Book Title: Shravakachar Sangraha Part 2
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 527
________________ श्रावकाचार संग्रह तथा चोक्तम् पुष्पैः पर्वभिरम्बुज-बीज-स्वर्णार्ककान्तरत्नैर्वा । निःकम्पिताक्षवलयः पर्यङ्कस्थो जपं कुर्यात् ॥ २९ एवं जिनागमे प्रोक्त-सप्तक्षेत्रेषु भक्तितः । सुश्रावकैर्धनं बीजं देयं शर्मशतप्रदम् ॥२१७ यदुक्तम् जिणभवण- बिब-पोत्थय - संघसरूवाइं सत्तखेत्तेसु । जं बइयं धणबीयं तमहं अणुमोयए सकयं ॥ ३० उक्तं च जिनबिम्बं जिनागारं जिनयात्रा प्रतिष्ठितम् । दानं पूजा च सिद्धान्त-लेखनं सप्त क्षेत्रकम् ॥३१ उक्तं च बिम्बादलोन्नति-यवोन्नतिमेव भक्त्या ये कारयन्ति जिनसा जिनाकृति च । पुण्यं तदीयमिह वागपि नैव शक्ता स्तोतुं परस्य किमु कारयितुर्द्वयस्य ॥३२ पूज्यपूजाक्रमेणोच्चैर्भव्यः पूज्यतमो भवेत् । ततो भव्यः सुखार्थी च पूज्यपूजां न लङ्घयेत् ॥२१८ अनेकैर्भव्य सन्दोहैर्भरतादिभिरुत्तमैः । श्रीमज्जिनेन्द्रपूजायाः फलं प्राप्तं महोत्तमम् ॥ २१९ तद्वर्णने क्षमः कोऽत्र लोके श्रीमज्जिनं विना । किन्तु पूजाफलस्योच्चैर्दृष्टान्तो दर्दुरो मतः ॥२२० यदुक्तं श्रीसमन्तभद्रस्वामिभिः - अहंच्चरणसपर्या महानुभावं महात्मनामवदत् । भेकः प्रमोदमत्तः कुसुमेनैकेन राजगृहे ॥३३ First अँगुलियों पर्वोंसे, कमल-बीजोंसे, सुवर्ण, चाँदी, एवं सुन्दर रत्नोंकी मालाओंके द्वारा भव्य पुरुष पद्मासन बैठकर इन्द्रियोंको निष्कम्प रखते हुए जिनमन्त्रों का जप करे ||२९|| इस प्रकार जिनागममें कहे गये सात क्षेत्रोंमें अति भक्ति से शतसहस्र - सुखको देनेवाला धनरूपी बीज श्रावकोंको देना (बोना) चाहिए ॥ २१७|| " वे सात क्षेत्र इस प्रकार कहे गये हैं - जिनभवन, जिनबिम्ब, जिनशास्त्र और मुनि, आर्यिका श्रावक, श्राविकारूप चतुर्विध संघ इन सात क्षेत्रोंमें जो धनरूपी बीज बोया जाता है, 'वह अपना है, ऐसी में अनुमोदना करता हूँ ||३०|| और भी कहा है - जिनबिम्ब, जिनालय, जिनयात्रा, जिनप्रतिष्ठा, दान, पूजा और सिद्धान्त - (शास्त्र ) लेखन ये सात धर्मक्षेत्र हैं ||३१| और भी कहा है- जो मनुष्य बिम्बापत्रकी ऊँचाईवाले जिनभवनको और जोकी ऊंचाईवाली जिनप्रतिमाको भक्ति से बनवाते हैं, उनके पुण्यको कहनेके लिए सरस्वती भी समर्थ नहीं है । फिर दोनोंको करानेवाले मनुष्यके पुण्यका तो कहना ही क्या है ||३२|| पूज्य पुरुषोंकी पूजाके क्रमसे भव्य पुरुष अति उत्तम पूज्य होता है, इसलिए सुखार्थी भव्य पुरुष पूज्यकी पूजाका उल्लंघन नहीं करे || २१८ || भरत आदि अनेक उत्तम भव्य सार्थोने श्रीमज्जि - नेन्द्रदेवकी पूजाका महान् उत्तम फल पाया। उसका वर्णन करनेमें श्रीमज्जिनेन्द्रदेवके विना और कौन पुरुष इस लोकमें समर्थ है । किन्तु फिर भी पूजाके फलका उच्च दृष्टान्त मेंढक माना गया है ।। २१९ - २२० ॥ जैसा कि श्रीसमन्तभद्र स्वामीने कहा है- राजगृह नगर में अति प्रमुदित मेंढकने एक पुष्पके द्वारा अहंन्तदेवके चरणोंकी पूजाके महान् प्रभावको महापुरुषोंके लिये कहा ||३३|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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