Book Title: Shravakachar Sangraha Part 2
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 509
________________ श्रावकाचार-संग्रह सत्येन कीतिरमला विमला च लक्षमोविद्याविलाससुयशो भुवने प्रसिद्धिः । सम्प्राप्यते बुधजनजनमान्यता च तस्मात्सदा 'नृतवचः प्रवदन्तु सन्तः ॥२८ स्थलस्तेयपरित्यागं तं वदन्ति मुनीश्वराः । यत्परेषां धनाधुच्चरवत्तं गृह्यते न हि ॥२९ विस्मृतं पतितं चापि पथे चापथि कानने । स्थापितं च परद्रव्यं न ग्राह्यं स्तेयदूरगैः ॥३० धनं धान्यं सुवर्ण च मणि-मुक्ताफलादिकम् । परेषां ये न गृह्णन्ति स्तेयभावेन धोधनाः ॥३१ ते तद्-प्रतप्रभावेन भवेयुनिधिभागिन: । नानासम्पत्सहस्रेण मण्डिताः शर्मसङ्गिणः ॥३२ येऽत्र लोभग्रहग्रस्ताः परद्रव्यं हरन्ति च । तैः संहृताः परप्राणाः परं निन्द्यं किमुच्यते ॥३३ यो मूढश्चोरयित्वा च परद्रव्यं गृहं नयेत् । तेन स्वमूलनाशश्च विहितो नात्र संशयः ॥३४ ततो दुःखी दरिद्री च रोगी शोको विरूपकः । परद्रव्योरुपापेन संसारे संसरत्यरम् ॥३५ तस्मात्सन्तोषतो नित्यं मनोवाक्काययोगतः । स्तेयव्रतं दृढं भव्यैः पालनीयं सुखप्रदम् ॥३६ स्तेयप्रयोगकः स्तेयाऽऽहृताऽऽदानं विलोपनम् । होनाधिकं तथा मानं वस्तूनां मिश्रता तथा ॥३७ एते स्तेयव्रतस्यापि व्यतीचाराश्च पञ्च वै । सन्त्याज्या वतरक्षार्थ धीधनैः सर्वथा त्रिधा ॥३८ जिनपतिकथितं ये स्तेयदोषं च मत्वा मनसि विशदचित्तास्तद्वतं पालयन्ति । इह-परभवलक्ष्मीशर्म सम्प्राप्यते वै परमसुखनिधानं प्राप्नुवन्त्येव भव्याः ॥३९ विद्या-विलास, सुयश, प्रसिद्धि और बुधजनोंके द्वारा मान्यता प्राप्त होती है। इसलिए सज्जन पुरुषोंको सदा ही सत्य बोलना चाहिए ॥२८॥ जो दूसरोंके विना दिये हुए धनादिको कभी नहीं ग्रहण करते हैं, उसे मुनीश्वर स्थूलस्तेयपरित्याग नामका अणुव्रत कहते हैं ।।२९।। चोरीसे दूर रहनेवाले पुरुषोंको दूसरोंके भूले हुए, गिरे हुए, मार्गमें या अमार्गमें (मकान आदिमें) या जंगलमें रखे हुए द्रव्यको ग्रहण नहीं करना चाहिए ॥३०॥ जो बुद्धिमान् लोग दूसरोंके धन, धान्य, सुवर्ण, मणि, मुक्ताफल (मोती) आदिको चोरी भावसे ग्रहण नहीं करते हैं, वे इस अस्तेयव्रतके प्रभावसे नौ निधियोंके भोक्ता चक्रवर्ती होते हैं, तथा सहस्रों प्रकारको नाना सम्पत्तियोंसे मण्डित होकर सुखके भोक्ता होते हैं ।।३१-३२।। किन्तु जो लोग यहाँपर लोभरूपी ग्रहसे ग्रसित होकर पर-द्रव्यको हरण करते हैं, वे उन लोगोंके प्राणोंको ही हरण करते हैं, इससे अधिक निन्द्य बात और क्या कही जाय ॥३३।। जो मूढ पुरुष पराये द्रव्यको हरकर अपने घर लाता है, उसने अपना समूल नाश किया, इसमें संशय नहीं है ॥३४॥ तत्पश्चात् वह पर-द्रव्यके हरण करनेके महापापसे दुःखी, दरिद्री, रोगी, शोकी और कुरूप होकर संसारमें चिरकाल तक परिभ्रमण करता है ॥३५।। इसलिए भव्योंको सन्तोषके साथ मन-वचनकायसे सुखदायी चौर्य-त्यागरूप व्रतको सदा ही दृढ़रूपसे पालना चाहिए ॥३६॥ स्तेयप्रयोग, स्तेयाहृतादान, राजाज्ञा-विलोपन, हीनाधिकमानोन्मान और वस्तु-संमिश्रण, ये पाँच अचौर्यव्रतके अतीचार हैं। बुद्धिमानोंको अपने अचौर्यवतकी रक्षाके लिए इन पात्रोंको सदा ही त्रियोगसे छोड़ देना चाहिये ॥३७-३८। नो निर्मल चित्तवाले पुरुष जिनदेव-कथित इन स्तेयदोषोंको जानकर मनमें इस व्रतको पालते हैं, वे भव्य जीव इस भवमें लक्ष्मीके सुखको प्राप्त करते हैं और परभवमें परम, १. अ 'सदाऽनृतवचः प्रहरन्तु' इति पाठः । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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