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श्रीसूत्रकृताङ्गसूत्र
प्रथम श्रुतस्कंध की प्रस्तावना
नलिकादिना व्यवच्छिद्य व्यवस्थाप्यते, तद्यथा षष्ठ्युदकपलमाना घटिका, द्विघटिको मुहूर्तस्त्रिंशन्मुहूर्तमहोरात्रमित्यादि तत्कालकरणमिति, यद्वा यद् यस्मिन् काले क्रियते, यत्र वा काले करणं व्याख्यायते तत्कालकरणम् । एतदोघतः, नामतस्त्वेकादश करणानि ॥ १० ॥ नि० ॥
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अब नियुक्तिकार कालकरण बताने के लिए कहते हैं
काल भी मुख्यरूप से नहीं किया जा सकता है, अतः औपचारिक कालकरण बताते हैं
नलिका आदि यंत्र के द्वारा मापकर घटिका आदि जो कालबोधक पदार्थ बनाये जाते हैं, वह कालकरण कहलाता है । जैसे साठ पल की एक घटिका होती है और दो घटिका का एक मुहूर्त होता है और तीस मुहूर्त का एक रात दिन होता है । इसी का नाम कालकरण है । अथवा जिस काल में कोई वस्तु की जाती है अथवा जिस काल में करण की व्याख्या की जाती है, वह कालकरण है । यह ओघ (सामान्य) रूप से कालकरण कहा गया परंतु नाम से ग्यारह करण होते हैं ||१०||नि० ॥
तानि चामूनि - "बयं च बालवं चेव कोलवं तेत्तिलं तहा । गरादि वणियं चेव विट्ठी हवइ सत्तमा ॥ ११ ॥ नि० सउणि चउप्पयं नागं किंसुग्धं च करणं भवे एयं । एते चत्तारि धुवा, अन्ने करणा चला सत्त ॥१२॥ नि० चाउद्दसिरतीए सउणी पडिवज्जए सदा करणं । तत्तो अहक्कमं खलु चउप्पयं णाग किंसुग्घं ॥१३॥ नि०
2 एतद्गाथात्रयं सुखोन्नेयमिति ||११|१२|१३|| नि०
वे करण ये हैं- बव, बालव, कोलव, तैतिल, गर, वणिक, विष्टि (भद्रा) शकुनि, चतुष्पद, नाग, किंसुग्घ ये ग्यारह करण होते हैं । इनमें पीछले चार ध्रुव और अन्य सात चल हैं । चतुर्द्दशी की रात में शकुनि नामक करण सदा वर्जित करना चाहिए और त्रयोदशी को चतुष्पद, द्वादशी को नाग और एकादशी को किंसुग्घ वर्जित करना चाहिए | ११/१२/१३ || नि०||
इदानीं भावकरणप्रतिपादनायाऽऽह
भावे पओगवीसस, पओगसा मूल उत्तरे [रं] चेव । उत्तर कमसुयजोवण वण्णादी भोअणादीसु ॥ १४ ॥ नि० भावकरणमपि द्विधा-प्रयोगविस्त्रसाभेदात् । तत्र जीवाश्रितं प्रायोगिकं मूलकरणं पञ्चानां शरीराणां पर्य्याप्तिः, तानि हि पर्याप्तिनामकर्मोदयादौदयिके भावे वर्तमानो जीवः स्ववीर्य्यं जनितेन प्रयोगेण निष्पादयति । उत्तरकरणं तु गाथापश्चार्धेनाऽऽह-उत्तरकरणं क्रमश्रुतयौवनवर्णादिचतूरूपम्, तत्र क्रमकरणं शरीरनिष्पत्त्युत्तरकालं बालयुवस्थविरादिक्रमेणोत्तरोत्तरोऽवस्थाविशेषः, श्रुतकरणं तु व्याकरणादिपरिज्ञानरूपोऽवस्थाविशेषोऽपरकलापरिज्ञानरूपश्चेति, यौवनकरणं कालकृतो वयोऽवस्थाविशेषो रसायनाद्यापादितो वेति । तथा वर्णगन्धरसस्पर्शकरणं विशिष्टेषु भोजनादिषु सत्सु यद्विशिष्टवर्णाद्यापादनमिति, एतच्च पुद्गलविपाकित्वाद्वर्णादीनामजीवाश्रितमपि द्रष्टव्यमिति ||१४|| नि०||
अब भावकरण बताने के लिए कहते हैं
प्रयोग और विस्रसा भेद से भावकरण भी दो प्रकार का होता है । इनमें जीव के द्वारा प्रयोग से उत्पन्न मूलकरण, पाँच शरीरों की पर्याप्ति है क्योंकि औदयिक भाव में वर्तमान जीव, पर्य्याप्ति नाम कर्म के उदय से अपने वीर्य्य से उत्पन्न प्रयोग के द्वारा पाँच प्रकार के शरीरों को बनाता है ।
अब गाथा के उत्तरार्धद्वारा उत्तरकरण बताया जाता है । क्रम, श्रुत, यौवन, और वर्णादि भेद से उत्तरकरण
1. थीविलोयणं प्र. । 2. पक्खतिहिओ दुगुणिआ दुरुवहीणा य सुक्कपक्खमि । सत्तहिए देवसियं तं चेव रूवाहियं रतिं ||१|| इति गाथानुसारेण करणयोजना ४x२=८ - २.६ (विष्टि ) + १ = ७ ( वणिक् ) = १० =२-२० =६ + १ =७ ( व. वि.) । ये तीन गाथाएँ चूर्णि में मूल में नहीं हैं ।
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