Book Title: Shravakachar Sangraha Part 2
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 508
________________ धर्मोपदेशपीयूषवर्ष - श्राजकाचार हिंसापापप्रदोषेण त्रसानां मूढमानसः । दुःख दारिद्र- रोगावे दुर्गतर्भाजनं भवेत् ॥१५ तत्रापि छेदनं शस्त्र भैवनं यन्त्रपीलनम् । भुक्त्वा चिरं ततो धोरे संसारे पतति ध्रुवम् ॥१६ ततो जिनेन्द्रसूत्रोक्त्या कृत्वा हिंसाविवर्जनम् । भव्या भवन्तु भो यूयं सारसम्पद्विभोगिनः ॥१७ प्रभावो वर्ण्यते न दयाया भुवनोत्तमः । यत्र सम्पूजितो देवैश्चाण्डालोऽपि दयापरः ॥ १८ लोके जीवदया समस्तसुखदा प्रोक्ता जनानां जिनैर्ये भव्या भवदुः खराशिदलिनों तां पालयन्ति त्रिधा । ते नित्यं त्रिदशादिशमंजननों सम्प्राप्य सत्सम्पदां पश्चान्मुक्ति रमाप्रमोदमतुलं शुद्धं लभन्ते बुधाः ॥ १९ स्थूलासत्यं वचो यच्च सत्यं पीडाकरं च यत् । स्वयं वदन्ति नैवात्र न परान् वादयत्यलम् ॥२० तं च स्थूलमृषात्यागं सम्प्राहुर्गृहिणां बुधाः । यच्च लाभ-भय-द्वेषैर्व्यलोकं वचनं न हि ॥ २१ तथा मर्मव्ययं वाक्यं कर्णयोर्दुःखकारणम् । अपश्यं च न वक्तव्यं सत्यवाक्यपरायणैः ॥२२ हितं मितं तथा पथ्यं विरोधपरिर्वाजितम् । कर्णयोर्हृदयस्यापि वचो जल्पन्ति साधवः ॥२३ पशवोऽपि महाक्रूराः प्रियवाक्यप्रसादतः । तेऽपि तुष्यन्ति तन्नित्यं वक्तव्यं प्रियमेव च ॥ २४ ये वदन्ति सदा सत्यं वचः सर्वजनप्रियम् । ते भवन्ति महाभव्याः कीर्त्तिव्याप्त जगत्त्रयाः ॥२५ मिथ्योपदेशक श्चापि रहोऽभ्याख्यानकं तथा । पैशुन्यं कूटलेखं च तथा न्यासापहारता ॥२६ एते सत्यस्य पञ्चापि व्यतीचाराः प्रकीर्तिताः । वर्जनीयाः सदा भव्यैजिनेन्द्रवचने रतः ॥२७ ४७५ रहित शाश्वत मुक्तिको प्राप्त करता है ॥११- १४ ॥ त्रसजीवों की हिंसा के पाप-जनित दोषसे अज्ञानी पुरुष दुःख दारिद्र और रोगादिकका तथा दुर्गतिका पात्र होता है || १५ || उन दुर्गतियोंमें शस्त्रोंसे छेदन, भेदन और यंत्र - पोलनके महादुःखोंको चिरकाल तक भोगकर फिर भी वह निश्चयसे घोर संसार में पतनको प्राप्त होता है || १६ | | अतएव जिनेन्द्र - सूत्र - कथित रीतिसे हिंसाका परित्याग करके हे भव्यो, आप लोग सार सुख-सम्पदाके भोगनेवाले होओ || १७|| इस दयाका लोकोत्तम प्रभाव किसके द्वारा वर्णन किया जा सकता है, जहाँपर कि दयामें तत्पर चाण्डाल भी देवोंके द्वारा पूजित हुआ है || १८ || जिनदेवने लोकमें जीवदयाको समस्त सुखोंकी देनेवाली कही है। जो भव्य जीव त्रियोगसे भव-दुःखराशिका विनाश करनेवाली उस दयाको पालते हैं, वे ज्ञानी सदा ही देवादिकी सुख देनेवाली उत्तम सम्पदाको पा करके पीछे अनुपम, शुद्ध मुक्तिरमाके प्रमोदको पाते हैं ||१९|| जो वचन स्थूल असत्य हैं और सत्य हो करके भी अन्यको पीड़ा करनेवाले हैं, उन वचनोंको जो न तो स्वयं बोलते हैं और न दूसरोंसे बुलवाते हैं, उसे ज्ञानियोंने गृहस्थोंका स्थूलमृषात्याग नामक सत्याणुव्रत कहा है । तथा सत्यवाक्य बोलने में परायण श्रावकोंको लाभ, भय और द्वेषसे झूठ वचन कभी नहीं बोलना चाहिए। अपथ्य - (महित ) कारी वचन भी नहीं बोलना चाहिए और पराये मर्म के भेदने वाले एवं कानोंको दुःखके कारणभूत वाक्य भी नहीं बोलना चाहिए || २० -- २२|| साधु पुरुष हित, मित, पथ्य, विरोध-रहित, कानोंको तथा हृदयको प्रिय लगनेवाले वचन बोलते हैं ||२३|| महाक्रूर पशु भी प्रिय वचनोंके प्रसादसे सन्तुष्ट होते हैं (और अपना क्रूरपना छोड़ देते हैं ।) इसलिए श्रावकोंको सदा प्रिय वचन ही बोलना चाहिए ||२४|| जो लोग सदा सब जनोंको प्रिय लगनेवाले वचन बोलते हैं, वे महा भव्य हैं और उनकी कीर्ति तोनों लोकों में व्याप्त होती है ||२५|| मिथ्या उपदेश, रहोऽभ्याख्यान, पैशुन्य, कूटलेखकरण और न्यासापहरण ये पाँच सत्याणुव्रतके अतीचार कहे गये हैं । जिनेन्द्र-वचनोंमें संलग्न भव्य पुरुषोंको ये पाँचों अतिचार सदा ही छोड़ना चाहिए ॥ २६-२७॥ सत्य बोलनेसे संसारमें निर्मल कीति, विमल लक्ष्मी, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534