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________________ नवेम्बर - २०१४ २३१ २३२ अनुसन्धान-६५ रल परे मुनिगण विषे, रत्नविजय जयकार, सूत्र नियुक्ति फकिका, जाणे कर्मप्रकार. २ इणहि नामसुंजाणीइं, जाके ज्ञान अपार, श्रीसंघ वंदे उभयकुं, लेज्यो तेह सकार. ३ दप्तरधर अमृतविजय, वाणी अमृत जास, बुद्धे अधिका जाणीई, मोतिविजय प्रकास. ४ असनविभाग करे सही, दानविजय ध्रमधार, लक्ष्मीविजय लखण अधिक, हेतविजय सुखकार, ५ भगवानविजय जयकरु, इत्यादिक मुनि जेह, तिणकुं श्रीसंघसुभटको, वंदन भाव करेह. ६ ॥ इति समस्तगीतार्थानां वंदणा ॥ चोपड़ : सकल गुणे करी राजे तेह, मेरु ओपम जेहने देह, मल्ल शब्द अग्रिम जब थाय, परतिख तेहनु नाम कहाय. १ करे संघ तेहने परणाम, हवे दिक्षायें वंदन स्वाम, रत्न करे नित ताकुं याद, अहनोदकें हवे शब्द विदाय. २ ॥ छंद - मोतीदाम ॥ रहे चोमास लही तुम आण, कलाणविजे तसु सत्क वखाण, प्रमोदविजे पटधार कहाय, करा नीत वंदन सूरिय पाय. ३ ॥ छंद - पद्धडी ॥ शिवधन हि मत्त, पुन हे हमीर, विजय जोडी, करीये सधीर, संज्ञा प्रतक्ष, ए च्यार थाय, कहे रत्न, नमे तुम्ह पाय. १ श्लोक : आग्रहात् सर्वसङ्घस्य, व्यलेखीत् पत्रमद्भुतम् । श्रीमद्देवेन्द्रसूरीणां, पादपद्येषु ढौकनम्. २ बाल्यबुद्ध्या च रत्नेन, शुद्धाशुद्धं च यद्वचः । तस्य क्षमतु हे स्वामिन्!, ममैव चर्मचक्षुषा. ३ रसचन्द्राङ्कभूमाने-ऽब्दे (१९१६) तपस्येऽर्जुने दले । पञ्चम्यां कर्मवाट्यां हि, रवी लेखो लिपीकृत[:]. ४ ॥ इति ॥ ॥ श्री पार्श्वनाथजी ॥ स्वस्ती श्रीओमदावाद सुभ सुथाने, सरबओपमाविराजमाने, अनेकओपमालायक ००० इतादीक सूरी छतीस गुणे करी विराजमान भटारकजी श्रीपुरंदरभट्टारकजीश्रीश्री श्रीश्री १००८ श्रीश्रीवीजयदेवींदसूरीश्वरजी...... कर चणकुमलायसु जोधपुरथी लिखत समसत सिंघ लिखावतु वंदणा १००८ वार अवधारसीजी। अठा रा समाचार श्रीजी रा तेज प्रतापसुकर भला हे। श्रीजी सायबा रा दीन-दीस घडी-घडी पल-पल रा आरोग्य चाहिजे। आप रा सरीर रा खान-पान रा जतन करावसीजी । जतन तो श्रीअदीष्टायकजी म्हाराज करसी परंतु श्रीसिंघने तो लिखीयो चाहिजेजी । अपच श्रीसिंघने आपने वांदवा री घणी अभिलाषा छे. सुजे दिन दरसणावेरणी वेदी जसे अंतरायपटलसे तीण दीन आपका दरसण.... सी । मनमे तो अभिलाषा बोहत वाग रही है । जीण दीन चरणारवीद आप रा भैटसु सो दीन कोड दीवाकर उदे हवो जाणसी । आपका गणग्रांम करता पार हवे न्ही सायर अथाग थाको थाग दिनकं समरथा किनही आपतो सायर समान गुणां सुकरने संपूरण भर्या छौ । आपके सोभागुण दीसोदीस व्यापी रही छे। तेजकी पासनासे भवी जीव मगन आनंद पाम रहे हैं । आपतो वडा उपगारी सोम मूरती, धीरजवंत, मेरु सम अचल, चंद्र सम सितल, गंगाजल सम निरमल, पय समांन उजल, फिटीक रत्न सम क्रांत, अंधकारभंजन, अष्टकरमरिगंजन, कुमतीदलभजन, किजा-अनुष्ठान-ध्यान-ग्यांनमुद्रा-आसनरंजन भविकजीवकुं उपगार करण अभयपद देनकुं दजाल हो । अग्यांनी अविवेकी जीवकु उनमत सुभावी जीवकुं माही वडे गोप..... । संसार माहे भवीक जीव मोह, अंधकार, क्रोध, मछर, उदवेगसे करके बुड रहै है तीनकुं उधरणेकुं आलबन आधार जीहाज समान हो । कुमती कुटल विसन सातरूप माहारज ताकुं दुर करनेकु वायु समान हो । ओर केते जीव संसारमे करम पूंढके रहे है तिनकु नवपल्लव करनेकु पुसकरावत मेघ समान हो । दया प्रणांमसु सरव संसारी भवी जीवकुं हीत उपदेस देशना इमृत वाणी त्रिपू कर रहे हो । चवदे हजार मुनीश्वरमाहे वीराजके भुयमंडल पृथवीपे वीहार करते पावन पवित्र करता थका दिश नगरमांहे भवी जीवके कारणे समकित हेतु उद्योत कर रहा हो । धरममहि राजेश्वर सुरीराज वीचर रहा हो । इत्यादिक
SR No.520566
Book TitleAnusandhan 2014 12 SrNo 65
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2014
Total Pages360
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size1 MB
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