Book Title: Shravakachar Sangraha Part 2
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 501
________________ ४६८ श्रावकाचार-संग्रह ज्ञायन्ते विस्तरेणोच्चैर्यत्र भव्यैनिरन्तरम् । चरणानुयोगचन्द्रः स ज्ञेयो लोकसम्मतः ॥१४ जीवजीवावितत्त्वानां सप्तानां यत्र निश्चयः । पुण्य-पापद्वयोर्भेदं सुख-दुःखादिवर्णनम् ॥१५ वर्तते यत्र भो भव्या विस्तरेण जिनागमः । द्रव्यानुयोगनामाऽसौ बोधो मिथ्यात्वनाशकृत् ॥ १६ द्वादशाङ्गं श्रुतं चेति केवलज्ञानिभिर्जनैः । स्वस्वभावेन भव्यानां भाषितं दिव्यभाषया ॥१७ एवं तथा गणाधीशैश्चतुर्ज्ञानविराजितैः नानाग्रन्थस्वरूपेण गुम्फितं रचनाशतैः ॥ १८ संस्कृत - प्राकृतैर्भेदैः श्लोककाव्यादिलक्षणैः । प्रोक्तं परोपकाराय स्वात्मन: सिद्धिहेतवे ॥१९ सर्वागमपदानां च संख्या प्रोक्ता जिनागमे । कोटीशतं तथा कोट्यो द्वादश प्रविकीर्तिता ॥२० लक्षास्त्रयशीतिरित्यष्ट पश्चाशञ्चारसंख्यया । सहस्राणि तथा पञ्च केवलं च पदानि वै ॥२१ सङ्ख्येति ग्रन्थतः प्रोक्ता श्रुते श्रीजिनभाषिते । अर्थतस्तु च सङ्ख्याऽत्र प्राप्यते केन भूतले ॥२२ महागमपदस्यापि कति श्लोका भवन्त्यहो । प्रश्नश्चेत्क्रियते भव्यः श्रूयतां मुनिभिर्मतम् ॥ २३ श्लोकानामेकपञ्चाशत् कोटयो लक्षकाष्टकम् । चतुर्भिरधिकाऽशीतिः सहस्राणि शतानि षट् ॥२४ सार्द्धकविंशतिश्चेति सङ्ख्या चैकपदस्य वै । सम्प्रोक्ता मुनिभिर्धीरैविशुद्धेर्बोधसिन्धुभिः ॥२५ उक्तं च- एक्कावण कोडीओ लक्खा अट्ठेव सहस चुलसीवी । सय छक्कं णायव्वं सड्ढाइगवीस पयगंथा ॥२ इत्यादि हिमोपेतं श्रुतं श्रीजिनभाषितम् । समाराध्यं महाभव्यैः केवलज्ञानसिद्धये ॥२६ चारित्रका वर्णन है और जिस चारित्रकी उत्पत्ति, वृद्धि एवं उसके उत्तम सुखरूप महान् फल भव्योंके द्वारा निरन्तर विस्तारसे अच्छी तरह जाने जाते हैं, वह लोक- प्रसिद्ध चरणानुयोगरूप चन्द्र जानना चाहिये ॥१३ - १४ | जिसमें जीव, अजीव आदि सातों तत्त्वोंका निश्चय किया गया हैं, जिसमें पुण्य और पाप इन दोनोंके भेदोंके सुख-दुःखादिका वर्णन विस्तारसे विद्यमान है, वह द्रव्यानुयोग नामका जिनागम है । यह द्रव्यानुयोगरूप सम्यग्ज्ञान मिथ्यात्वका नाशक है ।।१५-१६ केवलज्ञानी जिनेन्द्रोंने भव्य जीवोंके लिए अपने सहज स्वभावसे दिव्यध्वनिके द्वारा द्वादशाङ्ग श्रुतका निरूपण किया है || १७|| पुनः चार ज्ञानोंसे विराजित गणधरदेवोंने सैकड़ों रचनाओं के द्वारा नाना ग्रन्थोंके स्वरूपसे उस श्रुतज्ञानको गुम्फित किया । पुनः परवर्ती आचार्योंने संस्कृतप्राकृत भाषाओंसे श्लोक -काव्यादि लक्षणवाले अनेक भेदोंके द्वारा परोपकार के लिए तथा अपने आत्माकी सिद्धि हेतु उस श्रुतज्ञानका निरूपण किया || १८-१९ || श्री जिनागममें आगमके सर्वपदों की संख्या एक सौ बारह करोड़, तेरासी लाख, अट्ठावन हजार, पाँच (११२८३५८००५) कही गयी है | २० - २१ ॥ श्री जिन भाषित श्रुतमें ग्रन्थ रचनाकी अपेक्षा यह संख्या कही गयी है । अर्थकी अपेक्षा तो श्रुतज्ञानकी संख्याको इस भूतलमें कौन पा सकता है ||२२|| श्रुतरूप आगमके एक महापदके कितने श्लोक होते हैं ? यदि भव्य लोग ऐसा प्रश्न करते हैं, तो मुनियोंके द्वारा मानी गयी वह संख्या सुनें ||२३|| धीरवीर, विशुद्ध ज्ञानके सागर मुनियोंने एक पदके श्लोकोंका परिमाण एकावन करोड़, आठ लाख चौरासी हजार छह सौ साढ़े इक्कीस (५१०८८४६२१३) श्लोकप्रमाण कहा है ॥२४-२५॥ जैसा कि पूर्वाचार्योंने भी कहा है – एक पद इकावन कोड़ि, आठ लाख, चौरासी हजार, छह सौ साढ़े इक्कीस श्लोक प्रमाण होता है ||२|| इत्यादि महिमासे संयुक्त श्री जिन भाषित श्रुतकी महाभव्य जीवोंको केवलज्ञानकी सिद्धि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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