Book Title: Shravakachar Sangraha Part 2
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 524
________________ धर्मोपदेशपीयूषवर्ष-श्रावकाचार पात्रदानं भवेद्दातुर्महाफलशतप्रदम् । मृष्टभूमौ यथा बीजं क्षिप्तं भूरिफलप्रदम् ॥१९२ उप्तं क्षारक्षितौ यद्वबीजं चापि वृथा भवेत् । तथा कुपात्रजं दानं दातुनिष्फलतां भजेत् ॥१९३ इत्यादि पात्रभेदज्ञो यः सुपात्राय भक्तितः । शक्त्या दानं ददात्युच्चैः स दाता हि विचक्षणः ॥१९४ पात्रदानेन तेनात्र मनोवाञ्छितसम्पदा । धनं धान्यं सुवर्ण च मणि-माणिक्यमुत्तमम् ॥१९५ ।। स्वर्गादिसुखमुत्कृष्टं कुलं परिजनादिकम् । सम्प्राप्य क्रमतो भव्या लभन्ते शाश्वतं सुखम् ॥१९६ इति मत्वा महाभव्यैः सुपात्रेभ्यः सुभक्तितः । दानं चतुविधं देयं शर्मकोटिविधायकम् ॥१९७ श्रोषेणो वृषभसेना कौण्डेशः शूकरोऽपि च । चतुर्णां शुभदानानां क्रमादेते सुखं श्रिताः ॥१९८ सचित्तपत्रके क्षिप्तं तेनाच्छादनविस्मृती। दाने निरादरः पञ्च मत्सरत्वं व्यतिक्रमाः ॥१९९ ये भव्या जिनधर्म-कर्मनिरताः सुश्रावकाः सज्जना स्ते नित्यं निजभक्ति-शक्तिसहिताः प्रीताः प्रमादोज्झिताः । पात्रेभ्यो वरभोजनादिविशदं दानं चतुर्लक्षणं । दत्वा शर्मशतप्रदं शुभतरं दिव्यां भजन्तु श्रियम् ॥२०० उक्तं चय आचष्टे सङ्ख्यां गगनतलनक्षत्रविषयामिदं. वा जानीते कतिचुलुकमानो जलनिधिः । अभिज्ञो जीवानां प्रतिभवपरावर्तकथने प्रमाणं पुण्यस्य प्रथयतु सुपात्रापितधने ॥२४ के रसपनेको प्राप्त होता है, उसी प्रकार सामान्यरूप भोजन भी पात्रके भेदसे नाना प्रकारके विपाकको प्राप्त होता है ॥१९१॥ पात्रमें दिया गया दान दाताके सैकड़ों महान् फलोंको देता है। जैसे कि उत्तम भूमिमें बोया गया बीज भारी फलको देता है ।।१९२।। क्षार भूमिमें बोया गया बीज जैसे वृथा जाता है, उसी प्रकार कुपात्रको दिया गया दाताका दान निष्फल जाता है ॥१९३।। जो श्रावक सुपात्र-कुपात्रादिके भेदोंको जानकर, सुपात्रके लिये भक्तिसे शक्तिके अनुसार उत्तम दान देता है, वह दाता विचक्षण (ज्ञानी) कहलाता है ॥१९४।। इस पात्र दानसे भव्य जीव इस भवमें ही मनोवांछित सम्पत्ति, धन, धान्य, सुवर्ण और उत्तम मणि-माणिकको पाकर, तथा परभवमें स्वर्गादिके सुख, उत्कृष्ट कुल, कुटुम्बादिकको पा करके क्रमसे शाश्वत शिव-सुखको पाते हैं ।।१९५-१९६।। ऐसा जानकर महाभव्य श्रावकोंको सुपात्रोंके लिए उत्तम भक्तिके साथ कोटिकोटि सुखोंका देनेवाला चार प्रकारका दान देना चाहिये ।।१९७॥ श्रीषेण, वृषभसेना, कौण्डेश और सूकर ये चारों जीव क्रमशः शुभ दानोंके देनेसे परम सुखको प्राप्त हुए ॥१९८॥ सचित्तपत्रनिक्षेप, सचित्तपत्राच्छादन, विस्मृति, निरादर और मत्सरत्व ये पांच अतिथिसंविभाग व्रतके अतिचार हैं ॥१९९॥ जो भव्य जिनधर्मके कार्योंमें संलग्न हैं, उत्तम श्रावक हैं, सज्जन हैं, वे प्रमाद-रहित होकर, परम प्रीतिके साथ निजभक्ति और शक्तिसे सहित नित्य ही सुपात्रोंके लिये उत्तम आहारादि निर्मल चतुर्विध, शत-सहस्र सुखप्रद और अतिशुभ दानको देकर दिव्य लक्ष्मी को भोगें ॥२०॥ कहा भी है-जो पुरुष गगनतलमें विद्यमान नक्षत्रोंकी संख्याको कह सकता है, अथवा जो यह जानता है कि यह जलनिधि (समुद्र) कितनी चुल्लू-प्रमाण जलवाला है, अथवा जो जीवों के प्रति भवके परावर्तनोंके कथनमें अभिज्ञ है, वही मनुष्य सुपात्रको अर्पण किये गये धनसे उपा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534