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द्वितीयोऽधिकारः
अथ श्रीमज्जिनेन्द्रोक्तं सज्ज्ञानं भुवनोत्तमम् । नत्वा ज्ञानस्वरूपं च संक्षेपेण सतां वे ॥१ पूर्वापरविरोधेन वजितं यच्च निर्मलम् । तदेव भुवने ज्ञानं भव्यानां लोचनं परम् ॥२ जीवानां सुदया यत्र स्थाप्यते शमंकारिणी । सज्ज्ञानं तबुधैः प्रोक्तं सर्वसम्पद-विषायकम् ॥३ जन्तूनां विद्यते यत्र हिंसा दुःखशतप्रदा । तत् कुज्ञानं मतं सद्धिर्महापापस्य कारणम् ॥४ हिंसादिपातकं येन त्यज्यते जन्तुभिः सदा । तज्ज्ञानं सर्वजीवानां शर्मदं ज्ञानिभिर्मतम् ॥५ येन जीवो जडात्माऽपि लोकालोकं हिताहितम् । निःसन्देहं विजानाति तज्जैनं ज्ञानमुत्तमम् ॥६ तद्-भेदाः भूरिशः सन्ति संप्रोक्ताः श्रीजिनेश्वरैः । ज्ञातव्यास्ते महाभव्यैरागमे जिनभाषिते ॥७ महाधिकाराश्चत्वारो विद्यन्ते ये जगद्धिताः । संक्षेपेण प्रसिद्धास्तांन् वक्ष्ये सज्ज्ञानसिद्धये ॥४ तीर्थेशां शान्तिकर्तृणां पुराणं पुण्यकारणम् । पञ्चकल्याणसम्पत्तविस्तारैगुणधारणम् ॥९ तथा श्रीमद्-गणाधीश-चक्रयादिचरितं शुभम् । प्रथमानुयोगदीपो भव्यानां संप्रकाशते ॥१० लोकालोकस्थिते: काल-परावर्तस्य लक्षणम् । भेदाश्चतुर्गतीनां च वर्तन्ते यत्र निश्चयात् ॥११ संशयोरुतमोध्वंसी भव्यानां शर्मदायकः । करणानुयोगरविः संप्रोक्तो मुनिसत्तमैः ॥१२ मुनीनां श्रावकाणां च चारित्रां भुवनोत्तमम् । तस्योत्पत्तिश्च वृद्धिश्च सत्सुखोरुफलानि च ॥१३ .
श्रीमान् जिनेन्द्रदेवके द्वारा कहे गये, लोकमें उत्तम ऐसे सम्यग्ज्ञानको नमस्कार करके में सज्जनोंके लिए ज्ञानका स्वरूप संक्षेपसे कहता हूँ॥१॥ जो पूर्वापर विरोधसे रहित और निर्मल है, वही ज्ञान संसारमें भव्य जीवोंका परम लोचन (नेत्र) है ॥२॥ जिसमें सर्व जीवोंको सुख करनेवाली उत्तम दयाकी स्थापना की गयी है और जो सभी सम्पदाओंका विधायक है, ज्ञानियोंने उसे ही सद्-ज्ञान कहा है ।।३।। जिसमें जीवोंको सैकड़ों दुःखोंकी देनेवाली हिंसाका विधान है, उसे सन्तोंने महापापका कारण कुज्ञान कहा है ॥४॥ जिसके द्वारा जीवोंसे हिंसादिक पाप सदा छुड़ाये जाते हैं और जो सर्व जीवोंको सुखका देनेवाला है उसे ही ज्ञानियोंने सम्यग्ज्ञान माना है ॥५॥ जिसके द्वारा जड़ वुद्धि पुरुष भी लोक-अलोकको और अपने हित-अहितको निःसन्देह जानता है, वही जिनोक्त उत्तम सत्य ज्ञान है ॥६॥ श्री जिनेश्वरदेवने उस सम्यग्ज्ञानके बहुत भेद कहे हैं, उन्हें भव्य पुरुष जिनभाषित आगमसे ज्ञात करें ॥७॥ उस सम्यग्ज्ञानके जगत्-हितकारी चार महाधिकार हैं, उन प्रसिद्ध अधिकारोंको सम्यग्ज्ञानकी सिद्धिके लिए मैं संक्षेपसे कहता हूँ ॥८॥ जिसमें शान्तिके कर्ता तीर्थंकरोंकी पंच कल्याणकरूप सम्पत्तिका विस्तारसे गुण-वर्णन किया गया है, ऐसे पुण्यके कारणभूत पुराण ग्रन्थ तथा श्रीमान् गणधरदेवोंका, चक्रवर्ती आदि शलाका पुरुषोंका शुभचरित कहा गया है, उसे प्रथमानुयोग कहते हैं। यह प्रथमानुयोगरूपी दीपक भव्य जीवोंके लिए मोक्षगामी महापुरुषोंका आख्यान (चरित) प्रकाशित करता है ॥९-१०॥ जिसमें लोक
और अलोककी स्थितिका, कालके परिवर्तनका और चारों गतियोंके भेदका लक्षण विद्यमान है, जो निश्चयसे भव्य जीवोंके संशयरूप महान्धकारका विध्वंसक है और उन्हें सुखदायक है, उसे उत्तम मुनियोंने करणानुयोगरूपी सूर्य कहा है ॥११-१२॥ जिसमें मुनियों और श्रावकोंके लोकोत्तम
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