________________
पञ्चमोऽधिकारः
-
तथा श्रीमन्जिनेन्द्राणां तत्त्वसार-विवांवरेः । अन्ते सल्लेखना कार्या धीर-धीरैकमानसैः ॥१ तस्या विधिः समाल्यातः पूर्वाचार्यजगद्धितः । तत्सझेपेण वक्ष्येऽहं यथागममनुत्तरम् ॥२ महोपसर्गके जाते दुभिक्षे दुष्टरोगके । जरादौ निःप्रतीकारे सतां संन्याससक्रिया ॥३ दान-पूजा-तपः-शील-फलं प्राहुर्मुनीश्वराः । तदुच्चैर्यत्प्रकुर्वन्ति सन्तः सल्लेखनाविधिम् ॥४ तत्र सद्धिजिनेन्द्राणां महाधर्मविचक्षणैः । त्यक्त्वा परिग्रहं सर्व मनोवाक्कायशुद्धितः ॥५ राग-द्वेषादिकं चापि परित्यज्य पुरा त्रिधा । महाक्षामाऽमृतैर्वाक्यैः सर्वान् सन्तोष्य सज्जनान् ॥६ गुरूणामग्रतो भक्त्या समालोच्य कृताधकम् । सुश्रावकैर्भवेच्छक्तिस्तदा ग्राह्यं महाव्रतम् ॥७ शोक भयादिकं त्यक्त्वा जीविते मरणे तथा। चिन्तां सर्वां परित्यज्य कार्या कर्माये मतिः ॥८ श्रीमज्जैनम्ते धीरेमंहासन्तोषशालिभिः । शनैः शनै: परित्याज्यं चतुर्धाऽऽहारवस्तुकम् ॥९ भव्यैः पञ्चनमस्कार-संस्मृत्या सक्तमानसः । अनन्यशरणीभूतैः कार्य प्राणविसर्जनम् ॥१० अवश्यं मरणे प्राप्त मतंव्यं नात्र संशयः । कयं न क्रियते सद्भिः संन्यासः सर्वसौख्यदः ।।११ इत्थमन्त्यक्रियां भव्या ये त्रिशुद्धचा प्रकुर्वते । सौधर्माच्युतकल्पेषु प्राप्नुवन्ति महासुखम् ॥१२ अणिमादिगुणोपेतं दिव्यं रूपं च सम्पवाः । सुराङ्गनाः समासाद्य भुक्त्वा भोगान् पुनश्च ते ॥१३
बारह व्रत पालन करने समान जीवनके अन्तमें श्रीमज्जिनेन्द्रदेवके तत्त्वसारके जानकार, एवं धीर वीर चित्तवाले गृहस्थोंको सल्लेखना करना चाहिये ।।१।। जगत्का हित करनेवाले पूर्वाचार्योंने उस सल्लेखनाकी विधि विस्तारसे कही है, उसे मैं आगमके अनुसार संक्षेपसे हो अनुपम रूपमें कहता हूँ ॥२॥ महान् उपसर्ग आनेपर, दुर्भिक्ष पड़नेपर, निःप्रतीकार भयंकर रोगके और बुढ़ापा आदिके आ जानेपर सन्तजनोंके संन्यासकी सत्क्रिया कही गयी है ॥३॥ जो सज्जन उत्तम प्रकारसे सल्लेखनाविधिको करते हैं, उसे ही मुनीश्वरोंने दान, पूजा, तप और शीलका फल कहा है ॥४॥ श्री जिनेन्द्रदेवके महान् धर्मके जानकार सन्त जन मन वचन कायकी शुद्धिसे सवं परिग्रह को छोड़कर, तथा राग-द्वेषादिकको भी छोड़कर, त्रियोगसे महाक्षमा रूप अमृत वाक्योंके द्वारा सर्व सज्जनोंको सन्तुष्ट कर, गुरुजनोंके आगे भक्तिसे अपने किये गये पापोंकी समालोचना करके यदि शक्ति हो, तो श्रावक लोग महाव्रतोंको ग्रहण करें ॥५-७|| उस समय शोक, भय, अरति आदिको छोड़कर तथा जीवन और मरणको सर्व चिन्ताको छोड़कर कर्मके विनाशमें बुद्धि लगानी चाहिये ॥८॥श्रीमज्जैनमतमें धीर और महासन्तोषशाली पुरुष घोरे-धीरे क्रमसे चारों प्रकारके आहारकी वस्तुओंका परित्याग करें ॥९॥ पुनः पंच नमस्कार मन्त्रके संस्मरणमें अपने मनको संलग्न कर और उन परमेष्ठियोंके ही शरणको प्राप्त होकर भव्य पुरुषोंको प्राणोंका विसर्जन करना चाहिये ॥१०॥ जब मरणके प्राप्त होनेपर अवश्य हो मरना पड़ता है, इसमें कोई सशय नहीं है, तब सज्जन पुरुष सर्व सुखदायो संन्यास क्यों न धारण करें ॥११।। इस प्रकार जो भव्य जीव त्रियोगकी शुद्धिसे जीवनके अन्त में इस संन्यासक्रियाको करते हैं, वे सौधर्म स्वर्गसे लेकर अच्यत कल्प तक उत्पन्न होकर वहाँके महान सुखको प्राप्त करते हैं ।।१२।। वहाँपर वे अणिमा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org