________________
निवेदन
वधतुं जतुं ज्ञान, वधता जता तपनी जेम, क्यारेक चित्त पर बोजरूप बनी जाय छे. ए बोज, पछी बन्धन बनीने चित्तने बंधियार पण बनावी शके.
-
घणी वखत जोवा मळे के घणां शास्त्रो, ग्रन्थो के विद्यानी विधाओनो ज्ञाता 'ज्ञान-गुमाननी गांसडीओ' वेंढारतो फरतो होय छे, अने 'हुं समर्थ ज्ञानी, माराथी चढियातुं के मारा सरीखुं कोई ज्ञानी नथी न होई शके एवा विद्याभिमान के शास्त्रदर्पमां राचतो रहे छे. तेना तेवा ज्ञानने कारणे तेनी वाहवाही तथा प्रशंसा करनारा पण घणाबधा होय छे, जेने लईने ते 'ज्ञानी' आत्मानो दर्प फाटीने धूमाडे जतो रहेतो जोवा पण मळे छे.
आवा लोको एवा तो बंधियार के आत्मरतिग्रस्त बनी बेसे छे के पछी तेमने पूर्वसूरिओनी पण क्षतिओ जोतां/ काढतां आवडी जाय छे, बीजा कोईनी पण वात के विचारणाने मान्य / अमान्य करवानो तेमनी पासे वणलख्यो अधिकार आवी जतो होय छे, अने तेमनी भूल के खामी दर्शाववानी हिम्मत कोई करी ज न शके तेवी तेमनी दृढ समज पण होय छे.
विवेकविहोणुं भणतर, बीजाने बीजामां पण ज्ञान होई शके ते स्वीकारी शकतुं नथी, अने पोतानी पण भूल होई/ थई शके ते स्वीकारी शकतुं नथी. आवा भणतर थकी चित्तनी शुद्धि थती होय तेवी आशा पण केम राखी शकाय ? जैन पद्धति प्रमाणे ज्ञाननां बे फळ गणाय : पुण्यनी वृद्धि अने चित्तनी शुद्धि. निर्विवेक भणतर/ ज्ञान पुण्य बंधावी के वधारी आपे, पण शुद्धिनी वात तो लगभग वेगळी ज रही जाय एवं बने.
*
'संशोधन' ए ज्ञाननी एक एवी विधा छे के जेना अभ्यासथी चित्त बोझिल अने बधियार बनवाने बदले खुल्लुं अने विशाळ बनतुं जाय छे. चित्तशुद्धिनो अर्थज छे मननुं खुल्लापणुं अने आशयनी विशाळता.
संशोधन, शोधकने ज्ञानीमांथी विज्ञानी बनावे छे. विज्ञानीनुं मन हमेशां खुल्लुं होय; पोते शोध्युं, जाण्युं, स्वीकायुं ते ज आखरी सत्य एवं बधियार मन विज्ञानीनुं न होय, तेने पालवे पण नहि; ते तो क्यांयथी पण नवो-सारो विचार के संशोधन आवे तेनी प्रतीक्षामां होय, तेनो स्वीकार करवा द्वारा पोतानी खामीने
-
जो होय तो सुधारवाने तत्पर होय. 'कोई मारी भूल काढी ज न शके आवुं मिथ्याभिमान तेने कदापि न पालवे.
संशोधकने कदी पण पोतानी मान्यता प्रतिपादित के पुरवार करवानी नथी होती. तेने तो तथ्योनुं संशोधन उद्घाटन करवानुं होय छे, अने पछी जगत् समक्ष तेने प्रस्तुत करवानुं होय छे. पोतानी प्रस्तुति बाद, कोई जो तेमां क्षति जुए अने तेनी सामे रजू करे, तो ते सहुथी वधु राजी थतो होय छे, अने वास्तविक लागती क्षतिनो स्वीकार पण करतो होय छे. केमके तेनो अभिगम तथ्यपरक होय छे, मान्यतापरक नहि. ते मुक्त, तथ्यपरक विचारनो आशक होय छे, बंधियार मत-ममतनो नहि.
आपणे अहीं शास्त्र संशोधननी वात पण करवी जोईए. शास्त्रना अभ्यासी अने संशोधकने शास्त्रां, एटले के पूर्वसूरिओनां वचनो, प्रतिपादनो, मतो, विधानो, शब्दो माटे आग्रह होय - होई शके, परन्तु पोते विचारेली के स्वीकारेली बाबतो माटे तेने आग्रह न होय; तेवो आग्रह राखवो तेने पालवे पण नहि. तेवो आग्रहमताग्रह जो तेने होय तो तेने सत्याग्रही शोधक के अभ्यासी गणी न शकाय.
पोतानां विधान, प्रतिपादन के मत माटेनो तेनो आग्रह तेने कदाग्रही बनावी शके, अभिनिवेश भणी धकेली शके; अभिनिवेशने कारणे ते बीजानेबीजाना मतने वगर विचार्ये ज मिथ्या / अयोग्य गणतो थाय. संशोधन के सत्यशोधनना क्षेत्रमां आ वात एक खतरनाक अने हानिकर दोष बनी रहे.
साचो गवेषक या शोधक मध्यस्थ होय; ज्यांथी पण तत्त्व के तथ्य मळे तेनो अर्थी ग्राहक होय; तेनुं चित्त समतोल होय, पण 'स्व'मां तेमज 'स्व'नी स्वीकृत धारणामां बद्ध न होय.
आवा शोधक अथवा अभ्यासी ज तत्त्वज्ञ अने शास्त्रज्ञ गणाय. बाकी पठित-मूर्खोनो तोटो नथी. आवा शोधक ज चित्तशुद्धि भणी डग भरता होय छे, बाकी पुण्य, प्रशंसा, परिवारना व्यामोहमां फसाईने चित्तने बंधियार बनावीने जीवनारा ज ज्यां ने त्यां भटकाता होय छे.
आपणे साचा संशोधक बनवुं जोईए. ते न बनाय तोय मिथ्याभिमानी, स्वमताग्रही अने बंधियार मनवाळा न बनी जवाय तेनी काळजी तो करीए ज. अस्तु. शी.
-