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गुणभूषण-श्रावकाचार
पञ्चप्रकारचारित्रधारकाणां मुनीशिनाम् । सन्माननं भवेद्यस्तु चारित्रविनयो हि सः ॥८६ विहाय कल्पनां बालो वृद्धो वेति तपस्विनाम् । यत्स्यादुपासनं शश्वत्तपसो विनयो हि सः ॥८७ मनोवाक्कायभेदेनोपचारविनयस्त्रिधा । प्रत्यक्षेतरभेदेन सोऽपि स्याद् द्विविधः पुनः ॥८८ दुर्ध्यानात्समाकृष्य शुभध्यानेन धार्यते । मानसं त्वनिशं प्रोक्तो मानसो विनयो हि सः ॥८९ वचनं हितं मितं पूज्यमनुवोचिवचोऽपि च । यद्यतिमनुवर्तेत वाचिको विनयोऽस्तु सः ॥९० गुरुस्तुतिः क्रियायुक्ता नमनोच्चासनार्पणम् । सम्मुखे गमनं चैव तथैवानुव्रजक्रिया ॥९१ अङ्गसंवाहनं योग्यप्रतीकारादिनिर्मितिः । विधीयते यतीनां यत्कायिको विनयो हि सः ॥९२ प्रत्यक्षोऽप्ययमेतस्य परोक्षस्तु विनापि वा । गुरूंस्तवाज्ञयैव स्यात्प्रवृत्तिः धर्मकर्मसु ॥९३ शशाङ्कनिर्मला कोत्तिः सौभाग्यं भाग्यमेव च । आदेयवचनत्वं च भवेद्विनयतः सताम् ॥९४ विनयेन समं किञ्चिन्नास्ति मित्रं जगत्त्रये । यस्मात्तेनैव विद्यानां रहस्यमुपलभ्यते ॥९५ विद्वेषिणोऽपि मित्रत्वं प्रयान्ति विनयाद्यतः । तस्मात्त्रेधा विधातव्यो विनयो देशसंयतैः ॥९६ बालवार्धक्य रोगादिक्लिष्टे सङ्घे चतुविधे । वैयावृत्त्यं यथाशक्ति विधेयं देशसंयतैः ॥९७ वपुस्तपो बलं शीलं गतिबुद्धिसमाधयः । निर्भयं नियमादि स्याद्वैयावृत्त्यकृतार्पणम् ॥९८ वैयावृत्त्यकृतः किञ्चिद् दुर्लभं न जगत्त्रये । विद्या कीत्तिर्यशो लक्ष्मीः धीः सौभाग्यगुणेष्वपि ॥९९
भक्ति के साथ जो निरन्तर उपासना की जाती है, वह ज्ञानविनय है ||८५|| पाँच प्रकारके चारित्रधारक मुनीश्वरोंका जो सन्मान किया जाता है, वह चारित्रविनय है ॥ ८६ ॥ यह बालक है, अथवा वृद्ध है, इस प्रकारको कल्पनाको दूर कर तपस्वियोंकी जो सदा उपासना की जाती है, वह तप विनय है ||८७|| उपचार विनय मन वचन कायके भेदसे तीन प्रकारका है । और यह तीनों ही प्रकारका उपचार विनय प्रत्यक्ष और परोक्षके भेदसे दो प्रकारका है ॥ ८८ ॥ मनको दुर्ध्यानसे खींचकर शुभध्यानमें निरन्तर लगाया जाता है वह मानस विनय कहा गया है || ८९ ॥ हित, मित, पूज्य और आगमके अनुकूल प्रियवचन बोलना, और यतिजनोंके स्तुतिरूप अनुकूल वचन प्रवृत्ति करना सो वाचिकविनय है ||१०|| गुरुजनोंकी स्तवन-क्रियामें उद्यत होना, उन्हें नमस्कार करना, उच्च आसन देना, उनको आते हुए देखकर सन्मुख जाना, उनके पीछे चलना, उनके अंगोंका दाबना, तथा इसी प्रकारके मुनिजनोंके योग्य प्रतीकार आदि करना सो यह कांयिक विनय है ||९१-९२|| गुरुजनोंके सम्मुख उक्त तीनों प्रकारका विनय करना प्रत्यक्ष विनय है । गुरुजनोंके विना भी परोक्षमें मन वचन कायसे विनय करना और उनकी आज्ञाके अनुसार ही धर्मकार्यों में प्रवृत्ति करना सो परोक्षविनय है ॥ ९३ ॥ विनयसे सज्जनोंको चन्द्रतुल्य निर्मल कीत्ति, सौभाग्य, भाग्यवानपना और आदेयवचनता प्राप्त होती है ||१४|| तीन जगत् में विनयके समान कोई अन्य मित्र नहीं है और इसी विनयके द्वारा गुरुजनोंसे विद्याओंका रहस्य प्राप्त होता है ||९५ || इस विनयसे शत्रु भी मित्रताको प्राप्त होते हैं, इसलिए देशसंयमी श्रावकोंको मन वचन कायसे विनय धारण करना चाहिए || ९६ || अब वैयावृत्त्यका वर्णन करते हैं- - चार प्रकारके संघमें बालक वृद्ध आदिके रोगादिसे क्लेशको प्राप्त होनेपर देशसंयमी श्रावकोंको यथाशक्ति वैयावृत्य करना चाहिए ॥९७॥ जो रोगादिसे ग्रस्त साधु आदिको वैयावृत्त्य करता है, वह उसे शरीर, तप, बल, शील, गति, बुद्धि, समाधि, निर्भयता और नियमादि सभी कुछ समर्पण करता है ||९८|| वैयावृत्त्य करनेवाले पुरुषके लिए तीन लोकरों किसी भी वस्तुका पाना दुर्लभ नहीं है । वैयावृत्त्य करनेवाले पुरुषको सौभाग्य गुणोंके साथ विद्या, कीर्ति, यश, लक्ष्मी और बुद्धि प्राप्त होती है। इसलिए श्रावकको
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