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गुणभूषण-श्रावकाचार भोगस्य चोपभोगस्य संख्यानं पात्रसक्रिया। सल्लेषणेति शिक्षाख्यं व्रतमुक्तं चतुर्विधम् ॥३५' यः सकृद् भुज्यते भोगस्ताम्बूलकुसुमादिकम् । तस्य या क्रियते संख्या भोगसंख्यानमुच्यते ॥३६ उपभोगो मुहुर्भोग्यो वस्त्रस्त्र्याभरणादिकः । या यथाशक्तितः संख्या सोपभोगप्रमोच्यते ॥३७ स्वस्य पुण्यार्थमन्यस्य रत्नत्रयसमृद्धये । यद्दीयतेऽत्र तद्दानं तत्र पञ्चाधिकारकम् ॥३८ पात्रं दाता दानविधिदेयं दानफलं तथा । अधिकारा भवन्त्येते दाने पश्च यथाक्रमम् ॥३९ पात्रं त्रियोत्तमं चैतामध्यमं च जघन्यकम् । सर्वसंयमसंयुक्तः साधुः स्यात्पात्रमुत्तमम् ॥४० एकादशप्रकारोऽसौ गृही पात्रमनुतमम् । विरत्या रहितं सम्यग्दृष्टिपात्रं जघन्यकम् ॥४१ तपःशीलवतैर्युक्तः कुदृष्टिः स्यात्कुपात्रकम् । अपात्रं व्रतसम्यक्त्वतपःशीलविजितम् ।।४२ श्रद्धा भक्तिश्च विज्ञानं तुष्टिः शक्तिरलुब्धता। क्षमा च यत्र सप्तैते गुणा दाता प्रशस्यते ॥४३ स्थापनोच्चासनपाद्यपूजाप्रणमनैस्तथा। मनोवाक्कायशद्धयाऽन्नशद्धो दानविधिः स्मतः॥४४ आहाराभयभैषज्यशास्त्रैर्देयं चतुर्विधम् । खाद्यपेयाशनस्वााराहारः स्याच्चतुर्विधः॥४५ आहाराद् भोगवान् वीरोऽभयदानाच्च भेषजात् । नोरोगी शास्त्रदानाच्च भवेत्केवलबोधवान् ॥४६ यथोप्तमुत्तमे क्षेत्रे फलेबीजमनेकधा । तथा सत्पात्रनिक्षिप्तं फलेद्दानमनेकधा ॥४७ इस प्रकारके अनर्थ करनेवाले कार्योंका त्याग करना सो अनर्थ दण्ड-विरतिनामका तीसरा गुणव्रत है ॥३४|| भोग संख्यान, उपभोगसंख्यान, पात्र-सत्कार और सल्लेखना नामक चार प्रकारका शिक्षाव्रत कहा गया है ॥३५।। जो ताम्बूल, पुष्प आदि पदार्थ एक बार भोगे जाते हैं, वे भोग कहलाते हैं, उनके सेवनकी संख्याका नियम लेना भोगसंख्यान शिक्षाव्रत कहा जाता है ॥३६॥ जो वस्त्र, स्त्री और आभूषण आदिक पदार्थ बार-बार भोगे जाते हैं, वे उपभोग कहलाते हैं। उनकी यथाशक्ति संख्याका प्रमाण करनेको उपभोगसंख्यान शिक्षाव्रत कहते हैं ॥३७॥ अपने पुण्यके लिये और अन्य पात्रके रत्नत्रयकी वृद्धिके लिये जो दिया जाता है, वह दान कहलाता है। इस दानमें पाँच अधिकार जाननेके योग्य हैं ॥३८॥ पात्र, दाता, दानविधि, देय और दानका फल ये यथाक्रम से दानमें पांच अधिकार होते हैं ||३९।। अब इनमेंसे पहले पात्रका वर्णन करते हैं-दान देनेके योग्य पुरुषको पात्र कहते हैं। वह पात्र तीन प्रकारका होता है-उत्तम, मध्यम और जघन्य । सम्पूर्ण संयमसे युक्त साधु उत्तम पात्र है ॥४०॥ ग्यारह प्रकारको प्रतिमाओंका धारक गृहस्थ श्रावक अनुत्तम (मध्यम) पात्र है। और विरतिसे रहित अविरत सम्यग्दष्टि जीव जघन्य पात्र है ॥४१॥ तप, शील और व्रतसे युक्त मिथ्यादृष्टि पुरुष कुपात्र है और व्रत, सम्यक्त्व, तप एवं शीलसे रहित पुरुष अपात्र है ।।४२।। अब दाताका स्वरूप कहते हैं-श्रद्धा, भक्ति, विज्ञान, सन्तोष, शक्ति, अलुब्धता और क्षमा ये सात गुण जिस पुरुषमें होते हैं, वह दाता प्रशंसनीय कहा गया है ॥४३॥ अब दानकी विधि कहते हैं-पात्रको पडिगाहना, ऊँचे स्थानपर बैठाना, पाद धोना, पूजा करना, प्रणाम करना, मनःशुद्धि, वचनशुद्धि और काय शुद्धिके साथ अन्नका शुद्ध होना यह दानको विधि मानी गई है ॥४४॥ अब दान देनेके योग्य देय वस्तुका कथन करते हैं-देय पदार्थ चार प्रकारका है-आहार, अभय, भैषज्य और शास्त्र । इनमेंसे आहार खाद्य, पेय, अशन और स्वाद्यके भेदसे चार प्रकारका है ॥४५॥
अब दानका फल कहते हैं-आहारदानसे मनुष्य भोगवान् होता है, अभयदानसे वीर होता है, भैषज्यदानसे नीरोग होता है और शास्त्रदानसे केवलज्ञान वाला होता है ॥४६॥ जिस प्रकार उत्तम क्षेत्रमें बोया गया बीज भारी फलता है, उसी प्रकार उत्तम पात्र में दिया गया दान
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