Book Title: Shravakachar Sangraha Part 2
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 479
________________ ૪૪૬ श्रावकाचार-संग्रह कर्मणां वर्गणामेकध्रुवहारविभाजितम् । वरो देशावधिर्वेत्ति मध्यमो वेत्त्यनेकधा ॥२४ वरदेशावधिर्ज्ञेयं ध्रुवहारविभाजितम् । परोऽवधिर्जघन्येन वेत्ति मध्यस्त्वनेकधा ॥२५ वरः परावधिर्वेत्ति स्वावगाहविभाजिते । तैजसे त्ववशिष्टं यद् ध्रुवहारप्रमाणकम् ॥२६ सर्वावर्धिनिर्विकल्पपरमाणु निबोधति । परः सर्वावधिस्त्वन्त्यशरीरे विरते भवेत् ॥ २७ चिन्तिताचिन्तितं वार्धचिन्तितं सर्वभावगम् । नृलोक एव यद्वेत्ति तन्मनः पर्ययं स्मृतम् ॥ २८ विपुलजुंविबुद्धिभ्यां तद्-द्वेधाऽऽद्यं तु षड्विधम् । वक्रेतरमनः कायवाग्गतार्थनिबोधनात् ॥ २९ त्रेधा स्थाहजुर्वाक्कायचित्तस्थार्थप्रवेदनात् । द्वितीयं तच्च सम्पाति पूर्वं त्वप्रतिपातिकम् ||३० त्रिकालगोचरं मूत्तं समीपस्थेन चिन्तितम् । ऋजुबुद्धिर्वेत्ति पूर्वं चिन्तिताचिन्तितं च तम् ||३१ करणक्रमनिर्मुक्तं लोकालोकप्रकाशकम् । सर्वावरणनाशोत्थं केवलज्ञानमुच्यते ॥ ३२ उपचारोऽस्ति तं रूपं तत्त्वं सज्ज्ञानतोऽखिलम् । सम्यनिश्चित्य सम्यक्त्वं विश्वासात्मोपजायते ३३ सम्यग्ज्ञानं विना नैव तत्त्वनिश्चयसम्भवः । कर्मोच्छित्तिर्न तं मुक्त्वा न मोक्षाप्तिश्च तां विना ||३४ कार्मण वर्गणा एक बार ध्रुवहारका भाग देनेपर जो लब्ध आता है, उतने द्रव्यको उत्कृष्ट देशावधि जानता है । मध्यम देशावधि जघन्य और उत्कृष्ट द्रव्यके मध्यवर्ती अनेक प्रकारके द्रव्यको जानता है ||२४|| देशावधिज्ञानका जो उत्कृष्ट द्रव्यप्रमाण है, उसे ध्रुवहारसे विभाजित करनेपर जितना द्रव्य प्राप्त होता है, उसे जघन्य परमावधिज्ञान जानता है । तैजस्कायिक जीवराशिके प्रमाणमें उसकी अवगाहनाके भेदोंसे विभाजित करनेपर जो ध्रुवहार प्रमाण द्रव्य अवशिष्ट रहता है, उसे उत्कृष्ट परमावधिज्ञान जानता है । जघन्य और उत्कृष्ट द्रव्यके मध्यवर्ती अनेक भेदोंको मध्यम परमावधि जानता है ।। २५-२६ ॥ सर्वावधिज्ञान एक निर्विकल्प या अविभागी परमाणुको जाता है । यह परमावधि और सर्वावधिज्ञान चरमशरीर संयतजीवके उत्पन्न होता है || २७ ॥ जो मनुष्य लोकवर्ती जीवोंके मनमें चिन्तवन किये गये, नहीं चिन्तवन किये गये और आधे चिन्तवन किये गये सर्वपदार्थोंको जानता है, वह मन:पर्ययज्ञान माना गया है ||२८|| वह मनः- पर्ययज्ञान विपुलमति और ऋजुमतिके भेदसे दो प्रकारका है । उनमेंसे आदिका विपुलमति मनःपर्ययज्ञान वक्र मन-वचन-कायगत और अवक्र (ऋजु) मन-वचन-कायगत पदार्थों के जाननेसे छह प्रकारका है ||२९|| ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान ऋजु (सरल) मन-वचन-कायगत पदार्थोंके जाननेसे तीन प्रकारका है। यह दूसरा ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञान प्रतिपाति है, अर्थात् होकरके छूट जाता है । किन्तु पहला विपुलमतिमन:पर्ययज्ञान अप्रतिपाति है ||३०|| समीपमें स्थित जीवके द्वारा चिन्तवन किये गये त्रिकाल - सम्बन्धी मूर्त्तद्रव्यको ऋजुमतिमनः पर्ययज्ञान जानता है और विपुलमतिमन:पर्ययज्ञान मनुष्यलोकमें स्थित जोवके चिन्तित और अचिन्तित सर्व प्रकारके त्रिकाल - गोचर मूर्त्त द्रव्यको जानता है ||३१|| जो ज्ञान इन्द्रियों द्वारा जाननेके क्रमसे विमुक्त है, लोक और अलोकका प्रकाशक है और सम्पूर्ण ज्ञानावरणकर्मके विनाश होनेपर उत्पन्न होता है, वह केवलज्ञान कहलाता है ||३२|| इस प्रकार समस्त तत्त्वोंके यथार्थस्वरूपको सम्यग्ज्ञानसे भली-भांति निश्चय करके दृढ़ विश्वासात्मक सम्यक्त्व उत्पन्न होता है ||३३|| सम्यग्ज्ञानके विना तत्त्वोंका निश्चय सम्भव नहीं है । तत्त्वोंके निश्चयके विना कर्मोंका विनाश नहीं हो सकता है और कर्मोंके विनाशके विना मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो सकती है, इसलिए मनुष्य को सम्यग्ज्ञानकी आराधना करनी चाहिए ||३४|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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