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नवेम्बर - २०१४
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अनुसन्धान-६५
अथाग्रे मुमाईबिंदरवर्णनमाह ॥ दूहा : वचन सरल रसना प्रते, देति भगवति मात,
वचनामृत कविता प्रते, आई वसे मुख वास. १ हंसारूढ सितांबरा, कर धृत वीणा सार, सा वागेश्वरी मुझ दीओ, वांणी वचन श्रीकार. २ स्वयंभूरमणोदधि, मध्य वीसाल सुरंग, बिंदर एक सोहामणू, मुमाई सुवीचंग. ३ सकलराज सीर राजतो, अंगरेज माहाराज, सघले जग जस गाजतो, राज सवे माहाराज. ४ नगरसेठ तेहने वीसे, मोतिचंद अमूल,
खेमचंद सुत तासनो, राजे तस अनुकूल. ५ ॥ ढाल | वाल्हो वजाडे वांसलि रे, पेलि गोपियो वजाडे रंग ताल रे
रास रमाड्याजि - ए देशी ॥ श्रीफल फोफल सुंदरु रे काइ, दाडिम अरु जंबीर रे,
देव्ये (वें)द्रसुरी वंदिये रे [आंकणी] कदलीफल नारंगना रे काइ, वन गुहिरे गंभीर रे देवेन्द्र..... १ वनराजि तिहां अतिभली रे काइ, मोगर चंद कदंब रे देवेन्द्र...., बोलसरी मचकुंदना रे काइ, चारु सुरंभ सुअंब रे देवेन्द्र.....२ लंका नगरी समोवरु रे काइ, वप्र सोहे श्रीकार रे देवेन्द्र, पुरट्टाल सुभ श्रेण छे रे काइ, "बूर्ज अनुप उदार रे देवेन्द्र.....३ मुंमाई लंका समी रे काइ, जलमध्य छे दोय रे देवेन्द्र, देपूर गई लंकापुरी कांई, मुंमाइ बनी सोय रे देवेन्द्र.....४ दंड सोहे जस छत्रमा रे काइ, बंधन जास चीकूर' रे देवेन्द्र, पासा सारीमारमे रे काइ, एसे लोक प्रचूर रे देवेन्द्र..... ५ छिद्र सोहे उरहारमे रे काइ, करपिडन वीवाह रे देवेन्द्र, पर-अपवादमे मुक छे रे कांइ, एसे लोक 'कहाक रे देवेन्द्र....६ परछिद्र देखण अंध छे रे काइ, परधन हरवा पंग रे देवेन्द्र, एसी सेहर बडाइ हे रे कांइ, लोक वसंत सुचंग रे देवेन्द्र.... ७
श्लोक - नगरवर्णनम् ॥
सद्वीक्षपथ्यरम्याणि, कौतुकानि च भूरीष:(रिशः) । प्रवास -- वैधुर्य, पथिका विस्मरन्ति षः (?) ॥१॥ तद्वस्तु --- तत्र, प्राप्यते प्र(प)णभिः सदा । यत्कथास्वपि ---, तत्सर्वमपि वीक्ष(क्ष्य)ते ॥२॥ यत्र चक्राङ्गता हंसे, -- वस्वकुलक्षयम् । अरीष्टं सूती(ति)का गेहे, जने नैव कदा.. [चन] ॥३॥ यन्मृगाक्षी मुखाम्भोज-लावण्येन विनी(नि)जिता । तपतेऽत्रैव त्रपया, सरोजालिः सरोजले ॥४॥ धनी(नि)नां यत्र हमें(म्ये)षु, सदनेषु मनीषी(षि)णाम् ।
वर्द्धते श्री-सरस्वत्यो, मिथ: प्रि(प्री)तिर्गतागते ॥५|| || ढाल पुवली(?) ॥ ध्वज गाणे गुहिरे सदा रे काइ, चिहुं दि[ शि]ए भर्मत रे ...., मांनु सवि दुर्जन तणा रे काइ, जाणे मनहि मर्थत रे ..... ८ ममादेवी मातनु रे कांइ, भुवन सोहे उत्तंग रे तास नामे सर सुंदरु रे काइ, सरस सोभे सुविचंग रे .... ९ पुरमे न्यात चोरासि छे रे कांइ, छत्रिस राजकुलिस रे ...., लक्ष्मीदेवी जिहां वसे रे काइ, वालकेश्वर ईस रे .... १० रयणायर उपकंठमे रे काइ, गोदि छे अनुप रे ...., जहाज बने अति मोटका रे काइ, थंभ सुरूप सुकुप रे .... ११ चीन बंदीरमा नीत वहे रे काइ, धननी रोक अनेक रे ...., व्यापारी घणी जातिना रे कांइ, क्रय वीक्रय सुवीवेक रे .... १२ वर्ण अढार वसे तिहां रे काइ, नव नारु कारु जेह रे ...., तेणे नयणे सुखीया सदा रे कांइ, अन्योअन्यषु नेह रे .... १३ भक्तीवंत श्रा[व]क वसे रे कांइ, कुलाबेसु नीवास रे ...., जे नर जाई देखवा रे काइ, रोटि दालसु खास रे .... १४ प्रेमविजय सीस इम भणे रे कांइ, भव सकल सुवीसेस रे ...., भक्ती करो माहाराजनी रे कांइ, नीसुणी हु हरखेस रे ....१५