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दयाप्रधान होय करि दान द्यो । भावार्थ- कोऊ कृपणबुद्धि या लक्ष्मीकूं संचय करि थिर राख्या चाहै ताकूं उपदेश है । जो लक्ष्मी चंचल है, रहने की नाहीं, जेते थोरे दिन विद्यमान है, तेते प्रभुको भक्तिनिमित्त तथा परोपकारनिमित्त दानकरि खरचो तथा भोगवो । इहां प्रश्न- जो भोगने में तो पाप निपजै है । भोगनेका उपदेश काहेकूं दिया ? ताका समाधान-संचय राखने में प्रथम तौ ममत्व बहुत होय तथा कोई कारण करि विनशै तब विषाद बहुत होय । श्रासक्तपणे कषाय तीव्र परिणाम मलिन निरंतर रहे हैं । बहुरि भोगने मैं परिणाम उदार रहैं, मलिन न रहैं । उदारतां भोग सामग्री खरचै, तामें जगत जन करें। तहां भी मन उज्जल रहै है । कोई अन्य कारणकार विनशै तो विषाद बहुत न होय इत्यादि भोगने में भी गुण होय हैं । कृपणकै तौ कछु ही गुण नाहीं । केवल मनकी मलिनताको ही कारण है । बहुरि जो कोई सर्वथा त्याग ही करें तो ताकौं भोगने का उपदेश है नाहीं ।
जो पुण लच्छि संचदि ण य भुंजदि णेय देदि पत्तेसु सो अप्पाणं वंचदि मणुयत्तं णिष्फलं तस्स ॥ १३ ॥
भावार्थ - बहुरि जो पुरुष लक्ष्मीको संचय करै है, प्रात्रनिके निमित्त न दे है, न भोगवे है, सो अपने आत्मा को ठगे है । ता पुरुषका मनुष्यपना निष्फल है वृथा है । भावार्थ - जा पुरुषने लक्ष्मी पाय संचय ही किया । दान