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गुणभूषण - श्रावकाचार
सामायिकं भजन्नेवं नित्यं सामायिकोऽञ्जसा । नरोरगसुराधीशैर्भवेद् वन्द्यः पदद्वयम् ॥६० मासे चत्वारि पर्वाणि प्रोषधाख्यानि तानि च । यत्तत्रोपोषणं प्रोषधोपवासस्तदुच्यते ॥ ६१ उत्तमो मध्यमश्चैव जघन्यश्चेति स त्रिधा । यथाशक्तिविधातव्यो कर्मनिर्मूलनक्षमः ॥६२ सप्तम्यां च त्रयोदश्यां जिनाच पात्रसत्क्रियाम् । विधाय विधिवच्चैकभुक्तं शुद्धवपुस्ततः ॥६३ गुर्वादिसन्निधिं गत्वा चतुराहार वर्जनम् । स्वीकृत्य निखिलां रात्रि नयेत्सत्कथानकैः ॥ ३४ प्रातः पुनः शुचीभूय निर्माप्याऽऽप्तादिपूजनम् । सोत्साहस्तदहोरात्रं सद्-ध्यानाध्ययनैर्नयेत् ॥६५ तत्पारणाह्नि निर्माय जिनाच पात्रसत्क्रियाम् । स्वयं वा चैकभक्तं यः कुर्यात्तस्योत्तमो हि सः ॥ ६६मध्यमोsपि भवेदेवं स त्रिधाऽऽहारवर्जनम् । जलं मुक्त्वा जघन्यस्त्वेकभक्तादिरनेकधा ॥६७ स्नानमुद्वर्तनं गन्धं माल्यं चैव विलेपनम् । यच्चान्यद्रा गहेतुः स्याद्वज्यं तत्प्रोषधोऽखिलम् ॥६८ प्रोषधाद्युवासं यः कुर्वीत विधिना पुनः । स भवेत्परमस्थानं पञ्चकल्याणसम्पदाम् ॥६९ मूलं फलं च शाकादि पुष्पं बीजं करीरकम् । अप्रासुकं त्यजेनीरं सचित्तविरतो गृही ॥७० स दिवाब्रह्मचारी यो दिवास्त्रीसङ्गमं त्यजेत् । स सदा ब्रह्मचारी यः स्त्रीसङ्गं नवधा त्यजेत् ॥७१ सस्यादारम्भविरतो विरमेद्यो ऽखिलादपि । पापहेतोः सदाऽऽरम्भात्सेवाकृष्यादिकान्मुदा ॥७२
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करे । इस प्रकार जो नित्य नियमसे सामायिकको करता है, वह सामायिकप्रतिमाधारी श्रावक है । उसके दोनों चरण नरेश, नागेश और सुराधीशोंसे वन्दनीय होते हैं ॥५७-६० ॥ चौथी प्रोषधप्रतिमाका वर्णन करते हैं - एक मासमें दो अष्टमी और दो चतुर्दशी ये चार पर्व होते हैं, जिन्हें प्रोषध कहा जाता है । इस प्रोषध पर्वके दिन जो उपवास किया जाता है, वह प्रोषधोपवास कहा जाता है ||६१|| यह प्रोषधोपवास तीन प्रकारका होता है—उत्तम, मध्यम और जघन्य । कर्मक निर्मूल नाश करनेमें समर्थ यह प्रोषधोपवास यथाशक्ति करना चाहिए || ६२॥ उसकी विधि इस प्रकार है - सप्तमी और त्रयोदशीके दिन जिन-पूजन करके और पात्र दान देकर पुन स्वयं विधि पूर्वक एकाशन करके शुद्ध शरीर होकर; गुरु आदिके समीप जाकर, और चारों प्रकारके आहारका त्याग करके उपवासको स्वीकार सम्पूर्ण रात्रिको उत्तम कथानक कहते सुनते हुए बितावे ॥६३-६४॥ पुनः प्रातः काल पवित्र होकर देव शास्त्र आदिका पूजन करके उत्साहके साथ उत्तम ध्यान और अध्ययन करते हुए उस दिन और रात्रिको बितावे || ६५ || पुनः पारणाके दिन प्रातःकाल जिनपूजन करके और पात्रको सत्कारपूर्वक आहार दान देकर जो स्वयं एकाशन करता है, उसके यह उत्तम प्रोषधोपवास जानना चाहिए ||६६ || मध्यम प्रोषधोपवास भी इसी प्रकारका होता है, केवल उसमें पर्व के दिन जलको छोड़कर शेष तीन प्रकारके आहारका त्याग किया जाता है । जघन्य प्रोषधोपवास पर्व के दिन एकाशन, नीरस भोजन आदिके रूपमें अनेक प्रकारका है । शेष पूर्व विधि पूर्वोक्त करता है || ६७ ॥ | प्रोषधोपवासके दिन स्नान, उबटन, गन्ध, माल्य-धारण, विलेपन तथा अन्य जितने भी रागके हेतु हैं, उन सबका त्याग करना चाहिए || ६८ || इस प्रकार जो विधिसे प्रोषधोपवासको करता है, वह पञ्च कल्याणकोंकी सम्पदाका परम स्थान प्राप्त करता है || ६९॥ पाँचवीं सचित्त त्याग प्रतिमाका स्वरूप – जो अप्रासुक (सचित्त) मूल, फल, शाक, आदि तथा पुष्प, बीज, कैर आदिको और अप्रासुक जलको ग्रहण करनेका त्याग करता है, वह सचित्त विरत श्रावक है ||७०|| जो दिनमें स्त्री संगका त्याग करता है, वह छठी प्रतिमाका धारक दिवा ब्रह्मचारी श्रावक है । जो स्त्रीका संगम नव कोटिसे त्याग करता है वह सदा ब्रह्मचारी पुरुष सातवीं प्रतिमाका धारक है || ७१|| जो पापके कारणभूत सेवा, कृषि, वाणिज्य आदि सर्व प्रकारके आरम्भ ry.org