Book Title: Shravakachar Sangraha Part 2
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 478
________________ गुणभूषण- श्रावकाचार गुणोत्थमवधिज्ञानं नर- तिर्यक्षु जायते । भवसमुद्भूतं देव-नारकेषु जिनेष्वपि ॥१२ गुणोत्थितं देश-सर्व-परमावधितस्त्रिधा । षोढा देशावधिस्तत्र वर्धमानादिभेदतः ॥ १३ वर्धमान हीयमानोऽनवस्थः स्यादवस्थितः । अनुगाम्यननुगामी षोढा देशावधिर्मतः ॥ १४ शुक्लचन्द्रवदुत्पद्यानवस्थं समयं प्रति । वृद्धया केवलमुत्कृष्टं न नश्येत्तद्वर्धमानकम् ॥ १५ चन्द्रवत्कृष्णपक्षे स्याद् वृद्धयवस्थानवजितम् । ज्ञानं सद्धीयते सर्व नाशं तद्धीयमानकम् ॥१६ यत्सूर्यबिम्बवज्जातं वृद्धि हानिसमुज्झितम् । आकेवलमवस्थाय विनश्येत्तदवस्थितम् ॥१७ उत्पन्नं यत्कदाचित्तु होयते वर्धतेऽपि च । अवतिष्ठते कदाचिच्च तद्भवेदनवस्थितम् ॥१८ अनुगामि यदुत्पन्नं जीवेन सह गच्छति । तत्त्रेधा स्यात् क्षेत्रजन्मक्षेत्र जन्मानुगामिनः ॥ १९ क्षेत्रानुगामि यज्जातं याति क्षेत्रान्तरं समम् । भवानुगामि यज्जातं जीवेनान्यभवे व्रजेत् ॥२० क्षेत्रजन्मानुगाम्युक्तं यज्जीवेन समं व्रजेत् । नृ-देवादिभवं क्षेत्रं भरतैरावतादिकम् ॥२१ त्रेधाननुगामी क्षेत्रभवोभयानुगामिनः । क्षेत्राननुगामी क्षेत्रं नैति याति भवान्तरम् ॥२२ देशावधिर्जघन्येन नो कमदारसञ्चयम् । मध्ययोगार्जितं लोकविभक्तमधिगच्छति ॥२३ ४४५ प्रत्यक्ष दानके तीन भेद हैं--अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान । इनमें अवधिज्ञान दो प्रकारका है -- गुणोत्थित और भवोत्थित । गुणसे उत्पन्न होनेवाला अवधिज्ञान मनुष्य और तिर्यंचों में होता है और भवके साथ उत्पन्न होनेवाला अवधिज्ञान देव, नारकी और तीर्थंकर जिनराजों में होता है || ११ - १२|| गुणोत्थित या गुणप्रत्यय अवधिज्ञान तीन प्रकारका है - देशावधि, परमावधि और सर्वावधिज्ञान । इनमें देशावधिज्ञान वर्धमान आदिके भेदसे छह प्रकारका है ||१३|| वे छह भेद इस प्रकार हैं - वर्धमान, हीयमान, अनवस्थित, अवस्थित, अनुगामी और अननुगामी । इस प्रकार देशावधि छह प्रकारका माना गया है ||१४|| जो शुक्ल पक्षके चन्द्रमाके समान उत्पन्न होकर एक रूपसे अवस्थित न रहकर प्रतिसमय केवल वृद्धिके साथ उत्कृष्ट सीमा तक बढ़ता ही जाय, कभी नष्ट न हो, वह वर्धमान देशावधि है || १५ || जो कृष्णपक्षके चन्द्रमाके समान वृद्धि और अवस्थानसे रहित होकर निरन्तर सर्वनाश होने तक घटना ही जाय वह हीयमान देशावधिज्ञान है ॥ १६ ॥ जो सूर्य बिम्बके समान उत्पन्न होनेके पश्चात् वृद्धि और हानिसे रहित होकर एक रूपसे अवस्थित रहकर केवलज्ञान होने पर विनष्ट हो, वह अवस्थित देशावधिज्ञान है || १७|| जो अवधिज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात् कदाचित् घटे, कदाचित् बढ़े और कदाचित अवस्थित भी रहे, वह अनवस्थित देशावधिज्ञान है ॥१८॥ उत्पन्न हुआ जो अवधिज्ञान जीवके साथ जाता है, वह अनुगामी कहलाता है । वह तीन प्रकारका है— क्षेत्रानुगामी, जन्मानुगामी और क्षेत्र - जन्मानुगामी ॥ १९ ॥ किसी विशिष्ट क्षेत्र में उत्पन्न हुआ जो अवधिज्ञान जीवके साथ अन्य क्षेत्रमें भी जाता है वह क्षेत्रानुगामी अवधिज्ञान है । जो उत्पन्न हुआ अवधिज्ञान जीवके साथ अन्य भवमें जावे, वह भवानुगामी अवधिज्ञान है ||२०|| जो अवधिज्ञान जिस क्षेत्रमें और जिस भवमें उत्पन्न हुआ है, वह जीवके साथ मनुष्य-देवादि अन्य भव में और भरत - ऐरावतादि अन्य क्षेत्रमें जावे, वह क्षेत्र-भवानुगामी अर्थात् उभयानुगामी अवधिज्ञान है ||२१|| अननुगामी अवधिज्ञान तीन प्रकारका है - क्षेत्राननुगामी, भवाननुगामी और उभयाननुगामी । क्षेत्राननुगामी जीवके साथ अन्य क्षेत्रमें, भवाननुगामी जीवके साथ अन्य भव में और उभयाननुगामी जीवके साथ दोनों ही स्थानोंमें नहीं जाता है ||२२|| मध्यमयोग से संचित विस्रसोपचय सहित नोकर्म औदारिक वर्गणाके संचयमें लोकके प्रदेशोंका भाग देनेपर जितना द्रव्य लब्ध आता है, उतने द्रव्यको जघन्य देशावधि जानता है ||२३| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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