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गुणभूषण-प्रावकाचार भयकम्पसमाक्रान्तं प्राणिवर्गनिरागसम् । विलोक्य कोऽनुकम्पावान् खेटं दुर्गतिवं भजेत् ॥१२ यहत्तेऽत्र सदा भीति हस्ताद्यवयवच्छिदम् । दुःखं परत्र दुर्वायं तच्चौरं मतिमान् त्यजेत् ॥१३ परस्त्रीसङ्गतेरस्यासौभाग्यं किमिवोच्यते । सत्यां यस्यां भवत्येव पुमान् दुर्गतिवल्लभः ॥१४ पण्डोः सुता यदोः पुत्रा वकाख्यश्चारुदत्तकः । ब्रह्मदत्तः शिवभूतिर्दशास्यप्रमुखा नराः ॥१५ एते प्राप्ता महादुःखं एकैकव्यसनादतः । सेवते यस्त्वशेषाणि स स्यादुःखैकभाजनम् ॥१६ विशोध्याद्यात्फलसिम्बि द्विदलमुम्बरव्रतम् । त्यजेत्स्नेहाम्बु चर्मस्थं व्यापन्नान्नं पलवती ॥१७ काञ्जिकं पुष्पितमपि दधि तर्क द्वयहोषितम् । सन्धानकं नवनीतं त्यजेन्नित्यं मधुव्रती ॥१८ रात्रिभुक्तिपरित्यागो गालिताम्बुनिषेवणम् । कार्य मांसाशनत्यागकारिणा न स चान्यथा ॥१९
दिनान्ते यः द्विषन्नास्ते कुन्थ्वाविप्राणिनां गणाः ।
भोज्यं भूतादि भुङ्क्ते:च नक्तंभुक्ति ततस्त्यजे ॥२० सम्मूच्छंति मुहूर्तेन गालितं च जलं यतः । सत्सर्वत्र श्रुतेनैव नामपानादिकं त्यजेत् ॥२१ पञ्चधाऽणुवतं यस्य त्रिविधं च गुणवतम् । शिक्षावतं चतुर्धा स्यात्स भवेद् वतिको यतिः ॥२२
द्वार हैं। अतः उनका सेवन नहीं करना चाहिए ।।११।। जो प्राणीवर्ग भय-भीत है अर्थात् भयसे अत्यन्त व्याप्त है और निरपराधी है, ऐसे दीन प्राणियोंको देखकरके कौन दयावान् मनुष्य दुर्गतिको देनेवाले आखेट (शिकार) को करेगा ॥१२॥ जो चोरी मनुष्यको इस लोकमें सदा भयभीत रखती है, शरीरके हाथ आदि अंगोंको कटवाती है और परलोकमें दुनिवार दुःखोंको देती है, ऐसी चोरीका बुद्धिमानोंको त्याग ही करना चाहिए ॥१३॥ परायी स्त्रीकी संगतिको, मनुष्यका इससे अधिक और दुर्भाग्य क्या कहा जाय कि जिसके सम्पर्क होने पर मनुष्य दुर्गतियोंका वल्लभ हो जाता है ॥१४॥ देखो-जूआ खेलनेसे पण्डुराजाके पुत्र पाण्डव महान् दुःखोंको प्राप्त हुए, मद्यपानसे यदुराजके पुत्र यादव नष्ट हुए, मांस-भक्षणसे बकराजा मारा गया, वेश्या सेवनसे चारुदत्त सेठकी दुर्गति हुई, आखेटसे ब्रह्मदत्तने महा दुःख पाया, चोरीसे शिवभूति ब्राह्मण दुर्गतिको गया और परस्त्री-हरणसे रावण मारा गया। जब ऐसे ऐसे प्रमुख पुरुष एक एक व्यसनके सेवनसे महादुःखको प्राप्त हुए, तो जो पुरुष समस्त ही व्यसनोंको सेवन करेगा, वह तो नियमसे हो दुःखोंका पात्र होवेगा ॥१५-१६॥ पञ्चउदुम्बर खानेका त्यागी श्रावक फलोंको और सेम भिण्डी आदि शाकोंको दो दल करके और शोध करके खावे । मांस खानेका त्यागी चमड़ेमें रखे हुए घी, तेल और पानीका तथा चलित रसवाले अन्नका त्याग करे ॥१७।। मधु खानेका त्यागी कांजीको, अंकुरित अन्नको, दो दिनके वासे छांछ दहीको, अचार-मुरब्बेको और मक्खनको सदा ही त्याग करे ॥१८॥ मांस खानेके त्यागी पुरुषको रात्रिमें भोजन करनेका त्याग करना चाहिए और वस्त्र-गालित जलका सेवन करना चाहिए। अन्यथा वह मांसका त्यागी नहीं है ।।१९।। रात्रिमें कुन्थु आदि प्राणियोंके समूह दृष्टिगोचर नहीं होते, तथा भोजनके योग्य वस्तुको भूत-प्रेतादि खाते हैं, अतः वह उच्छिष्ट हो जाती है, इसलिए रात्रिभुक्तिका त्याग ही करना चाहिए ॥२०॥ वस्त्रसे गाला हुआ भी जल एक मुहूर्त्तके पश्चात् सम्मूर्च्छन जीवोंसे व्याप्त हो जाता है, अतः मर्यादाके बाहिरका जल न पीवे । गालितशेष जल (जिवानी) को जहाँ कहीं सर्वत्र न छोड़े, किन्तु जिस स्थानसे जल लाया गया है, वहाँ पर ही छोड़े ॥२१॥ इस प्रकार पहली दार्शनिक श्रावक-प्रतिमाका वर्णन किया।
अब दूसरी व्रत प्रतिमाका स्वरूप वर्णन करते हैं-जिस पुरुषके पांच प्रकारके अणुव्रत, तीन Jain Education national
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