Book Title: Shravakachar Sangraha Part 2
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 410
________________ प्रश्नोत्तरत्रावकाचार प्रणामं नृत्यसद्गीतं सत्तूर्यादिकदम्बकम् । कृत्वा पुण्याजनं तत्र प्रकुर्वन्ति गृहेशिनः ॥१७३ चन्द्रोपकमहाघण्टाचामरध्वजदीपकान् । झल्लरोतालकंसालभृङ्गारकलशाविकान् ॥१७४ दत्वा चान्यानि साराणि धर्मोपकरणानि वै । अर्जयन्ति बुषा धर्म धर्माधारे जिनालये ॥१७५ स सङ्घाधिपति यो यः कुर्याच्छोजिनालयम् । धर्महेतुं हि सर्वस्य सङ्घस्य धर्मवर्द्धनम् ॥१७६ यथा शिल्पी जिनागारं कुर्वनूध्वं शनैव्रजेत् । तथा तत्कारको धीमान् स मोक्ष धर्मयोगतः ॥१७७ दिनकजातसत्पुण्यं चैत्यगेहकरस्य ते । अनेकभव्यसंयोगाद्वक्तुं कः स्यात्क्षमो बुधः ॥१७८ चैत्यालयं विधत्ते यः सः पूज्यश्चाखिलैजनैः । वन्दनीयो जगल्लोके भव्यपुण्योपकारतः ॥१७९ आलयं जिनदेवस्य यः कुर्याद्भक्तितत्परः । प्राप्य षोडशमे नाके राज्यं च मुक्तिमाप्नुयात् ॥१८० कारापयति यो भव्यो जिनेन्द्र भवनं शुभम् । तस्यैव जायते लक्ष्मीः सफला स्वर्गमुक्तिदा ॥१८१ करोति जिनबिम्बानि यो भव्योऽत्यन्तभक्तिमान् । नित्यपूजादिसंयोगात्तस्य पुण्यं न वेदम्यहम् १८२ सज्जिनार्चा विधत्ते यो महत्पुण्यप्रदां सदा । शक्रत्वं चक्रवतित्वं न स्यात्कस्यैव दुर्लभम् ॥१८३ पूजयन्ति बुधा यावत्कालं सत्प्रतिमां वराम् । तावत्कालं च तत्कर्ता श्रयेत्पुण्यांशमेव हि ॥१८४ यस्य गेहे जिनेन्द्रस्य बिम्ब न स्याच्छुभप्रदम् । पक्षिगृहसमं तस्य गेहं स्यादतिपापदम् ॥१८५ जिनेन्द्रदेवकी पूजा करते हैं और इस प्रकार जिनभवनसे महा पुण्य उपार्जन करते हैं ॥१७२।। गृहस्थ लोग जिनभवनमें जाकर भगवान्को प्रणाम करते हैं, नृत्य, स्तुति करते हैं, उत्तम बाजे बजाते हैं और इस प्रकारके अनेक कामोंसे महापुण्य उपार्जन करते हैं ॥१७३॥ विद्वान् लोग धर्मके आधारभूत जिनभवनमें चन्दोवा, घण्टा, चमर, दीपक, झल्लरी, ताल, कंसाल, भृङ्गार, कलश आदि उत्तम उत्तम धर्मोपकरण देकर महापुण्य सम्पादन करते हैं ॥१७४१७५।। जो गृहस्थ धर्मके कारणभूत श्री जिनभवनको बनवाता है वह समस्त संघके धर्मकी वृद्धिका कारण होता है इसलिये वह संघाधिपति (संघका स्वामी) कहलाता है ॥१७६।। जिस प्रकार जिनभवनको बनाता हुआ कारीगर धीरे धीरे ऊपरको चढ़ता जाता है उसी प्रकार उस जिनभवनको बनवानेवाला बुद्धिमान् गृहस्थ भी धर्मके निमित्तसे मोक्षमें जा विराजमान होता है ॥१७७॥ जिनभवन बनवानेवालेको उस भवनमें अनेक भव्योंके द्वारा होनेवाली पूजा आदिके सम्बन्धसे जो एक दिनमें पुण्य होता है उसको भी कोई विद्वान् कह नहीं सकता ॥१७॥ जो पुरुष चैत्यालय वा जिनभवन बनवाता है वह अनेक भव्य जीवोंको पुण्य उपार्जन करने रूप उपकारको करता है इसलिये वह सब लोगोंके द्वारा पूज्य होता है और समस्त लोकमें वन्दनीय गिना जाता है ॥१७९।। जो पुरुष भक्तिमें तत्पर होकर जिनभवन बनवाता है वह सोलहवें स्वर्गके सुख भोगकर मोक्षका राज्य प्राप्त करता है ॥१८०।। जो भव्य पुण्य उत्पन्न करनेवाले जिनभवनको बनवाता है उसीकी लक्ष्मी सफल और स्वर्ग मोक्ष देनेवाली होती है ॥१८१।। श्री जिनेन्द्रदेवका भक्त जो भव्य पुरुष जिनबिम्बोंका निर्माण कराता है वह नित्यपूजा आदिके सम्बन्धसे अपरिमित पुण्यको प्राप्त करता है, उसके पुण्यको कोई जान भी नहीं सकता ॥१८२।। जो पुरुष महा पुण्यको देनेवाली भगवान्की पूजा प्रतिदिन करते हैं उनके लिये इन्द्रपद अथवा चक्रवर्तीका पद कुछ कठिन नहीं है ॥१८३।। विद्वान् लोग जबतक उस प्रतिमाकी पूजा करते रहते हैं तबतक उसके निर्माण करनेवाले कर्ताको पुण्यकी प्राप्ति होती रहती है ।।१८४॥ जिसके घरमें पुण्य उपार्जन करनेवाली भगवान् जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा नहीं है उसका घर पक्षियोंके घोंसलेके समान है और वह अत्यन्त पाप उत्पन्न करने ४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534