Book Title: Shravakachar Sangraha Part 2
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 519
________________ श्रावकाचार-संग्रह अष्टम्यां च चतुर्दश्यां प्रोषषः क्रियते सवा । कर्मणां निर्जराहेतुः श्रावकाचारचञ्चभिः ॥१३३ बन्न पानं च खाधं च लेां चेति चतुर्विधम् । आहारं सन्त्यजेद् भव्यः प्रोषघस्य दिने सुधीः १३४ पूर्वस्मिन् दिवसे चैकभक्तं प्रोक्तं सुयुक्तितः । उपवासं विधायोच्चैः पारणादिवसे तथा ॥१३५ स प्रोषधोपवासस्तु समुत्कृष्टः सुखप्रदः । तद्दिने पञ्चपापानां सन्त्यागोऽपि विधीयते ॥१३६ जलस्नानं तथा नस्यं नेत्रयोः कज्जलादिकम् । शरीरे मण्डनं चापि सन्त्यजेदुपवासभाक् ॥१३७ श्रीमज्जिनेन्द्र-संज्ञान-गुरूणां पादसेवया। धर्मध्यानेन भव्येन स्थातव्यं तद्दिने सुखम् ॥१३८ धर्मोपदेशपीयूषं श्रवणाभ्यां पिबन् सुधीः । पाययन् वा परान् भव्यानुपवासे शुभं भजेत् ॥१३९ एवं सुयुक्तितो भव्यः प्रोषधं यः करोत्यलम् । कर्मणां निर्जरा तस्य सम्भवेन्मुनिभिर्मतम् ॥१४० अवीक्ष्य ग्रहणं वस्तु मोचनास्तरणे तथा । अनादरास्मृती पञ्च प्रोषधोऽपि व्यतिक्रमाः १४१ भोगोपभोगयोस्त्यागे यमश्च नियमो मतौ । यावज्जीवं यमो ज्ञेयो नियमः शक्ति-कालभाक् ॥१४२ अन्न-पानादिताम्बूलं भुज्यते भोगवस्तु यत् । स भोगः कथ्यते सद्धिधर्मशास्त्रविचक्षणैः ॥१४३ प्रणिधान, कायदुःप्रणिधान, इन तीनों दुःप्रणिधानोंके साथ सामायिकमें निरादर करना और स्मरण न रखना ये पांच सामायिक व्रतमें अतीचार कहे गये हैं ॥१३२॥ श्रावकके आचारमें कुशल पुरुष अष्टमी और चतुर्दशीके दिन कर्मोंको निर्जराका कारणभूत उपवास सदा करते हैं ॥१३३।। शानी भव्य पुरुष प्रोषधके दिन अन्न, पान, खाद्य और लेह्य इन चारों प्रकारके आहारको सर्वथा त्याग करें ॥१३४॥ पर्वके पहले दिन एकाशन करना कहा गया है, पुनः पर्वके दिन अच्छी रीतिसे उपवास करके पश्चात् पारणाके दिनमें एकाशन करे । यह सुखदायी उत्कृष्ट उपवास कहा गया है। इस प्रोषधोपवासके दिन पाँचों पापोंका सर्वथा त्याग विधेय है ॥१३५-१३६।। उपवास करनेवाला जलसे स्नान करना, नस्य सूंघना, नेत्रोंमें कज्जलादिक लगाना और शरीरमें आभूषण धारण करना इत्यादिको भी छोड़े ॥१३७॥ उपवासके दिन श्रीमज्जिनेन्द्रदेवकी पूजा, शास्त्र-स्वाध्याय और गुरुजनोंकी चरण-सेवाके साथ धर्मध्यान करते हुए भव्य पुरुषको रहना चाहिए ॥१३८।। उपवासके दिन ज्ञानी श्रावक अपने दोनों कानोंसे धर्मोपदेशरूप अमृतको स्वयं पीता हुआ और दूसरे भव्योंको पिलाता हुआ शुभध्यानको धारण करे ॥१३९।। इस प्रकार जो भव्य सुयुक्तिसे सम्यक् प्रकार प्रोषधको करता है, उसके कर्मोंकी निर्जरा होती है, ऐसा मुनिजनोंने कहा है ॥१४०।। विना देखे-शोधे वस्तुको ग्रहण करना, रखना और विस्त रादिको बिछाना, तथा प्रोषधोपवास करने में अनादर करना और भूल जाना, ये पांच अतिचार प्रोषधव्रतके कहे गये हैं ॥१४१|| भोगोपभोगके त्यागमें यम और नियम करना कहा गया है। यावज्जीवनके त्यागको यम और शक्तिके अनुसार नियत कालतकके त्यागको नियम जानना चाहिए ॥१४२।। अन्न, पान, ताम्बूल आदिक जो भोग्य वस्तु एक बार भोगी जाती है, उसे धर्मशास्त्रके ज्ञाता सन्तोंने भोग कहा है ॥१४३।। १. ओदनाद्यशनं स्वाधं ताम्बूलादि जलादिकम् । पेयं खाचं त्वपूपाद्यं त्याज्यान्येतानि शक्तितः ॥ २. खण्डनी पेषणी चुल्ली उदकुम्भी प्रमाणिनी । पञ्च सूना गृहस्थस्य तेन मोक्षं न याति सः ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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