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________________ नवेम्बर - २०१४ ११६ अनुसन्धान-६५ मांहै ज साधु वड है महंत, तप-तेजवांन ध्रमजान-तंत, हाकम हवेली वणी है जु हद्द, वरणवै लोक वाह-वा जु वद्द. २८ अन्नेक वापी कूप है अपार, पेखतां नरह पावै न पार, वलि है जु बाग वाडी विसेष, दुनियां जु आय तिनकुंज देख. २९ धरमहपुरा जु तिहां वटधांम, नीरद्धी सप्त लगी कीय नाम, वलि अपर कीर्त देशह विदेश, चित चाह दांन देते हमेस. ३० जीवा "डरांक केते जगत्त, वड धन्य नरह “वांटै सुभट्ट, कोटवालि "चूतरा कोटवार, अद्दल्ल न्याव(य) करते अपार. ३१ हासल्ल लेत सायर हमेस, "कच्चेडी काम करते विशेस, जिहां "खांप च्यार बहु चतुर जान, वखत हि विलंद बुधके निधान. ३२ महाजनह अन्य जिहां मंदिरवांन, देते जु अहोनिस अभैदान, देवतरूप तिहां विप्र देख, वेदह पुरांण पढते विसेष, ३४ सूभट्ट थट्ट जिहां है जू सूर, "रिणमांझ अश्व देते जू ऊर, बहु ग्यांन ध्यान कायस्थ कुबुद्धि, सद्भावशक्ति पूजत सुसुद्धि. ३५ षडतीस पोन वसत है खास, मदमस्त रहत ही बार मास, सेवग समर्थ प्रभू करै सेव, देवी "सपूज के अन्य देव. ३६ बाहिर जू कितेक मठांन बोल, इषो जू चित्त आंणीइ लोल, चावी जू देवी चामुंड माय, सेव्यां जू शक्ति करते सहाय. ३७ शीतला मात हनुमान हेर, फब रहै शिव ही भूतेश फेर, गोरा जू श्याम खेतल गिणंत, वंका जू देव नरसिंघ वर्णत. ३८ जनवडे पीर दरगह सुजांन, के ते जु जवन पढते कुरांन, सखर ही वडे मुर ही जू साच, वड नरह कीतै कहै मुखा वाच. ३९ गुणवंत देव मोटो गणेश, हित करह नरह पूजत हमेस, अस्थलह मठ केते अपार, नितमेव आवते नरह नार. ४० सब ही जू नमत कायर जू सूर, पूजा जु होत है भरह पूर, वरण्या जु नगर का जू वखांन, मेरी जु मत्तकै उन जु मान. ४१ भूल ही जू चूक पारे है जु भंत, सुकवि सुधार लेज्यो जू संत, संवत अढार छीहंत्र (१८७६) साच, फाल्गुनह मास शुद पक्ष वाच. ४२ पूनम जू तिथकै दिनह पेख, दुरस ही जू छंद कीनी है देख, तपगछ सदा मोटो जू ताम, गुरराज मनोहरविजय नाम. ४३ सही तिहां देवसूर ही जू साख, भल कवि शिष्य राजिंद भाख, सीखै जु सुण पावै जु सीख, दिन दिनह टलत दालिद दुख. ४४ ॥ कलस ॥ कवित्त छप्पय ॥ वद्यो छंद गुनवंत, भला कवि तिण मन भावै, रीझै राव ही रांण, सुणै नर अवर सरावै, भाव अवल बहु भेद, वेद वाचै सुवखांणे, चारण भाट हि चतुर, जिकै गुण बोली जाणै, सोझाली नयर वरनी सुकवि, जे जे छोड हूंति जिती, सुण श्रवण साच मांनो "सको, तवै कीर्ति तिणरी किती. १ ॥ इत्यादि छंद पद्धडी संपूर्णम् ॥ अथाग्रे श्लोक लिख्यते ॥ नित्यं ब्रह्म यथा स्मरन्ति मुनयो हंसा यथा मानसं, यद्वच्च स्फुटशिल्लिकावनगजा ध्यायन्ति रेवानदीम् । तद्वदर्शनलालसाः प्रतिदिनं युष्मान् स्मरामो वयं, धन्य कोऽपि स वासरः यदि भवेत्(द्) यत्राऽऽवयोः सङ्गमः ॥१॥ यच्चिन्तन्ति मयूरपावसऋतुं हंसाऽपि मानासरं, यच्चिन्तन्ति ---तत्प्रगुणितं मातङ्ग बन्ध्यं वनम् । पाकश्चिन्तति याति सूर्यवदनं मीनो जलं चिन्तयेत्, तद्वद् चिन्तति अहर्निशं गुणनिधीत्वद्दर्श वञ्च्छामहे ॥२॥ यथा स्मरन्ति(ति) गौ वत्सं ० ॥३॥ दीपो तेलं यथा ध्यात्वा त्पयं (पयः) चाहन्तु चातक(:)। तथाऽहं सर्वदा चित्ते-ऽव्ययं(य!) ध्यानं(न)अ(म)हनिशम् ॥४॥ वारंवारीमयं चिन्ता, वारंवारमियं कथा। युष्माकं दर्शनोत्कण्ठा, नेत्रयोः केन पूर्जयेत् (पूरयेत्) ? ॥५॥ प्रीतिलते पद्मदयालवल्ले, सस्नेहवाक्यामृतसारिणीभिः । अहो(ह)निशं पूज्य ! तथाऽभिस(सि)ज्च्या(द) यथा च सा पल्लवसालिनी स्यात् ।।६।।
SR No.520566
Book TitleAnusandhan 2014 12 SrNo 65
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2014
Total Pages360
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size1 MB
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