, केते बेचते "खुडदेक्, कपडखादियां गज्जीक", नव नव भांतसे सज्जीक्. ३२ एह विध चोककि हेरी', 'बन "रत जात हे मन छीक, श्रावकलोकका "फलियाक, मिजलस लोकसें मलीयाक्. ३३ उनमें आदिजिनवर देव, जाकि करत सुरनर सेव, दिन दिन तेज दिये “भूर, मानु नविन उदयो सूर. ३४ उपर सूमतिजिन राजेक्, जाकि सेव सूर साजेक्, छीपेवाडमें देहराक्, दीपे सबनमे "सेहराक्. ३५ उनमें वासपुज्य राध्यज्येंक, सारत भव्यजनको काजेक्, नीचे शांतिजिन स्वामिक्, प्रणमें भविक सिर नामिक्. ३६ देहरें सामि[हें] पोसाल, उनमें न्यानविजय मयाल, साधु साधते निज पंथ, पढते तत्त्वकें बहु ग्रंथ. ३७ श्रीजिनदेसना बानीक, पीवे कर्णपुट पानीक्, श्रावक श्राविका विधिजांन, नीस-दीन करत हे ध्रमध्यांन. ३८
एसे लोक सहु धरमीकु, मिथ्यामत नही भरमीकु, एसें जानकें आनाक्', सिणोर सहेर सूभ स्थानाक्. ३९ गणपति श्रीमहेंद्रसूर, वीनति जांनिए हजूर, जेसे गर्जते घन घोर, प्रमुदित होत हे ज्युं मोर. ४० जेसे चंदकुं चातुककें, छीपा चाहति स्वातुककें, जेसे विरहणी भरतार, असे चाहते गणधार. ४२ अरजि कीजीए एक ठूल, हमसें हूंजीई अनुकुल, न्यानविजयजूको सीस, हिंमत देत हे आसीस. ४३ दीपत जैनको दीवोक्, यह गुरु कोडजूग जीवोक्,
रंगभर किजीइ चोमास, पुरण होइ संघकि आस. ४४ इति श्रीसीणोरवर्णनं गजलसंपुर्णम् ॥
पुरण किध गज्जल्ल अवल्ल अढारसें त्रेस(१८६३) चित्त उल्लासें, थावरवार चैत्रमास तीथी पडवे दिन पक्ष उजासें, उदयो भलें थाट देवेंद्रसूरिपाटह महेंद्रसूरि जिम भानु आकासे,
जीतें न्यांन समान ए वर्णन सेवक हिंमतविजय इम भासे. १ दूहा : तुम आज्ञाथी आविया, न्यायविजयजी चोमास,
सांति स्वभाविक बहु गुणी, धरता सदा उल्लास. १ ॥ ढाल | मारा घणु सवाइ ढोला - ए देशी ॥ श्री सीणोर क्षेत्र जोइए एहवा, मोकल्या आदेशी तेहवा हो पु(पू)ज्यजी तुम....., उपाधि नहि लवलेश, विरज(जि)ननो सोहावे वेस हो पूज्य..... १ बुद्धि बहु गुणना दरिया, वाख्याने अम दिल ठरिआ हो पूज्य....., वाख्यांनपध्यत नित थाए, बहु भासां मंगल गवाय हो पूज्य..... २ उपदेसप्रासादनो ग्रंथ, सांभलतां होई सीवपंथ हो पूज्य....., तुम आज्ञाना अमे संगी, बीजा अमे जाणुं कुलंगी हो पूज्य..... ३ आदेसी अम मन भाव्या, तिणें ज(जि)नमत घणुं सोहाव्या रे(हो) पूज्य..... गीतारथ जेहवा जोईइ, सीणोरक्षेत्रमा तेहवा सोहिए हो पूज्य..... ४ सर्व साधुनें वंदना कहेवी, साहेब पण अवसरे लहेंवी रे(हो) पूज्य..... दीपविजयनी अरज सुणेज्यो, अवसरें स्मृति करेग्यो रे(हो) पूज्य.....५
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॥ इति श्री ॥ श्रीयम् || श्रीरस्तु ॥ शा० भाणादा सोमचंदना, शा० वरधमांन गांगादासना००० इतादीक परमुख सावकनी वंदणा वचाजी घणु सुख सा नाथ उपारवाका पधारजी, करपा राख छे तेथी वस[स] कर [२] खजो ।
एवं ए प्रकारे समस्त संघ बालगोपाल त्रीकालवंदना दीन प्रतें अवधारविजी। जत: श्रीपुज्यजीनें प्रसादे सूखस्याता छेजी संघनें। श्रीपुज्यजीना सूखस्याताना पत्र श्रीसंघ उपर प्रसाद करवाजी । बी० श्रीजीसाहेबें कृपा करिने आदेशी पं० न्यायविजयजी मोकल्या तेणें संघ घणुं प्रसन्न छ जी, लायक छेजी । श्रीसीणोरक्षेत्रजोग्य गितार्थ छेजी । इम घणी जिनसासन तथा धर्मकरणीनी उन्नति थई छेजी । त० वाखाणे उपदेसप्रासाद स्वाध्याए आचारांगसूत्र वंचाए छ। पजुसणपर्व नीरविघ्नपणे गयां छेजी। अठाई - २, पासखमण-१, पांच२, अठम-छठादीके करी विसेस प्रकारे तपस्या थई छे जी । पारणां २ जमां छे। श्रीपुज्यजीना नामथी घणुं रूढुंछे। ए श्रीसर्वे पुज्यजीना प्रासादथी घणो चोथो आरो प्रवर्ते छे। श्रीजीसाहेब संघ उपर कृपा करीने सीणोरना देव वांदवा पधारवू । श्रीसंघनें श्रीजीनें वांद्यानी घणी उत्कंठा छे ते मा. श्रीपुज्यजी कृपा करीने सेनापुरना संघने वंदाववोजी । श्रीपुज्यजी सेनापुरना संघ उपर हेत राखो छो तेथी वीसेष राखजोजी । अपरंग तत्र पं० प्रमोदविजयजी ग०, पं० अभयविजय, पं० खांतिविजय ग०, पं० गौतमविजय, पं० नयविजय ग०, पं० धर्मविजय ग०, पं० नीत्यविजय ग०, पं० लाभविजय ग०, पं० भक्तिविजय ग०, ऋ० मोतिविजय ग० इत्यादिक श्रीजी पार्श्ववर्ति सपरिवारनें वंदणा वीनववीजी । बी० अत्रथी सेवक पं० न्यांनविजय ग०, पं० हीमत्तविजय, मु० रामविजय, मु० हेमविजय, लघूसीष्य लालाचंद, चतुरचंद प्रमुख ठाणु ७नी वंदणा अवधारजोजी । अत्रेथी से० भांणा सोमचंद, दो० गंगादास कलु००० प्रमुख समस्त संघनी वंदना अवधारवीजी ।
अत्र श्राविका जोतिबाई, श्रा० राजकोरबाई,००० प्रमुख श्रावक-श्राविकानी वंदना दीन प्रतें १०८ वार अवधारजोजी । संघ उपर कृपादृष्टि राखवीजी । श्रीसीणोरना संघनी वीनति अवधारिनें चोमासूं वेलूं पधारजोजी। घणुं सू(शं) लखीइंजी । ए वीनति थोडे लखे घणु करी मांनजोजी ।
कागद थोडो हेत घणो मोसे || दोय नारि अति सांमली० ॥
पं० धर्माजी भ्रात्रीस्नेहिने रामनी वंद० दी० १०० ॥०॥ कांना तु तो कांमणगारो रे अतिसें आलीगारो रे - ए देशी ।। सहेर सीणोर बिंदर भारी रे, जेहनी सोभा , सारि रे, हु जाउं तस बलीहारि रे, जिहां नीवसे बहु व्यापारी रे. १ केई गोख छजावट मेढी रे, केई दीपे सोदागर पेढी रे, वली त्रीक "चांचरना सेर रे, किया सूत्रबंधइ गहेर रे. २ वसता बहु नागर लोक रे, वली विपना थोके थोक रे, तेह माहें वधुजन नीरखी रे, दक्ष मोद लहे चित्त परखी रे. ३ ते दानि मानि ग्यानी रे, धनवा(व)ता ने अभिमानि रे, व्यापार घणु दीपावें [रें], रहे छ साहुकारने दावें रे. ४ तिहां भाउ छे माहाराज रे, जेहना जन अधिक दिवाजा रे, प्रज संततीनी परें पाले रे, सहुने समदृष्टि नीहाले रे. ५ भीम-कांतगुणे करी सोहे रे, सहु पुरजननूं मन मोहे रे, षट दर्शननो अनुरागी रे, दान शील महा वडभागी रे. ६ ईति भीती नीवारें पुरनी रे, सेवा सारे सहु सूरनी रे, ए सम नही राजा कोई रे, विधि थापें सहु गुण जोई रे. ७ वली गुलाबराय देसाई रे, मजमुदार हिंमतभाई रे, पटेल ते मिठादास रे, जीवणभाई सूविलास रे. ८ ए आदे घणा अधिकारि रे, पुरजनना , उपगारि रे, सूभ मारगें धनने वावें रे, सोभा जस किरत पावे रे. ९ जिनमारगना बे देंहरां रे, प्रभु वंदे उठी सवेरा रे, करे धर्मकर्मना कृत्य रे, न करे कोई कृत्य अकृत्य रे. १० पुरपरिसरे वाव हे "ति(ती) रे, जलकल्लोले गहे गहेती रे, मांहें नव-नव जातनी मछी रे, जेहनी सूरत , अछी रे. ११ तस फरसबंध छे घाट रे, घडिआ बहु जतने सलाट रे, पनिहारियोनो बहु थाट रे, पदथी "क्रमथी तेह वाट रे. १२
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संध्यावंदन तिहां करता रे, द्वीज करणीनें अनूंसरता रे, केई भोगी भमर छोगाला रे, सोभा नीरखे लटकाला रे. १३ भंडारेसर महादेव रे, रोहेणेसर बीजा देव रे, अनुसीआ मात भवांनी रे, ते तो सहुना मनमां मांनी रे. १४ गणपति हनुमंत कहावे रे, महालखमी मात सोहावे रे, एहवि देरासरओल रे, वली दीपति सूदर पोल रे. १५ केई वेदीआ वेद उचारे रे, भणे वैयाकरणी सवारे रे, केई छंद भणे मनमोजी रे, केई जोतिषसास्त्रना खोजी रे. १६ हरनाथ चिकित्सीक सार रे, करे लोकनें अगदंकार रे, इम निवसे वरन अढार रे, सहु साचवे नीज आचार रे. १७ इम सेनापुर अति राजे रे, तिहां आवो मुनिनें समाजे रे, अहो श्रीमहेंद्र गणधारि रे, तुमें मोटा महिमाधारि रे. १८ इम न्यानविजयनो सीस रे, नीतु नीतु देवे आसीस रे, दीपत जीनसासन दीवो रे, गुरु कोड वरस लगें जीवो रे, १९
॥सीणोरनगरवर्णनं भास सम्पुर्णम् ॥ श्रीयम् ॥ दूहो : श्रीसीणोर क्षेत्रनो संघ इम, करे घणी अरदास,
पउधारो जो गच्छपति, चतुर तुमो चोमास. १ ॥०॥ श्रीगुरुभ्यो नमः ॥ चंदलीयानी देशी ॥ चंदा तु वहेलेरो आणे, मारो रूठडो नाह मनायें,
मारा पुज्यजीने वाहिने लाजे रे, १ चंदा...... गछपति मलवानो घणो , उमाहों, अम हृदयमा अधीक उछाहो,
पूज्य मलीने लेसूं लाहो रे. २ चंदा..... पुज्यनी वाटडी जाउ छु नीहाली, जीम चातुक मेह संभाली,
जेणे ज्ञाननि नीक ते वाली रे. ३ चंदा..... पुज्य ज्ञान दर्शन चारित्र करि भरियो, जाण छ क्षीरसमद्रनो दरियो.
जेणे क्रोध माया त्याग करियो रे. ४ चंदा..... गुरुइं ममता सर्वनी वारी, समतासूदरि चित्त धारी,
जेणें कुमतिने दुर निवारी रे, ५ चंदा.....
पंच महाव्रतना , धारी, पंच सूमति सदा छे प्यारि,
गुप्ती त्रणे दीलडु ठारि रे. ६ चंदा..... पुज्य मोह मायाथि ओसंकीया, गुरु अमृतरसथी भरिया,
गुरु दिक्षासूखने वरीया रे. ७ चंदा..... एहवा गणाधीपति कहीई, एतो नाव तणीपरें लहीइं,
एहनी आंणा सदा चित्त धरीइं रे. ८ चंदा..... च्यार आंगलनी चीठ देजें, मुज संदेसो चित्तमा धरजें,
गुरुने एकंते जईने सूणाजे रे. ९ चंदा..... चंदा तु गच्छराजने केहेंजे, अम मनडानो समाचार ग्रहेणे,
पाछो वहेलो ते "वलण करेजे रे, १० चंदा..... सूरिमुख देखी आतमा ठरसे, केई माल उपधांन वहस्य,
वहीने स्वामिवछल करस्य रे, ११ चंदा..... तुम मुखनी रे वाणी सांभलस्य, केई धरमना कारण करस्यें,
__केई बार व्रत उच्चरस्थे रे. १२ चंदा..... केई संघविपद ते लहेस्यें, केई वर्धमांनतप करस्यें,
केई अढारिया वहेस्य रे, १३ चंदा..... केई जात्रा नवाणुं करस्यें, केई चोमासीतप आदरस्य,
इम बहु तप पुज्य आवें थासें रे. १४ चंदा..... केई चउदपु(पू)रवतप करस्यें, केई ज्ञानदर्शनतप आदरसे,
इम बहु तप पुज्य आवे थासे रे. १५ गुरु संघनी आस्या पुरो, अम मननी चिंता चुरो,
__ लेख वांचिनें पधारो रे. १६ चंदा..... पुज्य साथे घणो छे स्नेहो, जीम मोरनें जलधर मेहो,
ती(जि)म सीता रामनो स्नेहो रे, १७ चंदा..... भालदेसमा स्यूं रह्या मोहि, इहां पधारो गछपति सोहि,
लाहो लीजे अज्ञानी पडिबोही रे. १८ चंदा..... आछा थरमा पामरिया ओडावे", मनगमता आहार वोरावे,
सहु इच्छाई थई आवे रे. १९ चंदा.....
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पुजा भक्ति नव अंगे साचवस्य, आत्म गमतां जे जोई ते ते मीलस्यें,
पुज्य देखीने चित्तडु ठरस्ये रे. २० चंदा...... सेर एकमा रेवू न कल्पे, ऐम सहु आचार ते जल्पे,
गुरु केम रह्या संकल्पे रे. २१ चंदा..... ऋषीजी गामो गाम वीचरता, स्वगछनी मरजादे रहेता,
वरस एकथी बीजु न ग्रहेता रे. २२ चंदा..... एहवं जांणीने सीणोर पधारो, संघ विनति मनमा धारो,
भालदेसथी वहेला पधारो रे. २३ चंदा..... इम घणु सं लखीई स्वामि, थोडी वीनति करुं सिरनामी,
तमे माहरे छो अंतरजामि रे. २४ चंदा..... श्रीविजयमहेंद्रसूरिस, विनति धरजो मन ईस,
गुरु प्रतपो कोड वरिस रे. २५ चंदा..... इम न्यायविजय अनुसारो, विनति हीमत[नी] चीत्त धारो,
पुज्य सीणोरसहेर पधारो रे. २६ चंदा..... श्रीसरस्वत्यै नमः ॥ गयो जोगी नाठो वनमांहे - ए देशी ।।
प्रणमु प्रथम जिनेसरु, सूध मने सूखकार, पुज्य गुणें करि सोभता, आगमनें अनुसार. १
ढाल सरसति मात मया करी रे, देज्ये वचनविलास रे, तुझ सूंपसाई माहरा रे, मननी पुरजे आस रे. २
सूरिजन सीणोर सहेर पधारो रे. [आंकणी] गुरु छत्रिस गुणे करी भरीया, पडीरूवा[दि] चउद धारी रे, खंति प्रमुख दशधर्मना रे, बार आदे गुण छत्रिस रे. २ सूरिजन..... बारसे छनु गुणें सोहंता, सोहमसूरि महंता रे, आयरिया दीठे ते दीठा, स्वरूप समाधि लहंता रे. ३ सूरिजन..... पंच महाव्रत सूध पालता, नववाड सूध वहंता रे, त्रण गुप्तीई दिलडुं वारि, क्रोध मांन मन हरता रे. ४ सूरिजन..... जेह मोह मायाथी रे डरिया, ज्ञानामृत रस भरिया रे, जेहने कुमति दुर निवारि, दीक्षासू(सु)खने वरिया रे. ५ सूरिजन.....
नय नीक्षेपा अनुसारि(री), उपदेश द्ये सूरीपदधारि रे, श्रोताजनने उपदेश देईने, आतमना सारे काज रे, ६ सूरिजन...... एहवा गणपति तेहने कहीई, प्रवहणनी परे लहिइं रे, आप तरिने परनें तारो, भवजल पार उता[रो] रे, ७ सूरिजन..... सीणोरनो संघ वाट तुमारि, जोई छे सदा दीन रात रे, पण तुमें चित्तमां का नथी धरता, स्या माटे गणधार रे. ८ सूरिजन..... श्रावक तुमने वांदवा रे, धरे छे हर्ष अपार रे, पीण साहेब तो चित्त नथी धरता, एवडो स्यो अपराध रे. ९ सूरिजन.... साणंद साणंद स्यू करो रे, साणंद छे कुलगाम रे, थोडा जिनमत रागीया रे, तिहां न रेवं चोमास रे. १० सूरिजन..... ठाकोर तिहांनो कपटि घणो रे, कनकसंघ राजन रे, तस पासे अलूभाई छे रे, ते पीण मीठो प्रधान रे, ११ सूरिजन..... श्रावक तिहांना खल घणा रे, रखे पुज्यजी तिहां रहेता रे, मेता कल्याण लखमीचंद ने रे, तीम चंद्रभाण छ मेता रे. १२ सूरिजन.... तिलका मेता मेता नागजी रे, मेता पुजा पानाचंद रे, मेता आणंदने नेमजी रे, लालचंद जीवराज रे. १३ सूरिजन..... मेता नानचंद महा भोलीयो रे, सकलचंद बहु कपटि रे, मेता अमीचंदजी रे, लाधा राघवजी सेठ रे. १४ सूरिजन.... नाथा जेठानें वीरजी रे, अनोपचंदजी जेठ रे, इत्यादिकने जोईने रे, तेणे तुमने घणु भरमाव्या रे. १५ सूरिजन..... प्रमोदविजयजी अभयवीजयजी, तुमने पण स्याबास रे, कढी पाणी जेवी पातली रे, तेहमां स्यो भलीवार [२], १६ सूरिजन..... गौतमविजय धर्मविजय पण, राता चोखा जोई मोह्या रे, सुखवेलना जोइई रे, आवजो पुज्यजीनें साथे रे. १७ सूरिजन..... वीनति संघनी मांनो तो नही पण, तीरथ भेटवा काज रे, पउधारजो महि पावन करवा, इहां तिरथ बहु सार रे. १८ सूरिजन..... प्रथम तिर्थंकर आदेस्वरजी, बारमा श्रीजिनदेव रे, कावि सासू-बहुनां देहरा, ऋषभने धर्म मयाल रे. १९ सूरिजन.....
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पद्मप्रभुजी जंबुसर वंदो, आमोद अजीत जीणंद रे,
गंधारे गीरुओ जीन गाणे, सीधारथकुलचंद रे. २० सूरिजन ...... धर्मनी करणी तुम पधारे, वधस्यें व्रत प[च्च ] खांण रे,
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माल उपधानादिक केई वहेस्यें, सांभली तुम मुखवांण रे. २१ सूरिजन...... चातुकनी परें वाट तुमारि, सीणोरसहेर वंदावो रे,
साणंदमें स्यूं मोही रह्या छो, धर्मलाभ न कहावो रे. २२ सूरिजन ....... ठगारो देस छें साणंद केरो, मिठी कहे मुख वात रे,
सांभली संघने रीस चढे तो, मेलज्यो पुज्य सीणोर रे. २३ सूरिजन ...... ठामोठा संघ तुमारा, अमने केम संभारो रे,
पण गीरुआ गंभिर थईनें, मनमां केम न वीचारो रे. २४ सूरिजन...... सीणोर क्षेत्रना संघनें उपर कृपा करि एक मन रे,
दील धरजो जीनयात्रासमई, सरीरना करजो जतन्न रे. २५ सूरिजन...... तुमे उपगारि आदेशी पेख्या, न्यांनविजय पंन्यास रे,
तपस्या- लेहणी प्रभावथी रे, गहगट्ट हुओ चोमास रे. २६ सूरिजन ....... गुयनविजय प्रसाद महेंद्रगुप हीमतविजयकहें तु चिरंजीवो, संघनी मांम वसाय (या) रे. २७ सूरिजन...... ॥ इति भासं सम्पूर्णम् ॥
इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पांचे खामणे करी [खामु......]००० इति लेखमङ्गल समाप्तः सम्पूर्णः ॥
॥संवत् १८६३ना वर्षे चैत्र सूद ५ रवौ दिने । श्रेयम् ॥ सेवक मु० रामविजयनी त्रीकाल वंदणा अवधारवि माफ ॥ श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री
श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री
शुभं भवतुः ॥ लि० अधिक नून्य (न्यून)
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अनुसन्धान- ६५
(२२)
राजनगरस्थ - श्रीदानरत्नसूरिने उद्देशीने सूरतथी कनकरत्नजीनो पत्र
राजनगर स्थित दानरत्नसूरिजीने उद्देशीने सूरतथी कनकरत्नजीए प्रस्तुत पत्र पाठव्यो छे. देशवर्णन, सिद्धाक्षरवर्णन अने पछी शान्तिजिनवर्णन एम कुल १० श्लोकोनुं मङ्गलाचरण कर्या बाद कविए पत्रनी शरुआत करी छे. सूरजपुरनी समृद्धि वर्णवता वकारना उल्लेखनो तेमज पुण्यथी प्राप्त थतां पांच रत्नोनी वर्णनानां पद्यो सुन्दर छे. त्यार पछीनां पद्योमां कवि सूरिजीना ३६ गुणोनुं वर्णन करे छे. पत्रमां गद्यविभागनी शरुआत करता दानरत्नसूरिजी तेमज तेमना परिवारने वन्दना - सुखशातादिपृच्छा करी फरी सूरिजीना गुणोनुं वर्णन करे छे. पत्र लेखक चातुर्मास सूरजपुरमा बिराजमान होइ त्यां कई कई आराधनाओ थई तेनो विस्तृत चितार पत्रमां आलेखे छे. साथे साथे चातुर्मासमां वर्षाथी शुं ताराजी सर्जाई, तेना निराकरणना प्रयत्नमां थयेली निष्फळतानी पण खास नोंध टपकावे छे. पं. हेमरत्नजीना शिष्यनी योग्यतानी विगत आपी लोकोनी वातो पूज्यश्रीने रजू करी पत्रलेखके गुरुभगवन्त माटेनो पोतानो समर्पणभाव प्रगट कर्यो छे. वळी पूज्यश्रीना प्रभावनी वात, सूरजपुरथी पधार्या ते अंगेनी टकोर करी त्यांना श्रावकोने नामोल्लेख साथे धर्मलाभ पाठवे छे. पत्रान्ते पोतानी साथे रहेला मुनिओ तरफथी वन्दना करी मीया, खेडादि क्षेत्रमां थयेल आराधनानुं वर्णन करे छे. विशेषमां अगासीना समारकाम माटे द्रव्यनी मांगणी तेमज शान्तिनाथनी देहरीनां १२ पगथीयानी नोंध महत्त्वपूर्ण छे. समग्र पत्र अत्यंत अशुद्ध छे. सुधारवो शक्य न होवाथी अत्रे यथावत् छाप्यो छे.
*
श्री चतुर्विंशतियुगश्चराणां प्रणम्य । आर्यकाव्यानि स्थितिः । स्वस्तिश्रीमत्धर्मफलाद्भुविजये जम्बूद्वीपे राजतो, दाहिण्ये भरते वशसीपीता तास तद्देहि स्थीतो । [आ]त्म: स्थाने कनफलष्मनवभिः टण्का च सेकादिने, सा लच्छीवरभूमिपटले तस्याय तुभ्यं नमः ॥१॥
॥ इति देशवर्णनम् ॥
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अनुसन्धान-६५
भो प्रात भ्रवि जन शुचिकृया हस्तं च युग्मं करेत्, तन्मध्ये सह रेषरेव प्रगटिता सीद्धाक्षरं वर्णयेत् । माङ्गल्यं स च कोटिमेव मनुजां सीद्धाक्षरं साक्षरं, एतल्लण सत्यमेव विबुधा सम्यक्त्व भिदं कृया ॥२॥
॥ इति सिद्धाक्षरवर्णनम् ॥ अथ शान्तिजिनं प्रणम्यधन्यो जात जगत्पत्यचीरमादेवीसुतोभ्यास्तुवं (?), विश्वसेननराधीपो कुलजये मेरुगिरे भानवे ।। जन्माद् [यस्य च] रोगशोकडमरा सप्ताऽपि भेदा भया, स्तत्कालविनाशिता सुखकरा सौख्यंङ्करा नारकाः ॥३॥ जीयात् जज्जन्मकालविभवो दष्टादिशे भास्करो, मेदिन्यामिव माननाय प्रमुदिता स्वां नाथ जातो श्रये । जन्माकृत्यक्षणे च समये षट्पञ्चदिग्णारिका, जे जे पूर्व विभेद सा सकलविधौ स्नानकृयामाचरेत् ॥४॥ स: तस्माच्चतुषष्टिरेन्द्र चेन्द्र सकलो वृन्दारको वेष्टीता, यन्नाम्ना पालक सारयहानोरारचितौ हर्षयेत् ।। सक्रेन्द्रोऽपि स उठको भुवि कृया पश्चेहि रूपान्वितो, युग्मं पाणीतले जगत्पति सो हत्वा य मेरो गिरे ॥५॥ स्थातो स्नानविवेकसा कृपधरो मन्येऽप सौख्योच्छवो, यत्सौख्यं जिन जन्मविभवोस्तावन्न सौख्यं कदा । शान्तिपुष्टिककार्यकरणे शान्तायाचीतोथवा, स्तस्मात्कारयत प्रति खलु विरचिता स विश्वसेनया ।।६।। नृतक्ये नटनाटिके सौछवकृपा सप्तेति खेत्रे तथा, सङ्ख्याये धन कोटि कोटित परमिदं ल_यु सङ्ख्या बुधैः । श्रीश्रीशान्तिजिनो युगेश्वरस्त्वया स्त्रीराज्यभोगीवरा, जिनचक्रीपतिमण्डलो जनपदे सर्वेऽपि आज्ञामयी ॥७॥ अष्टाविंशति सतसहस्र शसिमुखी लक्षोपरि नार्यया:, सल्लक्षणवेदिता पटुक्रिया वीराङ्गना सेविता । श्रीश्रीशान्तिजिनो युगेश्वरमपि सूत्रोऽपि सङ्ख्या बुधै, विशत्पञ्चसलक्षत: ? निपुणेगायकोटिपरो ||८||
सन्मुख्यो सौक्ता श्रीयधरा वज्रायुधो मन्यते, षट्खण्डे स्वय राजपालविभवो तस्माय शान्ति नम: । अष्टौ दुष्ट सकर्मनिलया शीघ्राद् वशीमाददे, पञ्चन्नांण विराजितो जिनपति सक्रादिसैवैकृताः ॥९॥ यः श्रीमान् भुक्ता वर्षलक्षपरिमिता सर्वे जनालम्बना, सर्वेभ्यो सुखदा जयायुविजयते शान्ति जनो राजते । अद्यापि कलिकालसौख्यसमये सूर्यपूरे श्रीस्थीताः,
श्रेयःपुञ्ज षट्शतीजिनो तस्माय तुभ्यं नमः ॥१०॥ दोहरा : वढीहारदेशको वरण, कवतां न पा, पार,
जथाखि लघु ज्ञानसें, वर्णवता सुखसार. ११ देशमध्य दीपि सबल, सूरजपूर सुस्थान,
अनुभव जोवा योग्य छे, देवपुरि उपमानि. १२ पूर्वकाव्य : वापी वर्ण विहार वप्र वनिता वाग्मी वनं वाटिका,
वैद्यं व्राह्मण वारि वादि विबुधा वेश्या वणिग् वाहना । विद्या वीर विवेक वीत्त विनया वाचंययमा वल्लिका,
वस्त्र वारिण वेशर वरै सूर्यंपूरे राजतो. १३ दूहरा : इत्यादिक वर्ण वकारनो, वासि वस्यो विशेष,
देवभूमि दूखभंजणा, दीइ नृप दान अशेष. १४ पंच रत्न पूण्ये मल्यां, प्रथम शांतिप्राशाद, पितृप्रशन उर जांनीइ, झीणाणंद उल्लाद. १५ शबरसको ईष्ट ज कह्यो, लवणागर जिहां सार, चोथो राजिस जानिइ, मकुयाणा महीधार. १६ पून्यें पंचमा श्रीगुरु, दांन भट्टारकदेव, देशाधिप भवि राजवी, अहिनिश कृत छि सैव. १७ सकलवृंदशिरोमणी, उदयाचल जिम सूर, अगणीत गुणमणी शशीपिता, पल पल चढत सनूर. १८ पूज्याराध्य परि प्रणमीइ, अरच आनि उपमानि, सकलगुणगरीष्ट सही, विद्यनेश श्रीवान्, १९
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सकलगछनायक नमुं षड्त्रींश गुणसरूप, पंचेंद्रिी गज जीतवा, सीह लिख्यो अनूप. २० शील सांकल जे जोडता, मोडि पून्यनां मूल, नवविध अभ्रमवांदरा, तेह कर्या अनुकूल. २१ 'भ्रमव्रत बंधन बांधिनि, पून्यवाग प्रतिपाल, व्याघ्र चतु जे विष भर्या क्रोधादिक महाकाल. २२ वासुदेव परि वशि कर्या, धर्म जीव पालंत,
प्राणातिपात पीडा तजी, दया त्रिया विलसंत. २३ मिथ्यावादविलोपी नि, अदत्ता व्रत विशेष, भ्रमव्रतको स्वामी कह्यो, तो परिग्रह कहा लेष. २४ पंचाचारविशुद्धता, राखण सोहम नूर,
ज्ञानाचार अति उज्जलो, सरसति प्रेम पडूर. २५ दर्शन समकीत सार ते, दायक सार वखाणि, आप प्रमाणि ओरति, करता कोटि कल्याण. २६ त्रीजो तो द्रव्य भावथी, धरो चारित्राचार, तपाचार विशेषता, लखतां न लहुं पार. २७ वीर्याचार वखाणी, सोहमपाटि सदैव,
न पडता प्राणीनि प्रदेशी कुं केशीव. २८ ईर्यादिक पंचि यथा, सुमतिधारक धीर,
तिहुं गुप्ति राखीनि वड, अघ उथापक वीर. २९ छत्रीस गुण विधितणां नायक गछशिरछत्र, कला बहुत्तरि प्राज्ञपति, चौद विद्या वसी तत्र ३० शशी सागर उर रवि, कंचनगिरि ओपमान,
ए च्यारि सलंछनी निकलंकी सूरि दांन. ३१
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इत्यादि गुणे विराजमान, सर्वावसरसावधान, अनेकानेकोपमाविराजितोऽर्हतः श्रीमत्तपागाधिराजचक्रचूडामणी भट्टारक श्रीपुरंदरप्रभो श्री १०८ श्रीदांनरत्नसूरीश्वरोभिः विजयते चिरंजीयो । नमः सकल पंडितशिरोमणी, सप्तविंशति गुणोपित, प्रधानपूज्य श्री पं. श्रीजिनविजयजी गुणीवरान् पंडित, पून्यपवित्र, प्रकांड पं० श्रीकल्याण
1. ब्रह्मचर्य व्रत । 2. नरक ।
२५२
अनुसन्धान- ६५ रत्नश्रेयः, पंडित पून्यपवित्र प्रकांड पं० श्रीअमरविजयश्रेयः, गुणीवरान् श्रीलक्ष्मीविजय मु० श्री मलुकरत्न शी० केशवजी छात्रपात्रयोग्य लघुशीष्यादि सपरिकरैः श्रीमिति राजद्रंगात् सुस्नेहाल्लिखीतं आज्ञाकारी पं० श्रीहस्तिरत्नजी, कनकरत्नेन सुबद्धीन्वितेन वंदना सताष्टगमे दिने घडी प्रति अवधावीजी । यतोऽत्र इष्टप्रतापात् सुख- श्रेय छई। तत्रता खेमा-कुशलीता सुखपत्र आव्या ते वांची माथि चढाव्यां । श्रीसाहिबजी उत्तम छो, अमारि आतमना आधार छो। जे दिवसि सुखपत्र आवें छि ते दीठि अभ्यंतर बावनाचंदनसंयोगि शीतलता उपजि तेहथी अशेष सुख उपनि छिनी । अपरं श्रीसाहिबजी अष्टक छि ते अवधारपुंजी ।
चालि । श्लोकः ॥
सस्सूरिः दानवमानववन्दितो, भजति नु किल य स वि नृपा । कुमुदिनी कजवन्नमुदिरहो सो० हमरेव गुणान्वितसम्भवः ॥१॥ स[क] वाङ्मयगर्जनगर्जितो, सजनसङ्गी केकारवराजितो । अघपखालनपाव मृतो, प्रसरत्याङ्कुरपुण्यभूदानवः ||२|| योगसमागम - उत्कटधारको, समदम..... खेमागरोधतो । द्रव्यगुणेशप्रयायप्रलम्बितो, त्रिगुणनं त्रिजगत्सुरिदांनवः ||३|| सकलदर्शनज्ञानशिरोमणी, प्रगटितो सकला सकलान्वीता । सम्प्रति पुज्ज पराक्रमभास्करो, गणपते पति सन्त भवत्प्रभो: ||४|| कोटिकलासिद्धिसवदनो छबे, हरति पाप पूराकृतजन्तूणाम् । भाव सदा सूरि दांनव सेव्यते, लभति सार सदा फल तज्जनाम् ||५|| सङ्ग समागमसौख्यसमुद्भवो करतले वसति च दधीसुताः । पारस किंनरो द्रसकुंपीका, स लभति भूवि दांनव सेवां ॥६॥ सिद्धिप्रदायक श्रेयङ्गरक्षको जास रतो मणीभद्र महाबली । अखयमाल गुणोमणी रोपीता, चीरं जीयात् किल कल्पतरु इतौ ||७|| गुणसमधि अशेष कलौ धृताः मम मतिरनुसल्य भवो छकम् । रयणरेड यस्यद्यशशोभितो कनकपात्रस्थीतो बहुमूल्यताम् ||८|| इति श्रीसकलभट्टारकश्रीदांनरत्नसूरेश्वराष्टकं सम्पूर्ण लिखीतम् ।
यतोऽत्र खबर - समाचार - समय माफक वर्ति छि। बीजूं पर्यूषणा पर्व निर्विघ्न पणि थयां छि| आपणि गछि मासखमण १ श्रा० साकरबाइई कयूँ छे। सोलभुक्ता श्रा० पूजीइं कयूँ छि। अठाई १ श्रावक गोडी करी हती । इणी रिति छभुक्त तप, पांच भुक्त तप, छठ, अठम तप थया हता। संवत्सरि खरच सा० वेला
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गोडीनें घरे लाभ लीधा छि। श्रीपाखी तो मेलावानी स्थिति करी छि। अठमीय ते श्रावक श्राविका सा० जीवा घीयानें लाभ थया छि। श्रीसंवछरीदान रूपीया ५ नुं भंडारि रतनसंघजी दीधुं छि। इणी पिरिं त्रण्य मासी तप एक साधुई करी नीर्जयों छि। सहिरमध्ये ३२ मासखमण, सोलभक्त ५८ थयां छि। अठाई तो सत उपरि संख्या छ। बीजूं सा० जोईतानी वंदना जांणज्योजी । कहयुं छै जे चक्षु लेई गया हता ते प्रभूनि बिसति थै छि तेह लखज्योजी । बीजू अत्र वर्षा आज लगि घणुं सूखकारि वसि छ । श्रावण सुदि आठम दिने तो उपाश्रय मध्ये कुंभिठ बूडी हती एहवूं पाणी च्यारे खूणे भराणुं हतुं ते पृछ्योजी। बीजूं अगासी घणु क्षीण थै छितो उपरि पजूसणमध्ये घणुं घणुं कर्तुं पिण कोईमां द्रव्य खरच्यानो तागात नथी । ते तो बंध वात बिठी नही वली पणि कहीइ छि। बीजूं घर २ भाडुतना पणि पडी गया छि। तेनी पणि वलि नथी । आगी जणास्यि । बीजूं तुमे शीष्यार्थि लिख्यूं हतुं ते वछ पं० कपूररत्ननि पणि लख्यूं छि मातर इत्यादिक भणी अत्र पणि जोईइ छि पणि सुभक्षि करी कोई लाभतु नथी. सा० जोईता सा० सूरचंदनि कहयूं तो कहि जे आज तो सर्व उठी परदेश गया ते तो न जडि | तथा डमर समई लाभ पणि कपूररत्नजी तथा समख्य श्रावक-श्राविका खेडाना तथा ऽत्रनाहीत -स्नेही कहिजे । पं० हेमरत्नजी पासि छे ते योग्य छि। ते कोई विधान करि मागी लेवो घटि छ । घणुं निपुण छि। तमारि योग्य छ । जिम तिम उत्तरभेद करीनि लेवो योग्य छ । पछि तो श्रीजीनि गमि ति कर्यो । सहु स्नेही कहिजे पछि मोटो तई माया वलगि कोई खरि दुरलभि पणि नापि यथा कहि छि तिम लिख्यूं छि इम करवूं योग्य छि। परनी वात कहिवी ते अयोग्यता पणि पूर्वे पं० हेमरत्नजीनि मुखावलि कह्युं हतुं वली समय माफकनि वली समयानुसारि जोति आवी मलिस्यि जिम पछि ते रित श्रीजी करस्यो ते प्रमांण छि । बीजूं खेडा मध्ये जनमुखि तमारो पं० शांतिरत्नाजीने पगले महिमा प्रशर्यो छि। रोगी सोकी कै आवी नमि छि तेहनि व्याधि उपशांति थाइ छि ए समाचार विशेष छि। बीजूं तुम्यो अवसर सांभली तुरत सुर्यपुरथी अत्र विषम समय मध्ये आव्या पणि पं. नयरत्नजीनो कागल पणि चीठी कोई लखी नथी । पूर्वि पंन्यास छतां पणि पत्र लिख्यो नथी । एह अनूतानबंधीओ क्रोध विशेष एहवुं गछमां घणुं विरूठ दीसि छि । श्रीजीतो नायक छे, योग्य छो, उपदेश देवा समर्थ छो हृदई विचारी जेंम गमि तिम करज्योजी । पत्र लिखि तथा न लखि गया ते आवि नही पणि विवहारि घणुं ज भुडुं दीसि । वली सर्व हकीगति श्रीजीनि तो मालिम छि ते पृछ्यो। बीजूं दिन परिपालीनिं श्रीजीने पासि आव्यानुं दल छि। तथा पं० शांतिरत्नजीनि १ वर्ष पहिलां सेतुंजीनी
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अनुसन्धान- ६५ पणि यात्रा जरूर करवी छि पछि भाविनि हाथ छि। चींतव्या विचि छल पडि, जिन करि सो होइ । बीजूं श्रीसाहिबजीनी महिरनिजर छि तेहथी अधिकी चाहिइजी । कृपा करी वलमानपत्र विशेषि पंडित हीन करी लखवोजी श्रीपूज्यजी पासि जे कोई अन्य गुरू - लघू तेहनि अमारि वंदना कहिवी । तत्रना ठाकुर श्रीदलाजी, ठा. श्रीरायभाणजी, ठा. श्रीजेठीजी, ठा. श्रीसुमांणसंघजी, ठा. श्रीपंडितसंघजी, ठा. गुमानसंघजी, ठा. श्रीरूपाजी, ठा. श्रीनारसंघजी, ठा. श्रीदानाजी, ठा. श्रीमेघाजी, श्रीसंघजी कु. श्रीयशाजी भा. दणगाजी, कु. श्रीभावाजी साथ समक्तनि प्रत्येक प्रत्येक मारा श्री सहिदई मदनि (2) दवा आसीस कहियोजी बाई हीरबाई, बाई वलमबाई, आणंदबाई, नान मोट, सर्वरूपबाई सर्वनि जै कोई उपाश्रय आवि संभारि धर्मलाभ कहियोजी.......
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श्रावक षं० कल्याण समस्त श्रावक नान मोट श्राविका ऋखमणी श्राविका समस्त नान- मोटनि प्रत्येक प्रत्येकि धर्मलाभ कहियोजी । वी जीवा सपरिवार सजांणी सपरिकर पंड्या सुंदर सा. विश्राम समख्य जे कोई आपणने संभारि तेहनि धर्मलाभ कहिवो । अमारि वती श्रीसजाजीनि घणुं घणुं करी धर्मासीस कहियो । इहां सरिखू कांम-काज लखावज्यो । वरस प्रति १ वार पणि अमनि संभारज्यो । जरूर एवं वाचज्योजी अत्रनी देवयात्रा समख्यनि संभारि संभारि करोड़ छिजी । बी. श्रीजीनि पं. सुंदरविजयजीइं वंदना लखावी छि। पं. लालविजयें वंदना लखावी छ। पं. कपूररत्ननी वंदना वांचयोजी । अत्रना श्रावक श्राविकानी वंदना वांचयोजी । पं. तिलकरत्ननी वंदना वाचयोजी तत्र भक्ति भाव घणुं श्रेय छि। मीषें पणि मासखयण ३ थया छि खेडा मध्ये दशभत्तु श्रा. जेठीइं कर्तुं छि तथा सामदासनी बेटीइ ८ कर्या हता। केसर आदि पर्वनी यतनाई उछव सारो थयो छि। बीजूं आज सुद्धी गनीस घोलका मध्ये छि । श्रीभंडारीजी बारसिं सांभली पोलि चड्या छेने साणंदथी गाउ पांच परा पड्या छि। बीजूं हजूरमध्ये नवा सुबानी मकर छि। पूर्वी सुबो इहां आवस्यि पणि वात नथी बणी । दख्यणमां दामा कथानि भडाइयो छि पणि ईहा रतनसंघनी नजर छि जे सर्व देस गमिठाठ बांधस्यि रानीपस्युं अडी रह्या छि ए समाचार छि। बी. हर्षलो तो सर्वथा बगड्यो तिणि करी काढी मेल्यो छि ते पृछ्योजी । तत्रा देशना समाचार सर्व लिखयोजी । उ० जसरत्ननी, पं० सुमतिरत्नजीनि वंदना कहावयोजी । तपीया माणीक्यरत्ननि सुखसाता तैडाववा घडि तो कागल लिखी तेडावयोजी । अत्रना श्रावक सा० हीरा समस्त श्रा० बचूया साथ समस्तनी वंदना अवधारवीजी संकरयानी वंदना जांणयोजी । बी. तत्र कांई रू. २२नी जोड जाडि करीनि मोकलावो। अत्र अंगासी
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अनुसन्धान-६५
थाइ । बीजू श्री शांतिनाथनि देहरि छो बध पगथारिया १२ कयाँ छि । बीजूं इणी दिशि वर्षा नीपजी। राजासुख, प्रजासुखसमाचार सर्व लखयोजी । पं. जिनविजय पंन्यासनी वंदना जरूर कहिवरावज्योजी । बी. गोकलीयो पणि हवि पजूसर्ण पछी उमेटे तथा मीया भणी भाल्यो छि ते पृछ्योजी । एहनि माहादेवनि देहरि वृत करि छि, सुख छि । श्रीशांतिनाथप्रभु श्रीवासुपूज्यनि अमारिवती जुहारज्योजी । केसवजी मुलजीनि बोलवज्यो। अत्रथी सा. कमानी वंदना वांचयोजी। सा० जेठा हेमा जगासानो वंदना वांचयोजी। सा. रामचंद्रसानी वंदना वांचयोजी। यतः सा झविरनी जेठीबाईई कालको छि। आषाढ शुदि मध्ये ते पृछयोजी । श्रीमिति वलमानपत्र लिखज्योजी ।
ल० कनकरत्ननी वंदना वांचयोजी संवत् १७९२ वर्षे भाद्रवा वदि र रवौ दिने
चिठी उतावली लखी छि।
(२३) श्रीदानरत्नसूरिजीने मीयागामथी उदयरत्नजीनो पत्र
प्रस्तुत पत्र मीयागामथी उदयरत्नजीओ दानरत्नसूरिजीने उद्देशीने पाठव्यो छे, कवि उदयरलजी ऊर्मिप्रधान कवि छे. काव्यर्नु प्रत्येक पद्य कविनी उत्तम कवित्वशक्तिर्नु उदाहरण छे. पत्रनी शरुआतमां सूरिजीना ३६ गुणोनी वर्णना कर्या बाद कविए पूज्यश्रीना पुण्यप्रभावनी नोंध सुन्दर शब्दोमां वर्णवी छे. त्यारवादना सवैया छन्दमां रचायेल पद्यो तेमज चित्रकाव्यमय पद्यो पण गुरुगुणस्तवनारूप ज छे. पूज्यश्रीने मीयागाम चातुर्मासमां थयेली आराधनानुं वर्णन करी अन्य शिष्यपरिवारादिना चातुर्मासनी महत्त्वपूर्ण नोंध आपेल छे. पत्रान्ते मीयागाम सङ्घना श्रावकोनी वन्दना कहेवापूर्वक त्यां पूज्यश्री साथे बिराजमान अन्य श्रमणवृन्दने वन्दनानुवन्दना कही पूज्यश्रीने मळवानी उत्कण्ठानी वर्णना करता पत्र पूर्ण करेल छे.
शब्दार्थ
१. छारिकै = छोडीने २. कटाछ = कटाक्ष ३. उमगी = प्रगट थई छे (?)
४. सुगोत = सुगोत्र ५. छिनु = क्षण ६. चाउ = उत्साह (?)
..[स]दा, य[ति](?).........
..........., सुंदर वदन सुचंद. [१] प्रणमु पर[म]......, .. पदपंकज प्रणति....., .....
...., प्रणमी पदअरविंद,
........, पत्र लिखु आनंद. ३ तत्र परमगुरु पुण्यनिधि, परमपूज्य आराध्य, परमवंद्य उत्तम परम-अर्चनीय श्रीसाध्य. ४ सागर सकल सुभाग्यको, नागरनतपदपद्य, आगर उत्तम नीतिको, रतनागर गुनसा. ५
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श्रुतग्यान-परकाससै, जो सहसकर सूर, अखिल जगतमैं झलहलै, महिमा जसु महिमूर. ६ दिन दिन दिनकर तेजसो, जाको ब? प्रताप, कुमतअंधेरो मेटिकै, करै उदोत अपाप. ७ जाके मुख [परि] सारदा, कीनो सदा निवास, करतलि कमला विमलमति, रिदयसिरोरुह खास. ८ प्रतिरूपादिक चौद गुंन, दशविध साधुसुधर्म, भावन द्वादश भेद ए, गुंन छत्रीस सुभ शर्म. ९ इनि विधि गुन अनुंचानक, छत्तीसी छत्तीस, बसें ज्युं मानस हंस ज्यौं, ज्यों घटमैं सुजगीस. १० ग्यानादिक अनगारके, पंच आचार आराम, सिंचनकौं ज्याको बचन, अमृतधन उद्दाम. ११ ज्याकी बचनसुधालहरि, सीतल सुखद अत्यंत, भवदवताप निवारिकै, करत शांत जगजंत. १२ ज्याके तनुकौं छारिकै, दोष गए सब दूरि, गुणगुण तार्थं गहगहे, भए एकठे भूरि. १३ दरसन ज्याको देखतें, मिटै सबै दुख दंद, ज्याके कृपाकटाछ नै, उदय हुवै ज्यु अमंद. १४ पाउंधाएँ जिहां परमगुरु, तहां तहां मंगलमाल, नाम सुनत ज्याको जगति, बिपद होत बिसराल. १५ कृपादृष्टि जासौं करें, परमगुरु पल एक, ताको दुख दारिद हरें, लीला लहैं अनेक. १६ सुरतरु सुरमणि सुरगवी, आए ताके गेहि, मुख देख्यो जिनि पूज्यको, नैंन निसां धरि नेह. १७ तपागछ पाथोधिकी, वेलावृद्धिको हेत, पूरण पूनिमचंदसो, दोलति दूनी देत. १८
॥ अथ सवैया-तेईसा ॥ रूप अनूप नमैं निति भूप निरुपम भाग्यदशा उमगी' हैं। देस बिदेसि बिसेसि घरोघरि ज्याकी सुकीरति ख्याति जगी हैं। दारिद दूरि सुमूरति देखत आपद सेवककी उभगी हैं। दांनगुरु गुरुता भुअमंडल मंडिॉ अंबरि जाइ लगी हैं. १९ ॥ अथ सवैया - इकतीसा ॥ सकल बिद्याको सागर गुणमणिरतनागर विरागर ज्यौं विरागरसपूरि भर्यों हैं। दूरि करें दुरित पंक निसंक सकल कलंक मं0 रं0 भविक जयश्री वर्यो हैं। जगतको उपगारी जोग युगतिधारी ब्रह्मविद्याधिकारी अविकारी अनुसर्यो हैं। गछपति श्रीदांनरत्नसूरि परमप्रतापपूरि निति निति चढत नूरि उभर्यो हैं. २० जगको आनंदकंद मुखचंद सोहैं जाकौं देखत दुख दद सब दरि भाजत हैं। सुधातें सरस जाको बांनीरस निरुपम गुहिर गभीर नीरभर्यो मेघ गाजतु हैं। कंचनसुकोमल काय कांति भांति सुभगता देखि मकरध्वज आपु लाजत हैं। ऐसो गुरुराज आज भविक समाज के अताग भागि श्रीदांनरत्नसूरी राजतु हैं. २१ गिरिवरमैं मेरु गिरि सरिता मैं सुरनदी सर मैं मानससर श्रेष्ठ ज्यौं होत हैं। सागरमैं अति महंत सयंभूरमन रमनीमैं रंभ तेजमैं अदी त उदोत हैं । ग्रहगनमैं चंद चंदन सुगंधमैं बनमैं नंदन मनि मैं चिंतामनि सुज्योति हैं। तेसैं सूरिमैं सिरोमनि राजै छाजें छत्र ज्यौं तपागछिीदानरत्नसूरी सुगोत हैं । २२ लब्धिको अब्धि अभिनव इंद्र भूति अवतार सार धीरतासौं मंदरगिरि भायो हैं। श्रतशीललीलसौं जु ऐन वज्रस्वामी चामीकरसों विशुद्ध बुद्धि गुनगान सवायो हैं। गंगनीर निरमल निरालंब अंबर ज्यौं वंछित दातार जगि सुरतरू सुहायो हैं। श्रीदानरत्नसूरि भूरिगुन भर्यो श्रीभावरत्नसूरीवंस अवतंस कहायो हैं । २३
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अथ स्वस्तिकबन्ध दोहरो
म त गौ रुगु
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दितर सार्थवं र नाथ
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गुरु गौतम महालब्धिवर, रतिपति सम मनोहार । चिर प्रततो पोति सुधर, रवि जिम सतत संसारि ॥२४॥ स्वस्तिकबन्धः ।
अथ कमलबन्धश्लोकः
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वंदो गुण भंडा
उसे पत्त उदा
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गण के रो शं गा रजो र हित शुद्ध आ चा नरल सरीश भ नाम |हिमा ते हनो जगि उहा
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सुखधाम-महोदाम-गुणग्राममधिष्ठितः। दानो नाम मनोगेहे, श्रीगुरु मम तिष्ठतु ॥२५|| || अष्टदलकमलम् ॥
श्रीतपागछशृंगारहार, दाता दयाल सुविचार सार, नरनाथसार्थवंदित उदार, रत्नप्रकाशतनुकांतिधार; नमीई ते नित्य भवकर्णधार, सूरज समान उद्योतकार, रीझवि भव्यजन जे अपार, रामशोभि दानगुरु पट्टधार. २६
अष्टारचक्रं पादाद्याक्षरैर्गुरुनामगर्भितम् ॥श्री:।।
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श्रीगुरु वंदो गुणभंडार, रत्नत्रयसंपत्त उदार, श्रीतपगण केरो शृंगार, रजोरहित शुद्धआचार; दानरत्नसूरी शुभ नाम, महिमा तेहनो जगि उद्दाम, दायक बोधिबीज अभिराम, मन एकाग्रि करो प्रणाम. २७
सरावसंपूटबन्धः । चतुष्पदी छन्दः। अइसैं ही सर्वोपमा-योग्य परमगुंनधाम, तपगन गगन उद्योत रवि, सुगृहीत निति नाम. २८ सकलभट्टारक-सीसमनि, परमपुनित सुपूज्य, सोभित सप्त श्रीकारसौं, श्रीनिवास श्रीपूज्य. २९ दानरत्नसूरिवर जयो, जगि प्रतपो चिरकाल,
सोमें सकल सुशिष्यसौं, महिमसमुद्र दयाल. ३० अथ संस्कृतं गद्यम् -
एवमनेक-छेक-सुविवेकीजन-विरचित-विविधगद्य-पद्यादि-रचनाचित्रपवित्रस्तुतिस्तुतेषु तेषु सपरिकरेषु विज्ञप्तिपत्रं ममात्र प्रश्रयरसवशतो मीयाग्रामात् द्वादशावर्तवन्दनपूर्वकमिलातलमिलन्मौलि: उ० उदयरत्नः, पं. हंसरल-जिनरत्नविवेकरल-शङ्करादियुतो, विधेयमथ निवेद्यते । दोहरा : अत्र कुशल संपद वधैं, श्रीगुरुकृपाप्रसादि,
तहां कुशलता चाहीयें, छिनु छिनु मन आह्लादि. ३१ अन्यच्च : पत्र तुमारो बांचिकैं, तनु उलस्यो सब ओर,
ज्यौं घनगरजारव सुनत, मनहु उंमग्में मोर. ३२ और इहां चोमासमैं, बिधि बिधि धर्मध्यांन, दान शील तप भावना, श्रीजिनेश गुणगान. ३३ नाना सुकृत समूह निति, सकल संघ सुभ भाउ, आराधति अहनिसि सुपरि, दिन दिन चडतै चाउं'. ३४ सुप्रभाति श्रीभगवती-सूत्र करत सज्झाय, श्रावक गुणसंग्रह सुधा, सुनत बखांन सुभाउ. ३५ यह विधि बहु ओछरंगसौं, करत सुकृतगण सर्व, सकलपर्वसिर मुगटमनि, आए पजूसणपर्व. ३६
अभयदान सब जंतूकौं, बाज्यो पडह अमारि, तब महा मंगल नगरमैं, मच्यो सुहर्ष अपारि. ३७ नर नारी अति नेहसौं, सजे सकल सिणगार, थोक थोक भवि लोक सवि, आवै देउलद्वारि. ३८ स्नात्रपूजा आंगी रचें, धूप दीप नैवेद, होडाहोडी सब करें, जिनपूजा बहुभेद. ३९ सोहासनि सिनगार सजि, करि विसाल धरि थाल, गुरु आगें करि गूंहली, गावँ मंगलमाल. ४० बिधि बिधि वाणित्र वाजतें, गंधर्व करतें गांन, परमप्रमोद बढावते, उछव अति असमान. ४१ पोसह पडिकमणा प्रमुख, ध्यावत ही सुभ ध्यान, सदगुरु-साधमिकभगति, पात्रदान सनमान. ४२ श्रीकल्पश्रुत वाचना, नवेयु सुखसमाधि, संघसमक्ष सुभ परि भई, श्रीगुरुदेवप्रसादि. ४३ तप जप व्रत पचखाण बहु, संघपूजा गुरुभक्ति, पूजा चैत्यप्रपाटिका, प्रभावनादिकयुक्ति. ४४ इह बिधि नाना भांतिके, सुकृतसमूह समेत,
पर्व आराध्यो प्रेमसौं, अहनिसि आदरि हेत. ४५
अपरं तुहमारी कृपादृष्टिथी समय माफक अत्र पर्वृषणापर्व सारां थयां छै। पारणां ४ सकुटंबि वृद्ध साजनि, पारणां ४ सकुटंबि लघु साजनि तथा प्रभावना ५ मोदक लहिणी ३।४ थई छि। तप मासखमण ३, पासखमण २, अठाही २, पंचोपवास ५, छठ-अठमादि घणा थया हैं। अपरं पं. उत्तमरल ठाणु २ पादरीए छि। तत्र पणि पारणा ४ थयां छि। पं. गंगरल ठाणु २ पादशाहपुरि । तत्र मासखमण १ पासखमण १ पंचोपवास ३ पारणां ४ इत्यादि सारूं छि। अपरं पं. तिलकरल ठाणुं २ उमेटि छि। कुशल छि। पासखमण २ थयां सांभल्यां । वणिकनो राग सारो छि। सहू. शातासुख छि।
अपरं अत्रत्य संघमुख्य दो० श्रीहंसराज, दो० श्रीत्रिकम, दो० श्रीरूप,
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(२४) मेडताथी श्रीसङ्घनो श्रीदेवगुप्तसूरिजीने पत्र
प्रस्तुत विज्ञप्तिपत्र प्रायः 'कवला'गच्छनी परम्परामां लखायेल सचित्र विज्ञप्तिपत्र छ, सं.१९०७मां मेडता श्रीसङ्घना धनरूपमल वगेरे श्रावकोए श्रीदेवगुप्तसूरिजीने उद्देशीने आ पत्र लख्यो छे. पत्रमा लखाण ओछु छे. आगळना अडधा पत्रमा गुरुभगवन्तनां विशेषणो मारुगुर्जर भाषामा रजू कराया छे. त्यारबादना लखाणमां गुरुभगवन्तनां नामो, तेमज गच्छना श्रावकोनां नामो विशेष उल्लेखनीय छे. साथे पूज्य गुरुभगवन्तने उद्देशीने लखायेला गुर्जर पद्यो भाषाकीय दृष्टिए रसाळ छे. छेल्ले पत्रना अन्त्यभागमा पूज्यश्रीने नम्रतापूर्वक प्रत्युत्तर पाठववा विनन्ती करी छे. पत्र पूर्ण थतां नीचे श्रावकोनी सही छे.
वो० अमरसी, वो० त्रीकम, वो. जेठा, वो. प्राग, वो. भगा, वो० नरसिंघ, वो० मूलजी प्रमुख श्री० वाहालबाई, श्री अगरबाई, सा० राधा प्रमुख तथा विंशतिमध्ये वो० श्रीदेवचंद, सेठ श्रीवीरा, सा० श्रीरूपा, सा० श्रीसकल, सा० श्रीलखडा, सा० श्रीकमल, श्री डाहा गांधी रहीया, सा० श्रीकल्याणजी भातीया, सा० भीमजी वछराज प्रमुख समस्त संघ नाहना-मोटानी वंदना अवधारज्योजी । अम्हारी वंदना दिनप्रति अवधारवी।
अपरं पं० श्रीजिनविजय, पं० कल्याणरत्न, पं० अमरविजयादि. अह्मारी तथा परिवारनी यथायोग्य नत्यनुनति जाणवी। अपरं श्रीजीनें वांदवानो अभिलाष घणो रहि छि। वांद्यां दिन घणां थया पण हवि तो योग मिलवो भावी हस्ये तिवारै वंदास्यि । दोहरा : ज्यौं घनबुबुंद बपीयरा, ज्यौं कोकिला बसंत,
त्यौं तुम देखन उंमहे, हम लोचन तरसंत. १ नैंन हमारे अलजये, देखन तुम देदार, ग्रीषम पंथी प्यास वसि, ज्यौं चाहँ जलधार. २ हम मन निसदिनि तुम चरनि, धरत सदा अभिलाष, श्रीजी साचा मानीयो, चंदा सूरज साखि.३ श्रवण सदा तुम गुन सुनें, हिरदामैं तुम बैंन, जीहा गुन सुमिरन करें, देखन तलफै नैंन. ४ भ-यके भीतर निति रहैं, ध-प बिचि जाको वास, सांई साचा जानीयो, सोई तुमारे पासि.५ [मन]
अपरं - जेहवो कृपास्नेह राखो छो तेहथी विशेष राखवोजी। पत्रसमाचार वलता विशद करी लिखवाजी । तत्र हाजर मजलशि. धर्मलाभ कहिज्यो । लेख उतावलो लिख्यो छि। सा० वस्तो मुखवचन कहि ते सही करी मांनज्योजी।
संवत् सत्तरबांनवइ (१७९२), उज्जल भाद्रव मास, दशमी दिनँ वासर शनी, लिख्यो लेख उल्लासि. १
श्रीमंगलमालिकाः ॥
॥०॥ स्वस्ति श्रीपार्श्वजिनं प्रणम्य । श्री तत्र ग्राम-नगर-सुभ सथाने सरबओपमाविराजमान, अनेकओपमालायक, सरबगुणनिधान, सत्कियासावधान, पांचे सुमते सुमतां, तिनें गुपते गुपता, छकायरा पीहर, सात भय जीपक, आठ कर्मना टालक, नव वाड ब्रह्मचर्यना पालक, दशविध जतिधर्मना धारक, इग्यारै अंगना जाणनहार, बारै उपांगना प्ररूपणहार, तेरै काठियाना जीतणहार, चउदें विद्यानिधान, पन्नरै भेद सिद्धना जांणनहार, सोलै कषायना जीतणहार, सतरै भेदै संजमना जाणनहार, अढार सहस्र सीलांगरथना धारक, उगणीस दोसना टालक, वीस असमाधिना टालक, इकवीस श्रावकना गुण जाण, बावीस परिसहना जीतणवाला, तेवीस विषयरासि जीपक, चोवीस भगवानरी आज्ञारा आराधक, पंचवीस भावनारा जांणनवाला, क्रोध-मान-माया-लोभ-मद-मच्छरअहंकार इणारा जीतणहार, छतीस उत्तराध्ययनना वखांणना करणहार, नंदीसूत्रदशवीकालिक-अनुयोगद्वार-सूगडांग-ठाणांग-जीवाभिगम ईयां सूत्रारां प्ररूपणहार, नवतत्त्वना जाणणहार, जीवदयाप्रतिपालिक, षट्कायरक्षक, दुविध धर्मप्ररूपक, श्रीआचार्यप्रतिगुणसंयुक्त, श्रीआचार्यसूर्यावितेजस्वीगुणसंयुक्त, युगप्रधानागमगुणसंयुक्त, मधुरवाक्यगुणसंयुक्त, श्रीआचार्यजी श्रीउपदेशगुणसंयुक्त, श्रीआचार्यजी अपरश्रावीगुणसंयुक्त, श्रीआचार्यजी सोम्यप्रकृतिगुणसंयुक्त, श्रीआचार्यजी
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२६५ संग्रहसीलगणसंयुक्त, श्रीआचार्यजी अभिग्रहगणसंयुक्त, श्रीआचार्यजी अविकत्थकगुणसंयुक्त, श्रीआचार्यजी अचपलगुणसंयुक्त, श्रीआचार्यजी प्रसंतरिदयगुणसंयुक्त, श्रीआचार्यजी क्षमागुणसंयुक्त, श्रीआचार्यजी आर्जवगुणसंपन्न, श्रीआचार्यजी मार्दवगुणसंपन्न, श्रीआचार्यजी सर्वसंगमुक्ति-गुणसंपन्न, श्रीआचार्यजी द्वादशविध तपोगुणसंपन्न, श्रीआचार्यजी सप्तदशविध संयमगुणसंपन्न, श्रीआचार्यजी सत्यगुणसंपन्न, श्रीआचार्यजी सौच्यगुणसंपन्न, श्रीआचार्यजी अनित्यभावनाभावकाय, श्रीआचार्यजी असरणभावनाभावकाय, श्रीआचार्यजी संसारस्वरूपभावनाभावकाय, श्रीआचार्यजी एकत्वभावनाभावकाय, श्रीआचार्यजी अन्यत्वभावनाभावकाय, श्रीआचार्यजी अशुचिभावनाभावकाय, श्रीआचार्यजी आश्रवभावनाभावकाय, श्रीआचार्यजी संवरभावनाभावकाय, श्रीआचार्यजी धर्मसाधन-अरिहंत-दुर्लभभावनाभावकाय, श्रीआचार्यजी कुखीसंबल मिथ्यात्वरूपीयो तिमिररा दूरकरणवाला इत्यादिक छतीसगुणें करी राजमांन, सोभित सकलभट्टारकशिरोमणि, श्रीककुदाचार्यसंतानिय, चतुरसितीगच्छाधिराज, यंगम-युगप्रधानं, भट्टारकोत्तमभट्टारक, श्रीश्रीश्रीश्री १०८ श्रीश्रीश्रीदेवगुप्तसूरीश्वरजी, पंडितश्री २१ श्रीउपाध्यायजी श्रीआणंदसुंदरजी, पंडित श्रीनेमसुंदरजी, पं. विनयसुंदरजी चरणान् श्रीमेडतैसुलिखावतुं श्रीकवलैगछरा समस्त श्रीसिंध, वैद, मुंहता, तातेड, चोरडीया, समदडीया, लुणावतांसु आदिदेते(?) समस्तांरी वन्दना १०८ वार अवधारणोजी । मेडतेमें कवलगछरा श्रावक-श्राविकण्यारी विनती है अठे वेगा पधारसी नै कृपा-महिरवानगी करनै चोमासरा भाव रखावसी । घणे मांनसुं करनै आप गुरदेव.............. घीणानै तारो छो । श्रीवीतरागधर्म भाखो छो । अशुभ ................ रावो छो । श्रीजिनधर्मना दिपक छो । श्लोक :
स्वपर [समय जाणें] धर्मवाणी वखांणे, परम गुरु कह्यांथी तत्त्व निसंकमांणे, भविक-कज-विकासें भानुना तेज भासे, ईह ज गुरु भजो जे सुद्ध मार्ग प्रकासै जनम दइ पिता मात जगइ, तो किरावर आय, चोपद तै द्विपद कीयो, तातै आप सवाय
अबतो मोय अनाथकुं, तारिजै तत्काल, मै दीनन तै दीन हुं, तुम हो दीनदयाल गुरु पारस शिष्य लोह सम, स्वर्ण होत तिण संग, दै प्रबोध निश-दिवस तो, करै कीट तै भुंग ४ पृथ्वी सहु कागद करूं, लेखण करूं सब वनराय, सर्व समुद्रनी स्याही करूं, तो गुरुगुण लिख्या न जाय ५
अठारा समाचार श्रीजिनेश्वरदेवजीरी कृपा करनै भला छै । आप गुरुदेवांरा सदा आरोग्य चाहीजैजी । अपरं च समाचार एक वाचज्यो । आपरो कागद इणां दिनां मांहै आयो नहि सो दिवावसी । आप देवजात्रायै करतां मेडतैरा श्रीसिंघनै चितारसो । हमें पिण देवजात्रामै चितारां छां । कामकाज हवै सु लिखावसी। वलता पत्र दिरावसी । घणो कांई लिखा । थोडै लिखीयै घणो जांणज्यो । आप मोटा गुरुदेव छो ।
संवत् १९०७ रा शाके १७७२ वर्षे प्रथम वैशाख सुदि २ द्वितीयां तिथौ रवीवारे श्रीशुभं भवतुः । श्रीरस्तुः ॥
व(वे)दमुता धनरूपमलरी वंदणां श्री १०८ अवधारसी गणमानसु करन। व(वे)दमुता............................. वदणा श्री १०८ अवधारसी श्री गणमानसु कर ।
[आ पछी हस्ताक्षरो छे.]
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खम्भात सङ्घ वती खुस्यालमुनि ओ श्रीअक्षयचदसूरिजी पर मोकलेल विनती-भास
भासरूपे रचायेल प्रस्तुत पत्र मालवदेशमा बिराजमान अक्षयचन्द्रसूरिजीने उद्देशीने खम्भातना श्रीसङ्घ द्वारा मोकलायो छे. पत्रना रचयिता खुस्याल मुनि छे. पार्श्वचन्द्रसूरिजीनी परम्पराना विनयचन्द्रजीना पट्टधर अक्षयचन्द्रसूरिजीनी दर्शनोत्कण्ठानुं वर्णन कवि आलेखे छे. सूरिजीना पिता-माता-जन्मभूमि वगेरे नोंधो आप्या बाद 'सोल वरस.....' 'खप जो......' विगेरे पद्योमा विरहवेदनानो चितार आप्यो छे, पछीनी ढाळमां अविनयनी क्षमायाचनापूर्वक सूरिगुणस्तवना करतां गुजरात पधारवा कवि विनती करे छे. सूरिजीना पधारतां थती आराधनानो पत्रान्ते उल्लेख करी स्वनामोल्लेख करी कवि पत्र पूर्ण करे छे.
॥ ढाल - बिंदलीनी ॥ स्वस्ति श्रीगुरुपय नमी, वीनतडी मनरंगई रे, करीयै कर जोडी करी, चित धरीने सुखसंगे रे. १ सगुण सनेहा श्रीपूज्यजी, श्रीपासचंद गछराया रे, पंचाचारी हितकरु, भविकजनम सुखदाया रे. २ सगुण..... [आंकणी] समर-राय-विमल-जया-विजै-विनचंद पटोधारी रे, श्रीअखयचंदसूरीसरु, धरम तणा दातारी रे. ३ सगुण..... नयणां तरसैं दरसणे, श्रवणे सुणवा वाणी रे, रसना तुम्ह गुण गायवा, सफल करो हित आणी रे. ४ सगुण..... सोहमसामी समवडे, ओपम जेउनें कहीयै रे, बोधरयण-उपदेसथी, साधु श्रावक चित लहीयै रे. ५ सगुण..... साह सहसमल कुलन), दिनकर जिम परतापी रे, मात संपूरदे मनहरु, शुभ कीरति जस व्यापी रे. ६ सगुण.....
श्रीश्री खंभनयर तणो, संघ सकल सुखदाता रे, त्रिकरण वंदण विधि करी, त्रिसमय तुम गुण गाता रे. ७ सगुण..... जनमभूमि मोही रह्या, श्रीगुरु मालवदेशें रे, साहजिहांपुर सहरमां, वलि उजेण विसेसें रे. ८ सगुण..... तिहाथी इहां आववा भणी, वात न मनमां धरता रे, मुनिजन साथै परिवर्या, गाम नगर पुर विहरता रे. ९ सगुण..... सोल वरस तेहनें थया, वरसांतर कही चाल्या रे, वली वंदावण तुम्ह भणी, कह्यां ते वयण न पाल्या रे. १० सगुण..... श्रीमहावीरजिनेशना, वयण सुण्यानो विरहो रे, ते दुख खिण खिण सांभरै, टालीजें ते परहो रे. ११ सगुण..... खप जो तुम्हनें अम्ह तणो, तो हवें वहिला आज्यो रे,
संघ तणी ए वीनती, साहिबजी चित लाग्यो रे. १२ सगुण..... दूहो : लघु भारी असमंजसा, अविनयथी जे वयण,
ते खमज्यो श्रीसंघना, श्रीगुरु साचा सयण, १३
॥ ढाल || राजाजी मिलैं - ए देशी ॥ श्रीश्रीश्रीअखयेंदुसूरीस, पदकज सिरनामैं मुनिईस, श्रीगुरु सांभलो, मेरे धरम सनेही श्रीगुरु सांभलो, धरमोपदेसी [श्री]गुरु सांभलो,
साधु श्रावक मन टालो भाभलो [ए आंकणी] मानस-सर जिम हंसे लीन, श्रीगुरु तिम श्रीसंघे पीन. १ श्रीगुरु... सुरगणमांहि जिम सुरराज, श्रीसंघमाह सोहै गुरुराज, श्रीगुरु..... नरवरगणमांहि चक्रीस, तिम सुगुरु सोभा निसदीस. २ श्रीगुरु.. तारागणमा[हि] ससि सूर, सौम्य सबल तेजें भरपूर, श्रीगुरु..... श्रीगुरुवर छै तिम उपमानी, गुण वरणवता वाधे वान. ३ श्रीगुरु..... चतुर विचारी चित्त मझारि, गुज्जरदेस भणी पाउधार, श्रीगुरु..... धरम तणो थास्य इहां लाह, समकित देसविरतिनो चाह. ४ श्रीगुरु.....
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अधिक उदय थास्यै श्रीसंघ, तुम आवैथी रंग उमंग, श्रीगुरु..... नमीय नमी इम वार हजार, श्रावक श्राविका सवि निरधार. ५ श्रीगुरु..... वीनती विनय करी सुजगीस, तुम्हनें भाखें छै निसदीस, श्रीगुरु..... गुणरयणायर महिमा महंत, सुखकारी सज्जनमा संत. ६ श्रीगुरु..... परउपगारी परमकृपाल, अंगीकृत-कृतना प्रतिपाल, श्रीगुरु..... चिर प्रतपो ए श्रीगुरुराय, शिष्य खुस्यालमुनिना सिरताज. ७ श्रीगुरु.....
॥ इति विनतीभास समाप्तः ॥ बाई मीठी तत्पुत्री सत्पुत्री बाई नाथी पठनार्थं ॥
अनुसन्धान-६५ (२६) अजमेरना श्रीसङ्घनो विक्रमपुर लक्ष्मीचन्दसूरिजीने पत्र ____ नागोरी लुकागच्छीय हर्षचन्द्रसूरिशिष्य लक्ष्मीचन्द्रसूरिजीने उद्देशीने अजमेरना श्रीसङ्के विक्रमपुर प्रस्तुत पत्र पाठव्यो छे. शरुआतना प्रथम पद्यमां आदिजिननी स्तुति, बीजा पद्यमा लेखनी सामान्य विगत तेमज त्रीजा पद्यमां मुनिगुणवर्णना करी कृतिनुं मङ्गलाचरण कयुं छे. त्यार पछी पत्रमा अनुक्रमे कवित्त, सवैयो, दूहो, २ कुण्डलिया, तथा कवित्त द्वारा लक्ष्मीचन्द्रसूरिजीना गुणवैभवनुं वर्णन करायुं छे. 'नगर घणा' पद्यथी अजमेरनी महत्ता तेमज पछीनां २ पद्योथी सूरिदर्शनोत्कण्ठानुं आलेखन कविए रजू कयुं छे, पत्रमा अन्य विज्ञप्तिपत्रोनी जेम मुनिश्रीना सामान्य गुणोनी नोंध पछी आलेखायेला साधुसमुदायनां नामो महत्त्वपूर्ण छे. ते सिवाय गुरुभगवन्त प्रत्ये श्रीसङ्घना आदरनी तथा पर्वाधिराजपर्वनी क्षमापना अंगेनी विगत पण वांचवा योग्य छे. पत्रान्ते पत्रलेखन संवत् तेमज मुडीया लिपीमां श्रीसङ्घना केटलाक श्रावकोनी सही छे.
कृतिनी रचना कोणे करी छे ते ख्याल नथी आवतो. परंतु आमांनां केटलांक पद्यो अन्य विज्ञप्तिपत्रमा थोडा घणा फेर साथे जोवा मळूयां छे. बीजुं सवैयानी रचना कदाच जगरांम सुखा नामना श्रावकनी होय तो एमणे ज पत्र लखवामां मदद करी होय एम पण मानी शकाय, पत्र सचित्र छे.
शब्दार्थ
१. दुरस = दुरस्त(?), व्याजबी २. गाहीड = ? ३. इधकै = अधिके ४. गहर = गम्भीर ५. गुहिर = गम्भीर
६. ठोर = स्थान ७. सराहै = प्रशंसे ८. लुलित = लळी लळी ९. ईढ(8) = ऋद्धि १०. वरीसवर = वर्षों सुधी
स्वस्तिश्रीसमुरीकृतोद्यतिसुता दी... मुंदा य[:] स्तुतः, सौवर्णाञ्चितगद्यपद्यरचनैः स्तोत्रैः प्रगीतो यकः ।
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अनुसन्धान-६५
गाङ्गेयाभमशेषिक एव शिखरी व्याधाम साधारणं, श्रीशेत्रुञ्जयभूधरे तमधिकं वन्दे जिनं चाऽऽदिमम् ॥१॥ येनाकारि निजौजसाऽऽदिगहनं स्याद वाषिकं वै तपः, सान्द्रा भिल्ल(?) निदा(दा)नकर्मनिचयाच्छिन्नेऽनिशं तत्परम् । तं नत्वा जिननाथमेव शिरसा भक्त्या त्रिशुद्धया यथा, श्रीमत्पार्वणि एष एव मयका लेखोऽधुना लिख्यते ॥२॥ श्रीमत् विक्रमपुरवरे सर्वेऽपि उत्कृष्ट श्रेष्ठोपमा बिराजमानानाम् । जितेन्द्रिया ब्रह्मव्रतो(ते) सुरक्ताः, क्रोधादिमुक्ता यमपञ्चयुक्ताः ।
आचारशुद्धा सुमतिप्रशस्ता-स्त्रिगुप्तिगुप्ता गणिनो भवन्ति ॥३॥ कवित्त : पंडित प्रवीण सब आगमकुं साध लिये, करत बखांण बाण गौतम समान जू, भविजन भेटै पाय ताको दुख दूर कर, दीपत दीदार एसो जैसो तेजभान जू, लूकैगछ नागोरी सोभत सुभ थाट लियां हर्षचंद हंदै पाट मांनै राजान जू, पंच ब्रत्त पालै निज आत्म-काज सारै लक्ष्मीचंद गणराज गुणको निधान जू. १ सवियो: लक्ष्मीचंद मुनिंद तपै रवि, देख दीदार तैं आनंद थावै,
भेटत पाय भविजन भावसुं, दुकृतं ही सब दूर ही जावै, सूत्रसिद्धांतसमुद्रज्युं गाजत, ग्यांनमहातम शुद्ध बतावै,
सुरतरु सो जस छाय रह्यो, जगरांम सुखो मनवंछित पावै, १ दूहो : दीपै तेज रवि जिम दुरस', जैसै ग्यांनकै सूर,
लक्ष्मीचंद्रजी पूजि]जी, नायक चढतै नूर. १ कुंडलिया : बिद्या-वयर कुबेर ज्यूं, इल गोयमअवतार,
लायकगुण लीलालहर, कलियुगमै करतार. १ कलियुगमै करतार धीर, संयम-व्रतधारी, गाहीड गात गयंद, इंद्रज्यूं 'इधकै दावै, साध्र महियडै साच, सकल श्रम[ण]गुण हितकारी, पंडित सुगुण बुधपात्र, जस कविजन गुण गावै,
वड त्याग भाग सोभाग वड, धरणी तरणी शशि धीर ज्यूं, प्रतपो लक्ष्मीचंद्रजी पाट, विद्या-वयर कुबेर ज्यूं. २ गछपति गछपतिसिरतिलक, चलै चरण सुध राहं, मिथ्यामल दूरे हरै, परतिख-गंगप्रवाह. १ परतिख गंगप्रवाह, गहर' वांणी घन गाजै, गजित महिमा गुहिर, भेटतां दालिद्र भाजे, गुणमणि-रयणभंडार, ज्ञान-दरशण-चारित्रनिधि, अमल अटल अणभंग, अखिल वंछितदायक रिधि, करुणानिधान करुणाकरण, अति प्रताप उदियो अरक,
कवि कहत एम गोयम सुगुण, [गछ] पति गछपतिसिरतिलक. २ कवित्त : 'ठोर ठोर थिर थान, सकल जग जासु सराहै,
महिमावंत महंत, चरण-परसिद्धसु चाहै, छत्रपतियां छो रिछपाल, 'लुलित करि पावां लागै, कीरत सुणी कहंत, राजवी बंदै रागै, तपतेजहेज विद्याअतुल, ईढ न को आवे अवर,
श्रीहर्षचंद्रपाटे रिधु, लक्ष्मीचंद वरीसवर. १ नगर घणांई देशमै, इक ईकथी सार, पिण अजमेर पेखतां, ओर न आवै दाय. १ पूज्याराध्यत्तमोत्तमा, श्रीजीना सुखकार, समाचार श्रीसंघने, दीजे हित धर प्यार. २ किहां कोयल किहां अंबवन, किहां ददुर किहां मेह, बीसर्या नवि बीसरां, पूजजी तणां सनेह. ३
इत्यादि अनेक सकल श्रेष्ठोपमा बिराजमान पूज्य, परमपूज्योत्तमोत्तम, कलिकालगौतमावतार, सरस्वतीकंठाभरण, वादविजयलक्ष्मीसरण, अबोधजीवप्रतिबोधक, दयाधर्म दीपावक, हिंस्याधर्म उत्थापक, पांचे सुमते सुमता, त्रिहुं गुपते गुप्ता, छ कायना पीहर, यावत् षट्त्रिंसद्गुणे करी बिराजमान, पूज्य श्री... श्रीलक्ष्मीचंदजिच्चरणान्, महर्षि रांमधनजी, महर्षि उमेदमलजी, महर्षि
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श्रीपरमानंदजी, महर्षि श्रीजुहारमलजी म. श्रीहुकमचंदजी, म. श्रीशिवदासजी, म. श्रीसिरदारमलजी म. श्रीभागचंदजी, म. श्रीलालचंदजी, म. श्रीलूणकरणजी, म. श्री रायभांणजी, म. श्री सुमेरमलजी म. श्रीहिंदूमलजी म. श्रीसंतोषचंदजी, म. धरमचंदजी, म. श्रीटीकमचंदजी, म. श्रीसुजांणमल्लजी, म. श्रीआईदानजी, प्रमुख समस्त साधुमंडलीन् अत्र अजमेरथी लिखतं सदा सेवक, आग्याकारी, हुकमी, पायरजसमांन, ऋ. छोरू संभूरामकी द्वादशावर्त वंदनां दिन प्रतै १०८ वार त्रिकाल अवधारसीजी घणै घणै मान । अत्र आपारी कृपा सेती सुखसाता
। तत्र आपनै सदैव आनंद चाहीजै। आप मोटा छो, गुरुदेव छो, तीर्थ समान छो। आप सवाय काइ वार्त्ता नही है। छोरू ऊपर कृपा सुदृष्ट पूर्वं रखावता छी तिण प्रमाण ही ज रखावसीजी तथा पर्जूसणां पर्व आपरा प्रसादथी निर्विघ्नपणे थया छै। संवत्सरी प्रतिक्रमणावसरे देवसी, राई, पक्षी, [चोमासी], संवत्सरी संबंधी खिमतखामणां मन-प्राणां शुद्ध षमाया छै ते जांणसी । तथा अजमेरना बृहन्नागोरी लूंकेगच्छना समस्त श्रीसंघ बाल - गोपाल लघु वृद्ध श्रावक श्रावकिणियां बंदणा बीनवी छै घण घणै मांन। समस्त श्रीसंघनै आपका दरसणी घणी उत्कंठा लाग रही है सु कृपा करकै दरसण दिरावसी । सं० १८८७ म० सु० १५ ॥
श्री श्री १०८ श्रीजी साहब सुराणा जीवणमलह, जीरीमल, राजमल प्रमुख समसतरी वंदना १०८ वार वंचावसी । कीरपा कर दरसण देरावसी ।
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अमदावाद विराजमान श्रीकल्याणसागरसूरिजीने चौरंगाबाद श्रीलतो पत्र
अनुसन्धान- ६५
प्रस्तुत पत्र नौरंगाबादथी श्रीस अमदावादस्थ कल्याणसागरसूरिजीने उद्देशीने लख्यो छे. अन्त्य भागमां पत्र कईक अपूर्ण छे. शरुआतमां संस्कृत २ काव्यमा आदिजिन तथा शान्तिजिनने नमस्कार करी सौ प्रथम गुर्जर पद्योमां अन्यत्रण तीर्थङ्करो तेमज गौतमादि गुरुभगवन्तोनी स्तुति करी छे. प्रथम ढाळथी नौरंगाबादनं, त्यार बाद अमदावादनुं अने त्यांना श्रावकोनुं अने गुरुना ३६ गुणोनुं वर्णन कविए कर्तुं छे. त्रीजी ढाळमां फरी गुरुगुणवर्णना छे. त्यार पछीनां पद्य मां सूरिजीनी पधरामणीनी राह जोता श्रावकवर्गना नामोल्लेख साथे गुरुपरिवारने वन्दना करवापूर्वक चातुर्मासनी विनन्ती करे छे. त्यार पछी महाराष्ट्री (मराठी) भाषामां पार्श्वनाथ प्रभुनी स्तवना करी पत्रान्ते पत्रलेखन अंगेनी नोंध आपी पत्रमा लेखनमां थयेल भूल-चूक माटे 'मिच्छामि दुक्कडं' याचे छे [अहीं हवे २ श्लोको पछी पत्र खण्डित छे.]
॥ ६० ॥ श्रीगुरुभ्यो नमः ॥
काव्य : स्वस्ति श्रीआदिनाथं सकलसुखकरं सौख्यदं प्राणभाजां सौवर्णाभं जिनेशं परमजयकरं यः स्तुतो दानवेन्द्रैः । तं नत्वा देवदेवं परमपदगतं सर्वकार्येकसिद्धं, उद्यत्कल्याणमाला कलिमलहरणं श्रीगुरुं संस्तवे (वी) मि ॥१॥ स्वस्तिश्री (वि) यं वो विदधातु शम्भु-रष्टाननः षोडशनेत्रयुक्तः । श्री अश्वसेनान्वयचित्रभानुः पदारविन्दं प्रणतोऽस्मि भक्त्या ॥२॥ अथ देशीबद्ध - श्रीसचित्रलेख: लिख्यते ।
दूहा : स्वस्ति श्रीमद् वृषभजिन, प्रेम प्रणमी पाय,
लेख लखुं श्रीगुरु प्रतई, कीजई मुझ सुपसाय. १ स्वस्तिश्री श्रीशांतिजिन, प्रणमुं बिहुं कर जोडि, लेखु लखुं श्रीसूरिनई, पूरो मुझ मन कोडि. २
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अनुसन्धान-६५
स्वस्तिश्री बावीसमां, प्रण, नेमिजिणंद, समुद्रविजयराय कुलतिलो, मातशिवादेवीनंद. ३ स्वस्तिश्री प्रेमई करी, प्रणमीजई श्रीपास, दास आस पूरो सदा, जिम लहीइं उल्लास. ४ स्वस्तिश्री चढती कला, नाम थकी वर्धमान, सिद्धि बुद्धि दिन दिन वधई, नितु आदर नितु मांन. ५ श्रीगौतम आदि करी, प्रणमी सहु गणधार, लब्धिनिधान नामइ करी, जय लहीई संसार. ६ श्रीसुधर्मगणधर प्रतई, वांदी त्रिकरण शुद्धि, गुरुगुण गातां कवि प्रति, दीजई बहुली बुद्धि. ७ तंबू धर्मसुसार्थनो, कंबू दख्याणावत्त, अंबू परि निरमल करई, जंबूस्वामि पवित्त. ८ श्रीप्रभवप्रमुख पटधर घणां, ते प्रणमुं सहु सूरि, सिज्जंभव यशोभद्र मुख, यावत् लक्ष्मीसागरसूरि. ९ वीर तणा सवि पटोधरु, प्रण, थई लयलीन, नाममंत्र मुख राखतां, होवई तन-मन पीन. १० ए सरवें प्रणमन करी, समरी सरसतिदेव, मुझ मनि नितु ए टेव ,, तिणे समरूं नितमेव. ११ गुणगिरुआ जे अह्म गुरु, ते गुरु प्रणमुं आज, पत्थरनें पल्लव करें, ते गुरु गरीबनिवाज. १२ समर्या मुझ सानिधि करें, प्रेमपात्र गुरुगात्र, भवजल तरणतारण भणी, सफरी यांनह पात्र. १३ ए सहुकोनई चित्त करी, सिर धरी एहनी आंण, वर्तमानगुरु गछधणी, कीजई तास वखांण. १४ सकलदेशकल्याणकर, सकलनगरकल्याण, कल्याणसागरगुरु गछधणी, नांमई सदा कल्याण. १५
॥ ढाल ॥ चतुर सनेही मोहना - ए देशी ॥
जंबूद्वीपना भरथमां, दक्षिणदेश छे वारु रे, अवर देश जोतां थकां, एह देश दीदारु रे. १ जंबूद्वीपना..... एह देशनुं बेसणुं, नगर नोरंगाबाद रे, नित्योच्छवमय नगर ए, दीठे मनि आह्लाद रे. २ जंबूद्वीपना..... गढ़ मढ़ मंदिर विपणनी, सोभा बहुली दीपई रे, चोरासी चहुटई करी, स्वर्गपुरीनई जीपई रे. ३ जंबूद्वीपना..... जैनभुवन अति दीपतां, जैन देव तिहां बइठा रे, त्रिकरण शुद्धि सेवतां, मुझ मनि लागई मीठा रे. ४ जंबूद्वीपना..... पूजा त्रिविध प्रकारनी, नित्य करई भवि प्रांणी रे, भवजलतरणतारण भणी, प्रभु सेवई उलट आंणी रे. ५ जंबूद्वीपना..... इंम घणी धर्मउन्नति करई, जैनधर्मना आसी रे, वर्ण अढार वसई सुखी, एह नगरना वासी रे. ६ जंबूद्वीपना..... सकलदेश शिरोमणी, सकलनगर सिणगार रे,
नगर नौरंगाबादथी, संघ लिखितं सुखकार रे. ७ जंबूद्वीपना..... दूहा : लिखितं नौरंगाबादथी, योग्य अमदावाद,
श्रीपूज्यजी विचरें जिहां, तिहां कुशल-खेम आबाद. १ ॥ ढाल || बि मुनिवर विहरण पांगर्याजी - ए देशी छई। गौर्जरदेशई नगरसिरोमणी जी, राजई विराजई राजहद्रंग रे, तेह नगरनी सोभा सी कहुं जी, कहतां निरवहां उपजई रंग रे. १
गौर्जरदेश.... सज्जनलोक वसें जेहमां घणा जी, पोहचाडई निज मनडानी मोज रे, दीन दुखीआ दीसई को नही जी, दांनई निज वांनइ दीपई हरोज रे. २ सुधा व्रतधारी गुणकारी सदा जी, नितु नितु पूजई श्रीजिनदेव रे, भावभगतिनी अधिकी अधिकता जी, सहगुरुमुख जोवई नितमेव रे. ३ धन्य ते नगर सहर पुर पट्टण भला जी, धन धन्य पावन पुढवी तेह रे, जेह नगरीइं सहगुरु विचरता जी, वरसता निज वांणी अमृतमेह रे. ४
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धन्य ते श्रावकने वली श्राविका जी, नितु नितु सहगुरुमुख वखाण रे, सांभलतां सद्दहतां साचें मनि जी, नवकारसिंही पोरसिही प्रमुख पचखांण रे. ५ करस्यें ते वरस्यें सुजय सुसंपदा जी, आपदा नवि पामहं भवह मझारि रे, पत्र लिखुं हुं तेह नगर भणी जी, सहगुरु श्रीसंघनें मनि अधीर रे. ६
कुशल- खेम वली सुखनी संपदा जी, तुम नामई करी सहगुरु वरति अत्र रे, तिहानां कुशल- खेम - सुखनी वातनां जी, पत्र प्रेखुं हुं सहगुरुजी छें यत्र रे. ७ दूहा : पूज्याराध्य ध्येयतम, परमपूज्य अर्चनीक, कुमतांधकारनभोमणी, गछनवपल्लव-नीक. १ सकलसूरिसिरोमणी, विबुधजनमुकुटमाणिक्य, सरस्वतीकंठाभरण सम, उत्तम रत्नमाणिक्य. २ सकलकलापूरणशशिवदन विराजई जास गुरुमुख अगणित गुण भर्यो, गुरुमुख लीलविलास. ३ एकशत- एक जस औपमा, वर्णवीइं गुरु तुम,
समरथ श्रीगुरु समरतां आस्यां पहोंचई अम. ४
॥ ढाल ॥ देशी झुंबखडानी छे । एकविध जिनआज्ञाकरा, द्विविध धर्म बतलाय, सुगण गुरु माहरा, तीन तत्व आराधका गतिदुख दूर पलाय. सुगण..... १ पंचमगतिना साधक, षट्कायरक्षक एह, सुगण....... सात महाभय वारता, अष्टमदचूरक जेह. सुगण...... २ नववार्ड ब्रह्मव्रत धरई, दशविध धर्म अणगार, सुगण...... इग्यार अंग वखाणतां जांणई उपांग गुरु बार. सुगण..... ३ तेरह काठीआ जीपता, चौदविद्यागुणजांण, सुगण.......
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पन्नर भेद जाणे सिद्धनां सोल कषाय-अजांण. सुगण..... ४ सतरभेद पूजाविधि, सीलांग सहस अढार, सुगण ...... ओगणीस दोष जे काउसग्गना, वीसथानकतप आधार सुगण.....५ एकवीस गुण श्रावक तणा, बावीस परीसह जीति, सुगण...... वीस अध्ययन सूगडांगना, जांणता गुरु सुविनीत्ति सुगण..... ६
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अनुसन्धान- ६५
चोवीस तीर्थकर तणी, आणा धारक एह, सुगण...
पंचवीस भावना भावित, छव्वीस दशा-कल्प आराधक जेह. सुगण... ७ सत्तावीस गुण साधना, जांणई गुरु गछराज, सुगण ...... अठावीस लब्धिभर्या, ओगणत्रीस पापश्रुत निवारो राजि. सुगण..... ८. त्रीस दोष महामोहना, सिद्धगुण कह्या एकत्रीस, सुगण...... बत्रीस लक्षणें अलंकर्या, श्रीगुरु विश्वावीस. सुगण...... ९ तेत्रीस महा आशातना वर्जित श्रीगुरुअंग, सुगण...... चोत्रीस अतिशयसहित जे तीर्थंकरस्युं रंग. सुगण..... १० पांत्रीस वांणी गुण भर्या, जिनजीनी आज्ञापाल, सुगण ...... छत्रीस सूरिगुणें करी, सकलजंतुप्रतिपाल, सुगण..... ११ इत्यादिक आदि करी, एकशत उपमा एक, सुगण...... विराजमान मुझ गुरु अछें, अभिनव जास विवेक, सुगण..... १२ इंम प्रथम तीर्थंकर ऋषभजी, चरम तीर्थंकर वीर, सुगण...... कोडाकोडि सागरतणुं, अंतर जांणे धीर. सुगण..... १३ एक मुखे एक जीभथी, गुण वर्ण्य किम जाय, सुगण....... शुभ उपमा जे जे अछई, ते ते गुरु अंगई थाय. सुगण..... १४
दूहा : श्रीपूज्यजी जातिसंपूर्ण छो, कुल बल संपन्न रूप, विनय नांण दंसणधरा, चारित तपना भूप. १ ओजस्वी तेजस्वी छो, वर्चस्वी जसवंत, जित क्रोध मांन माया मदा, समरथ साहसवंत. २ परिसहफोज जीती जिणें, क्रोधादिक दहवट्ट, कल्याणसागरगुरु गछधणी, नांमई सदा गहगट्ट. ३
॥ ढाल ३ ॥ इणि पुर कंबल कोई न लेसी ए देशी ॥
श्रीगुरुगुण कहो केता कहीई, कहतां कहतां पार न लहीई, तपमां प्रधांन विद्यामां प्रधांन, चरणकमल (करण) मां गुरु सावधान. १ श्रीगुरुजी ज्ञातसर्वपुराण, वादीविजयलक्ष्मीना शरण, वादीगणशार्दुलिकसीह, सकल पंडितमां श्रीगुरु लीह. २ वादीकदलीतरुडं कृपांण, निर्जितसकल-अनेकभूभांण, वादीगोधूमदलनधरट्ट, निर्जित गुरुजीई वादीमरट्ट. ३
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अनुसन्धान-६५
वादीवदनतरु केरो भंजन, सकलभूपतिनो श्रीगुरु रंजन, वादीकाष्टभंजनकुदाल, सरणागतजंतुप्रतिपाल, ४ वादीरावणनिग्रहरांम, वादीविषशंकर अभिरांम, वादीनभतारामां चंद्र, वादीपर्वतशिक्षाइंद्र. ५ कुमतिमति जडना छो पाडक, पाखंडमतना छो निर्धाटक, कलिकाले गोयमअवतार, शुद्धपंथ देखाडणहार. ६ भविक जननें आनंददाता, श्रीगुरु भवसंकटना त्राता, भविकने रत्नत्रयदायक, श्रीगुरु गुरुआणाआराधक. ७ मिथ्यामतिना खंडणहार, जैनी सकलक्रिया कोठार, छ लाख छत्रीस सहस सूत्रपारगामी, भवभवभ्रमणाना पारयांमी. ८ व्याकर्ण रघुवंशकाव्य कुमार, नैषध तर्क पाणिनीय अलंकार, काव्य छंद ज्योतिषनई न्याय, अभ्यासी छो श्रीगुरुराय. ९ स्वसमय परसमय तणां अभ्यासी, निश्चय व्यवहारइ सुविलासी, षड्भंगीना श्रीगुरु जांण, सप्तभंगीमां गुरुजी प्रमाण. १० सकल जगजंतु हितधारी, भविकजन मन आनंदकारी, ईश्वर माडंबिक कौटंबिक, सेवा सारई भविजन भाविक, ११ धन्य तेह श्रावक ने श्राविका, पूज्यदेशना सांभलें भाविका, पोसह पडिकमणां नितु करस्य, अमृतमय वांणी सांभलस्यें. १२ श्रीपूज्य समस्तजीवहितकारी, परमगुरु वली परउपगारी, भविकजन मन आनंदआगर, सकलजीवना करुणासागर. १३ परमसनेही जंगमतीर्थ, सहगुरुजी छो परमगीतार्थ, पंडितजन ललाटचूडामणि, तपतेजई कायम जिम दिनमणि. १४ किं बहुना गुण केता कहीई, कहतां कहतां पार न लहीइं,
वाचा सत्य युधिष्ठिरनी परि, चातुर्यविज्ञानें करी विदुर. १५ काव्यम् : असितगिरिसम(म) स्यात् ॥ ॥१॥ दूहा : गयणंगण कागल करूं०॥ २
हइडा ते किम वीसरे०॥ ३ गाहा : चित्तं तुह पासत्थं०॥ ॥४॥
श्लोक : यथा स्मरन्ति(ति) गा(गौः) वत्सं०॥ ॥५॥ काव्यम् : नित्यं ब्रह्म यथा स्मरन्ति मुनयो०॥ ॥६॥ दूहा : वीसायाँ नवि वीसरें, समयाँ चित्त न माय,
ते श्रीपूज्य किम वीसरें, जे विण घडी न जाय ॥७॥
किहां चंदा किहां कुमुदवन०॥ ||८|| श्लोक : केकी स्मरेत् यथा मेघ०॥ ॥९||
धन्योऽयं गौर्जरो देशो, धन्यास्ते गौ(गु)जरोद्भवाः । ये नित्यं पूज्यपादाब्ज-भृङ्गवल्लीनमानसाः ॥१०॥ सूरयो भूरयः सन्ति०॥ ॥११॥ त्वन्नामनागमन्त्रोऽयं, यदि स्यात् कर्णगोचरः । क्रोधादिविषसड्कीर्ण, कि स्यादेतज्जगत्त्रयम् ॥१२॥ इत्यादिक पत्रिंशद्, गुण विराजमान गुरुनांम, तपगछरूप ज मेदिनी, कल्पवृक्ष उपमांन. १३ गछाधार गछमेढि सम, देवमांहिं जिम इंद्र, पर्वमांहि पर्दूषणा, जिम तारामां चंद्र. १४ तिम सकलगछसिरोमणी, सागरगछप्रसीद्ध, लक्ष्मीसागरसूरिपटधणी, नाम थकी नवनिधि, १५ परउपगारी परमगुरु, श्रीश्री एकशत एक,
कल्याणसागरसूरिचरणकज, प्रणमीजइ सुविवेक, १६ ॥ अथ अत्रत्यश्रीसंघनाम ॥ ढाल ॥ देशी - विछिआनी छे । हां रे लाला लिखितं नोरंगाबादथी, चरणसेवक दासानुदास रे लाला, तुम पायकमल नितु प्रणमतां, श्रीसंघनी पोहचई आस रे लाला लिखितं...१ हां रे लाला सा० खीमचंद मानसिंघ तणो, गुरु प्रणमें बिहुं करजोडी रे लाला, प्रेमु सा० तस पुत्र वली, हीराचंद ताराचंद जोडी रे लाला लिखितं....२ हरि साह सौभाग्यचंद जेठातणो, गुरुने वांदई विनयथी तेम रे लाला, नितु शास्त्र सुणई सुभ चित्तथी, खीमचंद बंधव तस प्रेम रे लाला लिखितं....३ हां रे लाला विजयसिंघ विमलदासनो, कांई धरमना कार्यमांहि धोरी रे लाला, गुरुनइ वांदई अधिक विवेकथी, पुत्र मलूक माणिक्यचंद जोडी रे लाला...४
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हां रे लाला धामी वीरचंद जांणी, गुरुनई वांदई विनयथी सार रे लाला, लखमीचंद जीवणदासनो, श्रीसंघनो करय कारभार रे लाला लिखितं..... ५ हां रे लाला साह अमीचंद नेमीदासनो, सदा दीसई रंगरंगीलो रे लाला, दोसी जेसिंगजी सामीदास ते, पालइ नितु धर्मनो चीलो रे लाला लिखितं....६ हां रे लाला साह नाहना वली जांणीइं, वासी छे शेषपुरानो रे लाला अमाईदास भूला तिम वली, वासी जेह छें सोझितरानो रे लाला लिखितं....७ श्लोक : सा० श्रीनिहालचन्द्रावा: (वा), जयन्तु व्यवहारी राट् । त्रिकालप्रणतिस्तस्य, र ( अ ) वधार्या गुरूत्तम ! ॥१॥ सा० श्रीखुशालचन्द्रस्य, देवचन्द्रस्य चाऽऽत्मजः । भावभक्तिभरान्नूनं प्रणौमि गुरुसत्तमम् ॥२॥ सा० श्रीमाणिकचन्द्रस्य तनूजो मल्लूनामतः । त्रिकरणशुद्धभावे [न] वन्देऽहं भावपूर्वकम् ॥३॥ साहश्रीगोडीदासोऽपि कृताञ्जलिपुटः स्फुट: । धर्मकार्यधुरीणोऽसौ गुरुं वन्दति सादरम् ||४||
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पूर्व ढाल :
हां रे लाला नीमाज्ञातिमां जांणीइं सा० अमरसी ने रायचंद रे लाला, शांतिदास वली इंद्रजी, गुरुनें प्रणाम सा० अमीचंद रे लाला लिखितं...८ हां रे लाला इत्यादिक सकल श्रीसंघनी, त्रिकाल प्रणति अवधारो रे लाला, श्रीसंघ जुए तुम वाटडी, परमपूज्यजी इहां पधारो रे लाला लिखितं....९ हां रे लाला जिनयात्रा इहां रूअडी, श्रीऋषभदेव दयाल रे लाला, शांतिकरण श्रीशांतिजी, नेमि पासमूरति विशाल रे लाला लिखितं..... १० हां रे लाला यात्रा कारण उद्दिसी, पाउंधारो गुरु गछराज रे लाला, संघमनोरथ जिम फलई, तिम मलइ मनइच्छित काज रे लाला लिखितं ..... हां रे लाला श्रीजीई मांनीइ वीनती, श्रीसंघमनोरथ फलीया रे लाला, बेकर जोडी कवि कहई, गुरु भाग्यतणा बहु बलीया रे लाला लिखितं... १२ ॥ दूहा ॥ सोरठी ॥
११
श्रीसंघ वीनती एह, मानो तुमो गुरु गछधणी, कर जोडीने नेह, वंदई छई सहु को गुणी. १
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यद्यपि तिहांनां क्षेत्र, साचववा तुमनें हस्यई,
तथापि पुन्यपवित्र, दीठाथी सहुको हस्यई. २
॥ ढाल | देशी
बिंदलीनी छई ॥
अपरं समाचार एक, तुमो प्रीछज्यो गुरु सुविवेक हो श्रीगुरु जयवंता, जयवंता गुरु ज्ञानी, कांई दांनी ध्यांनी मांनी हो श्रीगुरु जयवंता. १ गुरु आदेशथी आव्या, कांई श्रीसंघनें मनि भाव्या हो श्रीगुरु जयवंता, गीतारथ गुणवंता, कांई खंता दंता मतिमंता हो श्रीगुरु ..... २ गीतारथ गुण तेहवा, श्रीपूज्य छो श्रीगुरु जेहवा हो श्रीगुरु ...... गीतारथ गुणभारी, जाउं श्रीगुरुनी बलिहारी हो श्रीगुरु ..... ३ उपाध्याय श्रीसुजयसौभाग्य, वंदीजे पूरणभाग्य हो श्रीगुरु..... जयसागर गणि संगई, आव्या छें मनि रंगइ हो श्रीगुरु .... ४ लघुशिष्य रणछोड साथई, गुरुनें प्रणाम जोड़ी बे हाथइ हो श्रीगुरु ..... तथा हस्तिसागर मुनिसागर तेहु तत्रथी प्रणमि गुणआगर हो श्रीगुरु.... ५. पूज्य आदेशथी अत्र, आव्या श्रीगुरुजी पवित्र हो श्रीगुरु...... धर्मकार्यना लाहा, संघें कीधा अधिक उछाहा हो श्रीगुरु..... ६ विवरीनई कहुं तेह, गुरु जांणवी अरजी एह हो श्रीगुरु.......
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प्रथम आसाढनी पाखी, संघभक्ति सा० खीमचंद गृहे दाखी हो श्रीगुरु... ७ वदि आसाढी पर्व, सा० निहालचंद गृहे सर्व हो श्रीगुरु ......
श्रावण शुदि पाखीना पारणां, मलूकचंद माणिक गृहे जमणां हो श्रीगुरु.... ८.. हवे पर्व पजूसण भगति विवरी कहुं हुं ते युगति हो श्रीगुरु ..... प्रथम अठाई आदि, नीमा इंद्रजी गृहे सुस्वाद हो श्रीगुरु..... ९ वीरजनम संघसेवा, वीरचंद धामी गृहे मीठाई मेवा हो श्रीगुरु ..... त्रीजु तेलाधरपर्व, खीमचंदगृहे भगति सर्व हो श्रीगुरु..... १० श्रीपर्वनी संघभगति, सा० निहालचंद - खुसालचंद गृहे युगति हो श्रीगुरु..... गुरुसातिम पारणा दिवस, गोडीदास बर्हानपुरीगृहे संघ सहु जीमस्यें हो श्रीगुरु.... ११
पूजा प्रभावना सारी, घणा तप जप करे नर नारी हो श्रीगुरु ..... मास पास दशम अठाई, छठ अठम करे बहु भाई हो श्रीगुरु .... १२
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घणां उपधांन वहें नर नारी, श्रीजिनशासननी बलिहारी हो श्रीगुरु.... इति श्रीपर्वअधिकार, गुरुनामई नितु जयकार हो श्रीगुरु.... १३ हवें भाद्रपद शुदि पाखीपारणां, सौभाग्यचंद गृहे संघनोहतरणां हो श्रीगुरु.... वदि पाखी एह मास, सा० निहालचंद गृहे उल्लास हो श्रीगुरु.... १४ आसो शुदिनी पाखी, विजयसिंघ गृहे संघसाखी हो श्रीगुरु.... हवें दीपोत्सव पाखीना सामी, पुनरपि करै वीरचंद धामी हो श्रीगुरु.... १५ हवें कार्तिक शुदि चोमासी, संघभगति करें निहालचंद विलासी हो श्रीगुरु.... इत्यादिक संघसेवा, घणां पकवान मीठांइ मेवा हो श्रीगुरु..... १६ इति धर्मकार्य वर्णवना, हवें कहस्युं प्रस्तुत एकमना श्रीगुरु..... तत्र श्रीपूज्यपरिवार, तेहनें वंदना कहो निरधार हो श्रीगुरु..... १७ दूहा : पंडितमांहिं सिरोमणी, पूज्यजी तणा प्रधान,
रविसागर पंडितप्रवर, कहवो संघ प्रणांम. १ क्षीरसागर गणिवर सखर, कुशलसागर इति नाम, जीतसागर जीवसागर, विमल वणारसी तांम. २ विशेषसागर तिम वली, रूपसागर प्रत्यक्ष,
इत्यादिक परिवारने, वंदना कहो समक्ष. ३ ढाल ॥ दक्षिण दोहेलो हो राजि, अवर सोहेलो हो राजि,
दक्षिण दोहेलो रे हेजा पाणी लागणो - ए देशी ॥ सुगुरु सुधारो हो राजि, अरज अवधारो हो राजि, पूज्यजी पधारो रे दक्षणदेशमां. १ श्रीसंघ वीनवें हो राजि, गुरुगुण संथवें हो राजि, कहीइं रे निरवहीइं अरजी अम तणी. २ धर्मनी करणी हो राजि, थास्यई बिमणी हो राजि, पूज्यजी पाउंधारो मनोरथ सवि फलें. ३ कर्णपुरामां हो राजि, पास तेवीसमा हो राजि, सेवई रे प्रभु देवई मनइछित सवें. ४ नितु नितु अंगीआ हो राजि, नवनवी बनीयां हो राजि, सोहई रे मन मोहई भविजन भावथी. ५
संघ सहु आवें हो राजि, आनंद पावे हो राजि, वधावें प्रभुजीने मुगताफलें. ६ मनु भव लाधा हो राजि, फल ए साधो हो राजि, वाधो रे गुणठाणे टांणे एहवें. ७ पार्श्व दयाल हो राजि, मूरति विशाल हो राजि, प्रणमुं रे कर जोडी गोडीपासनें. ८ प्रभुजी मीठा हो राजि, आज में दीठा हो राजि,
नीठां रे भवभवनां पातिक आजथी. ९ अथात्रत्य संघकृत महाराष्ट्रदेश्यभाषायां पार्श्वप्रभुगीतम्, तद्यथा ॥ राग - सारिंग ।। माझा जीउ पासूसी लागला, लागला लागला लागला, माझा जी..... दासांची आसू पासू पूरीता, त्यांचे पायां मी लागला. १ माझा जी..... स्वामीची आता सुनजरि झाली, भाग्य अमीचा जागला, माझा जी..... अमची गोष्टि बरें आता झाली, दुसमन दूरि पलायला. २ माझा जी.... वामापौर्या जय जग मौर्या, चंदन ज्यु जिन सीयला, माझा जी..... तुमचे पाया पद प्रणमीता, सुजयसौभाग्य निरमल कला. ३ माझा जी.....
|| राग - धन्यासी ॥ संभार्या में श्रीगुरु गुरुगुण गायवा रे, आपद अटवी संकट निकट न आवही रे, भय थाई चकचूर, मंगलमाला लछि विसाला पांमीइं रे, दिन दिन चढतई नूर. १ संभार्या में.... ऋद्धि सिद्धि समृद्धि बहु पामीइं रे, मनइछित सुखभोग, कीरतिकमला विमला तेहनी विस्तरि रे, आयति मगतिनो योग, २ संभार्या में.... लेख लख्यो में श्रीगुरु तुम भणी रे, वांचज्यो मननई कोडि, श्रीसंघवीनती दिलमां धारवी रे, कहीई बिहु करजोडि. ३ संभार्या में.... वलतो उत्तर पाछो पाठवी रे, संघनई करवो आनंद, किं बहुना वली घj घणुं स्युं लखुं रे, गुरुमुख शिवसुखकंद. ४ संभार्या में.... संवत सत्तरसें नेऊ (१७९०) जांणीइं रे, पोस वदि पाखी प्रमाण, बे कर जोडी श्रीसंघ वीनवई रे, गुरुमुख दीठई कल्याण, ५ संभार्या में....
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(२८) सुरतना श्रीसंघनो राजपुर - श्रीलक्ष्मीसागरसूरिजीने उद्देशीने विज्ञप्तिपत्र
काइ अधिक न्यूनता लिखतां में लिख्यु रे, श्रीसंघसाखि जेह, कांनो मातर अधिको जो थयो रे, मिच्छा दुक्कड तेह. ६ संभार्या में.... इंद्र चंद्र रवि प्रत जिहां लगें रे, दूने तारे तेज, सहगुरु प्रतपो तिहां लगि गछधणी रे, कहीई आंणी हेज. ७ संभार्या में.... काव्यम् : सङ्घोऽयं गुणरत्नरोहणगिरिः सङ्घस्स ...,
सङ्घोऽयं प्रबलप्रतापतरणिः सङ्घो महामङ्गलम् । सङ्घोऽभीप्सितदानकल्पविटपी सङ्घो गुरुभ्यो गुरुः, सङ्घः सर्वजिनाधिराजमहितः सङ्घश्चिरं नन्दतात् ॥१॥ एला यत्र दया क्षमा च लवली सत्यं लविङ्ग परं, कारुण्यं क्रमुकीफलानि विदितथूर्ण सतत्त्वोदयः । कर्पूरं मुनिदान मगुणं शीलं सुपत्रोच्चयः, गृह्णीध्वं गुणकृज्जनैर्निगदितं ताम्बूलमेतज्जय ॥
प्रस्तुत पत्र राजपुरमा बिराजमान लक्ष्मीसागरसूरिजीने उद्देशीने सुरतना श्रीसङ्घ द्वारा मोकलायो छ । पत्रनी शरुआतनां ५३ पद्यो संस्कृत भाषामां छे. पछीनो बाकीनो थोडो भाग गुर्जरभाषामां. शरुआतना संस्कृतनां २८ पद्योमा अनुक्रमे आदीश्वर, सम्भव, सुमति, शान्ति, पार्श्व तथा वीर एम छ जिनोने नमस्कार करवापूर्वक तेमनां लांछन अंगेनी केटलीक कल्पनाओ आलेखाई छ। बाकीनां पद्योमा यथाक्रम जिनालय, उपाश्रय, साधु, श्रावक-श्राविका, सङ्घ, राज्यप्रासाद, नदी, नगरना तोरण, नागरिक लोक, नगरसमृद्धि विगेरे वर्णनो रजू करायां छे । त्यार पछीना पत्रांशमां जाणे गुर्जरपत्रालेखन शरु करवा मंगलाचरणरूपे संस्कृत ३ पद्यो अपाया छ। पछी पांच जिनेश्वरोने वंदन करी राजपुरनी वर्णना, त्यार पछी सूरिगुणवर्णनानुं गद्य आलेखेल जोवा मळे छ । सूरिदर्शनोत्कण्ठाना अन्य विज्ञप्तिपत्र जेवां ज पद्यो पछी मळतो सूरिजीना माता, पिता, ज्ञाती, गच्छाधिपपददाता विगेरे ऐतिहासिक माहितीओनो उल्लेख विशेष महत्त्वपूर्ण छे। श्रीसङ्घनी सुरत पधारवा अंगेनी विनन्ति आलेखता पत्रमा उल्लेखित नामो सुरतना इतिहासनी कडीरूप कही शकाय । श्रीसङ्घमां थयेल चातुर्मासिक आराधनाना वर्णननी, व्याख्यान-पारणा-प्रभावनादिनी झीणामां झीणी नोंध श्रीसले पत्रमा आलेखी छे जे सूरिजी प्रत्येनो सङ्घनो आदरभाव सूचवे छ । 'राजसागरसूरिजीनी सातिमना पारणा' आ पङ्क्ति ते वखतना कोई सूरिजीना प्रभाव अंगेनो उल्लेख कही शकाय । पत्रान्ते फरी पूज्यश्रीने वधारवा विनन्ति करी सुरत बिराजमान मुनिवृन्दना गुणोनी अनुमोदना पूर्वक पूज्यश्रीना सहवर्ति मुनिवृन्दने वन्दना जणावे छ ।
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स्वस्तिश्री: श्रयति स्म यं जिनपतिं त्रैलोक्यलोकाधिपं, कृष्णं कृष्णतनुद्युतिं जलनिधौ स(श)य्येकसंस्थायिनम् । गोपस्त्रि(स्त्री)षु रति पुराणपुरुषं सत्यं यशः श्रेयसे, भूयान् नाभिनरेशवंशगगनप्रद्योतनाभः प्रभुः ॥१॥ सत्सौरभेयः सुतरां सिषेवे, यमङ्कदम्भात् कमनीयमूर्तिम् । किमीश्वरं रौद्रमवेक्ष(क्ष्य) दक्षो, भीत्या प्रपेदेऽभयदं शरण्यम् ॥२॥ अयं त्रिलोकीशरयं(ण) गिरीश(:), स्थानु(णु)स्वरूपोऽयमतीयरूप(:) ? त्यक्त्वा विमृश्येति वृष(:) किमीशं, निषेवतेऽयं किल लक्ष्मलक्ष्मात् ॥३॥ निरन्तरं यच्चरणारविन्द:(न्द)-सेवाविधानात् पशुरप्यनड्वान् । जातः स्वजातिष्वखिलेषु मुख्यो, धुरीणतां प्राप च विश्वविश्वे ॥४॥ निरापरा ........................ प्तं, नरस्य यानत्वमितीव वक्तुम् । तुरङ्गमो यच्चरणारविन्दं लक्ष्मच्छला ......... ति स्म भक्त्या ।।५।। वदन्ति मे दुष्टजिनः स्वसाम्यं, कथं प्रबुद्धया(द्धा ?) इति[तीव] वक्तुम् । शिश्राय यत्पादयुगाम्बुजन्मः(न्म), लक्ष्मच्छलाद् भक्तिवशेन तायः ॥६॥ समग्रकल्याणमुखे प्रभाते, कथं न मां वर्णवयन्ति(?) विज्ञाः ? । इतीव वक्तुं तुरगं सिषेवे, यदंहिलक्ष्मच्छलतः प्रमोदात् ॥७|| युगत्रये सौख्यविधापनत्वात्, श्रीशन्तयः सतती(?) शान्तिनाथम् । सान्वर्थनामा नमिम(:) स्वबुद्ध्या, जानाम्यहं निर्मितदेवसेवम् ॥८॥ सिंहादयो घ्नन्ति(?) कथं मदीय-जात्या(?) स्वया(जा)तीयमगानितीव । वक्तुं यदियांहियुग(ग) प्रपेदे, मृगः पदाङ्कच्छलत: पुराणः ॥९॥ कुरङ्गसञ्जां प्रथमप्रसिद्धां, स्वकामपाकर्तुमिव प्रपेदे । श्रीविश्वसेनावनिनाथय(ज)स्य, यस्य प्रभो(:) पादयुगं मृगोऽयम् ॥१०॥ औपम्यतो वे नयने मदीये, कथं ही(ह)ते (?) भीरुनितम्बिनीभिः । इतीव वक्तुं किमु यत्पदाब्ज, वातायुरङ्कस्य मिषात् सिषेवे ॥११।। यस्याही(हि)सेवातिशया(:) कुरङ्गाभिधां प्रतीतां प्रथमां विहाय । सारङ्गताप्राप्त ------, वातायुरिच्छन्निजजाती(ति)कीति[म्] ॥१२॥ देवाधिदेवं --- निकाम, श्रीपार्श्वनाथं फलवर्द्धिनाथम् । गायन्ति रम्यो गुरुणा ---, ----भव्यत(न) श(:) सदैव ॥१३॥
पुर(रे) पुरा श्रीफलवर्द्धिनाम्नि, श्रीपार्श्वनाथं] प्रगटीचकार । यथा हि शद्धेश्वरपार्श्वनाथ(थं)?, [शङ्ग्रे]श्वरः पार्श्वजिनाथ(धि) राज:(जम्) ॥१४॥ देशेऽखिलेऽस्मिन् मरुमण्डलेऽस्मिन्, जागर्ति ज(य)स्योऽनुपमः प्रतापः । काले कलौ जङ्गमकामकुम्भः, भव्यो(व्ये)च्छितार्थप्रविधानदक्षः ॥१५॥ यदृष्टिपि(पी) पूषरसातिसङ्गा-नागोऽपि नागाधिपती(ति)त्वमापः(प) । स्पशे(शें)ऽपि लप्स(?)रसानुभावात्(), लोहोत्तमत्वं पि यथाऽऽशु लोह(:) ॥१६।। द्विजिह्वता(ह्वा) वचनीयता मे, सहस्रजिह्वस्य कथं कथायाम् । इति(ती)व विज्ञप्ती(प्ति)कृते कृतज्ञो-ऽयमेष शेषोऽङ्कमिषात् सिषेवे ॥१७|| कर्पूर-कालागु(ग)रु-यक्षकर्दम-श्रीखण्ड-काश्मि(श्मी)रजगन्धधूलीभी(भिः) । सदाद्वितागस्य तु यस्य सेवया, भोगीन्द्रतां प्राप फणि(णी) यथास्थिताम् ॥१८॥ गाम्भीर्य-धैर्यादिगुणेन धीश!, विनिजितैः सप्तमहासमुद्रैः ।। स्फुरत्प्रभाः किं मणयः फणानां, मिषेण सेवा विधिनेव ढौकिता ॥१९|| जिनेन जे(ये)न प्रभुणा स्वमूनि, धृता फणा भक्तजनस्य दातुम् । स्फुट [स्फटानां] कपटेन लोकः(क), साम्राज्यलक्ष्मी: किमु सप्तसङ्ख्या ॥२०॥ यत्रु ----- वचः सुधाभिः, भृतस्य माधुर्यगुणं ग्रहीतुम् । पातालकुण्डानि कि---नि, नव स्फुरत्स्कारफटामिषेण ॥२१॥ संवि(वी)क्ष्य यस्य स्त्रि(त्रि)जगत्प्रसिद्धं, जिनस्य दक्षोऽङ्कमिषेण नागः । शुश्रूयते--प्रयोग(ज)युग्मं, नागाधिपत्य(त्यं) किमवाप्तुमेव ॥२२।। स्मरन्सदा पूर्वभवोपकारं, नागाभिधो लक्ष्ममिषेण यस्य । निषेवते पादयुगं कृतज्ञो, छत्रायमाण(:) स्वफणावलीभिः ॥२३।। छायापदार्थः किल भावरूपः, प्ररूपितो जैनमते हि युक्तः । यच्छाय(या)च्छादितमानुषाणां, न दुष्य (दुःख)दौर्गत्यरुजः स्पृशन्ति ॥२४॥ कैवल्यलक्ष्मीकरपीडनाय, यवाङ्करः(र) श्रेणिरियं विधात्रा । फणामी(मि)षेणेव समुल्लसन्ति(न्ती), संस्थापिता मूनि ज(जि)नस्य शस्या ॥२५।। श्रीअश्वसेननरनायकवंशचूडा-रत्नोपमं सकलकामितपारिजातम् । श्री----मभिवन्द्यसुरेन्द्रवन्धं, गाम्भीर्यधैर्यवरवीर्यगुणेन--- ॥२६।। श्रीमन्महावीर इति प्रतीतं, नामाऽपि सान्वर्थमवैमिय- । पद्मा(दा)म्बुजे लाञ्छनसंस्थितो यत्, यवा(पञ्चाननो)ननो नो भवतीह भीत्यै ॥२७॥
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--क्षराणां श्रवणं विना वने, मया हता प्राणिगणा अ(ह्य)नेके।। शि[ श्राय] तत्पातकवारणाय, सिंहो यदि(द) ही किल लाञ्छनच्छलात् ॥२८॥
पद्याकरं यन्नगरं निरिक्षः (रीक्ष्य), प्रासादपतिप्रविराजमानम् । पद्माकरे(र) प्रोद्गतपुण्डरीक:(क)-पङ्क्तिा :) किमेषेती(ति) वदन्ति विज्ञाः ॥३२॥ विचक्षणानां यत्र जिनेश्वराणां, गृहाणि दृष्टे(ष्ट्वे)ति वितर्कयन्ति । नृणां प्रतीराप्तिकृते भवाब्धौ, क्रि(क्री)तानि नूनं वहनानि धात्र्या ॥३३॥ यत्यालये यत्र पुरे निरिक्ष(रीक्ष्य), स्तम्भान् स्वचित्ते कवयो विचारम् । कुर्वन्ति किं निर्वृतिमा....., निश्रेणि..... विहिता विधात्रा ॥३४॥ ॥ इति ति(ती)र्थडुरस्तू(स्तुतिः ॥ सुसाधवो यत्र तपस्क्रिया[भि]-ध[]ना(ना)नगारं स्मृतिमानयन्ति । लब्धाच बुद्धवरवज्रसूरि, --हानगारं गुरुभक्तियुक्ता(:) ॥३५॥ श्रुता चतुःषष्टिमिता जिनोक्ता-विन्द्रा पुरे यत्र सहस्रसः(श:) किम् ?। श्रद्धालुलोकान् प्रविलोक्य दक्षा, विलोका तर्क)यन्तीति हदि स्वबुद्धाः(द्धा) ॥३६॥ राजिमति(ती)-चन्दनबालिका वा, ब्राह्मी-कलावत्यति(पि) जानकी किम्? | साध्वीवच्चा(चा)रित्रपवित्रगात्रं, समि(मी)क्ष्य यत्रा ---प्रवि(वी)णाः ॥३७|| दानादिपुण्यार्थकृते सुराङ्गना(:), दिवं विरत्या रहितं विहाय च । किमस्तिकायां(णां) मिषतः समागता(:), यस्मिन्पुरे धर्मनिबद्धचित्ता(:) ॥३८।। यत्राङ्गनानां मिषतः सुपर्व-गृहात् सुमेयुः सुरयोषितः किम्? ।। त्रिकालविन्मन्दिरधोरणि(णी)नां, नमस्क्रियार्थ सुमनुष्यलोके ॥३९॥ एकातपत्रं किल यत्र राज्यं, विधि(धी)यमाने प्रगटप्रतापे । श्रीजैनधर्मे प्रशमप्रधान(ने), [न मोह] चौरो लभते प्रवेशम् ॥४०॥ श्रेयांससाम्यं ददतेऽतिदानात्, [सच्छील]साम्यं च सुदर्शनेन । दृढव्रतत्वेन च कामदेव-साम्यं जना यत्र पुरे [वहन्ति] ॥४१॥ शून्यत्वसज्ज्ञो गगनस्य दोषो, निराकृतो यन्नगरे प्रतीते । । ती (2) भूमीशधनेश्वराणां, नभः स्पृशद्भी(द्भि)व(व)रमन्दिरौधैः ॥४२॥ पयोधिपुत्रि(त्री) च विरजिजाता, जन्मप्रभूतां रिपुतां विहाय । परस्परं यत्र पुरे सदैव, विद्वेषभावे वशतस्तु चित्रम् ॥४३॥
प्रतोलिका दुर्गवरे निरि(री)क्ष(क्ष्य), करोति मेधाविगणो विचार(रम्) । द्वाराणि यत्राऽऽगमनस्य लक्ष्म्या, दिग्भ्यश्चतुर्थ्यः किमु पत्तनेद्रे(न्द्रे) ॥४४॥ समुद्रकानाव्यपदेशत: किं, जि(ज)नौघपावित्र(त्र्य)कृते समागात् ।। गङ्गेव यस्मिन्नगरे सतोया, विशुद्धतत्त्वत्रितयी लोके ॥४५॥ बुद्ध्या गुरून् श्री -----, निरामयान् वि(वी)क्ष्य जनान् नी(नि)राशाः । सीदन्ति विद्यागमतत्त्वदक्षा, यस्मिन्पुरे वैद्यगणा नितान्तम् ॥४६॥ भू--- योषित्गुणभूषणेषु, गृहे गृहे यत्र सुवर्णराशिः ।। वितर्कयन्तीति विलोक्य दक्षाः, पुरी सुराने(:) किमुपत्ति... ? ॥४७॥ जिनार्चना-सद्गुरुसेवनादि, यत्राऽस्तिकियं किल क----- | दशा तदीय स्पृहए(2)व मन्ये(?), स्वर्गस्थिताः स्वर्गगणा विनिद्राः ॥४८॥ करग्रहः शुद्धविवाहलग्ने, गलग्रह(:) कूपतटस्थकुम्भे । हठग्रहः स्वीकृतधर्मकृत्ये, नाऽन्यत्र यत्रोदयिपुण्यलोके ॥४९॥ दनानि धर्म किल निष्कलङ्घ, समाचर(न्) यत्र य(ज)नो नितान्तम् । नित्यं चतुर्थारकवणिकां कि, प्रकाशयत्यन्पथरागतानाम् (?) ॥५०॥ -ता सहस्रांसुकरे विवाहे, करग्रहो लक्ष्मविभावरिसें (?) । श्यामद्युतिः (ति)ध्वा(ध्वान्तचये जडत्वं, वृक्षे पुरे यत्र च नाऽस्ति लोके ॥५१॥ तस्मिन् गुरूणां चरणाम्बुजन्मः(न्म)-युग्मेनपूति(ती)कृतभूमि(मि)देशे । श्रीगुर्जराह्वस्फुटनान्मिरम्ये, रमान्विति दुष्टजन:(न)प्रवेशे ॥५२॥ स्पु(फुरन् मनोहारविहारसारन्(रात्), विशिष्टवंशियजनैरुदारान्(त्) । गुर्जरदेशैकशिरोवतंसा(सात्), श्रीमेदिनीराजपुरावतं[सात्] ॥५३॥
स्वस्तिश्रीभू(भुवनं मनोज्ञवचनं त्रैलोक्यलोकावनं, विद्यावल्लीवनं प्रष्टभू(भुवनं सौभाग्यभूभावनम् । क्लिप्ते लोलवनं शिवाध्वजवनं श्रेयोवनीजीवनं, पापाब्धेः पवनं भृशा निधुवनं पावं स्तुवे पावनम् ॥ स्वस्तिश्री(क्षे?)मकरं सरोरुहकर गाम्भीर्यरत्नाकर, शा(श्या)माशा(श्या) मकरं जगद्दिनकर कीयाग्णि(जि) तोषाकरम् । ध्वस्तारातिकरं चिदास्तु(स्त)मकरं श्रीपद्यपद्माकर, सू(बु?)द्धाङ्गिप्रकटं समाब्धिमकरं पार्श्व(श्वं) भजे शङ्करम् ॥
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अनुसन्धान-६५
श्रीमत्पार्श्वजिनस्य मूनी(नि) फणज्योतिर्गणो राजते, मन्दारद्रुमपल्लव: सुरसितः शृङ्गे स्तिवङ्गे स्तितिः । सन्ध्याराग-वरिथि(?)-कुङ्कमविभा-सिन्धूरपूरोपमा, तेतार्कसिणरश्मिराशिविशदस्कारैकविद्युत्प्रभः ॥३॥
श्रीमतं श्रीमतं श्रीआदिजिनं प्रणम्य, श्रीशांतिजिनं प्रणम्य, श्रीनेमिजिनं प्रणम्य, श्रीपार्श्वजिनं प्रणम्य, श्रीमहावीरजिनं प्रणम्य । श्रीसकलदेशनगर सिरोमणि, नर-समुद्र-वापि-कुप-तडागादि-वाडि-वनखंड-आरामसुशोभिते, उपाश्रयसाधर्मिकजिनस्थानके, नित्योच्छवसंयुत न्यायप्रविणनरपतिनगरउत्तम श्रीपूज्यचरणकमलपरागन्यासरेणुपवित्रिते श्रीमत् राजपुरे सुभस्थाने पूज्याराध्येयतमोतम परमपूज्यार्चनीआनि, पर[म] पूज्य, चारित्र[पात्र] चूडामणि, कुमतांधकारनभोमणि, विद्वज्जनमुकुटामणि, सरस्वतिकंठाभरण, सकलकलासंपूर्ण००० यतिधर्मना वाहरू, शुद्ध पंथना देखाडणहार, कुमतिना उत्थापक, न्यायमार्गना प्रवर्तावणहार, भविक जीवनई रत्नत्रयना दायक, श्रीगुरुआज्ञाआराधक, मिथ्यामतनिकंदक, सकलक्रियाकोठार, छलाख छत्रीससहस्र सूत्रना पारगामी, स्व-समय परसमयनां जांण, अनेक सास्त्र प्रमाण न्याय काव्य नैषध पदमांन(?) कुमारसंभव-प्रमुखना जाण, तर्क शिरोरुह द्वादश चिंतामणि प्रमुख, सारस्वतादि व्याकरणना जांण, साहित्य नाटिक छंदालंकार पुराण अनेक स्व-समय पर-समयशास्त्रने विर्षि निपुण छो । षट् दर्शनना ज्ञायक, श्रीमज्जिनसासनोद्योतकारक, उत्सर्गापवाद निश्चय व्यवहार कारणना जांण, अनेक देश पुरनि विषई विहारना करणहार छो । धन्नानं जे राजा राणा युवराजा इश्वर मांडवी कोडंबीक श्रेश्रि(ष्ठि) सेनापति इभ्य व्यवहारिया ज्येह श्रीपूज्यजीना चरणकमल वांद्या अनई वांदस्ये ते धिन्य। ते श्रावक धन्य ते श्राविका धन्य [जे] श्रीपूज्यजीनी नीत अमृतमय देशना शांभले, पोसह पडीक्कमणा करें, व्रत पच्चक्खांण करे, देशविरति उच्चरे, पर्यपास्ति करें । श्रीपूज्यजी समस्त जिवना हीतकारक, भविजिनि(जन) मनआल्हादकारक, करुणासागर, महिमामेरुसमांन, धर्मभारधुरंधर समुद्रनि परें गंभीर, क्षमाभंडार, तपतेजदिवाकर, चंद्रमानी परे सौम्यवदनाकार मेरूनी परे अचल, वायुनी परे अप्रमत्त, वृषभनी परे धोरी, कुंजरनी परे सौंडीर, सींहनी परे दुर्धर, जिम कर्मने ले करी रहीत, तप-तेज-पूज्य तपसी, जीय कोहे जीय माणे,
विद्वज्जनसभाशृंगार, परमानंददायक, परमबांधव, परमवडभीष्ट, परमसहोदर, परमस्नेहि, पर-उपगारी, जंगमतीर्थ, पंडितजि(ज)नललाट-चूडामणी, गणगच्छाधिपती, गच्छनायक, आसेवनाशिख्या ग्रहणाशिख्या देणहार, ज्ञानविज्ञानआगर, चतुरचातुर्यविज्ञानविदुर, वाचासत्यपणि यूधिष्ठिर, माहात्यागी, साहसीक, अनेक तप छठे अठमादि करणहार छे। पंच महाव्रत निर्वाह धोरी, महादिदि(देदी)प्यमांन, तेजपुंज, तपसी, धर्मभार धुरंधर, वाचा अविचल, किं बहूना । दूहा : गयणंगण कागल करूं ॥
अम्ह हइडूं दाढिम कूली ॥ हइडा ते किम वीसरे, जेहसु घणो विचार, घडि घडि नित सांभरे, जिम कोइल सहकार. ४ यथा स्मरन्ति गौः वत्सं० ॥ नित्यं ब्रह्म यथा स्मरन्ति मुनयो० ॥ विसार्या न वि वीसरे० ॥ केका स्मरति मेहो० ॥ गिरुआ सहेजे गुण करें, कंथ तु कारण जांण,
श्रीलक्ष्मीसागरसूरी वंदता, दिनदिन वाधे वांन. ९ कलीकालगौतमावतार, षट्त्रिंशत् गुरूगुणविराजमान, तपगच्छमांहिं दिनकरसमान, जिम देवमांहि इंद्र, तारामांहि चंद्र, गिरिमांहि मेरु, वाजिनमा भेरी, सूत्रमाहिं श्रीकल्पसूत्र, मंत्राहि श्रीनवकार, सुखमांहि संतोष, पर्वमांहि श्रीपज्जूसणापर्व, हस्तीमांहिं ऐरावण, रत्नमांहि चिंतामणि तिम गच्छमाहिं श्रीतपागच्छ तेह मांहि सूरीगुणे करी शोभित छे. पठाविता अनेक छात्र, अनाथना नाथ, धन्न ते गामागर नगर खेड कुब्बड मंडब पट्टण दोणमुह आराम सन्निवेस संबाह जि श्रीपूज्यजी सारीखा रत्न हवा । धन्न ते ओसवाल ज्ञातीय सा० हेमराज कुलदीपक, धन्न ते माता राजाबाइ कुखें श्रीपूज्यजी सरीखा रत्न हवा । धन्न श्रीवृद्धिसागरसूरी जेणे गच्छनायक पदवी आपी । सकल शास्त्रपारगामी धन्य ते राजपुर नगर जिहां पूज्यजी चौमासुं रह्या । धन्न ते श्रावक धन्न ते श्राविका जे पुज्यजीनी अमृतश्रवणी वाणी सांभलें । तथा श्रीपूज्यजीना गुण अणंत मे मुखे एक जीभे किम वर्णवाय । जो सरस्वती प्रसन्न थाय तो पणि वा
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न जाए । न्यायशंग्रहजाण, रागद्वेषनिवारक, सत्रुमित्रसमचित्तधारक, परउपगारी शिरोमणि, भव्य जीवनें सम्यक्त्वना दातार, परमपूज्य, परमबांधव श्रीतपागच्छाधीराज सकलभट्टारकसभाभामनिभालस्थलतिलकायमान भट्टारक श्री १०८ श्रीश्रीलक्ष्मीसागरसूरीश्वरसपरीवारान् चरणान् चरणकमलान् सदा आदेस आज्ञाकारी चरणसेवक पायरजरेणु[स]मांन, आज्ञाकारी श्रीसुरति बंदिरथि(थी) लिखितं वो० धर्मदास नेमीदास, सा० लखमीचंद अमीचंद, सा० वर्धमान अभेराज, सा० नाहना माणिकजी, प० मानसिंघ केशव, प० झवेर लालजी, सा० गणेश वीरजी, सो० लखमीचंद रवजी, सा० कपूरचंद हीरजी, प० विजयकरण तलसी, सा० तिलकसी प्रतापसी लखमयी जोधा, सा० जयसिंघ मानसिंघ, सा० जीवण मंगल, सा० कुंअर कांहनजी सा० झवेर पनजी, सा० सोमकरण विजयकरण, प० केसव वेलजी, सा० घोला हेमचंद, सा० हेमचंद रायसिंघ, सा० हेमचंद मोहन, सा० सभाचंद कचरा, सा० लखमीचंद देवराज, सा० गलाल रूपा, सा० हीरा केशवजी, सा० चंद्रभाण विजयकरण, सा० मोहन मालजी, सा० भाणजी लवजी, सा० ताराचंद प्रेमचंद, सा० मानसिंघ भीमजी, सा० त्रिकम गामा, सा० अमरचंद रूपा, सा० सूरा सुंदर, सा० वेलजी रूपजी, सा० नाहना रूपजी, सा० नाहना सांति, सा० नाहना जयकरण, सा० वीर रतना, सा० रूपा इंद्र, सा० माणिकचंद लवजी, सा० सोभागी मोहन, सा० मंगल पासवीर, सा० सोमचंद दीपचंद, सा० हेमचंद मांका, सा० हेमा सिंघजी, सा० गोपालजी वीरजी, सा० वीर चंदमल, सा० धर्मसी तेजसी, सा० कल्याणचंद वेलजी, सा० माणकचंद दीपचंद सूरा, सा० धर्मदास मसोत, सा० लखमसी सूंदर, सा० जीवण रूपजी, सा० भवानि रामजी, सा० नथू पासवीर, सा० अमीचंद सिंघजी, सा० माणिकचंद गणेस, सा० केसवजी रहिया, सा० नाहना सामला, सा० हेमा गांगजी, सा० कीका घाना, सा० सुंद विसरांम, सा० वेणिदास लवजी, सा० गलाल कडूया, सा० मकन माणिकजी, सा० विमलरतन, सा० जीवन धर्मदास, सा० जीवण जसु, सा० मुलजी मांगजी, सा० वीठल रहिया, सा० मंगल कल्याण, सा० प्रसोतम कीका, सा० धर्मदास रवजी, सा० भीमजी रायचंद, सा० केसव सूरजी, सा० अभयचंद हीरचंद, सा० गांगजी नाहना, सा० कल्याणजी कडूआ, सा० हेमचंद सोमकरण, सा० गांगजी सिवगण, सा० मेघराज जयराज, सा० गलाल संतोषी, सा० त्रीकम सेवराज, सा० कडूया लखमीदाश, सा०
महिदास नागजी, सा० गोकल मेघजी, सा० ताराचंद प्रेमजी, सा० गणजी नाथा, सा० भीखा रतनजी, सा० माधव मंगल, भावसार लाला, भा० विठल, प० नरसिंघजीप्रमुख संघ समस्तनी त्रिकाल वंदना अवधारज्योजी । श्रीपूज्यजीना नामस्मरणथी सुखशाता छे । श्रीपूज्यजीना शरीर निराबाधपणाना धर्मध्यांन समाचार लिखि सिंघनइ हर्ष करवाजी । तथा श्रीपूज्यजीना पुण्यप्रभावथी पज्जूसणपर्व महा आडंबरपूर्वक निविघ्नपणे थयो छे। श्रीतप छठ अठम दश दुवालस अठार प्रमुख बहू तप थयो छे। तथा सज्झाई आचारांग सूत्र वंचाए छ । वखाणे उत्तराध्ययनसूत्र वंचाई छई । तथा असाढ चो[मा] सानां पारणा सा० कपूरचंद हीराचंदे कराव्या छे । तथा आसाढ वदि १४ ना पोसातीनां पारणा सोनी लखमीचंद रवजीई कराव्या छई । तथा श्रावण सुद १४ना पोसातीनां पारणां सा० जेसंघ मानसिंघे कराव्यां छे। तथा अठाईधरनां पारणां सा० तलकसी प्रतापसीई कराव्या छई । तथा कल्पधरनां पारणां सा० गणेश वीरजीयें कराव्यां छई । तथा श्रीमहावीरनुं पाल' पटणी सा० सभाचंद कचरा साडंबर पणे लीधुं छई । लहुडा कल्पधरनां पारणां देवराज धर्मदाश गृहे कराव्या छ। संवत्सरीनां पारणां परीख मानसिंघ केशव गृहे कराव्यां छई । तथा अठमीया तपनां पारणां सा० मनोर मोहन, सं० दानें गृहे कराव्या छई। श्रीराजसागरसूरीश्वरनी सातिमनां पारणां सा० रूपा सा० गोकलें कराव्या छ । तथा आसाढ चोमासाथी मांडी भाद्रवा शुदि ३ सुधि नित्ये प्रभावना थई छ। तथा संवत्सरी दिने प्रभावना ८ थइ छई। सातिम दिने प्रभावना २ थइ छ। तथा बीजाइ धर्मध्यांन प्रवर्ते छई । तथा अत्रना सिंघनें श्रीपूज्यजीना मुख दर्शन कर्यानी, श्रीपूज्यजीना चरण भेटवानी घणी ज उत्कंठा छेजी । पणि कोइक अतुली भाग्यनो उदय थासें ति वारे श्रीपूज्यजीना चरणकमल भेट्यानी इच्छा पूरी थासें । तथा श्रीपूज्यजीइ अत्रना संघ उपर कृपा करी एक वार वंदाववा पधारजी । जिम संघना मनना मनोरथ सकल थाइ। अत्र पं० श्रीललितविजयजी, पं० कस्तूरविजयजी गणि, मुनि धर्मविजयजी, मुनि डूंगरविजयजी प्रमुख ठाणुं ४ अत्र श्रीपूज्यनी आज्ञां ए पधार्या संघने घणी ज साता उपनी । पन्यासजी घणुं ज पंडित छे; घणुंज वेरागी छई, घणुंज संवेगी छे, श्रीपूज्यजीना शिष्य जोईइ तेहवा छे। नित्ये श्रीपूज्यजीनुं नाम(मो)च्चरण करे छे। तथा महोपाध्याय श्री५ श्रीप्रमोदसागर गणि, पं० रविसागर गणि, गणि कीर्तिसागर, गणि क्षीरसागर,
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गणि कुशलसागर, मुनि जितसागरजी, मुनि जयसागर, गुणऋद्धि प्रमुख सपरी(रि)वारनें अत्रना सिंघनी वंदना अवधारवीजी। अत्रथी पुन्यासजीनी वंदना अवधारयोजी । अत्रनें चोमासे वली एहवा ज गीतार्थने आदेस आपयोजी। तत्रना देवजात्रा अवसरइ [त्र]ना संगने संभारयो। अत्रना देव जुहारवा पधारकुंजी । तत्र संघने जुहार कहियो ।
संवत् १७७९ कार्तिक सुदि १० गुरौ ।
(२९) धनपुरथी पं. रामविजयजीनो पेसकपुर विजयराजेन्दसूरिजीने पत्र
प्रस्तुत पत्र पेसकपुरनगरमां विराजमान विजयराजेन्द्रसरिजीने उद्देशीने कुबेरधनहेतपुर (बीकानेर?)थी पं. रामविजयजीए लख्यो छे । पत्रनी शरुआत 'स्वस्तिश्रीभवनं' श्लोक द्वारा कराई छ । त्यार पछी गद्य-पद्यबद्ध रचना द्वारा प्रेषकपुर महानगरनुं वर्णन कविए कयु छ । जोके काव्यनी दृष्टिए कृतिमां रसाळता ओछी छे छतां वर्णनमां मळती वस्त्र-पहेरवेशनी भिन्न-भिन्न जातिनी नोंधो, प्रभुना देदीप्यमान देदारनी विगतो, स्त्रीना शणगार अंगेनी सामग्री व. अन्य पत्रो करता अहीं विशेष आलेखाई छ । गद्यपत्रनी शरुआत सूरिजीना ३६ गुणनी वर्णना द्वारा कराई छ । त्यार पछी अन्य सामान्यगुणवर्णना कर्या बाद सूरिजीनी साथे विराजमान पं. माणिकविजयजीने वंदना, भावचारित्रीया खूबचंद तथा कृष्णचंदने सुखशाता तेमज त्यांना तथा शिवपुरना श्रीसङ्घना श्रावकोने नामोल्लेखपूर्वक धर्मलाभ जणाववा कवि जणावे छे । त्यारबादनी पद्यविनतीमा सूरिगुणनी ऊंधा क्रमे (३६, २७, २५, २४, ९...) स्तुति कराई छ । सूरिजीना गुरु हर्षरत्नसूरिजी (तपागच्छीय)ना नामना सामान्य उल्लेख सिवाय पत्रमा अन्य कोई उल्लेख प्राप्त थतो नथी । पत्रान्ते सूरिजीना पधारतां थता उहास वर्णन करी पोताने त्यांनी (धनपुरनी) श्राविकानी वन्दना निवेदित कराई छे. पत्रलखाण अशुद्ध छे. यथाशक्य शुद्धीकरणनो प्रयास कर्यो छे.
शब्दार्थ १. वस्ताक् = वसती
६. लेरीयां = स्त्रीओनुं गळार्नु एक २. मसरु = एक प्रकारचें कापड घरेणुं ३. हेमरु = एक प्रकारनु कापड (?) ७. पाग = पाघडी ४. चोल = चोकी
८. बालद = बळद ५. चटकालीक् = चळकती ९. जोडेक = जोडवू
१०. करडीक = ?
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११. बरडीक् = मोटी ?
१५. शेलीया = कसबी वणाटर्नु वस्त्र १२. तनकीक = ?
= शेलु [तेना छेडे रहेली घुघरी] १३. कुरब = ?
१६. काजर = काजळ १४. वींछूआ = स्त्रीओनुं पगर्नु घरेणुं १७. दांत = हांथीदातना आभूषणमा
१८. अजु = ?
॥६॥ श्रीपरमात्माय नमः ॥
स्वस्तिश्रीभवनं मनोजभवनं त्रैलोक्यलोकावनं, विद्यावल्लिवनं प्रहष्टभुवनं सौभाग्यभूभावनम् । क्लृप्ते(?)!लवनं शिवाध्वजवनं श्रेयोवनिजीवनं, पापाब्धेः पवनं भृशा निधुवनं पार्श्व स्तुवे पावनम् ॥१॥
स्वस्तिश्रीजिनं प्रणम्य सकलदेशश्रीशीरोमणी, वापी-कुप-तडाग-गढ-मढमिंदर-पोल-प्रकार-वाग-वाडी-वनखंड-आरामसुशोभित, प्रौढा श्रीजिनप्रासादसखरध्वजाकलसमनोहर बावनजिनाला जिनप्रासाद [सुशोभिते] ॥ श्रीजिनायधर्मेक(?) ॥
स्वस्तिश्रीपेसूकपुर माहा सुभ सुथाने श्रीजिनधर्मायतन] सुसोभित[ते] उपाश्रय-साधर्मी(मि)क-श्रीपोषघ[ध]साला सुसोभित[ते], प्रौढा आवास पर मंडित तत्र गिरपर्वत विराज्यमान् इभ्य श्रेष्ठी सार्थवाह वस्ती जिहां दुहा : सरसत मात सुपसायके से), प्रणमी सदगुरु पाय,
गुण गावे(b) गिरुआ तणां, लखुं लेख चित्त लाय. १ ॥ चाल - गजल || पुरवर्णनम् ॥
सरसत मातकी कीजीए सेवाक्, लीजीए नाम निस-दिन गुरुदेवाक, पेसकपुर हि पोढाक, दुनीयांन मांहि ज्याका जस दोढाकू. २ गैर-टंक सिखर [हे] गि(गे)हराक्, जे(जि)हां वालेसरी देहराक्, वर्ण अढार जिहां वस्ताक्, राह चलत अपने कुल-रस्ताक्. ३
पोरवाडवंस [तिहां] दीपेक्, जस जगईं भामसा जीपेक्, वेपार करत वेपारीक, अपने वस्तु अनुसारीक्. ४ । मसरु' मुखमल मस्ताक्, हेमरू' अतलसका तखताक, चुनडी चोल' चटकालीक्', लेरीयां पाग' लटकालीक्. ५ 'बालद पोठ ही ओ(जो)डेक्, भल भल ल्यावते भाडेक्, खजूर खारिक कोपराक्, म(मि) श्री साकर टोपराक्. ६ आछै घ्रतकी कुंडीक्, आवत मुख सिबीडीक,
आछी अमलकी "करडीक, बहोत ल्यावत(ते) "बरडीक्. ७ दुहा:
पेसकपुरके चोकमें, दुंदाला घण साह, वि(वे)पारी विवहारी वडम, वडबरूद वडवाह. ८ पेसकपुरके चोकमा, सोनो घडे सोनार, घडीया घाट नोखा घडे, हद कंचनमय हार. ९ छोगाला नर छयल, भोगी वडा नर भल, पेसकपुरके चोकमां, घुमत कीयां अमल. १० पेसकपुरके चोकमां, मलत लोक ही मस्त,
जिनवर कुंथु जुहारवा, हलि(ली) मलि(ली) आवत मुख हस्त. ११ चाल
दीपे जैनका देहराक, स्वर्ग लग ज्याका छेहुराक(शिखराक्), उपम प्रभू(भु) मुखकी [नी]क्, कहत नावत(ते) तनकीक. १२ प्रभू(भु) सुरतकी बलिहारीक्, उआरणा लेत हैं नर नारीक्, भामंडल प्रभू(भु)को भलकेक्, सु(सू)रज ज्युं तेज[से] चलकेक्. १३ शिरछन मू(मु)गट [ही] सोहेक्, बाजूबंध बेरखा मोहेक्, कुंडलकी छब न्यारीक, ज्याके घूघरीयां घमकारीक्. १४ झगमग जोत ही झलकेक, दीपक अखंड ही बलतेक्, अंगीयां खु(ख)ब [ही] अरचेक्, सरस पुष्प(फ) ही स(च)रचेक्. १५ आगि अपासरा तपगछकाकु, ज्यां सूर(रि)पदकमलकलसकाका भेट्याक), तिहां रहि(हात धर्मके ध्यांनीक, गिरुआ गुनि(णि)जि(ज)न ग्यांनीक. १६
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कुंडलीयो : पू (पुण्यवंत साहवे पेसू (सु) ए, रुडे चित्त वड रीत, दाता वड दांनि (ने) सरी, परम धरम परतीत. १ परम धरम परतीत, कृत सुकृत आप कर देखे, समाइक पोसह सुद्ध, गुरुदेव भ्रम गवेषे, करीयावर वड कुरब उरब जगडु भांम एसा, वधस्यु सुंणे वाखांण तप भाव दानि तिसा, पोरवाड वंस दीपे प्रथी जेन रीत अद्यापी (पि) जूए, रूहाइ धुर राजे सदा पू (पु) न्यवंत साह पेसुए. १७ पेसुकपुरके चोकमां मिलत लोक ही थोक, चांद्रणी चोका सुंदरी, गातां निरखे गोख. १८ चोक पेसुकपुरकाक्, इसि जाने इंद्रपुरका
चाल :
गजल :
दुहा :
चाल :
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आगि वस्ती [हे] एतीक्, कहुं [जीहे] केती केतीक्. १९ आगि वेरावावका रस्ताक्, म (मी) लत सुंदरी जिहां मस्ताक्,
मटली सिर पर मांडीक्, अजब उढणी साडीक्. २० झं(झां)झर पगमां झमकेक्, ठमक ठमक वींछूआ ठमकेक् घुघरी शैलीया घमकेक्, सुंदरी दामनीसी चमकेक्. २१ चलकत दंतकी चूडीक्, राखडी बंधन रूडीक्, कीजरकी रेख [हे] कारी, सोनेकी रेख दंतमां भारीक्. २२ कोट पट घुंघट कीयाक्, लटकत नथ नक उठ लीयाक्, हस्ती द्युमत यु हुलराक्, सती सात सातका झुलराक्. २३ उढणी कसुंबल सारीक्, पाटली उपरां पारीक्, एसी सुंदर मतवारीक्, मस्तांन वावकी पनिहारीक्. २४ अजु जीमणे कांनिक, खु(ख)ब उंडे [हे] खांने (नी) क्, सिला जेसि दरीयाक्, भुरजा चिह्न दिशि भरीयाक्. २५ पेसकपुरका (के) तालकी, सोभा कही न जाय, तेसी मांनसर तालकी, सोभा लही छिनमाय २६ आगि विश्रांम ठांम वारीक्, जाइ जूई [फूल] की झारीक्, मरुआ मालती महकेक्, कोकिल अंब ही क(कु)हकेक्. २७
३००
अनुसन्धान-६५
दाडिम गुल अंबीरीक्, जांबू फणस जंबीरीक्, करणी अरणी केतकीक्, चंबेली चंपा सेवंतीक्. २८ दु (दू) हा पेसकपुरकी उपमा, सोभा कही न जाय,
एसि इंद्रलोककी उपमा, सोभा लही छिन माय. २९ पेसुआ पावन खेत हे, तीरथमें जैम गंग,
आढा वराज इंद्रज्यं, दिन दिन चढते रंग. ३० स्वस्ति श्री कुंथुजिनं प्रणम्य। श्रीमति तत्र श्रीपेसुकपुर माहा सुभ सुथाने
पूज्य [ज्या] राधे (ध्य) तमोत्तम, परमपूज्य अरचनीआंन्, परमगुरु, पू (पु) न्यपवित्र, चारित्रपात्र चूडामणी (णि), सकलभट्टारकपुरंदर, कुमताधि(तांध) कारनभोमणी (णि), विदुरजि (ज)नमुगटामि (म)णी (णि), सरस्वतीकंठाभरण, सकलकलासंपूर्ण चौदविद्यागुणजांण इत्यादिगुणगणालंकृत, विराज्यमांन००० इत्यादिक गुणें करी श्रीजी पूज्यजी सोभित, सरस्वतीकंठाभरण, सूरी (रि) श्री सी (शि) रोमणी (णि) धन ते गाम, धन ते नगर जिहां पूज्यजी विहार करें, विचरे, मासकल्प करें, चोमासु करें, धन्य जेहां श्रावक श्राविका श्रीपूज्यजीने वांदे, पोसह पडिकमणु करे, व्रत
खण देश (वि) रती सर्ववर्ती उचरे। श्रीपूज्यजीनी वांणी सांभले। श्रीतपगछना नायक धन्य ते श्रावक श्राविका जे अमोघ अमृतमय वांणी सांभले । श्रीदेवाधिदेवनी सतरभेदी पूजा करे, अष्ठप्रकारी पूजा करे। श्रीपूज्यजी गुणे करी वे (वि) राज्यमांन, साधुमंडली सुशोभित, रागद्वेषने (नि)वारका यतः
पृथवी पट कागल करूं, लेखण करूं वनराय, सघला सायर मसी करूं, तो तुम गुण लख्यो न जाय. १ दृष्टोऽद्य श्रुतकेवली गु(ग) णभृतामाद्यो गुरुगतमः,
तीर्थस्याधिपतिर्महागणपती (ति) स्वामी सुधर्मा तथा । श्रीजम्बूप्रभवादयो मुनिवरा अन्येऽपि ये जज्ञिरे,
ते सर्वे त्वयि गच्छनायक ! विभो ! दृष्टे च दृष्टा मया ॥ कलिकालगौतमावतार, लब्धना भंडार, श्रीपूज्यजी पूज्याराधे (ध्ये) तमोत्तम परमपूज्य, सकलभट्टारकचक्रचक्रवर्तीसभाभांम(मि) नी भालस्थलतिलकायमांन भट्टारक श्री००० १००८ श्री श्रीविजयराजिंद्रसूरि (री) श्वरजी चिरंजीवी चरणकमलान्
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कोडान् जुगान् श्रीगोयम श्रीसुधर्मज्युं तेज प्रताप लब्धि दिन-दिन सवाई वधोजी। स...... परिवारान् चिरंजीयात् । अत्र श्रीकुबेरधनहेतपुरांस्यु आग्याकारी सेवग, पायरजरेणु हुकमी आदेशकारी पं. रामविजय ल(लि)-ख(खी)तं वंदणा १००८ वार दिन प्रति अवधारवीजी । श्रीजी साहिबजीना प्रतापस्यु कुशल-खेम छ । श्रीजी साहिबजीना सेवगने कृपा करी कागद तथा वंदाववानी वीनती अवधारवीजी । श्रीजी साहिब मोटा छो, गछना छत्र, गछना मुगट, गछना तिलक, गछना दिणीयर, गछना धांम, श्रीजीसाहिबजी माहरे तो आप श्रीगुरु गोयम श्रीसुधर्मा, श्रीजंबूस्वामी समान छोजी । श्रीजी साहिबजी रा चर्णावृंद रो आसरो छे । माहरे तो श्रीसूर्य समांन छोजी । श्रीगछना नाइक छोजी। गछना दीपक छोजी । तत्र पं. माण(णि)कविजयजी वंदणा वंचाववीजी । भावचारित्रीया स(सिष्य खुबचंद, कृष्णचंद प्रमुख सुख-साता वंचाववीजी। श्रीजी साहिबजी श्रीदेवजाबाई संभारण्योजी । तत्र श्रावक कोठारी वधमांन पदमसी, सुजांन राजसी, सा. केशर, सा. हीराचंद, सा. मनजी, सा. हर्षचंद, सा. नाथा, सा. जीसा, अमरसिंघ, गांधी पदमसी, सा. धनरूप, सा. भीखा, सा.हरजी, को. प्रेमा, गां.मेघजी गां. रणछोड, सा. खीमसी, सा. मांनजी, सा. रूपसी, सा, जेठानी, सा. रामजी, समस्त बाल-गोपालने धर्मलाभ वंचावसीजी।
तत्र श्रीसेवपुरी संघ साहजी धनजी, सा. हेठाजी, सा. क(कि)सनदास सदाजी, सा. विणी रांमजी, सं. गुलालचंदजी, सा. हठाजी, सा. क(किसनदासजी, सा, जगजी, सा. जोगीदासनि समस्त ग्रि[ह]स्तनि सू(सु)खस्याता धर्मलाभ वंचावसीजी । अत्रना समस्त संघ श्रावक श्राविकानी वंदणा १००८ वंचावसीजी।
[हवे पछीनो मुडिया लिपीमां लखायेल पत्र वंचातो नथी.]
चित्त धरी साहिब अवधारीए, चोमासे पधारीए,
सहगुरु चोमासे पधारीए. १ पि(पे)तीस वाणी परवडी, भाषित श्रीभगवंत मनोहर....., देसन स्वामी तुम मुखै, सुणवा सहु मन खंत चित्त धरी..... २ छत्तीस गुणि सूरी(रि) शोभता, गुण सत्तावीसे महंत मनोहर....., भावि(व)क पंचवीस भावना, चित्त घरे चोवीस अरिहंत चित्त धरी..... ३ छत्र दशविध श्रमणना, नव वाडना धीर्य धीर मनोहर....., अरी स्वामी अष्ट मदना, भय सात वड भीर चित्त धरी..... ४ छ काय रक्षक सहिगुरु, पंच माहाव्रत निरवाय मनोहर....., टालिक च्यार कषायना, तीन तत्त्व गुरुराय चित्त धरी..... ५ दीपक दोयविध धर्मना, एक श्रीजिनआंणप्रतिपालक मनोहर...., अम पुर चोमासे पधारीए, अधिक धरी अ(उ)जमाल चित्त धरी..... ६ तपागछनायक गुणनि(नी)लो, श्रीविजयराजसूरिंद मनोहर..... पू(पु)न्यवंता सहिगुरु पूज्यजी, अविचल तपगछ(छे) ज्युं दिणंद चित्त धरी....७ संघ सकल इम विनवि (वीनति) मांनी मनुहार मनोहर..... लेख लखयो हुंसि(सी) करी, पूज्य चोमासे पधारो अविचल..... ८ दु(दू)हा : संवत अढार एकसठे (१८६१), मास असाढ मझार,
चितर लखायो चुंपस्युं, महियल धनपुर मझार. १ श्रीहर्षरत्नसूरीसलं, तस पाट तखत राजे, विजयराज्य(जें)दसूरीश्वरू, सहिगुरु सूरीश्वर गाजे. २
॥ अथ वीनती सज्झाय ॥ सहु मले सखी इंम वि(वी)नवे ललनां, लाल हो सांभलो माहरी वाण
सहगुरु वारुं रे ललनां, सहिगुरुमुख सुणवा देशना ललनां, लाल हो गिरुआ गुणमणिखांण सह.... १ कनकनी आपू(पु) कोटडी ललनां, लाल हो लखावो तुम लेख सह....., मोरनी आपू(पु) मुद्रडी ललनां, लाल हो लइ जावण तुम लेख सह.....२
अत्र समस्त श्राविकानी वंदणा वंचावसीजी । सदगुरु पाय प्रणमी करी, हुं तो गाऊं गछपतिराय,
मनोहर वीनती अवधारीए, धनपुरी संघ इम वीनवे, गछपति गिरुआ गुरूराय,
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भव्यजीव प्रतिबोधवा ललनां, लाल हो ए छे सहगुरु रीत सह....., सुणवा सही गुरुदेशनां ललनां, लाल हो ए छे साधर्मिक रीत सह..... ३ वेग(गे) आवे वांमणि(णी) ललनां, लाल हो आणंद होवे अपार सह...., हरखनो आपू(पु) हारलो ललनां, लाल हो मू(मुक्ताफल मनुहार सह.... ४ सहिगरु आवंता मि(मे) सुण्यां ललनां, लाल हो आज हआ अ(उ)जमाल सह.... चालो सहि(हे)ल्यां सहू मली ललनां, लाल हो लीजे मोती सोवन फूला(ल)थाल
(३०) मालवणथी अणहिल्लपुर पं. रत्नविजयजीने पत्र
मालवणथी अणहिल्लपुर(पाटण)मां बिराजमान पं. रत्नविजयजी गणीने उद्देशीने सं. १८४९मां प्रस्तुतपत्र लखायो छे. कर्ता अज्ञात छे. छतां पत्रनी शैली उपरथी पं. रत्नविजयजी गणि पत्रलेखकना गुरुभाई के परममित्र हशे, एवं अनुमान थाय छे. कृति नानी छे, एमांय वळी 'गोरख कुलमें वासना, नयणा आडा डुंगरा' जेवां अन्य कविनी रचनानां पद्यो अहीं उद्धरायां होइ मूळ कृतिना भारमा घटाडो करे छे. कृति एकंदरे सरळ छे, परन्तु कविने 'दाणा-पाणी को जोर है' आ पदथी शुं अभिप्रेत छे ते अमने समजातुं नथी.
१
चोक मंगली(लि)क साथीयो ललनां, लाल हो वधावे बहू नर-नार सह...., संघ सह ईम वीनवे ललना, लाल हो ए छे सयल संघ मनुहार सह..... ६ जेसैं चातुक चंद चकोरसें ललनां, लाल हो लागो पूरण नेह सह...., तिसो श्रावके सहिगुरु ललनां, लाल हो जांणे मयुरा मनमां मेह सह..... ७ वीनतडी अवधारीए ललनां, लाल हो विजयराजिंद्रसूरीश्वर राय सह...., पूज्य चोमासे पधारीए ललनां, लाल हो गुणवंता गुरुराय सह..... ८
॥ इति सज्झाय ॥ समस्त श्राविकानी वंदणा वंचावसीजी । बा. श्रा. अजवादे, श्रा. राजकुदे, श्रा. गांगलीदे, श्रा. दीपादे, श्रा. प्रेमकुअर, श्रा. जांमादे, श्रा. रुपकुमार, श्रा, जीवादे, श्रा. बिनकुअर, श्रा, लखमादे, श्रा. हरादे, श्रा. चर्मदृष्टि, श्रा. अजबादे, [श्रा.] अमरकुअर, श्रा. राजलदे, श्रा. जीफादे, श्रा. कल्याणदे, श्रा. हरखादे, श्रा. वजादे, [श्रा.]प(पा)नकुअर, श्रा. लखमादे, श्रा. अणदादे, श्रा. दिलकुअर, श्रा. जतनादे, श्रा. गलादे, श्रा. अमरादे, श्रा. कल्याणदे, श्रा. शदादे, श्रा. सजांणदे, श्रा, सूजादे, श्रा. देवकुअर, श्रा. जीवादे, श्रा. गांगलदे, श्रा. लाधादे, श्रा. जोयतादे, श्रा. स्तादे, श्रा. गलादे, श्रा. प्रेमकुअर, गाम मांडवारावाला सा. भीमा भार्या श्रा. रामादे, श्रा. जलादे, श्रा. पदमादे, श्रा. धनादे, श्रा. वखतादे समस्त श्राविकानी वं. १०८ अवधारवीजी । श्रीजी साहिबजी चोमासे पधारीज्योजी। १८५९ असाढ वद ११.
॥१०॥ स्वस्तिश्री अणह(हि)ल्लपुरे, महा शुभ स्थान पवित्त,
परम पूज्य परमेष्ट तुं, नमो [उत्तम शुचरित्त. परम हितदायक सदा, लायक नायक खास, हीतकर प्रितिपात्र तुं, सब गुण-कलानिवास, मनमोहन आनंद तुं, मनवल्लभ विश्राम, मुझ मनमंदिर तुं वस्यो, तुं मुझ आतमरांम, सकलसयणशिरोमणी, सकल गुंणलंकृतगात, कुमतांधकारनभौमणी, अखिलोपमा रही ख्यात. गौरखकुलमें वासना, अणघड रह्यो सुजात, संभुष्याला पेखतां, प्रगटे साते धात. चीरंजीवी रहो तुं सदा, जब लग मेरूगीरींद, ससी-रवी-ध्रुतारी लगें, लीला करियो मुनंद. तातश्री शुभ योग्य जे, मालवणमें मनोहार, परउपगारी गुंणनीलो, चंद्रप्रभु सुखकार. जास प्रताप गुंणआगलो, सुंदर अद्भुत वान, तास कृपाथी हूं लखू, प्रेमपत्र सुखखान.
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दाणा-पांणीको जोर हैं, मुखसें कयो न जाय, दैवगती के भावसुं, जोरें मीलेसुं आय. २० पत्र तुमारा तीन जे, आय पहोच्या हम पास, पूनः पत्र लखी भेजज्यो, बहूलों प्रेम नीवास. ग्रहे (ह)वेंदे(द)सी(सि) द्धीचंद्र थी, भाद्रव सुकलेआस, तेरे(रसें) मंगलवास(र)में, करज्यो लीलविलास, २२
श्रेयोस्तुः ॥श्रीः ॥ ॥ पूज्याः ॥ सकलसजनोत्तमशिरोरत्नायमान । पोलीई उपाश्रे। आराध्य पं० रत्नविजयगणि । पत्र १ श्रीपट्ट(त्त)न्(न) नयरे ठावो (?) पोहचे ॥
दरीसण कीजे देवर्नु, याद करीजे मीत, वीनय करीने वंदता, जे-जेकारी नीत. आद अक्षरथी जाणज्यो, ए हमचो सुख-चैन, इष्टकृपाथी नितु रहें, आनंदित जिउ नैन. तुम सुखपत्र आव्ये थकें, उपनो मन अल्हाद, पूनः पत्र देवा भणी, लखज्यो करीने याद. लखवा कारण एह छे, प्रीछज्यो सुगुणं निधान, समाचार अधीके सदा, केहज्यो वधते वांन. नित्यानंद होस् घणो, फत्ते सदा जयसिह, वंदना कहीओ प्रेमसुं, सतअठे निसदीह. इष्टदेवस्मरण सदा, पूजा-भक्ति विशेष, दीप-धूप-फल-फूलनी, सावधांनी हंमेस.. चतुर सनेही गुंणभयों, राम नाम सुखवास, आदे कहिओ प्रेमसुं, कुसल-खेम उल्लास. नयणा आडा डुंगरा, मन आईं नही कोय, सजन तणो मेलावडो, पुन्य विना नवि होय. सजन यूं मत जांनीयो, विछुरे प्रीत घटाय, बीमणो वाधे सजनो, ओछो होय पलाय. कागद को लिखवो किसो, कागद लोकाचार, जे(ते) दीन सफलो जानसुं, मीलसुं बांहि पसार. १८ सुगुंण सनेही मीत्त छो, गुंणसायर गुंणजांण, प्रांण सदा तुममें रहें, केते करुं वखांण. अपरं लख्या कारण ए छे जे भाइजीथी अंतरभाव थयो छे.
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त्रिकुटनगरमा बिराजमान गणिनयनसुखजीने पत्र
पार्श्वनाथ प्रभुने पत्रनी आदिमां नमस्कार करी गणिवर्य नयनसुखजीने प्रस्तुत पत्र त्रिकुट्टनगरमां लखायो छे। पत्र अपूर्ण होवाथी ते क्यांथी लखायो छे ते जाणी शकातुं नथी। पत्रनी भाषा हिन्दी छे। रचनानी दृष्टिए पत्र खूब रसाळ छे । कविनी प्रवाहित शैली पत्रमां स्पष्ट जणाय आवे छे। त्रिकुट्टनगरनी वर्णना पछी त्यांनी प्रजाना स्वभावने कविए सुन्दर रीते आलेख्यो छे । नगरनुं वर्णन त्यार पछीना ३ चोपाइ छन्दमां रजू करी गणपतिना गुणवैभवने कविए चौपाइ अने सोरठ छन्दमां प्ररूप्यो छे। सूर्य अने चन्द्र करतांय गणिवर गुणथी चढियाता छे तेवी कल्पनाने १७ थी ३२ नां पद्योमां वर्णवी अन्य पण उपमा घटावता हशे, पण त्यां ज ३७मा पद्यथी ज पत्र खण्डित थयो छे ।
३०७
पत्रनी रचना कोणे करी छे ते अंगे काव्यमां कशी ज नोंध मळती नथी. पण कर्ता गणिवर्य श्रीना शिष्य होय एवं वधु सम्भावित छे.
*
श्रीजिन- विद्यमाननयणसुखगुरुभ्यो नमः ॥ श्रीसेतुंजाय नमः ॥
दोहा : स्वस्ति श्री श्रीपासजिण, पय प्रणमउ सुखकंद, लिखउ पत्र गनिराजकउं, जिम पामउं आनंद. १
इस ही जंबूदीपमइ, भरतखेत सुप्रसिद्ध, नगर त्रिकुट्ट तिह सही, वसइ लोक सुसमृद्ध. २
चौपाई : तह पुरि वसै सवै सुरग्याता, लहि विवेक वै सुभमतिराता, तजि कुसंग सुभसंगति करही, पापपंथ छिनु पग न धरही. ३ सुनहि सदा सुभ वेद पुराना, या ते परमार्थ परजाना, पर उपकार करनकडं सूरा, बुद्धिनिधानउ बहुगुनपूरा. ४ देश देशने मग्गन आवहि, जो चितवइ सोई फल पावइ, जिह पीछइ भए जगहत्थदानी, अवस वदीसै परम विनानी. ५
३०८
दोहा : जिहि पुरि जैसे जन वसै, दान मांनसु विख्यात, धर्मरूप भगवंतको, भजन करई दिन राति ६
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चौपाई : हिव पुरकी छवि पिखियत एसी, ज (ध) नकुबेरकी अलका तइसी, जाकर भवन अतहि उजीयारे, गचकलित ललित चठवारे. ७
जिह महि वसहि रसहि वर कामनि, घनघन मोकौं धहि जनु दामिनी, भरत संगीत नृत्य विधे भारे, पिखियत सुंदर कहू अखारे. ८ जाकै निकटि गंगकी वहनी नदी सतलुद्ध कोटि अघदहनी, नर नारी तह मज्जन करही, केलिकलाप ताप सब हरही. ९
सोरठो ऐसो नगर अनूप, जाकी उपम न कर कुइ,
:
वसै जहां जनभूप, कहलउ तसु छबि वर्णीइये. १० चौपाई : एैसो नगर जानि सुखरासा, तह कीना गणिपति चडमासा,
आसा सब जीवनकी पूरन, नाम लेइ अघ हुइ हइ चूरन ११ कर्मपंध जिनि सकल विदारे, जिन ते जीव लहत दुख भारे, ज्ञानवंतऊ महंत मुनीसर, कामदहनकों दूजो जनु ईसर. १२ विषयविकार टारि सुख पायो, जाको नाम जगति बहु गायो, मोहसैनि जिनि सकल निवारी, दुखभंजन रंजन उपगारी. १३
सोरठो : चितु लायो सुभ ध्यानि, ज्ञानवंत सुमहंत,
अति मोकौ दीजइ दान, कृपा आपनी देवजी. १४ चौपाई : कृपानिधान नाम हइ तेरो, जाक रहै सब जग यह चेरो, दयाधर्म बहु प्रतिपालै, जिनवरको मार्ग सदा निहालै १५ लब्धिवंततरु हइ बडभागी, गनधर गोतम सम वैरागी, बालवैस जिनि संयम लीनो, याते मनु जिनमग-रंगभीनो. १६
दोहा : धर्मध्यानि मनु लायकै अघ कीने सब मंद,
ताते उपमा देत है, कोविद कवि जिस चंद. १७
चौपाई : दोखाकर उह नाम भणीजइ, ओर कलंकी सदा गणीजइ, मित्रपति जड उदइ धरेइ, अरु कुवलैवनकउं दुख देई. १८
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--- २४
खीरसमुद्रनंदन उह कहीयइ, याते विरहनको तनु दहीयइ, हालाहलको बंधव सोई, ताते मरत वियोगी जोई. १९ दिनि पिखियत पात पलासा, रयनि अमावसि रहत न मासा,
राहु ग्रसत नितु प्रति छवि वाकी, ताते उपमा न लहइ हु याकी. २० दोहा : इते अवगुन जास् तनि, सो कहियत कविचंद,
ताकी उपमा किउं न लहइ, इहु मुनिवर कवि मंद. २१ चौपाई : इहु मुनिवर सव दोष निवारै, नि:कलंक अघ अंक उतारे,
निज मित्रनकउं हइ सुखदाता, देइ कुवलैवनको सुखसाता. २२ ब्रह्मवंस उत्तिम जगि भणीयइ, यांकी उतपति तामै गणीयै विषै विषम विष नाश करेइ, याते निज सेवक सुख देई. २३ जाकी जोति रयनि दिनि सूची, याते हइ पदवी इस ऊची,
कुमति राहु नहि आवइ नेरइ . --- दोहा : जिहि सरीरि ए गुन रहै, तिह सरक उकति चंद,
__ताते उपमा भानुकी, कहत जासु कविंद. २५ चौपाई : सूर्य दाघ तापकौ करता, अरु कुमदिनिके सव सुखकों हर्ता,
कश्यपपिता जास कर कहीयइ, जाक उपंग सारथी सहीयइ. २६ सूर्यजोति घटइ सव तनकी, जव ही आइ फिरै छवि घनकी, रयनि आइ जव जगमइ प्रगटइ, तव रविजोति न कहूयै मटकइ. २७ जगमै सीतमास जव आवै, तव वह तेज रहन नहि पावै,
जगत प्रगास करनकउ सूरा, तउ पणि उपम लहै नहि सूरा. २८ दोहा : सूरज उपमा न पावई, इते अवगुण जाणि,
कहु कविजन किठं दीजीयइ, इहु मुनिवर गुणखाणि. २९ चौपाई : पहु भव-तपति-हरन हइ स्वामी, तृष्णादाघहरन सिवकामी,
कुमदनिखिमा-उदयको कारन, कल्याणमल्लवंस उद्धारण. ३० धर्मसारथी जाकर जाणउ, करत विहार सदा मनि भाणउ, वादीमेघ जिम मिलि गरजइ, तउ पणि याकी जोति न लइजइ. ३१ रयनि दिवसि प्रभु एकहि सरीखा, ज्ञानप्रकास सदा यह परिखा,
कुमतिसीततेजें नर कांपई, तिनको अचल अमरपद थापइ. ३२ सोरठो : एसो है मुनिसूर सूर, जासं सम सरि नही,
ताकी उपमा कूर, कवियण देत मुनिंदको. ३३ चौपई : इक चिंतामणिअ कइ कुबेरा, कइ कल्पद्रुम कइ घनघेरा,
कामधेन पय रतनागर, इन हूंतइ तइ आगर है वैराग. ३४ रामदास-कलि कलस विराजइ. जाकी उपम उर नहि छाजै. मांथै हाथ दीयो हंसराजस्वामि, नवनिध लहीयइ जाकै नामि. ३५ मुख देखते आनंद लहीयइ, ताते श्रीनयनसुखजी कहियइ,
चितामणि मुख जे उपगारी, याकी सरानि देखु निहारी. ३६ दोहा : मन की तृष्णा सब हरइ, दुख दारिद्र हुइ चूर,
कहलउ ताकों वणीयइ, हइव..... [अहींथी स्क्रोलमानो १ टुकडो घटे छे । पछी पाछळनी बाजुनो लेख-]
....रीव०८ कउला ७०८ खिमो व्र०८ धर्मका उद्योत बहुत भया तव प्रसा[दा]त् । प्रभुजी हम्हारी त्रिकाल वंदना, खिमावणा पखी, अष्टमी राइदिवसाकी, चउमासीकी, छमछरीकी वाचणी १०००००००००८ घडी २ पल २, भुजो २ हम्हि तुम्हारे चरणकमलोंकै प्रसादि बहुत सुखी है सही। भगवंत तुम्हारी चिरजीव करो कोटिपर्यंत तुम्हि हम्हारे छत्रपति हहु । तुम्ह हम्हारे जिनदेव सम तुल्लि हहु । हम्हकों आशा इन्ह चरणकमलोंका ही है। सही अत्रकी समिग्रहाकी वंदना वाचणी, बाल गोपालाकी वंदना वाचणी । तत्र समिग्रहा योग्य धर्मध्यान कहणा नाम लेई लेई सही मिती भाद्रो शुदि १० २४ पत्री श्रीश्रीश्रीश्रीपूज्यआचार्ययोग्यदेवणी सही
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(३२) सा. श्रीपुण्यश्रीजीने पालीताणाथी
श्राविकानो पत्र प्रस्तुत विज्ञप्तिपत्र सा० श्रीपुण्यश्रीने उद्देशीने पालीताणाथी श्राविकाए सांवत्सरिक खामणारूपे लख्यो छे. प्राप्त थता अन्य पत्रोमां साध्वीजी पर लखाएल आ प्रथम पत्र छे. साध्वीजी पर पत्र लखायो होइ साधुपदना २७ गुण अनुसार २७ गुणोनी वर्णना करी कविए गुरूपदेशनी नोंध करता नवतत्त्वनी विचारणा पछीनां पद्योमा करी छे. पत्रान्ते फरी गुरुगुणवर्णनना भावो गुंथी सा. पुण्यश्री तेमज तेमना परिवारने वन्दनापूर्वक खामणां लखी पत्र पूर्ण करेल छे.
शब्दार्थ १. सो = सउ - सहु
५. थान = स्थान २. परिसा = परिसह
६. धुनी = ध्वनि ३. तोय = तमने
७. रुचावे = गमाडे ४. तज समान = स्वमान - गर्व त्यजी?
जिता चार कषा[यने], ... छ कायनी [अ]भय दीया, सात.................. ६ मद जीत्या आंठें अधम, ब्रह्मगुप्त नव धार, दसविध धर्म जतीतणों, तेहना पालनहार, ७ इग्यारे प्रतिमा कहो, बारे व्रतविस्तार, विघ्न काठिया तेरमा, ते पिण भाखो सार. ८ चउदह गुणठाणा तणा, भाव कहो अणपार, सिद्धभेद पनरे कहो, आगमनें अनुसार. ९ सोल कला ससि(सी)लिंगना, जानो अरथ विचार,
................१०
..................... सुहाय, श्रीचिंतामण पासको, चेत नमुं चित्त लाय. १ आदिजिनेसर आदिदेव, चरन नमुं जिन वीर, चवदसे बावन भला, प्रणमुं पा(ता)स वजीर. २ स्वस्ति श्रीसोभित सदा, सकल देस-सीरदार, शुभ सुथान सर्व उपमा, वर्णन सहित विचार. ३ नगर अतहि रत्न, जतन करत कूटवाल, सुखेज राज करे तिहां, सिरदारसिंह भूपाल. ४ चेतनवंत सो' जीव हे, जांने एक प्रकार, दुविध धर्म उपदेशता, तिन तत्व कही सार. ५
उगणवीस काउसग्गना, दोसण टालणहार. ११ जीव छकाय तणी दया, पालो वीसवावीस, जाणो छो श्रावक तणां, उत्तम गुण एकवीस. १२ बावीस परिसा जीतवा, तजी राग अरु रीस, इंद्री पांच तणां विसय, वस कीधा तेवीस. १३ आणा जीन चोवीसनी, सिर धारो निसदीस, भावो पंचवीस भावना, तोय' नमाऊं सीस. १४ छवीस भेद वि[व] हारना, जेहना जाणणहार, गुण सत्तावीस साधुतणा, तेह धरो निरधार. १५
सकलगुणगरिष्टान्, बुधजनवरिष्टान, चारुचारित्रपात्र, निरमलगात्र, सरस्वतीकंठाभरण, पंडितमंडलीशृंगारहार, औदार्य-धी(धैर्य-माधा(धु)र्यादि गुणालंकृत, सर्वाअवसरसावधान, बहुबुद्धिनिघांन, चारित्रपात्रचूडामणी, कुमतांधकारनभोमणी, सांत-दांत-महांत-औदार्य-धैर्य-माधुर्यादिगुणालंकृता, कलीकालगौतमावतार, परम-विवेकी, खीमावंत, दयावंत, सीलवंत, संतोषवंत, इंद्रीदमवंत, जीयकोपे, जीयमाणे, जीयमाये, [जीयलोभे]
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पारस प्रभु नमी प्रेमसुं, धरम तास मन धार, विन्य (ज्ञ) सुगुरुकुं वीनति, आवस्यक तु ( उ ) र धार. १
स्वस्तिश्री सुभ थान जै, जिहां वसै अनगार, वसे धन्य जे लोक, सुणे सिद्धांतविचार. २
तज समान विसेष लही, ए जिन आगमसार, कुल अरु संगत केड हुइ, निरपख लय नय च्यार. ३ श्रावक जन सत धर्मको, उद्यम करे अपार,
तत्त्वभेद लहे नवनको दुह पख शदय विचार. ४
स्व पर व्यवसायातमिक, सम्यक ज्ञान प्रमांण,
इक ध्ये (द्वे) च षट् अष्ट सत, नवततभेदे सुहेजांण. ५
निज गुणा भुलो परहि-गुण राच रयो हुकाल, ता साधनकी चाह तिह, पावे गुरु परभाव. ६ चेतनता प्रतिपक्ष पुन, जोडी अनादि स्वभाव, पुन्य पाप सुभ यसुभफल, दोहु करतलखाद. ७ आश्रव कारन ताहिको, जांन करै जो रोक, निज साधन कारन ग्रहै, संवरतत्त्वविलोक. ८
पुरब कतहु री करन, तत्त्व निरजरा कन, सत अठ बंधै ते सम्यक्, बंध कर्यो परवीन. ९ पूरण निरजरणे करी, तत्वमोक्ष कहै तेह, पुण्य पाप फल बंधे, कैता ते सप्त कहेव. १०
ए नव तत्त्व गुरु पासे ग्रही, अरु साधै इकतान, भेदग्यान साधन भलौ, साधौ ते सिवथांन ११
ए सब गुन गुरुयोगतै, पावै पुन्यपवित्र, ता ते भविजन नित करे, गुरुसेवा इक चित्त. १२ सवावीस गुण शोभता, कहां सोवरण करे [य], हंस नाग मुख सहेसथी, करत न आवे छेय. १३
३१३
३१४
सोभे गुणसंहासने, समतारसभंडार,
पर परणीत परीहरणकुं, धरे रमण चित्त धाइ (र). १४
मधुर धुनी दै देसना, करवा पर उपगार,
संजम निरवान समय, लही निरदोस आहार १५
पाले पंचाचार पुन्य, टाले च्यार कसाय,
सत्य पक्ष झाले सही, वारे विषय विचार. १६ संजम दुसण एकविध, दोय राग कहु दूर,
तीन तत्व ग्रही केहस्यो, चो कसाय जल पूर. १७
पाले महाव्रत पंचकु, षट काया रिछपाल,
तजी सत भय अठ मद हरण, पृहल गुप्ती नव जाल. १८
जतीधर्म [द] सवीध धर्यो, अंग इग्यार प्रवीण, द्वादशविध तप साध करी, तेर काठीया पीण. १९ गुणठाणा चउदै तणौ, अरथ सवे मन लाय पनरवे सुध सिर धात, उपसम सोल कषाय. २० संजम सतरे भेदे ग्रही, सीलंग सहस्रअठार, धोरी छो तिण रथ तणा, धर्म चलावणहार. २१ उगणीस श्याताअंगमांना, धर्मकथा कहनार, वीस गुण असमाधिना, ते सब टालणहार. २२ श्रावक इकवीस गुण, हिवे (दे) रुचावै' तेह, बावीसह परिसह करण, तेवीस विषय तजेह. २३
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रे तीरथपती चोवीसकी, आणा पालणहार,
भावे पंचवीस भावना, समर समरण विचार. २४ भेद छवीसे कलपना, जाणे सब व्यापार, आतमतत्व सगवीस गुण, अरथ करै विचार, २५
इत्यादिक गुण करी अतीही सोभीत नीजगुणसाज जे श्री श्री श्री श्री श्री १००८ श्री श्री श्री पूनम श्रीजी महाराज, श्रीरतन श्रीजी, श्रीकनकश्रीजी, श्रीफथे श्रीजी,
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(३३)
श्रीहलासश्रीजी, श्रीहरकश्रीजी, ठाणा १७ सुविराजमान छै। जोग्य पालीताणासु लिखत हेमचंदारा दादीजी नथमलजीरा भुजीका खमत-खामणा प्रतीकमणो छमछडी कर मास तेर, पक्ष छावीस, दी(दि)न ३९० जो कोई मास तेर, पक्ष छावीस तीन देवसी प्रतीक्रम करके चोरासी लाख जीवाजुणने खमाया है। आपने खमाया है।
और सोमराज गुलेछारी वंदणा त्था खमतखामणा घणे घणे मानसु करके वंचानाजी ।
वालोचरपुरी-श्रीसङ्घनो भगवतीजी-सूत्रांचननी अनुमोदना करवा माटेनो पत्र
प्रस्तुत पत्र सं.१९७९मां वालोचर (बालुचर, बंगाल)पुरीना श्रीसङ्घमां चातुर्मास दरम्यान रतनविजयजी द्वारा व्याख्यानमां भगवतीजी सूत्र वंचायानी जाण माटेनो छे. श्रावक प्रतापसिंहजीनी पुत्रवधूनी भगवतीजी सूत्रनुं श्रवण करवानी इच्छाथी गुरुभगवन्त पासे सांभळवा (व्याख्यानमां वांचवा) ते आगमसूत्र केवा बहुमानभाव साथे लई जवायुं तेनो सुन्दर चितार प्रस्तुत पत्रमा जोवा मळे छे. वळी गर्जारव करता मेघ जेवी (गम्भीर) वाणी द्वारा गुरुभगवन्तना मुखे ज्यारे सूत्र वंचायुं त्यारे शं थयुं ? ते कल्पनानी एक कडी पण अद्भुत छे. 'रजत हेमना' पद्य द्वारा आगमसूत्रनी द्रव्यपूजा अंगे करेली नोंध श्रुतभक्तिनुं सुन्दर उदाहरण छे.
॥ ॐ नत्वा : स्वस्तिश्री गुणयुत सदा, जगपति जिनवरदेव,
चरणकमलयुग तेहना, प्रणमी तज अहमेव, पत्री शुचिअवदातकी, वांचत मिलत आमोद, विधिपूर्वक आगे हिवे, लिखसुं अधिक विनोद.२ पावनदिशि पूरवधरा, देशसकलशिरताज, बंगदेश रलीयामणो, जिहा विचरें जिनराज. ३ ता विच सहरशिरोमणी, श्रीमकसूदावाद, तेहमा वालोचरपुरी, उत्तम अधिक आबाद. ४ जिनधर्मी दृढसमकिती, श्रावककुलशिरदार, सुखी निरंतर जिहां वसै, विनय-विवेकी सार, ५ डूंगरसिंह प्रतापयुत, लछमीपति सुखकार, धनपति अरु छत्रसिंहकी, वारंवार जुहार, ६
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वांणी प्रगटी गुरुमुखें, जिम जलधर गाजंत, भविकमोर सुणि उलसते, पापतिमिर भाजंत. रजत-हेमना देवकुसुम, मुक्ताफल बहुमोल, नित प्रति चढत हे सूत्र पर, जैसें जलधिकल्लोल. विवाहपन्नत्ती सूत्रनी इणविध वचत हे अत्र, तुम श्रीसंघ इह वांचिनें, अनुमोदज्यो थे तत्र.
२१
॥ इति पत्रम् ॥
तत्र श्री....... नगरे, सबही श्रीसंघजोग, वांचज्यो आदर करी, साधर्मी सहु लोग. अप्रं च इक समंचार हे, परम पुनीत श्रीकार, वांचत ही अनुमोदना, करज्यो साहूकार. परउपगारी परमगुरू, परतख परमदयाल, परमेशरकी भगतिमें, अहनिशि रहत खुस्याल. नही तवक्का कोइका, नही किसीमें राग, नही कोईसें द्वेष हे, नही किणहीसें लाग. जैसे गुणगणधर मुनि, रतनविजय महाराज, विचरत भूमंडल विर्षे, आये इहां विराज. तव श्रीसंघ सरव मिली, कीध महोच्छव सार, अति आडंबर हर्षसें, ल्याये नगर मझार. धनपतिदत्त भवन विर्षे, वर्तमान चोउमास, मुनिवर ठायों हर्षसें, जाने सकल जहांन. प्रतापसिंहजीकी वधू, परम सुशीला जेह, आण्यो मनमें भाव अति, रोमांचित करि देह. सुणुं शास्त्र में भगवती, जिम होय पावन गात्र, भविकजीव निसतारवा, मुनि आये गुणपात्र. शुभदिन शुभमहुरत-घडी, गजपर छत्र धरंत, धवल-मंगल गावे सधव, उज्जल चमर ढलंत. गाजा-वाजा वाजते, खलकलोककी साख, दसूं दिशा प्रगटी छटा, जनमुख जय-जय भाख. इणविधि विधिपूर्वक करी, पंचमांगजी सूत्र, ल्याये मुनिवर पासमें, धर्मवंतके पुत्र. संवत् नारदमेदनी-ग्रहगोत्रा' जयकार, श्रावण वदि तृतीया शशी, सरू भयो अधिकार.
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(३५) कंकोतरीस्वरूप विज्ञप्तिपत्र - २
(३४) कंकोतरीस्वरूप विज्ञप्तिपत्र - १
श्री । प्रस्तुत पत्र पत्र रूपे नहीं परंतु आमन्त्रण रूपे लखायेल कंकुपत्री छे। तारंगागढथी श्रावकोए पालीताणा पृ० मुनिराज कीत्तिविजयजीने उद्देशीने पाठवी छ। पत्रीनी शरुआतनो थोडो अंश अन्य विज्ञप्तिपत्रोनी जेम विशेषणो द्वारा मुनिगुण-निरूपणमा रोकायो छे। त्यार पछीना लेखमां तारंगाना श्रावकोनी साथे अन्य जे जे महाजनोए पूज्यश्रीने प्रतिष्ठा प्रसङ्गे पधारवा विनती करी छे तेमनां नामो अने प्रतिष्ठा दिन, वारनी विगत लखायेल छे, ऐतिहासिक दृष्टिए तारंगा अंगेनी आ नोंध घणी महत्त्वनी छ । जो के नन्दीश्वरजी द्वीपना चोमुख पर क्या अने कोनी प्रतिष्ठा कराई ? तेनी अहीं कशी माहिती नथी। छता संवत् १८८० ना मागसर महिने पत्री लखाई छे ते परथी ते ज वर्षना महा महिने प्रतिष्ठा करवानी हशे एटलं तो चोक्कस कही शकाय.
आ पत्रने पण आपणे कंकुपत्री ज कहीशुं । अमदावादथी शेठ वखतचंद खुशालचंदे सा० श्रीमाणेकश्रीजी गणिनीने उद्देशीने पाटणनगरे आ पत्री मोकली छे । पत्रीनी शरुआतना लेखमां संघ यात्रा-प्रयाण अंगेना मुहूर्त अंगेनी जाण करी शेठ साध्वीजी भगवन्तने सङ्घमां पधारवा जणावे छे । त्यार पछी 'संघD कारणारु हु बनसे' आ पक्ति द्वारा पोताना काढेला सङ्घमां साध्वीजी भगवन्त पधारे ज एम जणाववा द्वारा साध्वीजी माटेनो पोतानो आदर भाव व्यक्त कर्यो छे । बीजुं ते वखते तीर्थयात्रा माटे लेवाता मुंडका वेराथी थता जात्राना अन्तरायने दूर करवा पोते १ वर्षनी दुस्तुरी भरी लोको परनो वेरो माफ वराव्यो छे, आ वात जणाववा द्वारा शेठ मुंडका सम्बन्धी प्रश्ननुं जाणे साध्वीजी भगवन्तने निराकरण जणावता होय एम लागे छे । वळी सिद्धाचलजी पर पोते करावेला देरासरनी प्रतिष्ठा वखते पण साध्वीजी हाजर रहे तेवी भावना तेमणे पत्रान्ते जणावी छ । एकंदरे पत्रालेखन परथी साध्वीजी भगवन्त शेठना परिवारना अत्यन्त उपकारी हशे के कोई स्वजन हशे एवं अनुमान थाय छे।
स्वस्त श्रीपालीतणा श्रीआदीजीन प्रणमः । श्रीपारश्वजीन प्रणमः ।
श्रीपालीताणा महा शुभ शथांने पुजाराधे सर्व ऊपमा लायक, ओक वीध अंशजीमना टालणहार, दोअ वीध [धरम]ना परूपणहार, त्रेण ततवना जांण, चार कषाअना जीपक, पंच महावरतना पालणहार, पंच सुमतें सुमता, त्रेण गुपतें गुपता, साधुना सतावीश गुणे करी शोभीत श्रीजीनशासन ऊदोत करणहार, रतनवईना उपदेशक, ओम अनेक गुणे करी लाअक मुनीजी श्रीश्रीश्री५कीरतीवीजेजी तथा शाधुशमस्त परीवार चरणं(णां)न चरणकमलांण श्रीतारंगाजी घडथकी सा० दोस्त वसीधर वांछा तथा दोसी रूपचंद वसीधर तथा देवो आतमरांमलानी तथा मेता जेठा मुंना तथा श्रीवडनगरनुं महाजीन तथा श्रीघडवाडा- महाजीन तथा गांम सीपोरनु माहाजीननी वंदणा वार १०८ करी अवधारजोजी । जत श्रीनंदीश्वरधीपना चोमख परनी परतीसटानु मुहरत महा शुद ५, वार सुकर नरधारुं छे । ते उपर श्रीसंघ शमस्त सर्वने तेडीने वहला पधारजोजी । तमो आवे श्रीजीनशासननी शोभा घणी वधसे ।
सवत् १८८० मागसर वद ११ ल० शेवक आगनाकारी, पाअरजीरेणुशंमान जेचंदनी वंदणा वार १०८ अवधारजोजी ॥
शब्दकोश १. अंतरे = अत्रे २. सधावानु = निकळवार्नु ३. कारनारू = काढनार ४. मुंडकु = माथा दीठ लेवातो कर ५. दुस्तुरी = एक प्रकारनी करनी रकम (दस्तुर एटले कानुन - तेना काम बदल
अपाती मजूरी?) ६. वेनेव्यु = विनव्यु ७. खांमुखां = खास करीने ८. प्रतिसटा = प्रतिष्ठा
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श्रद्धांजलि
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३२१ स्व[स]त श्रीपाटणा महाशुभ सथांने सरेवे सभोपमालाओक श्री ७ गरणीजी मांणकसरीजी चरांणा श्रीअंमदावादथी ला० सेठ० वखतचंद खसलचंदना प्रणांम वांचजो । जत लखवा कारण से छे जे अंमारे श्रीश्रीश्रीश्रीश्रीश्रीश्री सीधाचलजीनो संग लेईने जतरा जवान महरत पोस वद ९, वरा(वार) रवेऊनुं नीरधारू छ। ने माहा शुद २ सोमवारने दीवसे 'अंतरेथी संघनु कुच करीने 'सधावानु, ते उपर तंमारे वहेलु पाधारवु । संघनु 'कारणारू हु बनसे। बी[जु] संवत १८८३ना कारतग सुद २थी सवत १८८४ना कारतग शुद २ सुधीनुं 'मूडकु श्रीपालीतांणा त्था श्रीभावनगर त्था श्रीघोघा त्था तलजनी जे लागत 'दुस्तुरी हसे ते सरेवे अंमो आपीने वरसा १ सुधीनु माफ कराव छ । माटे तमोने 'वेनेव्यु छु जे जत करवा "खांमुखां पधारवु । वली श्रीसीधाचलजीना उपर अंमो नवु दहेरू करावु छे ते देहरानी 'प्रतिसटानु महुरत फागण शुद ४ गरऊनु छे ते उपर पण तंमारे जरूर पधारवु । तमो आवे रूडु दीसे । लीख० १८८३ना मगसर वद १
ला० मोतीभईनी वंदणा वचजो । जतर करव वहल पधरणी ।
हमारे ख्यातनाम विद्वान् श्रीविनयसागर महोदय गत ३० नवम्बर (२०१४)को जयपुर स्थित अपने निवासस्थान में दिवंगत हुए । उनकी आयु ८६ सालकी थी।
उन्होंने भारतीय साहित्य, विशेषतः जैन साहित्यकी खूब सेवा की । कई ग्रन्थोंका सम्पादन, लिप्यन्तरण, प्रकाशन उन्होंने किया । उनके द्वारा लिखित शोधपत्र एवं सम्पादित कृतियां विविध सामयिकोंमें प्रकाशित होती रही है।
'अनुसन्धान' के साथ कई वर्षों से वे जुड़े थे। उनके अनेक सम्पादित लेख इसमें निरन्तर प्रकट होते रहे हैं।
उनकी विदाय से जैन विद्याजगत्को एक अपूरणीय क्षति हुई है। वे महोपाध्याय के पदसे अलङ्कृत थे ।
उनकी आत्माको शान्ति मिले !