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श्रावकाचार-संग्रह येन भव्येन संवत्तं दानं निर्भयकारणम् । जन्तुभ्यस्तेन भव्येन कृतं तज्जीवधारणम् ॥१८३ तेन दानेन तद्दाता निर्भयो भुवने भवेत् । शूरा वीरोऽतिगम्भीरो विशुद्धहृदयः सुधीः ॥१८४ दयार्थ बीयते सर्व दानं सद-भोजनादिकम् । साक्षाद्दया कृता तेन दत्तं येनाभयं शुभम् ॥१८५ इति ज्ञात्वा सुपात्राय देवं तद्दानमुत्तमम् । अन्यत्रापि यथायोग्यमभयं शर्मदं बुधैः ॥१८६ एवं त्रिविधपात्रेभ्यो दानं शक्त्या चतुविधम् । यैर्दत्तं भक्तितो भव्यस्तैः सिक्तो धर्मपादपः ॥१८७
पात्र जिनाश्रयी चापि पोष्यः सुश्रावकैः क्रमात् ।
सर्वथा विपरीतो यः स सन्त्याज्यो विवेकिभिः ।।१८८ उक्तं चमिथ्याग्भ्यो ददद्दानं दाता मिथ्यात्ववर्धकः । पन्नगाऽऽस्ये पयो दत्तं केवलं विषवृद्धिकृत् ॥२२ सुपात्रापात्रयोनि-भेदो लोके महानहो । शुद्धपानं यथा यान-पात्रां स्व-पर तारकम् ॥१८९ । कुपात्रं च भवेल्लोके कुधीः स्व-परवञ्चकः । स पाषाणसमो ज्ञेयो मिथ्यादृष्टिरतात्त्विकः ॥१९० उक्तं च
उत्कृष्टपात्रमनगारमणुवताढचं मध्यं व्रतेन रहितं सुदृशं जघन्यम् ।
निर्दशेनं व्रतनिकाययुतं कुपात्रं युग्मोज्झितं नरमपात्रमिदं हि विद्धि ॥२३ यथा स्वच्छजलं चापि वृक्षभेदेषु भूतले । नानारसत्वमाप्नोति पात्रभेदात्तथाऽशनम् ॥१९१ करनेका कारण अभयदान दिया, उस भव्यने अपने निर्भय जीवनको धारण किया ॥१८३।। इस अभयदानसे दाता पुरुष संसार में निर्भय, शूर, वीर, अति गम्भीर, विशुद्ध हृदय और सुज्ञानी होता है ॥१८४॥ दयाके लिये उत्तम भोजनादिक सभी दान दिये जाते हैं, किन्तु जिसने उत्तम अभयदान दिया, उसने तो सभी जीवोंपर साक्षात् दया की ॥१८५॥ ऐसा जान कर ज्ञानियोंको सुपात्रके लिये यह उत्तम अभय दान देना चाहिये। तथा अन्य प्राणियोंपर भी सुखदायी यह अभय दान यथायोग्य देना चाहिये ।।१८६।। इस प्रकार जिन भव्योंने त्रिविध-पात्रोंके लिये उक्त चतुविध दान अपनी शक्तिके अनुसार भक्तिसे दिया, उन्होंने धर्मरूपी वृक्षको सींचा ॥१८७।। उत्तम श्रावकोंको जिनदेवका आश्रय करनेवाला पात्र सदा ही क्रमसे पोषण करनेके योग्य है। किन्तु जो जिनमार्गसे सर्वथा विपरीत है, वह विवेकी जनोंके द्वारा सन्त्याज्य है ॥१८८।।
कहा भी है-मिथ्यादृष्टियोंके लिये दानको देनेवाला दाता अपने मिथ्यात्वको ही बढ़ाता है । क्योंकि सांपके मुखमें दिया गया दूध केवल विषकी वृद्धि ही करता है ॥२२॥
___ अहो, लोकमें सुपात्र और अपात्रको दिये गये दानमें महान भेद है। शुद्ध पात्र तो यानपात्र (जहाज) के समान स्व और परका तारक है ।।१८९।। किन्तु कुपात्र लोकमें कुबुद्धि और स्व-परक वंचक होता है। यह तत्त्वज्ञानसे रहित मिथ्यादृष्टि कुपात्र पाषाणके जहाजके समान स्व और परको डुबानेवाला जानना चाहिये ।।१९०॥
__ कहा भी है-महाव्रतसे युक्त अनगार साधु उत्कृष्ट पात्र है, अणुव्रतसे युक्त गृहस्थ मध्यम पात्र है, व्रतसे रहित सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र है। सम्यग्दर्शनसे रहित और व्रत-समूहसे युक्त जीव कुपात्र है और जो सम्यग्दर्शन और व्रत इन दोनोंसे ही रहित है, ऐसे मनुष्यको अपात्र जानो ॥२३॥
जिस प्रकार भूतलपर स्वच्छ जल भी अनेक जाति भेदवाले वृक्षों में पहुँचकर नाना प्रकार
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