Book Title: Shravakachar Sangraha Part 2
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 522
________________ धर्मोपदेशपीयूषवर्ष-श्रावकाचार ४८९ संददाति जगत्सारं स दाता पुण्यभाजनम् । महासुखी भवेनित्यं कुगति नैव पश्यति ॥१६९ घनर्धान्यैर्जनैर्युक्ता रोग-शोकविवर्जिताः । रूप-सौभाग्यसम्पन्नाः कोर्त्या व्याप्तत्रिविष्टपाः ॥१७० महाकुला महासत्त्वा महाराज्यादिसम्पदाः । भव्या भवन्ति ते सर्वे सत्पात्राऽऽहारदानतः ॥१७१ स्वर्गादिसुखसम्प्राप्तेरन्नदातुः किमुच्यते । यद्-गृहं तीर्थनाथोऽपि समायाति स्वयं यतः ॥१७२ तथा भव्यैः प्रदातव्यं दानं चौषधमुत्तसम् । जीवानां रोगतप्तानां जीवदानोपमं शुभम् ॥१७३ येन त्रिविधपात्रेभ्यो दत्तमौषधमुत्तमम् । भवे भवे भवेन्नित्यं स दाता रोगजितः ॥१७४ व्याधितश्चाङ्गनाशः स्यादङ्गनाशे कुतस्तपः । जिनेन्द्रतपसा शून्यः कथं प्राणी लभेच्छिवम् ॥१७५ तस्माद् भव्यैः प्रयत्नेन महाधर्मानुरागतः । सामिकादिकेभ्यश्च देयं दानं सदौषधम् ॥१७६ श्रीमज्जिनेन्द्रचन्द्रोक्तं शास्त्र औलोक्यपूजितम् । सुश्रावकैः सुपात्राय तद्देयं शर्मकोटिदम् ॥१७७ ज्ञानदानेन पात्रस्य सद्दाता परजन्मनि । जानाति सर्वशास्त्राणि कीर्त्या व्याप्तजगत्त्रयः ॥१७८ यज्ज्ञानं लोचनप्रायं वर्तते सर्वदेहिनाम् । तद्दीयते सुपात्राय कि सुपुण्यमतः परम् ॥१७९ ततः शास्त्रां जिनेन्द्रोक्तं स्वर्ग-मोक्षसुखप्रदम् । लिखित्वा लेखयित्वा च स्वशक्त्या भक्तिपूर्वकम् ॥१८० शास्त्रदानं सुपात्राय देयं सज्ज्ञानसिद्धये । सुश्रावकैर्महाभव्यः संसाराम्भोषितारणम् ॥१८१ पुनर्भव्यः प्रदातव्यं दानं चाभयसंज्ञकम् । जन्तुम्यो भय-भीरुभ्यो दशधाप्राणरक्षणम् ॥१८२ आहारसंज्ञक दान देता है, वह दाता जगत्में सारभूत पुण्यका भाजन होता है, सदा सुखी रहता है और कुतिको नहीं देखता है ॥१६८-१६९।। सुपात्रोंको आहार दान देनेसे सभी भव्य पुरुष धन, धान्य और परिजनोंसे युक्त होते हैं, रोग-शोकसे रहित रहते हैं, रूप-सौभाग्यसे सम्पन्न, कोत्तिसे त्रिलोकको व्याप्त करनेवाले, महाकुलीन, महाबलशाली और महान् राज्यादि सम्पदावाले होते हैं ॥१७०-१७१॥ स्वर्गादि सुखको प्राप्ति करनेवाले अन्नदानके दाताकी अधिक क्या प्रशंसा की जाय, जिसके कि घरपर स्वयं तीर्थंकर देव भो आहारके लिये आते हैं ॥१७२॥ तथा भव्य जनोंको रोग-पोड़ित जोवोंके लिये जीवन-दानके सदश शुभ, उत्तम औषध-दान भी देना चाहिये ॥१७३।। जिस पुरुषने तीनों प्रकारके पात्रोंके लिये उत्तम औषध-दान दिया है, वह दाता । भव-भवमें नित्य ही रोगसे रहित रहेगा ॥१७४॥ व्याधिसे शरीरका नाश होता है और शरीरके विनष्ट होनेपर तप कैसे हो सकता है ? पुनः जिनेन्द्रोक्त तपसे शन्य प्राणी शिवको कैसे पावेगा ॥१७५।। अतएव भव्य जनोंको चाहिये कि वे प्रयत्नके साथ महान् धर्मानुरागसे साधर्मी लोगोंके लिये सदा औषधदान देवें ॥१७६।। श्रीमज्जिनेन्द्र चन्द्रसे कथित, त्रैलोक्य पूजित, और कोटि-कोटि सुखोंको देनेवाला शास्त्र-दान सुपात्रके लिये श्रावकोंको देना चाहिये ॥१७७|| पात्रके ज्ञानदानसे ज्ञानदाता पुरुष परजन्ममें सर्व शास्त्रोंको जानता है और अपनी कीर्तिसे तीनों लोकोंको व्याप्त करता है ।।१७८|| जो ज्ञान सभी प्राणियोंके नेत्रोंके समान है, उसे जो सुपात्रके लिये देता है, उससे बड़ा और क्या पुण्य है ।।१७९| इसलिये स्वर्ग और मोक्षके सुखको देनेवाले जिनेन्द्र-कथित शास्त्र को लिखकर और अपनी शक्तिके अनुसार दूसरोंसे लिखाकर भक्तिपूर्वक महाभव्य उत्तम श्रावकोंको सम्यग्ज्ञानकी सिद्धिके लिये संसार-सागरसे पार उतारनेवाला शास्त्रदान सुपात्रोंके लिये देना चाहिये ॥१८०-१८१।। पुनः भव्य जनोंको चाहिये कि वे भय-भीत प्राणियोंके लिये दश प्रकारके प्राणोंका रक्षण करनेवाला अभय नामका दान देवें ॥१८२॥ जिस भव्यने जीवोंको निर्भय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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