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नवेम्बर - २०१४
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अनुसन्धान-६५
सूरिजी प्रत्ये मिलननी आतुरताने रजू करे छ । पत्रान्ते नागोरना श्रीसना चातुर्मासनी विनन्ति अवधारवा विनवी सङ्घमां पूज्य श्रीना पधारता थनारा उत्साहनु वर्णन करी खामणा खामी पत्र पूर्ण करे छ ।
प्रस्तुत पत्रनी रचना पण्डित मानसागरना शिष्य कवि रूपेन्द्रसागरे करी छ ।
शब्दार्थ
१. लरै = दबावे (?)
१६. अज्झ = आर्य २. मनमेर = मनस्मर-कामदेव १७. जझं = युद्धमा ३. कहांसत = कहेवावं
१८. दफै = नाश करे ४. ढूंक = अन्य शिखरो १९. धोंस = अवाज ५. ६ = धूवनो तारो
२०. उत = जाणे ६. सुपरे = सारी रीते
२१. तडिदाह = विजळी (?) ७. दिनथाट = घणा दिवसो सुधी २२. इत = अहीं (?) ८. पूरतंत्र = (तपना परम) तंत्रथी पूरा २३. सेल = एक प्रकारनो भालो ९. नूरजंत्र = रूपथी (जाहेर) अने २४. खांप = आभला यंत्रमा (निपुण)
२५. अरकीयो = अटकीयो - अट्क्यो १०. कूरहंत्र = क्रूर (कषायने) हणनार २६. गर = घरे ११. अनड = अनम्र
२७. नीराट = नौरांत १२. कुंगर = कांगरा, शिखर २८. अवरक = आ वखते १३. भुरजा = किल्लानी उपर तोप २९. उप्रं = उपर
गोठववा माटे तैयार करेली जग्या ३०. द्रसीटी = दृष्टि १४. समस = मत्ससहितनुं (?) ३१. आयद = याद १५. झडां = ?
श्रीजिनाय नमः । श्रीमाणभद्रवीराय नमः ॥ अथ चित्रलेख प्रारभाते॥ ॥ प्रथम आदिजिन स्तुतिकाव्य ॥
स्वस्तिश्रीआदिदेवं चरणयुगलं प्रणमंति नित्यं नराः, वृषभ हि लज्छन काय कञ्चन समं अद्भूतकान्ति जिना । रोग हि सोग उचाट आपददलं गमयन्ती तत्पर सदा,
भव्य ही जीव जू तारणं तु शरणं देवाधिदेवं नमः. १ ॥ शांतिस्तुति सवईयो २३सो ।
शांत ही नाथ सदा सुखदायक लायक केवलज्ञान संपूरो, ओच्छव देव जू सेव करे नित ताल मृदंग ही तूरो, जाहि भज्या सुख होत हे जीवकू जावत दुखारु दालिद्र दूरो,
हथणापुरराज कीये ध्रमकाज पछै ग्रह्यो संयम मारग सूरो. २ ॥ नेमिस्तुति सवैईयो २३सो ।
नेम ही देवकी सेव करुं नित चित्तमे धार वडी चतुराई, राजल नारकू त्याग करै ध्रमध्यांन धरै लरै कर्म कषाई, स्याम शरीर बन्यो जिनको तिनको लच्छन शंख शिवादेवी माई,
बालपने ब्रह्मव्रत धर्यो ज्यूं कर्यो मनमेर कुं मीनह कांई. ३ ॥ अथाग्रे पार्श्वनाथस्तुति काव्य - छप्पय ॥
प्रणमुं देव जिन पास, आस पूरै प्रभु अहोनिशि, कमठदलन किरपाल, वले लंछन जिनधरम-विस, सैहसफणा-शिरछत्र, शत्र भाजै तिह समरत, नीलवरण जगशरण, सदा दुख हरत कहांसत, झिगमिग ज्योति तिनकी जगत, देवऋद्धि सिद्धि निद्ध दीयें,
पूजीयां पाप कटत हैं, प्रबल पार्श्वनाथपद प्रणमीयें ४ ॥ महावीरस्तुति ॥ छंद - अडि[य]ल्ल ॥
वर्धमान चित्त आन विबुधवर, निज पद अभैदेत तोकू नर, इंद ही चंद नरिंद नमत नित, वंद ही चरन हरन दुख सतवत. १