Book Title: Shravakachar Sangraha Part 2
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 513
________________ ४४० श्रावकाचार-संग्रह जन्तवोऽन्यभवे चेति मत्वा भव्याः स्वमानसे । स्वर्ग-मोक्षसुखप्राप्त्यै रात्रिभुक्ति त्यजन्त्वलम् ॥७२ ... रात्री स्नानविवर्जनं दिनपतेनों दृश्यते दर्शनं मुग्धैश्चापि न भक्ष्यते कणचरैर्धान्यादिकं चर्वणम् । ततिक धर्मवतां विशुद्धमनसां सत्प्राणिनां युज्यते रात्री भोजनमामवृद्धिजनक सामान्यवदुःखदम् ॥७३ जिनपतिकथितं वै धर्मसारं विदित्वा परमपदमुदारं प्राप्यते येन भव्यैः । कुगतिशतनिवारं पुण्यसारं भजन्तु प्रवरविशचित्ता वर्जनं रात्रिभुक्तेः ॥७४ तथा भव्यैः प्रकर्तव्यं मौनं वे भोजनादिषु । ज्ञानस्य विनया हि सन्तोषार्थं च धोधनः ॥७५ मलमूत्रोझने स्नाने पूजने परमेष्ठिनाम् । भोजने सुरते स्तोत्रे सतां मौनव्रतं मतम् ॥७६ यत्किञ्चिदुच्यते वाक्यमक्षरैरेव तज्जनैः । ज्ञानप्रकाशकान्युच्चस्तानि सन्ति महीतले ॥७७ ततः सुश्रावकैभव्यैर्ज्ञानस्य विनयश्रिये । सप्तस्थानेषु कर्तव्यं मौनं शर्मशतप्रदम् ॥७८ एवं श्रीमद्गणाधोशैः प्रोक्तं मौनव्रतं शुभम् । ये भव्याः पालयन्त्युच्चस्तेषां स्याज्ज्ञानसम्पदा ॥७९ सरस्वत्याः प्रसादेन दिव्यनादो भवेत्तराम् । सौभाग्यं सुन्दरत्वं च मौनव्रतविशुद्धितः ॥८० यथा भवन्ति पद्यानि स्वच्छतोयप्रयोगतः । तथा मौनव्रतेनोच्चैः स्यात्सतां ज्ञानसम्भवः ॥८१ चापल्यं वन्तबन्धेन जल्पनं तीव्रहुंकृतिम् । हास्यंच लिखनं चापि भोजनावसरे त्यजेत् ॥८२ पापसे मनुष्य, परभवमें काने, अन्धे, बहरे, गूंगे, दुःख और दारिद्रसे पीड़ित एवं सुखसे रहित उत्पन्न होते हैं। ऐसा अपने मनमें समझकर भव्य जीव स्वर्ग और मोक्षकी प्राप्तिके लिये रात्रिमें भोजन करना सर्वथा छोड़ें ॥७१-७२|| रात्रिमें स्नान करनेका भी त्याग करना चाहिये । देखोरात्रिमें जब सूर्यका दर्शन नहीं होता, तब कण-भक्षी पक्षी आदि मुग्ध प्राणी भी नहीं खाते हैं, तब धर्मात्मा, विशुद्ध हृदयवाले उत्तम मनुष्योंको रात्रिमें धान्यादिकका भक्षण क्या योग्य है ? अर्थात् नहीं है। दूसरी बात यह है कि रात्रिमें भोजन करना आमकी वृद्धि करता है, अतः वह किसानके समान दुःखदायक है ॥७३॥ इसलिये जिनदेव-कथित धर्मके सारको निश्चयसे जानकर भव्यजन जिसके द्वारा उदार परम पदको पाते हैं, उस सहस्रों कुगतियोंके निवारण करनेवाले, पुण्यके सारस्वरूप रात्रिभोजन परित्यागको उत्तम एवं निर्मल चित्तवाले पुरुष स्वीकार करें ।।७४।। इसी प्रकार बुद्धिमान् भव्य जनोंको भोजनादिके समय ज्ञानकी विनयके लिये तथा सन्तोषकी प्राप्ति के लिये मौन भी धारण करना चाहिये ।।७५।। मल-मूत्र त्याग करते समय, स्नान, परमेष्ठियोंका पूजन और स्तुति करते समय, भोजन और सुरत-कालमें सज्जनोंके मौनव्रत माना गया है । जो कुछ भी वाक्य बोला जाता है, अक्षरोंसे ही उत्पन्न होता है और ये अक्षर हो महीतलपर उत्तम रूपसे ज्ञानके प्रकाशक हैं, इसलिये उत्तम भव्य श्रावकोंको ज्ञानकी विनयश्रीके लिये उक्त सप्त स्थानोंमें सैकड़ों सुखोंको देनेवाला मौन धारण करना चाहिये ॥७६-७८|| इस प्रकार श्रीमन्त गणधरदेवोंने मौनव्रतको उत्तम कहा है। जो भव्य पुरुष उत्तम रीतिसे इसका पालन करते हैं, उनके ज्ञानरूपो सम्पदा प्राप्त होती है ।।७९|| सरस्वतीके प्रसादसे उनके दिव्यध्वनि प्रकट होती है। तथा मौनव्रतकी विशुद्धतासे सौभाग्य और सौन्दर्य प्राप्त होता है ।।८०॥ जैसे स्वच्छ जलके संयोगसे कमल उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार उच्च मौनव्रतसे सत्पुरुषोंके उत्तम ज्ञानकी उत्पत्ति होती है ॥८॥ भोजनके अवसरमें चपलता, दांत बांधकर बोलना, तीव्र हुंकार करना, हंसना www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534