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नवेम्बर - २०१४
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अनुसन्धान-६५
त्रयोदशप्रकार चारित्रधरणधीरसमर्थान्, अर्कवत् तेजकान्, शशिवत् शीतलान्, सुमेरुवत् अचलान्, समुद्रवत् गंभीरान्, कंदर्पदेवसम मूर्तिवान्, विद्यावंत वयरसेनवत्, शीयलगुणे स्थूलभद्रवत् दृढः, सकलगुर(ण)विद्यानिधान, साधितसदाअष्टावि(व?)धान, महामुनीश, मुनिश्रेष्ठराय, भुवि भव्यजनान् भगवत् तुल्यभाय, पुरुषोत्तमप्रवरत्वं पुरुषसार, कलिकालमध्ये गौतमावतार, सरस्वती-कंठाभरण, वादीविजयलक्ष्मीशरण, विज्ञाताखिलपुराण, वादीकदलीकृपाण, निपुणश्रेणिशिरोमणे, कुमतांधकारनभोमणे, विजितवादीवृंद, वादीगरुडगोविंद, वादीनिखदमुखभंजन, विद्याविहितअनेकजनरंजन, ज्ञानरत्नरत्नाकर, महाकविकृतकवीश्वर, शिष्यीकृतबृहस्पते, विनतानेकनरपते, जीतानेकवाद, सरस्वतीलब्धप्रसाद इत्याद्यनेक बिरुदानि सकलनरलोकआलंबण आधारभूत, सर्व भवि प्राणी पक्षीरूपनो प्राग्वट समान, सकल महत् लोकनो तिलकायमान, सकलगछाधिराज, सकलगछमार्तडवद्द्योतायमान, सकलगच्छआभूषण, सकलभट्टारकपुरंदरभट्टारकजीश्रीश्रीश्रीश्रीश्री १००८ श्रीविजेंजैनेंद्रसूरीश्वरचर्णान्, चरणकमलान् चर्णाम्बुजेभ्यो नमः ॥
ऐश्वर्य इन्द्रतुल्यं नरपति तथा दिव्यसौन्दर्यमूर्ति, देवत्वं कल्पवृक्षं गणकुलसमं मेरुचन्द्रार्कबिम्बम् । योगीन्द्रो जैननाथो परमसुखदः सारदाकण्ठवासं,
प्राज्ञ: जैनेन्द्र श्रेष्ठं जगगुरुवरं प्रेमं नित्यं नमामि ॥ अथ सवैयो ॥३शा श्रीविजिनेंद्रसूरि राजत हैं जैनराजा, भाग्यबली भूप जेंसें सुरमें सुरेंद्रसो । तेजमें दिणंद तेम सौमवंत ज्युं शशि, गंभीर्यता गुणोदधि त्यु महिमें महेंद्रसो। दांनीमां करण दाखं ग्यान बुद्धिमां गणेश, ब्रह्म में अडिगवति मुनिमें मुनेंद्रसो। परंपरा वीरपाट थाट सदा घणे थोक, हर्षवंत दूजो हीर नरमें नरेंद्र सो ॥१|| वेद श्रुति वइयाकरणी पाठी पंचकाव्यको, ज्योतिष सिद्धांत गुणलायक छत्रीसको । निजशास्त्र परशास्त्र न्याय तर्कको निपुण, भाषा सब भेद ठानें आगम पेंतालीसको। कुराणको पुराणको राग कोक लिपि कलासामुद्रको, अंगलक्षण जाण हें बत्तीसको। जगगुरू जिनेंद्रसूर नायक मुनिनाथ मेरो, कर जोड प्रेम कहें दास हुँ अधीसको ।।२।।
जाकी छबि सूरतको विशाल देख मोहें स्रव' मार्नु द्रग मूरत ही कामदेव पेखीयें। जाका तप तेजको उद्योत मांनु सूरज सो अग्यानरूपी तिमर मोहभंजन उवेखीयें। जाके जग योगके आसन ही चौरासी नाम आहार दृढआसन इंद्री दृढ देखीयें। चौरासी गछनायकको नाथ हे जिनेंद्रसूर कहें कवि प्रेम नेम वंदित विशेषीयें ।।३।। मंत्र महा परम इष्ट वीर माणभद्र जाकें, चक्केश्वरी पोमावती अंबिका सहाय हैं। रक्षक हे गादीकें इंद्र जक्ष दिगपाल भवानी चौसठ मिली शंकटन् हसाय हे। समरें थें हाजर सदा जाकी हजूर रहें रातदीह आछे जाम अरिकुल ग्रसायहे। कहे कवि प्रेम सुणों राजा जिनेंद्रसूरि आछो तूं ईश मेरो दूजो कोंन भाय हें ॥४॥
अत्र श्रीथांदलानगरत: हुकमी, आज्ञाकारी, चरणरजरेणुसमानसेवक प्रेमविजय लिपिकृतं वंदणामेकसहस्र अष्टोत्तर १००८ त्रिकाल बंदणा अवधारसीजी। आप मोटा छो, कल्पवृक्ष छो, ईश्वर छो, धणी छो, सकलगुरु सद्गुण छो, मुझ सरिखा पतित सेवकनें श्रीश्रीजी साहिबानो दर्शन घणु दुर्लभ छ। जे दिवस श्रीजी साहिबांनो दर्शन करस्युं ते दिवस सफल गिणसुं । म्हारें तो रात्र-दिवस श्रीजी साहिबांनो ज स्मरण छ । हुं तो श्रीश्रीजी साहिबांना गुणनी तारीफ आगें तो सदा सुंणांज छां । पिण वले पं. रामविजयजीना मुख थकी सांभलीने घणो हर्ष घणो सुख पांम्यो छु । जिम कोईक रोगी तथा तृषाक्रांतथको अमृतपान करूं घणो सुख उपजें हुं तद्वत् सुखी थयो छु, तथा जलकमलवत् तथा जलमीनवत् । बीजुं हुं तो श्रीजी साहिबानां दर्शननी उत्कंठा घणी राखं छु. जो मालवदेशमध्ये श्रीमोक्षीपार्श्वनाथजीना दर्शन करवा सारु पधारें तो मझनें दर्शन थायें । पिण श्रीश्रीश्रीसाहिबांनो तो आववो अमारें दर्शनांतरायना योगर्ने माटें कठिन , ते वहिलो किम दर्शन थाय । अत्र दृष्टांत :- जिम कोई भरतक्षेत्रनो आर्यदेशनो ऊपनो जे जीव ते अनार्यदेशमें वसें तेहनें प्रभुनो दर्शन केहबुं दुर्लभ हुवें तिम मुझनें स्वामीनो दर्शन दुर्लभ छे, अने श्रीश्रीजी साहिबांने पासें रहे , तथा वांदें छे तथा वांणी सुंणे छे ते महाविदेहना वासी तद्वत जाणवां । घणो स्युं लिखें आप माहाराज छो, बहु जाण छो, हुं तो स्वल्पमति छु, अज्ञान छु । थोडें लिख्ये घणो कर अवधारज्यो. इण अरजदास्त में इधको-ओछो लिखांणो होवें तो गुन्होतकसीर माफ करसी । के 'गहिला-गुंगा-वावला' तोहि बंदा रावला' तथा 'बालक जदवा-तदवा बोलें मात-पिता मन अमृत तोलें' इति । अत्र लायक