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नवेम्बर - २०१४
अनुसन्धान-६५
जिनाज्ञापालने दक्षः, गच्छरीतसुधारकः । क्रोधशत्रुवंशनन्तं, षड्त्रिंशद्गुणभूषितः ॥२॥ सर्वशास्त्रप्रवक्तारं, भेत्तारं कर्मविद्विषाम् । माया-मोहप्रजेतारं, धा(ध्या)तारं परमं पदम् ॥३॥ ज्ञानदीपप्रदातारं, षट्कायप्रतिपालकम् । अबोधस्य बोधदत्तं, जीवनाख्यं नमाम्यहम् ॥४॥
परम दयाल, वचने रसाल, जशवान्, कीर्तिवान्, सौभाग्यवान्, जि(जी)य कोहे, जीय माणे, जीय लोभे, जीय माये, जीप परिसहे, जीय इंदिये, ध्रुवनी परे अचल, मेरुनी परे अकंप, सूर्यनी परे तेजवंत, चंद्रनी परे सौम्यवंत, कमलवत् निलेप, इत्यादि अनेकोपमायुक्ताणां षड्त्रिंशद्गुणैविराजमानान्, श्रीजिनशासन-उद्योतकारक, धन्य ते राजा, राणा, जुवराज, ईश्वर, माडंबी, कोडंबी, श्रेष्ठ, सेनापति, इभ्य, विवहारीया जे श्रीश्रीपूज्यजीना चरणारवृंद वांद्या अनै वांदै ते धन्य । धन्य ते श्रावक, धन्य ते श्राविका जे श्रीपूज्यजीनी अमृतमय निरंतर देशना सांभलै । पोसह पडिक्कमण करै । व्रत पच्चखांण करै । देशव्रत उच्चरै। पपासना करै ते धन्य । श्रीश्रीपूज्यजी समस्त जीवना हितकारक, करुणासागर इत्यादि. दूहा : श्रीश्रीश्रीश्री अति घणी, एकसो आठ धरान्,
श्रीविजयजिनेंद्रसूरीश्वरू, सपरिवारचरणान् ॥ ॥ अथाने मरुधरदेशवर्णनमाह ॥ दूहा : मरुधर देश लच्छी भर्यो, ठावौ सुखनौ ठोड,
मरुधर तेण सराहिये, अनमी जिहां राठोड. १ सकल गुणें करी सोभतो, सर्व गुणे सिरदार, सकल देसदेसां सिरै, मरुधरमंडल सार. २ मोटा मोटा इहां किणे, सेहर वडा सोभंत, इंद्रपुरी जिम ओपमा, वर्ण च्यार विलसंत. ३ योधांणे नगराधिपति, मानसिंह महाराज, राजवियां सगलां सिरै, बुद्धि सुधारै काज. ४
सूरवीर क्षत्री सबल, क्षा(ख्या)ग त्याग निकलंक, योधासिर अनमी अधिक, जीपण मोटा जंग. ५ भाग्यबली मोटो मणि, अमली बांण-अभंग,
सुभटपुराधिप मोटको, जीपण वडो खतंग. ६ ॥ अथ नृपवर्णनम् ॥ छंदजाति - त्रोटक ॥ भल देश जु भूपति मांन भणं, वपु ओप प्रचंड अधिक वणं, कहू रूपप्रकास सुवास किस्यौ, जगजं[जां]ण गुं कृष्णकुमार जिसो. १ खल खाग ग्रहे कर दुष्ट खंडे, मुख आगल शत्रव को न मंडै, तरवार अपार वहै तिणरी, जस-कीरत फेल रही जिणरी. २ सुभट ही थाट दुर्वार सदा, कवि चारण भट्ट "कुमी न कदा, अश्व गज ही रथ अपार जयं, जाचक शब्द जुं बोल जयं. ३ तेज ही जूं प्रताप अखंड तपै, क्रांति देखत सूर ही वीर कंपै, जग-जेठ वडा उमराव जिकै, तव कीरत-वीरतमान तिकै. ४ ॥ अथ योधांणनगरवर्णनम् ॥ दोहा : समरूं गणपतिने सदा, धरूं ध्यान चित्त धार,
जपूं गजल योधा तणी, निपट सुणो नर-नार. १ कवित्त : जग-जालिम योधांण, सहर सारा सिर सोहै,
बाग वाडी विशेष, मनुष्य देखै मन मोहै, अन धन बहुला अधिक, वाज गज अधिक विराजै, सूर-वीर नर "सकज, छिब इधकी तिहां छाजै, वर्ण ही च्यार सुखीया वसै, वदै मुख अमृत-वांण री,
कवि देख जिसडी कही, जुगत इसी योधांण री. २ । तो चाल गज्जल ॥
मुरधर देश है मोटाक्, तिहां नही "काहिका तोटाक्, जिसमै सेहर है जोधांण, वर्गु ताहि मिष्ट ही वान. १ महिपति मानसिंघ महाराज, सब ही भूपमै सिरताज, डंका वाजते दश-देश, खल ही खग्ग ग्रहि दियै “खेस. २