Book Title: Shravakachar Sangraha Part 2
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 493
________________ ४६० श्रावकाचार-संग्रह श्रद्धानं केवलं नैव स्वेष्टस्यार्थस्य साधकम् । न ज्ञानं नापि चारित्रं किन्तु तत्त्रितयं मतम् ॥१४४ श्रद्धानात्स्वेष्टसिद्धिश्चेत्तदैतन्त्र सुदुर्लभम् । कुशलस्थितधान्यस्य पाकः श्रद्धानगो भवेत् ॥१४५ ज्ञानादेवेष्टसिद्धिश्चेत्तदा श्रद्दध्महे वयम् । दृष्टमेव जलं दूरात्तृष्णाघाति भवेदिति ॥१४६ चारित्रणव चेत्सिद्धिरन्धः पिहितदावनात् । दावानलव्यालकूपव्याप्ताद् गच्छेत्सुखं बहिः ॥१४७ तस्मात्सम्यक्त्वसज्ज्ञानसच्चारित्रत्रयात्मकः । धर्मः स्वर्गापवर्गकफलनिष्पत्तिसाधकः ॥१४८ विज्ञायेति समाराध्यो धर्म एषो मनीषिभिः । यस्तुष्टो सम्पदा तुष्टो ददाति विपदोऽन्यथा ॥१४९ इत्येष धर्मो गृहिणां मयोक्तो यथाऽऽगमं स्वल्परुचीन् विनेयान् । विशोध्य विस्तारयतः प्रयत्नात्सन्तः सदा सद्गुणभूषणाढ्या ॥१५० इति श्रीमद्-गुणभूषणाचार्यविरचिते भव्यजनचित्तवल्लभाभिधानश्रावकाचारे साधुनेमिदेवनामाङ्किते सम्यक्चारित्रवर्णनो नाम तृतीयोद्देशः ॥३॥ केवल श्रद्धान ही अपने अभीष्ट अर्थका साधक नहीं है। इसी प्रकार अकेला ज्ञान और चारित्र भी इष्ट अर्थको नहीं सिद्ध करता है। किन्तु ये तीनों ही अभीष्ट अर्थ मोक्षके साधक माने गये हैं ॥१४४।। यदि केवल श्रद्धानसे अपने इष्टकी सिद्धि होवे, तब तो फिर यह भी दुर्लभ नहीं है कि कोठीमें स्थित धान्यका परिपाक भी श्रद्धानमात्रसे हो जायगा ॥१४५।। यदि अकेले ज्ञानमात्रसे इष्टसिद्धि होवे, तब तो हम यह विश्वास करते हैं कि दूरसे देखा गया जल भी प्यासका बुझानेवाला हो जायगा ॥१४६।। यदि केवल चारित्रसे ही सिद्धि सम्भव हो, तब तो अन्धा पुरुष दावानलसे, हाथियों या सोसे तथा कूपोंसे व्याप्त दुर्गम वनसे सुखपूर्वक बाहर निकल जायगा ॥१४७।। इसलिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र स्वरूप जो धर्म है, वह ही स्वर्ग और अपवर्ग (मोक्ष) रूप फलकी प्राप्तिका साधक है ॥१४८|| ऐसा जानकर मनीषीजनोंको इस रत्नत्रयरूप धर्मकी ही आराधना करना चाहिए। जो धर्म सेवनसे सन्तुष्ट है, वह सम्पदासे भी पुष्ट है। अन्यथा अधर्म विपदाएँ देता है ॥१४९|| इस प्रकार यह गृहस्थोंका धर्म मैंने आगमके अनुसार अल्प रुचिवाले शिष्योंके लिए कहा। यदि इसमें कहीं कोई भूल या चूक हो तो उसे संशोधन करके उत्तम गुणोंसे विभूषित सन्त जन प्रयत्नके साथ इस ग्रन्थका विस्तार करें ॥१५०॥ इस प्रकार श्री गुणभूषणाचार्य-विरचित भव्यजनचित्तवल्लभ नामका साहु नेमिदेवके नामसे अंकित इस श्रावकाचारमें सम्यक्चारित्रका वर्णन करनेवाला तीसरा उद्देश्य समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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