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श्रावकाचार-संग्रह
न कीर्तिपूजाविलाभलोभात्कृतः कवित्वाद्यभिमानतो न । ग्रन्थो यमत्रैव हिताय स्वस्य परोपकाराय मया विशुद्धये ॥ १४३ अक्षारस्वरसुसन्धिपदादि- मात्रया रहितमुक्तमपीह ।
ज्ञानहीनं त एव प्रमादतस्तत्क्षमध्वमृषिनायका हि मे ॥ १४४ शून्याष्टाष्टद्वयाङ्कादयः संख्यया मुनिनोदितः । नन्दते चावनौ ग्रन्थो यावत्कालान्तमेव हि ॥ १४५
इति श्रीभट्टारक सकलकीर्तिविरचिते प्रश्नोत्तरोपासकाचारे अनुमतित्यागउद्दिष्टत्यागप्रतिमानिरूपको नाम चतुर्विंशतितमः परिच्छेदः ||२४||
न किसी लाभ लोभसे बनाया है और न अपने कवि होनेके अभिमानसे बनाया है, किन्तु इस संसार में अपना कल्याण करने के लिए तथा दूसरोंका कल्याण करनेके लिए और अपने आत्माको शुद्ध करनेके लिए (परलोक सुधारनेके लिए) ही मैंने यह ग्रन्थ बनाया है || १४३ || अपने अज्ञानके कारण अथवा प्रमादके कारण इसमें अक्षर स्वर सन्धि पद मात्रा आदि जो कुछ कम हो वह सब ज्ञानी मुनिराजोंको क्षमा कर देना चाहिये || १४४ || इस ग्रन्थकी संख्या मुनिराजोंने दो हजार आठ सौ अस्सी (२८८० श्लोक) बतलाई है । ऐसा यह ग्रन्थ इस पृथ्वी पर जब तक समय रहे तब तक वृद्धिको प्राप्त होता रहे ॥ १४५ ॥
इस प्रकार भट्टारक श्रीसकलकीर्ति विरचित प्रश्नोत्तरश्रावकाचारमें अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग नामकी उत्तम प्रतिमाओंको निरूपण करनेवाला यह चौबीसवां परिच्छेद समाप्त हुआ || २४॥
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