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आ पत्र 'माणिक्यविजयना शिष्य' द्वारा लखायानुं पण मनायुं छे. परन्तु प्रतिमां 'माणिकससि' एवा अक्षरो सुस्पष्ट जोवा मळे छे, एटले एनो अर्थ 'माणिक्यचन्द्र' ज थई शके.
कविनी गुरु माटेनी भावनानी कक्षा ऊंची छे. केटलाक दूहामां काव्यचमत्कृति सुपेरे जोवा मळे छे. केटलाक समस्या दूहा पण छे, समस्या द्वारा ज गुरुनुं वर्णन छे; दा.त. दूहो १२, २९ इत्यादि. गुरुनां अंगोनुं वर्णन, गुरुना मिलन माटेनो तलसाट, पोताना एकपखा स्नेहना सन्दर्भे गुरुने गर्भित उपालम्भ, पोतानां पापकर्मनी गुह्य वातो गुरुने जणाववा माटेनी उतावळ, भवोभव आ गुरु ज मळो तेवी प्रार्थनापूर्वक गुरुने 'ईश' गणाववा सुधीनी भावुकता आ बधा भावोने आ दूहात्मक पत्रमां खूब मनभावन रीते कविए वर्णवी बताव्या छे, अने ए दृष्टिए पत्र माणवा जेवो छे. छेल्ले पूरवणीरूप वे दूहामां तो कवि, आपणां हैयांने पण भींजवी मूके तेवं कथे छे : "हे सज्जन ! (हे गुरुवर!) तमारामां गमे एटला गुण भले होय, पण आ एक अवगुण बहु खराब छे: तमे माणसना मनमां तमारा माटेनो स्नेह लगाड़ी दईने पछी (तेने आम वेगळो करीने) वगर हथियारे तेने मारी नाखो छो!" अर्थात्, तमे एवी माया लगाडी छे के हवे तमारा वगर रहेवुंजीववु, मारा जेवा माटे बहु कठिन थई पड़े छे !
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(४)
आ पत्रना लेखक कवि दर्शनविजयजी छे. 'आणसूरगच्छ' नामनी, तपगच्छनी शाखाना प्रवर्तक विजयानन्दसूरि उपर तेमणे लखेल आ पत्र छे. तेमां विजयसेनसूरि, तेमना पट्टधर विजयतिलकसूरि अने तेमनी पाटे आणंदसूरि एम क्रम कविए निर्देश्यो छे (ढाळ ३, कडी १-२ ).
नगरनुं, गुरुनुं वर्णन काव्यमय छतां चीलाचालु छे. ऐतिहासिक वातोनो संभार एमां नथी. एक ठेकाणे कर्ताए गच्छपतिने 'हीर'नी वाणीने अजवाळनारा गणाव्या छे (अजूआलि हीरनी वाणि) गच्छपतिना पिता साह श्रीवंत, अने वंश प्रागवंश (पोरवाड) होवानुं पण आमां नोंधायुं छे. मातानुं तथा वतनना गामनुं नाम नथी नोंधायुं. आ पत्र चैत्रमासमां लखायो छे, अने गुरुने 'सूरत' पधारवानी विनंतिना लेखरूप छे; पर्युषण, क्षमापना सम्बन्धित लेख नथी, ते ध्यानपात्र छे. पत्र १८ मा शतकनो गणाय.
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(५)
आ पत्र नानो छतां बहु मजानो छे. 'चन्द्राउला' नामे प्रख्यात छन्दनो विनियोग कविए गेय गीतरूपे ढाळरूपे कर्यो छे, ते एक नावीन्यपूर्ण काव्यप्रकार जणाय छे. प्रत्येक कडीनी चोथी पंक्तिनुं आवर्तन पांचमी पंक्तिरूपे थाय ए चन्द्रावलानी एक लाक्षणिकता होय छे. एक मध्यकालीन उदाहरण अहीं जोईए:
"केनो'क बाप हतो एक काणो, तेनी फूटल आंख तेनो दीकरो थयो देखतो तेने कहे तुं फोडी नाख
तेने कहे फोडी नाख तुं आंख, अने तारा बापानो चीलो राख कहे 'गोविंदराम' हरिनुं नाम वखाणो, केनो क बाप हतो एक काणो".
हवे प्रस्तुत पत्रमां प्रयुक्त 'चन्द्राउलानी देशी'नी एक कडी जुओ :
"पाटभगत छइ इहां तणो रे, सकल संघ निसिदीस रे, दरसण देइ पूरइ रे, प्रेमई तास जगीस,
प्रेमई तास जगीस वधारो, महिर करी मुनिराज पधारो,
सेवक जननई कांइ विसारो, हाथि ग्रहीनई पारि उतारो जी" (२)
जो के 'चन्द्रावला'नी बीजी लाक्षणिकता, प्रथम पंक्तिनुं आवर्तन अन्तिम पंक्तिरूपे थाय ए, आ देशीमां निभाववामां नथी आवी, ए पण लक्ष्यमां लेबुं घटे. कदाच एटले ज, आने शुद्ध पणे 'चन्द्राउला' न कहीने 'चन्द्राउलानी देशी' तरीके ओळखावी हशे.
पत्र फक्त २५ ज कडीनो छे, छतां तेना गानमय छन्दप्रयोगने कारणे बहु रसाळ बन्यो छे. कविनी वर्णनक्षमता पण दाद आपवी पडे तेवी छे.
गच्छपति विजयप्रभसूरि दक्षिणदेशनी विहारयात्राए गया छे. त्यां करहेड़ा(?), कलिकुण्ड, अन्तरीक्ष आ बधां पार्श्वनाथ तीर्थोने तथा माणेकस्वामी (कुलपाक) तीर्थने तेमणे जुहायां छे (२२-२३), ते वर्णवतां कवि एक ज वात कहे छे के हवे जलदी साहपुर-बीजापुर बाजु पधारो ! आमां गुरु-गुणनुं वर्णन तो बाळक जेवा भावथी उभरातुं थयुं ज छे, साथे काकलूदी पण छे, अने तेमां मराठी शब्दप्रयोग पण कवि करे छे: "सी अम्हची तकसीर ?' - अमे शो अपराध कर्यो ? (६)