Book Title: Shravakachar Sangraha Part 2
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 511
________________ श्रावकाचार-संग्रह शतं सहस्रकं चापि लक्षं कोटि ततोऽधिकम् । धनं नो तृपये जन्तोर्वह्न प्रचुरेन्धनम् ॥५३ इति ज्ञात्वा बुधैः कार्य परिमाणं परिग्रहे । जायते येन सन्तोषो लोकद्वयसुखप्रदः ॥५४ बतिवाहनं तथाऽतिसङ्ग्रहश्च विषादकः । भूरिलोभो महाभार-वाहनं पापकारणम् ॥५५ पञ्चमाणुव्रतस्यैते विक्षेपाः पञ्चधा स्मृताः । तेऽपि त्याज्या व्रतोपेतैः सज्जनधर्महेतवे ॥५६ उक्तंचमातङ्गो धनदेवश्व वारिषेणस्ततः परः । नोलो जयश्च सम्प्राप्ताः पूजातिशयमुत्तमम् ॥९ इत्युच्चेजिनभाषितानि नितरां प्रीत्या प्रमावोज्झिताः पञ्चाणुवतसुव्रतानि सुषियः सुश्रावका नित्यशः । ये भव्याः प्रतिपालयन्ति जगति प्राप्योरुसत्सम्पवं पश्चात्ते भवभूरिसिन्धुतरणं कृत्वा लभन्ते शिवम् ॥५७ अणुव्रतानि पञ्चेति कथितानि मुनीश्वरैः । श्रावकाणां तथा राज्यभुक्तिः षष्ठमणुव्रतम् ॥५८ पतत्कीटपतङ्गादेर्भक्षणानिशिभोजनम् । महापापप्रदं त्याज्यं मांसव्रतविशुद्धये ॥५९ मक्षिका कारयत्येव वान्ति कण्ठक्षति कचः । करोति भक्षिता रात्रौ यूका चापि जलोदरम् ॥६० पुरा केनापि विप्रेण भुञ्जता निशि भोजनम् । मण्डूकोऽपि मुखे क्षिप्तः का वार्ता सूक्ष्मजन्तुषु ॥६१ ततो भव्यजिनेन्द्राणां वचने प्रीतमानसः । निशाऽऽहारः सदा त्याज्यो मनोवाक्कायशुद्धितः ॥६२ मुक्त्वोच्चटिके द्वे द्वे दिनस्यान्ते मुखेऽपि च । सर्वथा भोजनं कायं धर्मसारविचक्षणैः ॥६३ ।। जीवोंके सन्तोष नहीं होता है। जैसे कि भारी नदियोंके जलोंसे भी समुद्रको तृप्ति नहीं होती है ॥५२॥ शत, सहस्र, लक्ष, कोटी और इससे भी अधिक धन जीवकी तृप्तिके लिये पर्याप्त नहीं है। जैसे कि अग्निके प्रचुर इन्धनसे भी तृप्ति नहीं होती है ।।५३।। ऐसा जानकर ज्ञानियोंको परिग्रहमें परिमाण करना चाहिए, जिससे कि दोनों लोकोंमें सुख देनेवाला सन्तोष प्राप्त होता है ।।५४॥ अतिवाहन, अतिसंग्रह, विषाद, अतिलोभ और महाभार-वाहन ये पापके कारणभूत पांच अतीचार पंचम अणुव्रतके माने गये हैं। धर्मकी रक्षाके लिये व्रत-संयुक्त सज्जनोंको इनका भी त्याग करना चाहिए ॥५५-५६|| कहा भी है-मातंग, धनदेव, वारिषेण, नीलीबाई और जयकुमार ये क्रमशः अहिंसादि अणुव्रतोंमें उत्तम पूजातिशयको प्राप्त हुए हैं ॥९॥ - इस प्रकार जिन-भाषित इन पाँचों ही अणुव्रतरूप सुव्रतोंको जो भव्य सुधी सुश्रावक प्रमाद छोड़कर अत्यन्त प्रीतिसे परिपालन करते हैं, वे जगत्में विशाल सत्सम्पदाको पाकर पीछे इस भारी भव-सागरको पार करके शिवको प्राप्त करते हैं ॥५७|| इस प्रकार मुनीश्वरोंने श्रावकोंके ये पांच अणुव्रत कहे हैं। तथा रात्रि-भोजन-त्याग नाम का छठा भी अणुव्रत श्रावकोंका माना गया है ॥५८।। गिरते हुए कीट-पतंगादि जन्तुओंके भक्षणसे रात्रि भोजन महापापका देनेवाला है, अतः मांस त्यागरूपव्रतकी विशुद्धिके लिये उसका त्याग करना चाहिये ।।५९।। यदि रात्रिमें भोजन करते समय मक्खी खानेमें आ जाय, तो वह वमन करा देती है, बाल कण्ठका स्वर-भंग करता है, और यदि यूका (जू) खा ली जाय तो वह जलोदर रोगको कर देती है ।।६०॥ पूर्वकालमें रात्रि भोजन करते हुए किसी ब्राह्मणने मुखमें गिरा हुआ मेंढक भी खा लिया, तो फिर सूक्ष्म जन्तुओंकी क्या बात है ॥६१।। इसलिये जिनेन्द्रदेवके वचनोंमें प्रीति रखनेवाले भव्य जीवोंको निशाहार सदा ही मन-वचन-कायकी शुद्धिसे त्यागना चाहिये ॥६२॥ धर्मका सार जाननेवाले चतुर ज्ञानियोंको दिनकी अन्तिम और आदिम दो-दो घड़ियोंको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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