Book Title: Shravakachar Sangraha Part 2
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 529
________________ बावकाचार-संग्रह - सम्यग्दर्शनसंशुद्धो जैनधर्मे महारुचिः । वर्शनप्रतिमाघारी धावकः सम्मतो बुधः ॥२३२ अणुव्रतानि पञ्चोच्चै स्त्रिप्रकारं गुणवतम् । शिक्षाव्रतानि चत्वारि यो धत्ते स द्वितीयकः ॥२३३ सामायिकं त्रिसन्ध्यं यः करोत्यत्र त्रिशुद्धितः । निश्चयेन विनीतात्मा तृतीयो युक्तितः स च ॥३३४ अष्टम्यां च चतुर्दश्यां प्रोषधं नियमेन यः । विदधाति सदा शुद्धः श्रावकः स चतुर्थकः ॥२३५ सचित्तफलतोयादि वस्तु यो नात्ति सर्वथा। सचित्तविरतः सोऽत्र दयामूत्तिस्तु पञ्चमः ॥२३६ अन्नं पानं तथा खाद्यं लेह्यं रात्रौ हि सर्वदा । नैव भुङ्क्ते पवित्रात्मा स षष्ठः श्रावकोत्तमः ॥२३७ त्रिधा वैराग्यसम्पन्नो यः सदा ब्रह्मचर्यभाक् । मनोवाक्कायतो भव्यो ब्रह्मचर्यवती स च ॥२३८ मेवा-कृष्यादिवाणिज्य-प्रारम्भाद् रहितः सदा। सर्वप्राणिदयायुक्तः स प्रोक्तः श्रावकोत्तमः ।।२३९ बाह्याभ्यन्तरसङ्गेषु ममत्वपरिवजितः । महासन्तोषसम्पन्नः स भवेन्नवमः सुधीः ।।२४० यदुक्तम्क्षेत्रं वास्तु धनं धान्यं द्विपदं च चतुष्पदम् । मानं शय्याऽऽसनं कुप्यं भाण्डं चेति बहिर्दश ॥३४ मिथ्यात्व-वेद-हास्यादि-षटकषायचतुष्टयम् । राग-द्वेषौ च सङ्गाः स्युरन्तरङ्गाश्चतुर्दश ॥३५ बाह्यवस्तुविनिर्मुक्ता बहवः पापकर्मणा । अन्तःपरिग्रहत्यागी स भव्यो दुर्लभो भुवि ॥२४१ सर्वसावकार्येषु विवाहादिषु सर्वदा । विद्यतेऽनुमति व यस्यासौ दशमो मतः ॥२४२ चरण-कमलोंका सेवन करनेवाला अद्वितीय मधुव्रती भ्रमरके समान है, सम्यग्दर्शनसे विशुद्ध है और जैनधर्ममें महा रुचि रखता है, वह ज्ञानी श्रावक दर्शन प्रतिमाधारी माना गया है ।।२३१२३२।। जो पांचों अणुव्रतोंको, तीनों गुणवतोंको और चारों शिक्षाव्रतोंको निर्दोष धारण करता है, वह दूसरी व्रत प्रतिमाका धारक श्रावक है ।।२३३।। जो तीनों सन्ध्याओंमें त्रियोग-शुद्धिसे सामायिक करता है, वह विनीत भव्य निश्चयसे तोसरी प्रतिमाका धारक है ॥२३४|| जो अष्टमी और चतुर्दशीके दिन नियमसे प्रोषधोपवास करता है, वह सदा शुद्ध रहनेवाला चौथी प्रतिमाका धारक श्रावक है ॥२३५।। जो सर्वथा हो सचित्त पत्र-फल और जलादि वस्तुको नहीं खाता है, वह दयामूत्ति सचित्त विरत पाँचवी प्रतिमाका धारक श्रावक है ॥२३६।। जो रात्रिमें अन्न, पान, खाद्य और लेह्य इन चारों ही प्रकारके आहारको नहीं खाता है, वह पवित्रात्मा छठा उत्तम श्रावक है ॥२३७।। जो भव्य मन वचन कायरूप त्रियोगसे वैराग्य-सम्पन्न है, और सदा ही ब्रह्मचर्यका धारक है, वह सातवां ब्रह्मचर्यव्रती श्रावक है ॥२३८॥ जो सेवा, कृषि, वाणिज्य आदि आरम्भसे रहित है और सदा ही सर्व प्राणियोंकी दयासे युक्त है, वह श्रावकोत्तम आठवीं प्रतिमाका धारक है ।।२३९।। जो सुधी बाहरी और भीतरी परिग्रहोंमें ममता भावसे रहित है, और महान् सन्तोषसे संयुक्त है, वह नवां श्रावक है ॥२४०।। जैसा कि कहा है-क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, द्विपद (दासी-दास), चतुष्पद (गाय-भैंसादि), यान, शय्या, आसन, कुप्य (वस्त्रादि) और भाण्ड ये दश बाहिरी परिग्रह हैं ||३४|| मिथ्यात्व, वेद, हास्यादि छह नोकषाय, क्रोधादि चार कषाय, राग और द्वेष ये चौदह अन्तरंग परिग्रह हैं ॥३५॥ पाप कर्मके उदयसे बाहिरी वस्तुओंसे रहित तो बहुत लोग होते हैं, (परन्तु वे परिग्रहत्यागी नहीं हैं ।) किन्तु जो अन्तरंगपरिग्रहका त्यागी है, वह भव्य संसारमें दुर्लभ है ।।२४१॥ जिस श्रावकको सभी सावध कार्यों में और विवाहादिमें सर्वदा अनुमति नहीं है, वह दशा अनुमति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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