Book Title: Shravakachar Sangraha Part 2
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 504
________________ ७१ धर्मोपदेशपीयूषवर्ष भावकाचार किमुच्यते परं लोके यत्पीत्वा कामपीडितः । भगिन्यादी कुचित्तेन दुर्गति याति पापतः ॥१४ __ यदुक्तम् मुहु विलिहिवि मुत्तइ सुणहु एह ण मज्जहु दोसु। - मत्तउ बहिणि जि अहिलसइ तें तहु परइ पएसु ॥३ अतो विवेकिभिभव्यः कुललज्जा-दयापरैः । मनोवाक्कायतो नित्यं तत्त्याज्यं धर्महेतवे ॥१५ तथा तद्-वतरक्षार्थ सङ्गतिमद्यपायिनाम् । अष्टभिश्व मदैः साधं सन्त्याज्यं सद्विचक्षणः ॥१६ मूलतोऽपि सुयत्नेन व्याधिः संछेदितो यथा । नैव पीडां करोतीह कदाचिदपि देहिनाम् ॥१७ द्वि-धातुजं भवेन्मांसं प्राणिघातसमुद्भवम् । महापापप्रवं नित्यं सन्त्याज्यं दूरतो बुधैः ॥१८ महानरकसंवास-दायकं दुःखहेतुकम् । ज्ञातव्यं फलमेकं हि महासंसारपातकम् ॥१९ कृतं च कारितं चापि तन्निमित्तानुमोदनम् । प्राहुः प्राज्ञा महापापं दुःखकोटिप्रदायकम् ॥२० महामिथ्योदयेनात्र येन तद्भक्षितं क्षितौ । स निन्द्यो भुवने पापी भवेदुःखैकभाजनम् ॥२१ धर्मकल्पद्रुमस्योच्चैर्दया मूलं भवत्यलम् । तद्भक्षिणः कुतो धर्मो बीजाभावे यथा फलम् ॥२२ यन्नाम्ना दर्शनाच्चापि सत्तां दुःखं प्रजायते । तल्लम्पटो महापापो कथं दुःखी न भूतले ॥२३ संसार-सागरमें डुबानेवाला है। अतः आत्म-हितके वांछक सज्जनोंको इसका नामसे भी सदा त्याग करना चाहिए ॥१३॥ इस मद्यकी अधिक क्या निन्दा करें, इसे पीकर कामसे पीड़ित हुआ मनुष्य बहिन आदिमें भी काम-सेवनकी दुर्बुद्धि करके उसके पापसे दुर्गतिको जाता है ॥१४॥ जैसा कि कहा है कि-कुत्ता मद्यपायीके मुखको चाटकर उसके ऊपर मूतता है। इतना ही मद्यपानका दोष नहीं है, अपितु मद्य पीनेसे उन्मत्त हुआ वह अपनी बहिनके साथ भी काम-सेवनको अभिलाषा करता है और उससे वह नरकमें प्रवेश करता है ॥३॥ ____ अतः विवेकी, कुल-लज्जावाले दयालु भव्योंको धर्मके हेतु मन-वचन-कायसे नित्य ही इस मद्यका त्याग करना चाहिए ॥१५॥ तथा मद्यत्यागवतकी रक्षाके लिये मद्यपायी लोगोंकी संगति भी आठों मदोंके साथ सद्ज्ञानियोंको सदा तजनी चाहिए ॥१६॥ जिस प्रकार इस लोकमें सुयत्नपूर्वक मलसे ही छेदी गयी व्याधि प्राणियोंको कभी पीड़ा नहीं करती है, इसी प्रकार प्रारम्भसे ही मद्यपानका स्पर्श भी नहीं करनेसे मनुष्य कभी भी किसी प्रकारको पीडाको नहीं प्राप्त होता है ।।१७।। मांस माताके रज और पिताके वीर्य, इन दो धातुओंसे उत्पन्न होता है, प्राणियोंके घात से प्राप्त होता है और महापापोंका उपार्जक है, इसलिये ज्ञानियोंको इसका नित्य ही दूरसे त्याम करना चाहिये ॥१८॥ मांसका सेवन महानरकोंका निवास देनेवाला है, दुःखोंका कारण है और इस महासंसार-सागरमें गिराना ही इसका एकमात्र फल जानना चाहिये ||१९|| इस मांसका स्वयं उत्पादन करना, दूसरोंसे उत्पादन कराना और उसके निमित्त अनुमोदना करना, इन तीनों ही कर्मोको ज्ञानियोंने कोटि-कोटि दुःखोंको देनेवाला महापाप कहा है ॥२०॥ महा मिथ्यात्वके उदयसे इस पृथ्वीपर जिसने इस मांसको खाया, वह संसारमें निन्द्य पापी है और सदा ही एकमात्र दुःखोंका भाजन होगा अर्थात् दुःखोंको भोगेगा ।।२१।। धर्मरूपी कल्पवृक्षका मूल उत्तम दया है । जो मांसके खानेवाले हैं, अर्थात् जिनके हृदयमें दया नहीं है, उनके धर्म कहांसे हो सकता है ? जैसे कि बीजके अभावमें फल नहीं हो सकता ॥२२॥ जिस मांसके नामसे और देखनेसे सज्जन पुरुषोंको दुःख उत्पन्न होता है, उस मांसका लम्पट महापापी पुरुष भूतलमें केसे दुःखी न होगा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

Loading...

Page Navigation
1 ... 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534