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श्रावकाचार-संग्रह किन्तु देवेन्द्र-चक्यावि-श्रियं प्राप्नोति शर्मदाम् । नानाभोगशताकीर्णा जगच्चेतोऽनुरञ्जिनीम् ॥४९ पुनः सम्यक्त्वमाहात्म्याज्ज्ञानचारित्रमुत्तमम् । समासाद्येव निर्वाणं संप्रयात्येव निश्चलम् ॥५० । भो भव्यास्त्रिजगत्सारं सम्यक्त्वं सौख्यसाधनम् । नापरं भुवने किञ्चित्तत्सम देहिनां हितम् ॥५१ तस्मात्सर्वप्रयत्नेन सम्यग्दर्शनमुत्तमम् । स्वर्ग-मोक्षश्रियो हेतुं भो भव्याः संभजन्तु वै ॥५२ अर्हदेव-तदुक्ततत्त्व-सुगुरु-श्रद्धानमाहुर्बुधाः, सम्यक्त्वं भव-दुःखराशिदलनं वै दुर्गतेनाशनम् । ज्ञान-ध्यान-तपोविधानविलसद्दानक्रियामण्डनं बीजं धर्मतरोः करोतु नितरां स्वर्गापवर्ग सताम् ॥५३ अदेवे देवताबुद्धिरगुरौ गुरुसम्मतिः । अतत्त्वे तत्त्वचिन्ता च मिथ्यात्वं चेति संत्यजेत् ॥५४
इति धर्मोपदेशपीयूषवर्षनामश्रावकाचारे सम्यक्त्वव्यावर्णनो नाम प्रथमोऽधिकारः ॥१॥
करनेवाली, नाना प्रकारके सैकड़ों भोगोंसे व्याप्त और सुख-दायिनी देवेन्द्र-चक्रवर्ती आदिकी लक्ष्मीको प्राप्त होता है ॥४९॥ पुनः सम्यक्त्वके माहात्म्यसे उत्तमज्ञान और चारित्रको प्राप्त करके निश्चल निर्वाणको प्राप्त होता है ॥५०॥ हे भव्य जीवो ! यह सम्यक्त्व तीन जगत्में सार है और अक्षय सुखका साधन है। इसके समान लोकमें और कोई भी वस्तु प्राणियोंके लिए हितकारी नहीं है ॥५१॥ इसलिए हे भव्यो, सर्व प्रयत्नसे स्वर्ग और मोक्षकी लक्ष्मीके पानेके कारणभूत इस उत्तम सम्यग्दर्शनको नियमसे भली-भाँति सेवन करो ॥५२॥ ज्ञानियोंने अरहन्तदेव, उनके द्वारा उपदिष्ट तत्त्व और सुगुरुके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहा है। यह संसारके दुःखराशिका दलन करनेवाला है; निश्चयसे दुर्गतिका नाशक है, ज्ञान ध्यान तपोविधानसे विलसित दान क्रियाका मण्डनस्वरूप है और धर्मरूप वृक्षका बीज है। ऐसा यह सम्यग्दर्शन सज्जनोंके स्वर्ग
और मोक्ष शीघ्र प्रदान करे ॥५३॥ अदेवमें देवबुद्धि होना; अगुरुमें गुरुपना मानना और अतत्त्वमें तत्त्व-चिन्तन करना मिथ्यात्व है । (यह संसारका कारण है अतः) इसका त्याग करना चाहिए ॥५४॥ इस प्रकार धर्मोपदेशीयूषवर्षनामक श्रावकाचारमें सम्यक्त्वका वर्णन करनेवाला
प्रथम अधिकार समाप्त हुआ ॥१॥
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