Book Title: Shravakachar Sangraha Part 2
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 517
________________ ४८४ श्रावकाचार-संग्रह पापोपदेशकं हिंसादानापध्यानदुःश्रुतीः । प्राहुः प्रमादचर्यां वै पञ्च चानर्थदण्डकान् ॥११२ पशुक्लेशवणिज्यादि-हिंसाऽऽरम्भ-प्रवञ्चने । उपदेशो हि यः सोऽत्र ज्ञेयः पापोपदेशकः ॥११३ __ बस्याऽद्याऽऽयुधरज्ज्वादि-शृङ्खला-मुशलाचिषाम् । दानं पापप्रदं प्रोक्तं हिंसादानं बुधोत्तमैः ॥११४ । शत्रणां द्वेषभावेन वय-बन्धन-मारणे । परस्यादिषु दुश्चिन्ता त्वपध्यानमुदाहृतम् ॥११५ राग-द्वेष-महारम्भ-हिंसा-मिथ्यात्वकारिणीः । दुःश्रुतिः सुश्रुतज्ञैश्च सा प्रोक्ता पापकारणम् ॥११६ भूमि-तोयाग्नि-वातादि-वनस्पतिविराधनम् । वृथाऽटनादिकं चेति चर्या प्रोक्ता प्रमादजा ॥११७ तथाऽनर्थदण्डभेदाश्च (प्राहुः)मार्जार कुकुर कीरं वानरं चित्रकादिकम् । पारापतादिकं गेहे पोषयन् पापभाग् भवेत् ॥१८ उक्तं च लोह लक्ख विसु सणु मयणु दुटुभरणु पसु-भारु । छंडि अणत्थहं पिडिय पडिउ किम तरहिसि संसारु ॥१९ कन्दपं चापि कौत्कुच्यं मौखयं सुप्रसाधनम् । अत्रासमीक्षिताधिकरणं पञ्च व्यतिक्रमाः ॥११८ तथा शिक्षावतान्युच्चैर्जगुश्चत्वारि साधवः । सामायिकं सदा पर्वोपवासो निर्जराकरः ॥११९ भोगोपभोगवस्तूनां सदा सङ्ख्या सुखप्रदा। संविभागोऽतिथीनां च क्रमात्तद्विस्तरं ब्रुवे ॥१२० सर्वथा सर्वसावद्य-त्यागाश्चाऽऽसमयं भवेत् । सामायिकं व्रतं पूतं प्राहुस्तद्धर्मवेदिनः ॥१२१ अपध्यान, दुःश्रुति और प्रमादचर्या ये अनर्थदण्डके पाँच भेद कहे हैं ॥११२।। पशुओंको क्लेश पहुँचानेवाले व्यापार आदिका, हिंसा, आरम्भ और छल-प्रपंचका जो उपदेश देना सो पापोपदेश जानना चाहिए ॥११३।। असि (खग) आदि आयुधोंका, रस्सी आदिका तथा सांकल, मूसल और अग्नि आदि हिंसाके कारणभूत पदार्थोंके देनेको उत्तम ज्ञानियोंने पापप्रद हिंसादान कहा है ॥११४॥ द्वेषभावसे शत्रुओंके वध, बन्धन और मारणका चिन्तवन करना, तथा रागभावसे परस्त्री आदिका खोटा चिन्तवन करना, इसे अपध्यान कहा गया है ।।११५॥ राग, द्वेष, महारम्भ, हिंसा और मिथ्यात्वकी करनेवाली खोटी कथा-वार्ताओंका सुनना; उसे उत्तम श्रुतज्ञाताओंने दुःश्रुति कहा है; जो कि पापका कारण है ॥११६।। भूमि, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिकी वृथा विराधना करना तथा व्यर्थ गमनागमनादिक करना, इसे प्रमादचर्या कहा है ॥११७। इस प्रकार अनर्थदण्डके ये पाँच भेद कहे गये हैं। इसी प्रकार अपने घरमें बिल्ली, कुत्ता, सुआ, वानर, तीतर, कबूतर और चीता आदिका पालन-पोषण करनेवाला मनुष्य भी पापका भागी होता है ॥१८॥ और भी कहा है-लोहा, लाख, विष, सन, मैन, दुष्ट जीव-पालन और पशुओंपर भार लादना इन अनाँको छोड़ा । अन्यथा संसारको कैसे तिरेगा ॥१९॥ कन्दर्प, कौत्कुच्य, मौखर्य, अति प्रसाधन और असमीक्ष्याधिकरण ये पांच इस अनर्थदण्डव्रतके अतिचार हैं ॥११८।। मुनियोंने उत्तम चार शिक्षाव्रत कहे हैं—सामायिक, निर्जरा करनेवाला सदा पर्वोपवास, भोगोपभोगकी वस्तुओंकी सदा सुखदायी संख्या, और अतिथिसंविभाग । अब मैं क्रमसे इनका विस्तृत कथन करता हूँ ॥११९-१२०।। निश्चित समय तक सर्व पापकार्योंका सर्वथा त्याग करना सामायिक है। इसे धर्मके ज्ञाताओंने पवित्र व्रत कहा है ॥१२१।। सामायिकके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534