Book Title: Shravakachar Sangraha Part 2
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 496
________________ धर्मोपदेशपीयूषवर्ष-श्रावकाचार ४६३ तत्राऽऽप्तो भव्यते देवः सोऽपि दोविवजितः । तेऽपि दोषा बुधैर्जेयाः क्षुत्पिपासा जरा रुजा ॥१० जन्मान्तको भयं निद्रा रागो द्वेषश्च विस्मयः । चिन्ता रतिः स्मयः खेदो विषादः स्वेद-मोहको ॥११ एतैर्दोविनिर्मुक्तो यः सर्वज्ञो जिनेश्वरः । स्नातकः परमेष्ठी च कथ्यते स निरञ्जनः ॥१२ तेन श्रीमज्जिनेन्द्रेण स्वस्वभावेन देहिनाम् । यत्प्रोक्तं शास्त्रमत्युच्चैविरोधपरिवजितम् ॥१३ जीवाजीवादिकं तत्त्वं पवित्र भुवनत्रये । तदेवाऽऽगमसारस्तु स्वर्ग-मोक्षसुखप्रदः ॥१४ निर्ग्रन्थो यो मुनिबर्बाह्याऽऽभ्यन्तरोरुपरिग्रहैः । निर्मुक्तो वा ग्रहैर्भव्यो भूतले परमार्थवित् ॥१५ ज्ञान-ध्यान-तपोयोगैः संयुक्तः सद्दयापरः । क्षमावान् शीलसम्पन्नस्तपस्वी स जगद्धितः ॥१६ इत्याप्ताऽऽगम-चारित्र-धारिष्वेव महारुचिः । जायते संज्ञिभव्यस्य संशयादिविजिता ॥१७ या सा सर्वजगत्सार-सम्पदा शमंदायिनी । तदेव प्रोच्यते सद्भिः सम्यग्दर्शनमुत्तमम् ॥१८ संसार-देह-भोगादेः सुखे कर्म-निबन्धने । नैव वाञ्छा त्रिधा या सा निःकाङ्क्षा कथ्यते बुधैः ॥१९ तथाऽशुचौ शरीरेऽपि रत्नत्रयसमन्विते । गुणप्रीत्या जुगुप्सा न सतां निविचिकित्सता ॥२० मिथ्यामार्गे तथा मिथ्या-दृष्टौ पुंसि कदाचन । नैव प्रीतिः स्तुति व क्रियते साऽमूढदृष्टिता ॥२१ शुद्धस्य जिनमार्गस्य बालाशक्तजनाऽऽगता। निन्द्यताऽऽच्छाद्यते यत्तत्कथ्यते चोपगृहनम् ॥२२ दर्शन-ज्ञान-चारित्रात्प्रमादाच्चलतां बुधैः । पुन: संस्थापनं प्रोक्तं संस्थितीकरणं शुभम् ।।२३ रूपी सद्-रत्न अति गाढ़रूपसे शोभायमान होता है ॥९॥ सत्यार्थ आप्त वह कहा जाता है, जो कि सर्व दोषोंसे रहित होता है। ज्ञानियोंको वे दोष इस प्रकार जानना चाहिए-क्षुधा तृषा जरा रोग जन्म मरण भय निद्रा राग द्वेष विस्मय चिन्ता रति स्भय खेद विषाद प्रस्वेद और मोह इन अठारह दोषोंसे जो विनिर्मुक्त है, अर्थात् वीतरागी है, सर्वज्ञ है, और हितोपदेशी है, वही सत्यार्थ आप्त है। वही जिनेश्वर, श्रावक, निरंजन और परमेष्ठी कहा जाता है ।।१०-१२॥ उस श्रीमज्जिनेन्द्रदेवके द्वारा स्व-स्वभावसे (अपने आप) प्राणियोंके कल्याणके लिए जो कहा गया है और जो पूर्वापर विरोधसे सर्वथा रहित है, वह सत्यार्थ शास्त्र है ।।१३।। जीव-अजीवादिक सात ही भुवनत्रयमें पवित्र तत्त्व हैं, वे ही उक्त आगमके सारभूत है और वे ही स्वर्ग एवं मोक्षके सुखोंके देनेवाले हैं ।।१४।। जो भव्य बाह्य और आभ्यन्तर सभी प्रकारके परिग्रहोंसे तथा ग्रहोंसे निमुक्त, निर्ग्रन्थ मुनि है, वही इस भूतलमें परमार्थका वेत्ता है। जो ज्ञान-ध्यान और तपोयोगसे संयुक्त है, सद्-दयामें तत्पर है, क्षमावान् है, शील-सम्पन्न है, तेजस्वी है और जगत्का हितैषी है, वही सत्यार्थ गुरु कहलाता है ॥१५-१६।। इस प्रकारके आप्त, आगम और चारित्र-धारी गुरुओंमें संज्ञी भव्य जीवके जो संशयादिसे रहित महारुच (दृढ़ श्रद्धा) होती है, वही सर्वजगत्में सारभूत सम्पदा है; और यथार्थ सुखको देनेवाली है। उसे ही सन्तजन उत्तम सम्यग्दर्शन कहते हैं। (यह निःशंकित अंग है) ॥१७-१८।। कर्म-बन्धनके कारणभूत सांसारिक एवं शारीरिक भोगादिके सुखमें जो मन-वचन-कायसे वांछा नहीं होना, उसे ही ज्ञानियोंने निःकांक्षित अंग कहा है ॥१९॥ तथा रत्नत्रयसे संयुक्त साधुके अशुचि भी शरीरमें ग्लानि नहीं करना और उनके गुणोंमें प्रीति करना उसे सन्तोंका निर्विचिकित्सा अंग माना गया है ॥२०॥ मिथ्यामार्गमें तथा मिथ्यादृष्टि पुरुषमें कदाचित् भी न प्रीति करना और न स्तुति ही करना, सो यह अमूढदृष्टि अंग है ॥२१॥ शुद्ध जिनमार्गको बाल एवं अशक्त जनोंके आश्रयसे होनेवाली निन्दाका जो आच्छादन किया जाता , है, वह उपगूहन अंग कहा गया है ॥२२॥ सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्रसे प्रमाद-वश चल-विचल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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