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________________ नवेम्बर - २०१४ २२१ २२२ अनुसन्धान-६५ चाहत श्रीगुरुराज, दरशण अतिहें रढ लागी, अति मोद धरि चरणारविंद, वंदन चाहत गछपति, भल थाट जासु हियडे अधिक, ओच्छव करवा सुभमति. १ अथ मरुधरदेशवर्णन : दूहा : सकल राष्ट्र सिर सो[भ]तो, मुगटे मणी समान, मरुधर इसडो जांणीइ, उत्तम नरकी खाण. १ रूपें करी जिणे जीतीयो, अनंग तणो य रूप, कला बहुत्तरथी भर्या, इहवा पुरस अनूप. २ मदर्भित केइ मच्छरि, किते धर्मि धनवंत, गुणि ग्यानी पंडित भला, सूरवीर अरिहंत. ३ गोधुम-खाण अरु कुंपजल, वप्र-नंद उत्तंग, फागुण मासे इहां सही, वाजे अधिका चंग. ४ । कवित्त ॥ देश मरुस्तल अति उदार, जहां नर उत्तम खांणी, अति विशाल ओपत विशेष, जास मुख मधुरि वाणी, नारि रंभा जेम रतिहपति-रूप-वखांणी, भल थाट खान पान सुथीर जा सुधार ............... ......, मोद धरता सुखकरा, दीपत दशा दिशो विजयकर, देश भलो छ मरुधरा. ॥ अथ छंद - पद्धडी || जंगणांत ॥ सहु देशमाहिं अतहि दिपंत, मरुधरा देख हरखत संत, उलास धरत चउ वरण अंग, नही कदा जासु मनरंग भंग, सहु देश-सिरोमणि अधिक सोभ, जहां रहे सिद्ध धर ध्यान थोभ,८ रुजरहित निरमलो जस प्रकास, जहां नही वित्तचिंता उदास, जनपद लोक सुखीया वसंत, दुख-नाम न जाणे तहां रहंत, जहाँ बहुल वृक्ष अति सघन वाग, वाडी उदार लहता न थाग, पर्वत पाहाड अतहि फवंत तेह, अति उंचा तारागण अडेह. १ दूहा: इम वर्णन मरु देशना, छे अति युक्त उदार, राज करें इहां राजवी, राष्ट्रवंस मनुहार. १ इम कृत पूरव पाइ, इह भव राज्यपदभोग, तखतसिंघ इहां राजवी, करत राज्य तजि सोग. २ ॥ इति मरुधरवर्णनं ।। अथ राज्ञवर्णनं ॥ मल्यका छंद ।। राठोड की राखी टेक, तखते समान एक, लोक सव्व माने आण, शत्रू राखे तस काण, न्याये जाणे रामचंद, दुखीनको काटे फंद, शोभाको पार न पाय, रत्न कहें जीवो राय. १ ॥ अथ जोधनयरवर्णनमाह ॥ दूहा : सुंडाला तो समरतां, उपजे उकति अपार, गजल कहु जोधाण की, सुणज्यो सर्व संसार. १ नगर देश केई निपट, जगमां केता जोय, जोधाणो देख्यो जरे, होड न इण री होय. २ गजल कहु तीण री गुणी, अपनी मत्त अनुसार, दिठो जिसडो दाखस्युं, परतिख गुणह अपार. ३ कवित्त : जगजालिम जोधांण, सहर साराइ सिहर, तखतसिंघ महाराज, राज जिहां करे राजेश्वर, वरण अढार वसंत, सुखी इंदलोक समानह, अन्नधन्न धरां अपार, कदे दुखवात न मुख कह, गज-अश्वथाट वाजी बहु गुनी, नगर देख सुख उपजत नित्त, कीस्त गजल करीके कई, नरवर चित्त दे सुनहु नीत्त. १ ॥ अथ जोधनगरवर्णनगजल ॥ जोध ही नयर हे एसाक्, मानु इंद्रपुर जेसाक्, कहिये सिकल तिनकी केतीक्, अपनि बुद्ध हे जेतीक, कहता गुनह नावत पार, कहें अपनी मत्तके अनुसार, नृपति तखतसिंघ जिहां राज, करते सदा धर्म हि काज,
SR No.520566
Book TitleAnusandhan 2014 12 SrNo 65
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2014
Total Pages360
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size1 MB
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