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दूसरा उद्देश
यत्सन्देह विपर्यासाव्यवसायसमुज्झितम् । तत्स्वार्थ व्यवसायात्मा सम्यग्ज्ञानं समुच्यते ॥ १ परोक्षाध्यक्षभेदेन तद्-द्वेधा स्याद् द्विधा पुनः । मति श्रुतादिभेदेन परोक्षज्ञानमुच्यते ॥२ इन्द्रियानिन्द्रियोद्भूतं मतिज्ञानं तु षड् विधम् । अवग्रहादिभिन्नं तु तच्चतुर्विंशतिप्रमम् ॥३ तदष्टाशीतिद्विशतीभेदं बह्वादिसद्-गुणात् । षट्त्रिंश त्रिशतीभेदं व्यञ्जनावग्रहैर्युतम् ॥४ मतिपूर्वं श्रुतं ज्ञेयं सर्वभावस्वभावकम् । केवलज्ञानवच्चास्माद् भेदोऽसाक्षात्प्रकाशनात् ॥५ विस्तारेणाङ्गपूर्वादिभेदं तच्च प्रकीर्त्यते । संक्षेपात्तु चतुर्भेदं तदेवात्र निरूप्यते ॥६ तीर्थचक्रार्धचक्रेशबलादेर्यत्कथानकम् । प्रथमः सोऽनुयोगः स्यात्तत्परीक्षात्मकश्च सः ॥७ यतीनां श्रावकाणां च यत्र धर्मो निरूप्यते । चरणानुयोगः स स्यात्तद्विचारस्वभावकः ॥८ अधोमध्योर्ध्वलोकानां संख्या नामादिवर्णनम् । क्रियते यत्र स ज्ञेयो योगः स करणात्मकः ॥९ विशुद्धशुद्ध जीवादिषद्रव्याणां निरूपणम् । यस्मिन् विधीयते द्रव्यानुयोगः स प्रकीर्तितः ॥ १० प्रत्यक्षं त्ववधिज्ञानमन:पर्ययकेवलम् । द्विधा स्यादवधिज्ञानं द्वेधागुण-भवोत्थितम् ॥११
जो ज्ञान सन्देह, विपर्यास और अनध्यवसायसे रहित और स्व-परका निश्चय करनेवाला होता है, वह सम्यग्ज्ञान कहा जाता है || १|| वह सम्यग्ज्ञान परोक्ष और प्रत्यक्षके भेदसे दो प्रकारका है । उनमें परोक्ष ज्ञान मति और श्रुतज्ञानके भेदसे दो प्रकारका कहा गया है ||२|| मतिज्ञान पाँच इन्द्रियोंसे और अनिन्द्रियसे (मनसे) उत्पन्न होने के कारण छह प्रकारका है और वह अवग्रह ईहा अवाय और धारणाके भेदसे भिन्नताको प्राप्त होकर चौबीस प्रकारका हो जाता है ||३|| पुनः वह चौबीस प्रकारका मतिज्ञान बहु, बहुविध आदि बारह प्रकारके पदार्थों को जाननेसे उनके द्वारा गुणित करने पर दो सौ अट्ठासी भेद वाला हो जाता है । (ये २८८ भेद अर्थावग्रहके हैं ।) इनमें व्यञ्जनावग्रह अड़तालीस भेद और मिलाने पर (२८८ + ४८ = ३३६) मतिज्ञानके तीन सौ छत्तीस भेद हो जाते हैं ||४|| इन सर्व मतिज्ञानके भेदोंका विस्तृत वर्णन तत्त्वार्थ सूत्रके प्रथम अध्यायकी टीकाओंसे जानना चाहिए । मतिज्ञान पूर्वक होनेवाले ज्ञानको श्रुतज्ञान जानना चाहिए। वह केवलज्ञानके समान सर्वभावस्वभावी है, अर्थात् सर्व पदार्थोंको जानता है । भेद केवल इतना ही है कि केवलज्ञान सर्वपदार्थों को साक्षात् प्रत्यक्ष रूपसे जानता है और यह श्रुतज्ञान असाक्षात् अर्थात् परोक्षरूपसे जानता है ||५|| विस्तारको अपेक्षा श्रुतज्ञान, अंग, पूर्व आदिकी अपेक्षा अनेक भेद रूप कहा गया है । किन्तु यहाँ पर संक्षेपसे चार भेदोंके रूपमें उसका निरूपण किया जाता है ||६|| तीर्थंकर, चक्रवर्ती, अर्धचक्री (नारायण-प्रतिनारायण) और बलभद्र आदि महापुरुषोंके कथानकोंको प्रथमानुयोग कहते हैं । यह प्रथमानुयोग परीक्षात्मक है, अर्थात् आदर्श पुरुषों के गुण-दोषों की परीक्षा करता है ||७|| मुनियों और श्रावकोंका आचार धर्म जिसमें निरूपण किया जाता है, वह चरणानुयोग है । यह अनुयोग मुनि श्रावकोंके आचारका विचार करता है ||८|| जिसमें अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्व लोककी संख्या, नाम, प्रमाण आदिका वर्णन किया गया है, वह करणानुयोग जानना चाहिए ||९|| जिसमें शुद्ध - अशुद्ध स्वभाववाले जीवादि षड्द्रव्योंका निरूपण किया गया है वह द्रव्यानुयोग कहा गया है ||१०|| इस प्रकार चार अनुयोगरूप श्रुतज्ञान जानना चाहिए ।
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