Book Title: Shravakachar Sangraha Part 2
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 489
________________ ४५६ श्रावकाचार-संग्रह भाचाम्लं निर्विकृत्यैकभक्तषष्ठाष्टमादिकम् । ययाशक्तिश्च क्रियते कायक्लेशः स उच्यते ॥ १०० कायक्लेशाद्भवत्येव जीवः शुद्धतमोऽञ्जसा । कालिकाकिट्टसन्मिश्रं स्वर्ण वा वह्निसङ्गमात् ॥ १०१ कृत्वा कर्मक्षयं प्राप्य पूजामिन्द्रादिनिर्मिताम् । अनन्तज्ञानदृग्वीर्यसुखं मोक्षं प्रयात्यसौ ॥ १०२ गुरुणामपि पञ्चानां या यथाभक्ति-शक्तितः । क्रियतेऽनेकधा पूजा सोऽर्चनाविधिरुच्यते ॥ १०३ स नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालाच्च भावतः । षोढार्चाविधिरुद्दिष्टो विधेयो देशसंयतैः ॥ १०४ नामोच्चारोऽहंदादीनां प्रवेशे परितः शुचौ । यः पुष्पाक्षतनिक्षेपः क्रियते नामपूजनम् ॥१०५ सद्भावेतरभेवेन स्थापना द्विविधा मता । सद्भावस्थापना भावे साकारे गुणरोपणम् ॥१०६ उत्पलादो निराकारे शुचौ सङ्कल्पपूर्वकम् । स्थापनं यदसद्भावः स्थापनेति तदुच्यते ॥ १०७ हुण्डावसर्पिणीकाले द्वितीया स्थापना बुधैः । न कर्तव्या यतो लोके समूढे संशयो भवेत् ॥ १०८ निर्माणकेन्द्र प्रतिमाप्रतिष्ठा लक्ष्म तत्फलम् । अधिकाराश्च पञ्चैते सद्भावस्थापने स्मृताः ॥१०९ लक्ष्म निर्मापकादीनां प्रतिष्ठाशास्त्रतोऽखिलम् । ज्ञातव्यं तत्फलं किञ्चित्तदग्रे कथयिष्यति ॥ ११० जलगन्धादिकैद्रव्यैः पूजनं द्रव्यपूजनम् । द्रव्यस्याप्यथवा 'पूजा सा तु द्रव्याचंना मता ॥ १११ 1 1 सदा वैयावृत्य करना चाहिए ||१९|| अब कायक्लेशका वर्णन करते हैं- जो श्रावक अपनी शक्तिके 'अनुसार आचाम्ल, निर्विकृति, एकाशन और वेला, तेला आदि उपवासको करता है, वह कायक्लेश कहा जाता है || १००|| (घी आदिके छौंकसे रहित इमली आदिके पानीके साथ भात आदि खानेको आचाम्ल कहते हैं और सर्व प्रकारके रसोंसे रहित नीरस भोजन करनेको निर्विकृति भोजन कहते हैं ।) कायक्लेश करने से जीव नियमसे अत्यन्त शुद्ध हो जाता है। जैसे कि अग्निके संगमसे कालिकाकीटसे मिला हुआ सुवर्ण बिलकुल शुद्ध हो जाता है ॥१०१॥ कायक्लेश करनेवाला पुरुष कर्मोंका क्षय करके और इन्द्रादिके द्वारा की जानेवाली पूजाको प्राप्त करके अनन्तज्ञान दर्शन वीर्य और सुखवाले मोक्षको जाता है (इसलिए श्रावकको यथाशक्ति कायक्लेश तप करते रहना चाहिए ) ||१०२ || अब पूजाका वर्णन करते हैं- पाँचों ही परम गुरुओंकी जो अपनी भक्ति और शक्ति के अनुसार अनेक प्रकारसे पूजन-अर्चन किया जाता है, वह अर्चनाविधि कहलाती है ॥१०३॥ आचार्योंने वह अर्चनाविधि नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षासे छह प्रकारकी कही है, उसे देशसंयत श्रावकों को करना चाहिए || १०४ || सर्व ओरसे पवित्र स्थानपर अरहन्त आदि परमेष्ठियोंका नाम उच्चारण करते हुए जो पुष्प अक्षत आदिका क्षेपण किया जाता है, वह नामपूजन है || १०५ || सद्भाव (तदाकार) असद्भाव (अतदाकार) के भेदसे स्थापना दो प्रकारकी मानी गई है। आकारवाले पदार्थ में पूज्य पुरुषके गुणोंका आरोपण करना सद्भावस्थापना है ॥ १०६ ॥ निराकार पवित्र कमल आदिमें संकल्पपूर्वक जो पूज्य पुरुषको स्थापना की जाती है, वह असद्भाव स्थापना कहलाती है ॥१०७॥ इस हुण्डासर्पिणीकालमें ज्ञानियोंको यह दूसरी अद्भावस्थापना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इसके करनेसे मूढ़ लोगोंमें संशय हो सकता है । अर्थात् अज्ञानीजन यह समझेंगे कि ये कमल पुष्पादि ही पूजने के योग्य हैं, और फिर इस भ्रमसे मिथ्यात्वका प्रचार बढ़ेगा ॥१०८॥ सद्भावस्थापनामें निर्मापक, इन्द्र, प्रतिमा और प्रतिमाका लक्षण तथा प्रतिष्ठाका फल ये पाँच अधिकार माने गये हैं || १०९ || निर्मापक आदिके लक्षण और अन्य समस्त ज्ञातव्य बातें प्रतिष्ठाशास्त्रसे जाननी चाहिए। प्रतिष्ठाका कुछ फल आगे कहा जायगा || १९० || जल- गन्धादिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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