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प्रश्नोत्तरवावाचार जिनैः प्रमादचर्यापि प्रमाववशतिनाम् । उत्सर्गात्पनभेदं चानयंदण्डं तं मतम् ॥२७ तिर्यगहस्त्यश्वबन्धादी क्रयविक्रयकारणे । सत्यहिंसादिके कृष्यारम्भावौ वनाविके ।।२८ विवाहविषयेऽसत्यस्तेयावौ च परिग्रहे । कुदेवे कुगुरौ पापमिथ्यात्वाविप्रप्रेरणे ॥२९ गृहव्यापारसावचे सद्धर्मादिनिवारणे । द्रव्यार्जननिमित्ते च प्रवृज्यादिनिषेधने ॥३० दीयते प्रोपदेशो योऽन्येषां वा बुधैर्नरः । पापोपदेश उक्तोऽयं जिननाथेन पापवः ॥३१ शठः पापादियुक्तो य उपदेशोऽत्र दीयते । निरूपितः बुधः पापोपदेशः सकलोऽपि सः ॥३२ मुक्त्वा धर्मोपदेशं च हितं स्वस्य परस्य च । न दातव्यो बुधैः पापोपदेशो दुःखसागरः ॥३३ यतः करोति य पापमुपदेशं ददाति यः । अनुमन्ये तयोर्मूढः सर्वेषां तद्भवेद ध्रुवम् ॥३४ तस्मात्त्वं कुरु भो मित्र ! नित्यं धर्मोपदेशनम् । त्यज पापोपदेशं च प्राणैः कण्ठगतैरपि ॥३५ खड्गसर्वायुधान्येव खनित्रादिकमञ्जसा । कुठारो यष्टिका रज्वाद्यग्निशृङ्कलिकादिकम् ॥३६ शकटे वा बलोवर्दे घोटके वधकारणम् । हिंसोपकरणं कृत्स्नं सर्वे सूना हि पापदाः ॥३७ यत्किञ्चिद्धिसकं वस्तु परेषां दीयते शठैः । हिसावानं जिनरुक्तं तत्सर्व बन्धकारणम् ॥३८ यज्जीवबाधकं मूढेरन्येषां वस्तु दीयते । हिंसादानं च तत्सवं प्रणीतं गौतमादिभिः ॥३९ गृहस्थ व कर्तव्यो व्यवसायोऽतिपापदः । महाहिंसाकरो दक्षोहादिजनितोऽशुभः ।।४० क्वचिल्लोहं न नेतव्यं बन्धविध्वंसकारणम् । आयुधादिकरं पापगेहं ध्याय सन्नरः ॥४१
ये पाँच अनर्थदण्डके औत्सर्गिक वा मुख्य भेद हैं ॥२६-२७|| हाथी घोड़े आदि तिर्यचोंके बांधने, उनके खरीदने बेचनेके लिये, जीवोंकी हिंसा करने के लिये, खेती आरम्भ आदिके वचन कहनेके लिये, विवाहके लिये, झूठ चोरी परिग्रहके लिये, कुगुरु कुदेव आदिकी पूजा करने, पाप बढ़ाने मिथ्यात्व सेवन करनेके लिये, घरके निंद्य व्यापार करनेके लिये, श्रेष्ठ धर्मकी क्रियाओंको रोकनेके लिये, धन कमानेके लिये, दीक्षा लेनेसे रोकनेके लिये, जो अज्ञानी जीव दूसरे लोगोंकों उपदेश दिया करते हैं उसके भगवान जिनेन्द्रदेवने पापोपदेश नामका पहिला अनर्थदण्ड कहा है ॥२८-३१॥ जो मूर्ख लोगोंके द्वारा पापरूप उपदेश दिया जाता है उसको विद्वान् लोग दुःख देनेवाला पापोपदेश अनर्थदण्ड कहते ॥३२॥ विद्वान् लोगोंको धर्मोपदेश छोड़कर अपने वा दूसरेके लिये दुःखका सागर ऐसा पापोपदेश कभी नहीं देना चाहिये ॥३३।। इसका भी कारण यह है कि जो उन पापोंको करता है या उनका उपदेश देता है, या उनमें अपनी सम्मति देता है उन सब मूोंके एकसा पाप लगता है ॥३४॥ इसलिये हे मित्र ! तू सदा धर्मोपदेश कर । कण्ठगत प्राण होनेपर भी पापोपदेश मत कर, पापोपदेशका सर्वथा त्याग कर ॥३५॥ तलवार आदि सब प्रकारके शस्त्र, कुदाल, कुठार. लकड़ी, रस्सी, अग्नि, सांकल आदि जो जो बैल घोड़ा आदि पशुओंके मारने वा बांधनेके कारण हों, जो जो हिंसाके उपकरण हों, चक्की, उखली, चूलि, बुहारी आदि पाप उत्पन्न करनेवाले हों तथा विष आदि और भी जो जो जीवोंके घातक हों उन सबका दूसरोंके लिये देना हिंसादान कहलाता है। क्योंकि ये सब कर्मोके बन्धका कारण है ॥३६-३८॥ मूर्ख लोग जीवोंको दुःख देनेवाले, बाधा पहुँचानेवाले जो जो पदार्थ दूसरोंको देते हैं वह सब गौतमादि देवोंने हिंसादान कहा है ॥३९॥ गृहस्थोंको महा हिंसा करनेवाला लोह आदिका व्यापार भी नहीं करना चाहिये, क्योंकि ऐसा व्यापार सब अशुभ है और पाप उत्पन्न करनेवाला है ॥४०॥ हिंसा और जीवोंका विध्वंस करनेवाला लोहा आदि कहीं नहीं ले जाना चाहिये, क्योंकि उस लोहेसे पाप उत्पन्न करनेकाले शस्त्र
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