Book Title: Shravakachar Sangraha Part 2
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 483
________________ श्रावकाचार-संग्रह अहिंसा सत्यमस्तेयस्थूलब्रह्मापरिग्रहः । पञ्चधाऽणुव्रतं यस्य स्वःश्रियस्तस्य दायकम् ॥२३ यत्स्यात्प्रमादयोगेन प्राणिप्राणापरोपणम् । सा हिंसा दुर्गतेरिमतस्त्याज्या प्रयत्नतः ॥२४ रक्षणं यत्प्रयत्नेन प्रसाणां स्थावरे पुनः । कार्यकारणतावृत्तिरहिंसा सा गृहाश्रमे ॥२५ क्रोधादिनापि नो वाच्यं वचोऽसत्यं मनीषिणा । सत्यं तदपि नो वाच्यं यत्स्यात् प्राणिविघातकम् २६ ग्रामे चतुष्पथादौ वा विस्मृतं पतितं धृतम् । परद्रव्यं हिरण्यादि वयं स्तेयविजिना ॥२७ स्त्रीसेवारङ्गरमणं यः पर्वणि परित्यजेत् । स स्थूल ब्रह्मचारी च प्रोक्तं प्रवचने जिनैः ॥२८ धनधान्यहिरण्यादिप्रमाणं यद्विधीयते। ततोऽधिकेऽवपातेऽस्मिन् निवृत्तिः सोऽपरिग्रहः ॥२९ असृग्मांससुरासादंचमस्थाद्यवलोकने । प्रत्याख्यातबहुप्राणिसन्मिश्रान्ननिषेवणे ॥३० त्यजेद भोज्ये तदेवान्यभुक्ति चैव विवर्जयेत् । अतिप्रसङ्गहान्यथं तपोवृद्धयर्थमेव च ॥३१ दिग्देशानर्थदण्डविरतिः स्याद् गुणवतम् । सा दिशाविरतिर्या स्याद्दिशानुगमनप्रमा ॥३२ यत्र व्रतस्य भङ्गः स्याद्देशे यत्र प्रयत्नतः । गमनस्य निवृत्तिर्या सा देशविरतिर्मता ॥३३ कूटमानतुलापाशविषशस्त्रादिकस्य च । क्रूरप्राणिभृतां त्यागस्तत्तुतीयगुणवतम् ॥३४ - प्रकारके गुणव्रत और चार प्रकारके शिक्षाव्रत हैं, वह व्रत प्रतिमाधारी देशव्रती है ॥२२॥ जिसके अहिंसा, सत्य, अस्तेय, स्थूल ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहरूप पाँच प्रकारके अणुव्रत हैं, उसको वे स्वर्ग लक्ष्मोके दायक हैं ॥२३॥ जो प्रमादयोगसे प्राणियोंके प्राणोंका घात किया जाता है, वह हिंसा कहलाती है। हिंसा दुर्गतिका द्वार है, अतः उसे प्रयत्नसे त्यागना चाहिए ॥२४॥ त्रसजीवोंकी प्रयत्नके साथ रक्षा करनी चाहिए । स्थावर जीवों में भी यथा संभव यत्नाचार रखे, क्योंकि स्थावर हिंसा त्रसहिंसाको कारणभूत है। यही गृहस्थाश्रममें अहिंसा कही गयी है ।।२५।। मनीषी पुरुषको क्रोधादिके आवेशसे भी असत्य वचन नहीं बोलना चाहिए । तथा वह सत्य वचन भी नहीं बोलना चाहिए जो किसी प्राणीका घात करनेवाला हो यह सत्याणुव्रत है ।।२६॥ ग्राममें अथवा चतुष्पथ (चौराहा) आदिमें विस्मृत, पतित अथवा रखा हुआ सुवर्णादि पर द्रव्य चोरीके त्यागी पुरुषको ग्रहण नहीं करना चाहिए। यह अचौर्याणुव्रत है ॥२७॥ जो अष्टमी चतुर्दशी आदि पर्वके दिन स्त्री-सेवा और उसके संग रमणका परित्याग करता है, उसे जिनेश्वरोंने अपने प्रवचनमें स्थूल ब्रह्मचारी कहा है। यह ब्रह्मचर्याणुव्रत है ॥२८॥ जो धन, धान्य और सुवर्णादि द्रव्योंका प्रमाण किया जाता है और उससे अधिक द्रव्यमें निवृत्ति भाव रखा जाता है, वह अपरिग्रह या परिग्रह परिमाणाणुव्रत है ॥२९॥ भोजन करते समय रक्त, मांस, मदिरा, गीला चमड़ा और उसमें रखे पदार्यके देखनेपर भोजनका परित्याग कर देना चाहिये। त्यागी हुई वस्तुके सेवन करनेपर और बहुत प्राणियोंसे मिश्रित अन्नके सेवन करनेपर भोजनका त्याग कर देवे । ऐसे अन्तरायके आनेपर दूसरी थालीमें परोसा गया भोजन भी नहीं करना चाहिये । उत्तरोत्तर बढ़नेवाली गृद्धिताके नाश करनेके लिये तथा तपको वृद्धिके लिये उक्त अतीचारोंका पालन करना चाहिये ॥३०-३१।। गुणव्रत तीन प्रकारके हैं-दिग्वत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत । जीवन-पर्यन्तके लिये दशों दिशाओंमें जाने आनेकी मर्यादाका जो प्रमाण किया जाता है, वह दिग्विरति गुणव्रत है ॥३२।। जिस देशमें व्रतके भंग होनेको सम्भावना हो, उस देशमें प्रयत्नके साथ जो गमनकी निवृत्ति की जाती है, वह देशविरति गुणवत माना गया है ।।३३।। कूट मान-तुलाका व्यवहार करना, पाश आदि शस्त्रोंका और विष आदि जहरीले पदार्थों को बेचना तथा क र हिंसक पशुओंको पालना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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