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सागारधर्मामृत गवाद्यैर्नैष्ठिको वृत्ति त्यजेद् बन्धादिना विना । भोग्यान् वा तानुपेयात्तं योजयेद्वा न निदेयम् ॥१६ न हामीति व्रतं ध्यन् निर्दयत्वान्न पाति न । भरक्त्यनन देशभङ्गाणात् त्वतिचरत्यधीः ॥१७ सापेक्षस्य व्रते हि स्यादतिचारोंऽशभञ्जनम् । मन्त्रतन्त्रप्रयोगाद्याः परेऽप्यूह्यास्तथाऽत्ययाः ॥१८ रखना चाहिये जो बंधके बिना ही रह सकें। वध-बेंत और चावुक आदिसे मारना वध कहलाता है। दुर्भावोंसे बेंत वगैरह मारना अतिचार है । यदि कोई आश्रित विनय न करता हो, तो उसे इस ढंगसे चाबुक मारना चाहिये जिससे उसके मर्मस्थानोंको आघात नहीं पहुँचे तथा लता व डोरीके चाबकसे एक दो बार हो ताड़ना देना चाहिये। इसके विपरीत करनेसे यह भी अहिंसाणुव्रतका अतिचार होता है। छेद-शरोरके नाक, कान वगैरह अवययोंको खोटे भावोंसे निर्दयता पूर्वक काट डालनेको छेद कहते हैं । वैद्य या डाक्टर स्वास्थ्यको रक्षाके लिये सान्त्वना देते हुए रोगीके अवयवों का छेद करता है किन्तु उसको भावना खोटी नहीं रहतो। इससे वह अतिचार नहीं है। अतिभारादिरोपण-जो प्राणी जितना बोझ लाद सकता है, उससे अधिक लादना ढोना अतिभारादिरोपण नामका अतिचार है। उत्तम बात तो यही है कि श्रावक सचेतन प्राणियोंके ऊपर बोझ लादकर आजीविका ही नहीं करे । कदाचित् करना ही पड़े तो मनुष्य पर इतना बोझ लादे जिसे स्वयं लाद सके और उतार सके तथा योग्य समय पर उसे छुट्टी दे। चौपायों पर भी बोझ उनकी शक्तिसे कुछ कम लादे। हल वा गाड़ी वगैरहमें जानवरोंको जोतते समय उन्हें उचित समय पर छोड़ने और विश्राम देनेका ध्यान रखे अन्यथा अतिचार लगता है। भुक्तिरोध-दुर्भावोंसे अन्न पानके रोक देनेको भुक्तिरोध कहते हैं। बिना भोजनके प्राणी मर जाते हैं। इसलिए अपराधीको भय दिखानेके लिए "तेरे लिए भोजन नहीं दिया जावेगा" इस प्रकार वचनसे भले ही कहे, परन्तु समय पर उन्हें भोजन अवश्य देवे । शान्तिके लिए उपवास करना अतिचार नहीं है। जो आश्रित अपराधी वा रोगी है, उसको अन्न नहीं देना हित तया स्वास्थ्य की दृष्टिसे लाभदायक है। इस अहिंसाव्रतकी रक्षाके लिए मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, इर्यासमिति, आदान-निक्षेपण समिति और आलोक्तिपानभोजन इन पांच भावनाओंका यथाशक्य पालन करना चाहिए ।।१५।।
नैण्ठिक श्रावक गौ, बैल आदि जानवरोंके द्वारा अपनी आजीविकाको छोड़े अथवा यदि इस उत्तम पक्षको स्वीकार करने में असमर्थ हो तो भोग करनेके योग्य उन गौ आदि जानवरोंको बंधन, ताड़न आदिके विना ग्रहण करे, अथवा यदि यह मध्यम पक्ष भी स्वीकार करने में असमर्थ हो तो निर्दयतापूर्वक उनका बंधादिक नहीं करे। भावार्थ - नैष्ठिक श्रावक गाय, भैंस आदिसे आजीविका नहीं करे। गाड़ी रखना, बैल लादना, हल जोतना इत्यादि रूपसे आजोविका नहीं करे । कदाचित् दूध-दही खाने, लादने, ढोने और जोतने के लिये जानवरोंको पाले तो उन्हें बांधे नहीं, यदि बाँधे तो निर्दयतापूर्वक नहीं बांधे ॥१६॥ क्रोध करनेवाला अज्ञानी पुरुष दयारहित होनेसे अहिंसाणुव्रतको पालन नहीं करता है और जीवोंको साक्षात् नहीं मारनेवाला वह अहिंसाणुव्रतका भङ्ग भो नहीं करता किन्तु व्रतके एकदेशका भग तथा एकदेश को रक्षा करनेसे अतिचार लगाता है। भावार्थ-क्रोधी व्यक्ति जब किसोको कससे बांधने आदिमें प्रवृत्त होता है तब उसके दयाका अभाव होनेसे अन्तरंगमें तो अहिंसाब्रतका सच्चा पालन नहीं हो रहा है, परन्तु जीवको वह बाँध रहा है, साक्षात् मार रहा है, इस प्रकार एक दृष्टिसे भंग और एकदेश पालन होनेके कारण बंधादि करनेपर अतिचार दोष x लगता है ।।१७॥ व्रतमें.
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