Book Title: Shravakachar Sangraha Part 2
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 507
________________ चतुर्थोऽधिकारः अणुव्रतानि पश्चैव त्रिप्रकारं गुणव्रतम् । शिक्षाव्रतानि चत्वारि गृहिणां द्वादशप्रमम् ॥१ चारित्रं मुनिभिः प्रोक्तं दुराचार - विनाशनम् । प्रीत्या सम्पालितं सार - सौख्य सम्पत्तिकारणम् ॥२ स्यूलेभ्यः पञ्चपापेभ्यो हिंसादिभ्यः सतां सदा । सम्भवेद्विरतिर्या सा तदणुव्रतपञ्चकम् ॥३ सर्वदा चित्तसङ्कल्पात्त्रसजीववधस्त्रिधा । क्रियते नैव यत्तच्च प्रथमं स्यादणुव्रतम् ॥४ अहिंसा शंस्यते सा च यन्नाम स्थापनादिभिः । हन्यते न त्रसो जीवः क्वापि पिष्टादिनिर्मितः ॥५ देवता - मन्त्रसिद्धचर्य मौषधादिनिमित्तकम् । चेतनाचेतनो जीवो नैव हन्यो हितार्थिभिः ||६ साणां रक्षणं कार्यं तत्सदा भव्यदेहिभिः । मनोवाक्काययोगेन धर्मसत्त्वविदांवरैः ॥७ भावकव्रतपूतानां पक्षोऽयं भाषितो जिनैः । हिंसा साङ्कल्पिकी नित्यं त्रसानां क्रियते न यत् ॥८ तथा बन्ध-वघच्छेद-भूरिभाराधिरोपणम् । आहार-वारणा चापि पञ्च दोषा अहिंसने ॥९ एतैर्दोषैवनिर्मुक्तां सद्दयां त्रसदेहिनाम् । भव्यस्त्रिधा करोतीह स व्रती श्रावकोत्तमः ॥ १० इत्यादिभूरिभेदेर्यो भव्यात्मा सद्दयापरः । जिनेन्द्रवचने नित्यं सावधानो विचक्षणः ॥११ इन्द्र-खेन्द्र-नरेन्द्रादि- सम्पदां शर्मदायिनीम् । पुत्र- मित्र - कलत्रादि- धनैर्धान्यादिभिः सदा ॥१२ रूप-सौभाग्य सद्गोत्र र्नानाभोगशतैर्युताम् । सम्प्राप्य श्रीजिनेन्द्रोक्त- रत्नत्रितययोगतः ॥ १३ क्रमेण केवलज्ञानी भूत्वा त्रैलोक्यपूजितः । शाश्वतीं मुक्तिमाप्नोति जरामरणवर्जिताम् ॥१४ पांच अणुव्रत, तीन प्रकारके गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ये गृहस्थोंके बारह व्रत हैं ॥१॥ दुराचारके विनाश करनेको मुनियोंने चारित्र कहा है । वह प्रीतिसे पालन करनेपर सारभूत सुखकी सम्पत्ति (संप्राप्ति) का कारण है ||२|| हिंसादिक स्थूल पंच पापोंसे सज्जनोंके जो विरति होती है, वे पाँच अणुव्रत कहलाते हैं ||३|| मनके संकल्पसे, कृत कारित और अनुमोदनाके द्वारा जो कभी भी सजीवोंका घात नहीं किया जाता है, वह प्रथम अहिंसाणुव्रत है || ४ || नाम, स्थापना आदिसे पीठी आदिका बना हुआ भी त्रसजीव जहाँ कहींपर भी नहीं मारा जाता है, वह अहिंसा प्रशंसनीय कही जाती है ||५|| आत्महितैषी लोगोंको देवता और मन्त्रकी सिद्धिके लिए, तथा औषधि आदिके निमित्त भी चेतन या अचेतन जीव नहीं मारना चाहिए || ६ || इसलिए धर्मतत्त्वके जानकार भव्य जीवोंको मन-वचन-कायसे सदा सजीवोंकी रक्षा करनी चाहिए ||७|| त्रसजीवोंकी सांकल्पिकी हिंसा कभी नहीं करना, यह जिनदेवोंने श्रावकव्रतसे पवित्र गृहस्थोंका पक्ष कहा है ||८|| इस अहिंसाणुव्रत में बन्ध, वध, छेदन, अतिभारारोपण और आहार-वारण ये पाँच दोष होते हैं ||९|| जो भव्यजीव इन दोषोंसे रहित त्रसजीवोंकी उत्तम दयाको त्रियोगसे करता है, वह इस लोकमें श्रावकोंमें उत्तम व्रती माना गया है ||१०|| जो भव्यात्मा त्रियोग - त्रिकरण इत्यादि अनेक भेदोंसे सद्दयामें तत्पर रहता है और जिनेन्द्रवचन में नित्य सावधान है, वह विचक्षण सांसारिक सुख देनेवाली इन्द्र, खेचरेन्द्र, नरेन्द्रादिकी सम्पदाको पुत्र मित्र कलत्रादिके तथा धन-धान्यादि के साथ एवं रूप-सौभाग्य, सद्-गोत्र और सैकड़ों प्रकारके अनेक भोगोंके साथ प्राप्त करके श्रीजिनेन्द्रभाषित रत्नत्रयके योगसे क्रमशः केवलज्ञानी और त्रैलोक्य के जीवोंसे पूजित होकर जरामरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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